मध्यप्रदेश में होने वाले 27 विधानसभा उपचुनाव की दोनों पार्टियों ने अपने-अपने स्तर पर तैयारी शुरू कर दी। जहाँ तक चुनाव लड़ने की शैली की बात है, तो सबको पता है कि दोनों पार्टियों के अंदाज में अंतर है। लेकिन, सबसे बड़ा सवाल है कि भाजपा किन मुद्दों को लेकर चुनाव मैदान में उतरेगी? कांग्रेस के पास तो सिंधिया-गुट की दगाबाजी सबसे बड़ा मुद्दा है! पर, भाजपा क्या करेगी! वो सिंधिया समर्थक और भाजपा उम्मीदवारों का बचाव करने से तो रही! अलबत्ता कमलनाथ के 15 महीने के कार्यकाल की खामियों को खोजेगी! लेकिन, बिजली बिल जैसे मुद्दों पर भाजपा खुद घिरेगी। क्योंकि, कांग्रेस की 15 महीने की सरकार को लोग बहुत कम समय मान रहे हैं! ऐसे में भी बिजली बिल में लोगों को जो रियायत मिली, वो भाजपा के गले की फाँस बन सकती है!
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- हेमंत पाल
ज्योतिरादित्य सिंधिया ने 15 महीने पुरानी कमलनाथ सरकार गिराने के लिए जिस तरह के हथकंडे अपनाए, वो अब किसी से छुपे नहीं है। पूरा घटनाक्रम और राजनीतिक स्वार्थ सबके सामने है। ये अपने आपमें अनोखी राजनीतिक घटना है, जिसने गुजरात में बरसों पहले हुई प्रेशर पॉलिटिक्स की याद दिला दी। शंकरसिंह वाघेला के नेतृत्व में उस समय घटे घटनाक्रम में 42 विधायकों को अहमदाबाद से मध्यप्रदेश लाकर खजुराहो में छुपाया गया था। तब वहाँ तत्कालीन मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल के खिलाफ बगावत हुई थी, जबकि मध्यप्रदेश में कमलनाथ खिलाफ! लेकिन, उस समय गुजरात में सिर्फ मुख्यमंत्री बदलने के लिए दबाव बनाया गया था, पार्टी के खिलाफ बगावत नहीं हुई थी। ये संदर्भ उस बात को याद दिलाने के लिए लिखा गया कि भाजपा में ऐसे असंतोष सामान्य हैं, जिसे अब उन्होंने दूसरी पार्टियों की सरकार गिराने के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया।
अब कांग्रेस बग़ावतियों खिलाफ उपचुनाव में इसी राजनीतिक दगाबाजी को चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश करेगी। स्वाभाविक भी है कि कांग्रेस यही करेगी! लेकिन, भाजपा के पास फिलहाल इसकी काट कर सकने वाला ऐसा कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। ... और न ऐसा असरदार मुद्दा जो मतदाताओं को प्रभावित कर सके! सिंधिया समर्थकों लालच देकर बगावत के लिए मजबूर करने का कांग्रेस आरोप उपचुनाव में क्या रंग दिखाता है, ये तो वक़्त बताएगा। लेकिन, बताया जा रहा कि राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार फूलसिंह बरैयां की हार को भाजपा दलित उपेक्षा बताकर भुनाने की कोशिश कर सकती है! वो ये साबित करना चाहेगी कि हमने अनजान आदिवासी सुमेरसिंह सोलंकी को राज्यसभा भेजने का साहस किया, जबकि कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह को फिर से राज्यसभा में भेजने के लिए फूलसिंह बरैयां को हरवा दिया। लेकिन, यदि कांग्रेस के रणनीति के तहत फूलसिंह बरैयां को उपचुनाव में किसी सीट से उम्मीदवार बना दिया, तो भाजपा के की भी हवा निकल सकती है।
उपचुनाव को लेकर दोनों तरफ तैयारी जोरों पर है, तय है कि उपचुनाव रोचक होंगे! कुछ तैयारी सामने दिखाई दे रही है, कुछ परदे के पीछे है। पर, ये सभी को समझ आ रहा है कि भाजपा के पास किसी बड़े मुद्दे का अभाव है। इस नजरिए से चुनावी हमले करने में कांग्रेस भारी पड़ सकती है। शुरुआती दौर में एक तरफ दगाबाजी और दूसरी तरफ दलित उपेक्षा ही चुनावी मुद्दे नजर आ रहे हैं। चुनाव के नजदीक आने तक सियासी फिजां के साथ मुद्दे भी बदलते दिखाई दें तो आश्चर्य नहीं! कांग्रेस का कहना है कि प्रदेश के मतदाताओं ने पार्टी को 5 साल के लिए जनादेश दिया था! मगर, राजनीतिक स्वार्थ और सत्ता लोलुपता के चलते कमलनाथ की सरकार को अल्पमत में