Monday, November 25, 2019

सफलता का पैमाना नहीं होती सुंदरता!

- हेमंत पाल

  हिन्दी फिल्मों के बारे में एक आमधारणा है कि यहां नायिकाओं की अदाकारी उनके अभिनय प्रतिभा से ज्यादा उनकी खूबसूरती से चलती है। जीनत अमान और कैटरीना कैफ जैसी अभिनेत्रियों के मामले में यह बात कुछ हद तक सही लगती है। लेकिन, यह जरूरी नहीं कि केवल सुंदरता ही किसी नायिका की सफलता का पैमाना माना जाए। देश में जब से फिल्म निर्माण शुरू हुआ, तब से अभी तक कई ऐसी नायिकाएं हुई हैं, जिनके चेहरे से खूबसूरती तो खूब टपकती थी, किंतु इनकी फिल्मों से बाॅक्स ऑफिस पर धनवर्षा नहीं हुई! नतीजा ये हुआ कि कुछ समय बाद ये अपनी खूबसूरती समेटकर घर लौट गई।
    गुजरे जमाने में शकीला के नयन नख्श इतने तीखे थे कि दर्शक उनकी अदाओं पर फिदा थे। लेकिन, दो-चार फिल्मों को छोड़ दिया जाए, तो वे अपने पूरे करियर में दूसरे या तीसरे दर्जे की फिल्मों तक ही सीमित रही। निम्मी की एंट्री भी धमाके से हुई हुई, पर वे भी फिल्मों में साइड हीरोइन बनकर रह गई। सबसे दर्दनाक हादसा तो 'हमराज' की नायिका विम्मी के साथ हुआ। जिस समय उनकी फिल्म 'हमराज' प्रदर्शित हुई, फिल्मी पंडितों ने उसे फिल्म इंडस्ट्री की सबसे सुंदर हीरोइन घोषित कर उसकी सफलता की भविष्यवाणी कर दी। लेकिन, उसके बाद उनकी एक भी फिल्म ऐसी नहीं आई, जिसे याद किया जाए। विम्मी का अंत भी बहुत दर्दनाक रहा। अंतिम समय उनके मृत शरीर को हाथ ठेले पर डालकर अंतिम संस्कार के लिए ले जाया गया था।
  लड़कियाँ हीरोइन बनने का सपना लेकर फिल्म इंड्रस्ट्री में कदम रखती हैं, पर एक-दो फ़िल्में करने के बाद सफल न होने पर वापस लौट जाती हैं या शादी करके अपना घर बसा लेती हैं। इस इंडस्ट्री में वैसे भी नायिका का करियर बहुत छोटा माना जाता है। ऐसी अभिनेत्रियां बहुत कम है, जो बहुत लंबे समय तक काम कर पाईं! कुछ अभिनेत्रियां ऐसी भी हैं, जो एक या दो फिल्मों में काम करने के बाद सफल न होने पर अभिनय से संन्यास लेकर घर बैठ गईं! खूबसूरती के मामले में टिस्का चोपड़ा बड़ी-बड़ी अभिनेत्रियों को टक्कर देती है। लेकिन, इनका फिल्मी करियर बहुत ही साधारण रहा। टिस्का बॉलीवुड में बहुत लंबे समय से काम कर रही हैं, पर आमिर खान की फिल्म 'तारे जमीं पर' में काम करने के बाद इन्हें एक नई पहचान मिली। इस फिल्म में टिस्का ने बाल कलाकार ईशान अवस्थी की मां का किरदार निभाया था। टिस्का ने 'प्लेटफार्म' से अपने फिल्म करियर की शुरुआत की थी। इसके बाद वे अनिल कपूर के साथ एक टीवी सीरियल में भी नजर आई। फिर भी फिल्मों में उनकी बात नहीं बनी।
    हुमा कुरैशी भी कद काठी और खूबसूरती में कम नहीं है। कई लोग इस अभिनेत्री की सुंदरता के दीवाने हैं। लेकिन, हुमा कुरैशी को पहचान अनुराग कश्यप की हिट फिल्म 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' के बाद मिली! इसके बाद हुमा ने बहुत सारी फिल्मों और प्राइवेट एल्बम में भी काम किया! पर, हुमा को आज भी स्टारडम वाला मुकाम नहीं मिल सका! 'बदलापुर' में अच्छे अभिनय और फिल्म की सफलता के बाद भी हुमा सच्ची सफलता पाने के लिए अभी संघर्ष कर रही हैं। 'एयर लिफ्ट' में मुख्य भूमिका निभाने वाली निमृत कौर की खूबसूरती आज भी कायम है। लेकिन, फिल्म की सफलता भी निमृत के फिल्म करियर को लिफ्ट कराने में कामयाब नहीं रहीं। निमृत को बहुत ही कम फिल्मों में काम किया है। इसलिए वे फ्लॉप अभिनेत्री की लिस्ट में शामिल हो कर अपनी पहचान खोने लगीं! बॉलीवुड की भोली पंजाबन ऋचा फिल्म इंडस्ट्री में नायिका बनने आई थी! पर, उनकी अप्रभावी अदाकारी की वजह से उन्हें हमेशा ही फिल्मों में साइड रोल मिले। वैसे फिल्म 'फुकरे' के हिट होने के बाद ऋचा कुछ दिनों तक सुर्खियों में रही थी. पर बतौर अभिनेत्री उनका करियर कुछ खास नहीं रहा।
   माही गिल भी बहुत ही खूबसूरत है! पर, खूबसूरत होने के बावजूद माही का करियर कुछ खास नहीं रहा। फिल्मों में सफलता न मिलने के कारण माही ने बहुत जल्द ही बॉलीवुड से संन्यास ले लिया। मंदाकिनी जैसी कुछ अभिनेत्रियों को पहली फिल्म से ही स्टार का दर्जा मिल गया! लेकिन, वे इसे आगे कामयाब नहीं रख पाई। ऐसी ही कुछ कहानी सुभाष घई की फिल्म 'परदेस' की नायिका महिमा चौधरी और उन्हीं कि फिल्म 'सौदागर' की नायिका मनीषा कोइराला की भी है। इनकी सफलता कुछ ही फिल्मों तक सीमित रहीं और उनकी खूबसूरती उन्हें इंडस्ट्री में स्थायी ठिकाना नहीं दिला पाई।
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Sunday, November 17, 2019

परदे पर डाॅक्टर और मरीज के रिश्ते!

- हेमंत पाल

   सिनेमा ने परदे पर कहानियों में चरित्रों को गढ़ा जाता है! ऐसे चरित्रों में डॉक्टर्स के चरित्र भी हैं, जिन्हें लेकर कई फिल्मों की कहानियां रची गईं! कई फिल्मों के तो केंद्रीय पात्र ही डॉक्टर्स रहे, जिसे दर्शको ने काफी पसंद भी किया। सिनेमा में डॅाक्टरों से संबंधित फिल्में ही नहीं बनी, कुछ डॉक्टर्स ने फिल्मों में अभिनय भी किया है। इनमें एसडी नारंग सफल निर्देशक बने। डाॅ श्रीराम लागू ने डॉक्टर होते हुए चरित्र अभिनेता की भूमिकाएं निभाई। मनोज कुमार, अशोक कुमार और ओपी नैयर भी होम्योपैथी से लोगों का उपचार करते थे। 
   डॉक्टर्स की जिंदगी पर बनने वाली पहली फिल्म थी वी.शांताराम की 'डाॅक्टर कोटनिस की अमर कहानी।' इसमें डाॅक्टर की पेशे के प्रति लगन और देशभक्ति को दिखाया गया था। खुद वी. शांताराम ने इस फिल्म में डाॅ कोटनिस की भूमिका निभाई थी। ये ऐसे डॉक्टर की कहानी थी, जो प्लेग जैसी महामारी से लोगों को बचाने के लिए चीन जाता है वहीं सेवा करते-करते अपना जीवन समर्पित कर देता है। तपन सिन्हा की फिल्म 'एक डाॅक्टर की मौत' में भी बताया था कि आखिर क्यों प्रतिभाशाली डॉक्टर देश से पलायन करते हैं। यह ऐसे डाॅक्टर की है, जो गंभीर रोगों की दवाइयां खोजता है! अपने काम के लिए उसे कुछ सुविधाओं की जरूरत होती है। लेकिन, उसे गांव भेज दिया जाता है जहाँ उसकी प्रतिभा कुंठित हो जाती है। जब उसकी खोज सामने आती है, तो इसका श्रेय अमेरिकी डाॅक्टरों को दिया जाता है।   
    राजकपूर और प्राण की फिल्म 'आह' भी डॉक्टर और मरीज के रिश्तों पर बनी फिल्म थी। इसमें डॉक्टर की भूमिका प्राण ने निभाई, थी। उनके लिए ये भूमिका इसलिए चुनौती भरी थी, कि तब तक वे खलनायक के रूप में स्थापित हो चुके थे। इसमें राजकपूर की भूमिका टीबी के मरीज की थी। इसी फिल्म से प्रेरित होकर ही बाद में ऋषिकेष मुखर्जी ने राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन को लेकर 'आनंद' बनाई थी। इस कालजयी फिल्म में अमिताभ ने डॉक्टर का किरदार निभाया था और राजेश खन्ना बीमार थे, जिनकी अंत में मौत हो जाती है। यह फिल्म जितनी संवेदनशील थी, उतनी ही सफल भी रही। 
     'दिल अपना और प्रीत पराई' में राजकुमार मरीज बने थे और डाॅक्टर थे राजेन्द्र कुमार, जो राजकुमार की पत्नी मीना कुमार के पूर्व प्रेमी होते हैं। मरीज डाॅक्टर और प्रेमिका के त्रिकोण पर निर्मित इस फिल्म की मजेदार बात यह थी कि इसमें कैंसर का रोगी तो बच जाता है, लेकिन डाॅक्टर मरकर पति पत्नी के बीच से हट जाता है। देव आनंद और विजय आनंद अभिनीत 'तेरे मेरे सपने' एक ऐसी फिल्म है जिसमें गांव की सेवा करने आए डाॅक्टर को दूसरे कमाऊ डाॅक्टर के लालच के कारण अपना बच्चा खोना पड़ता है और इसके बाद वह भी पैसा कमाने शहर चला जाता है। शहर का सफल डाॅक्टर विजय आनंद गांव चला आता है। चिकित्सक धर्म की दुहाई देकर विजय आनंद एक बार फिर देव आनंद को गांव वापस लाता है।
  नर्स के बिना डॉक्टर की भूमिका कभी पूरी नहीं होती! नर्स और रोगी के बीच संबंध की बात आती है, तो वहीदा रहमान और राजेश खन्ना की फिल्म 'खामोशी' को याद किया जाता है। इस में वहीदा रहमान ने पेशे के मानवीय पक्ष को खूबसूरती से निभाया था। फिल्म ने नर्सो की भावनाओं को भी अभिव्यक्त किया और बताया कि उन्हें भी प्यार करने का हक़ है। 'दिल अपना प्रीत पराई' में राजकुमार बने डाॅक्टर और मीना कुमारी उनकी प्रेमिका नर्स थी। फिल्म में डाॅक्टर की पत्नी उसे रात में मरीज की जान बचाने नहीं जाने देती! बहाना बनाकर उसे सूचना तक नहीं देती। इसके बात आए तनाव को इस फिल्म में बखूबी से प्रस्तुत किया गया था। डाॅक्टर से संबंधित चर्चित फिल्मों में 'मुन्ना भाई एमबीबीएस' भी है। राजकुमार हिरानी ने इसे मजेदार अंदाज में प्रस्तुत कर दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया। लेकिन, अभी लम्बे समय से डॉक्टर से जुड़ी कोई संवेदनशील फिल्म नजर नहीं आई! -------------------------------------------------------

Sunday, November 3, 2019

परदे पर गंदी बातों का गंदा चलन!

- हेमंत पाल 

  वैसे तो सिनेमा को समाज का आइना कहा जाता है, लेकिन अपने घरों में भी हम आइने को इस नजरिए से रखते हैं कि वह सबको दिखाई न दे, जो हम परिवार को दिखाना नहीं चाहते! बेडरूम में आइना न रखने की हिदायत का सरासर उल्लंघन करके अब फिल्मकारों ने वहां आइना ही नहीं रखा, बल्कि खिड़की के बाहर दूरबीन भी रख दी ताकि सब कुछ साफ साफ दिखाई दे। जब वर्जित दृश्यों को दिखाने से भी पेट नहीं भरा, तो अब परदे पर गंदी बातों यानी अश्लील संवादों की मिसाइलें दागी जा रहीं है। तथाकथित प्रयोगवादी फिल्मों के नाम पर यह प्रयोग कुछ ज्यादा ही हो रहे हैं, जिससे घर में परिवार के साथ बैठे दर्शक भौचक्के हैं! उन्हें पता नहीं कि कब कौनसा ऐसा संवाद उछलकर आ जाए कि परिवार के सदस्य एक दूसरे से मुंह छिपाने की कोशिशों में जुट जाएं।
  इन दिनों 'मेड इन चाइना' और 'बाला' के ट्रेलर की चर्चा है, जिसके संवाद सुनकर एक पल के लिए चेहरे पर हंसी आती है! लेकिन, दूसरे ही क्षण यह सोचकर वह हंसी गायब हो जाती है कि घर के दूसरे सदस्य पर इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी! 'बाला' का गंजा नायक जब मैथुन और हस्तमैथुन में अंतर बताता है। सिर पर गुप्तांग के बालों के प्रत्यारोपण की बात करता है। नीम हकीम बैल के वीर्य को सिर में लगाने की बात करते हैं! ये सुनकर लगता कि हम सिनेमा  हॉल में नहीं, बल्कि गालियों से भरे किसी दलदल में फंसे हैं। फिल्मों में वर्जित संवादों का यह सिलसिला बहुत ज्यादा पुराना नहीं है। पहले जब किसी को गाली देनी होती थी तो संबंधित पात्र केवल ओंठ हिला देता था! उसके बाद जब वर्जित संवाद आता तो बीप बीप की आवाज सारी बात बयां कर देती थी। उसके बाद फिल्मों में  गालियों की जगह सांकेतिक भाषा का इस्तेमाल आरंभ हुआ! लेकिन, आज का सिनेमा इससे भी आगे निकल गया है। 
   लोकभाषा के नाम पर दर्शकों को गालियां यह कहकर परोसी जा रही है कि क्या करें, वहां की बोलचाल ही ऐसी है ! 'गैंग ऑफ़ वासेपुर' में मनोज बाजपेई बेझिझक अपनी क्षैत्रीय भाषा बोलते हैं 'घर जाकर जब अपने पिता जी का ... खुजला रहे होंगे, तब उनसे पूंछियेगा हम कौन हैं?' तिग्मांसु धूलिया जैसे निर्देशक और एक्टर भी डॉयलॉग बोलने में जरा नहीं झिझके “भो... के अब तो सच बोल दे!' इसके अलावा 'डेली बैली' के डॉयलाग और फिल्म 'पीपली लाईव' का संवाद 'साले यहां ... फटी पड़ी है, तुझे अपनी पड़ी है! 
  सिनेमा के पर्दे पर अब सुदूर के उन गांवों की कहानियां और उनके किरदारों की भाषा सुनाई दे रही है, जहां सौ साल से सिनेमा नहीं पहुंचा था। गैंग ऑफ़ वासेपुर, पानसिंह तोमर, बैंडेट क्वीन, हांसिल, डेली बैली, ओय लकी लकी ओय, सोनचिडिया और अब 'मेड इन चाइना और 'बाला!' कितनी ही ऐसी फिल्में हैं, जो उनके गंदे संवाद के लिए भी जानी जाती हैं। इन फिल्मों के संवाद उस बोलचाल में लिखे गए हैं, जिसे स्थानीय लोग आपस में बोलते हैं। इसलिए इन फिल्मों के संवाद लोगों की जबान पर आसानी चढ़ जाते हैं। कुछ सालों में ऐसी फिल्में आई हैं, जिन्हें उनकी भाषा के लिए बहुत दिनों तक याद किया जाएगा। 
   पहले तो फिल्मों में नायक ही गाली या अश्लील शब्दों का प्रयोग करता था। ज्यादा से ज्यादा वैम्प या तवाइफ का किरदार निभाने वाली नायिकाओं से ऐसी बातें सुनने में आती थी। लेकिन, आज की प्रगतिशील महिलाओं का सच दिखाने के प्रयास में निर्माताओं ने करिश्मा, स्वरा भास्कर और राधिका आप्टे जैसी नायिकाओं से वर्जित संवाद बुलवाने मे कोताही नहीं बरती! पर्दे के बाहर वाकयुद्ध के लिए मशहूर कंगना रनौत भी इस दौड में पीछे नहीं है। भूमि पेडणेकर की फिल्म 'सोन चिड़िया' ने एक बार फिर बेंडिट क्वीन के अश्लील संवादों की याद दिला दी! वैसे तो 'शुभ मंगल सावधान' पवित्र नाम लगता है! लेकिन, उसके दृश्य और संवाद सारी पाकीजगी को हवा में उड़ा देते हैं। 
   कुछ दर्शक मानते हैं कि दृश्यों में वर्जित बातें होने के बावजूद लेखक-निर्देशक ने इसे इतने गुदगुदाने वाले अंदाज में रचते हैं कि सिनेमाहाल में दर्शक असहज महसूस करने की बजाए हंसते हैं। सिनेमा हाॅल में तो पास बैठे दर्शक का चेहरा साफ दिखाई नहीं देता! लेकिन, क्या यही बात उस सूरत में भी कही जा सकती है जब सारा घर में यह फिल्में देख रहा हो! सच बात तो यह है कि फिल्मकार अपनी जवाबदारी से मुंह नहीं फेर सकते और उन्हें ऐसा करना भी नहीं चाहिए! वरना रील लाइफ और रीयल लाइफ में फर्क की क्या रह जाएगा?
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