लाकर गिरा दिया गया। उपचुनाव में भाजपा का झंडा लेकर खड़े ये वही लोग हैं, जिन्होंने जनादेश की अवहेलना की। प्रदेश में 27 विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव होने वाले हैं, इनमें वे 26 सीटें वे हैं, जहां 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी! लेकिन, एक कांग्रेस विधायक के निधन और 25 की बगावत और इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल होने के कारण कमलनाथ सरकार गिर गई थी। कांग्रेस की चुनावी रणनीति जगजाहिर है। क्योंकि, कांग्रेस ने जिन विधायकों की वजह से सरकार गँवाई है, वो उन्हें आसानी से जीतने का मौका नहीं देगी।
भाजपा ने राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस पर दलित उपेक्षा का आरोप लगाया था। पार्टी का कहना है कि कांग्रेस लगातार अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के लोगों की उपेक्षा करती रही है। राज्यसभा चुनाव में भी ऐसा ही हुआ। दलित नेता फूलसिंह बरैयां को उम्मीदवार तो बनाया, मगर हराने के लिए! कांग्रेस का वास्तविक चरित्र भी यही है। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि कांग्रेस ने जाने-अनजाने में भाजपा के हाथ में एक बड़ा मुद्दा दे दिया। कांग्रेस लगातार भाजपा पर हमले बोलने के लिए दल-बदल करने वाले नेताओं को बतौर हथियार उपयोग करती आ रही है। वहीं, भाजपा के हाथ में भी दलित उपेक्षा का मुद्दा लग गया है। जिन 27 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होना है, इनमें से 16 सीटें ग्वालियर चंबल इलाके से आती हैं। यह ज्योतिरादित्य सिंधिया के प्रभाव वाला क्षेत्र है। यहां अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के मतदाताओं की संख्या भी अधिक है। कई विधानसभा सीटों के नतीजे तो इस वर्ग के मतदाता ही तय करते हैं। यही कारण है कि भाजपा इस मुद्दे को मांजने में लगी है।
उधर, कमलनाथ कांग्रेस के लिए सीटों का समीकरण बनाने की रणनीति बनाने में जुटे हैं। कमलनाथ के करीबियों का मानना है कि यह उपचुनाव कांग्रेस के सत्ता में वापसी का आखिरी विकल्प है और शिवराज से हिसाब बराबर करने का मौका भी। कमलनाथ हर सियासी चाल चल रहे हैं। अभी तक की स्थिति मुताबिक विधानसभा की 27 सीटों पर उपचुनाव होने के आसार हैं। लेकिन, संभावना बताती है कि ये संख्या बढ़कर 31 तक पहुँच सकती है। क्योंकि, सिंधिया पर निर्भरता कम करने के लिए भाजपा का तोड़फोड़ अभियान अभी जारी है। वो उपचुनाव की घोषणा से पहले 4-5 और कांग्रेसी विधायकों को भाजपा में शामिल करने की जुगत में है। विधानसभा की 230 सदस्य संख्या में स्पष्ट बहुमत के लिए जरूरी आंकड़ा 116 है। मौजूदा समय भाजपा के पास 107 विधायक हैं तो कांग्रेस के पास 92 की संख्या है। ऐसे में उपचुनाव ही फैसला करेंगे कि प्रदेश में बाकी साल किसकी सरकार होगी!
शिवराज सिंह चौहान सरकार को स्पष्ट बहुमत के लिए सिर्फ 9 सीटों की जरूरत है, तो कांग्रेस को सभी 27 सीटें जीतना होगी। कांग्रेस के लिए उपचुनाव में क्लीन स्वीप आसान नहीं है। उपचुनाव के भरोसे कमलनाथ सरकार की सत्ता में वापसी मुश्किल दिख रही है। सिंधिया के कारण इस्तीफा देने वाले कांग्रेस के विधायकों को ही फिर से चुनाव लड़ाकर भाजपा सीटें जीतने की जुगत में है, तो कांग्रेस सीटों को बचाने की कोशिश में है। कांग्रेस के नेताओं की और से विधायकों के विश्वासघात की दुहाई देकर जनता से उन्हें सबक सिखाने की अपील की जा रही है। यूं तो उपचुनाव में सत्ताधारी भाजपा की स्थिति मजबूत मानी जा रही है। लेकिन, कई सीटों पर भाजपा को कांग्रेस से ज्यादा अपनों से चुनौती मिल रहीं हैं! इसमें देवास जिले की हाटपिपलिया, इंदौर जिले की सांवेर, ग्वालियर जिले की ग्वालियर, रायसेन की सांची और सागर जिले की सुरखी सीटें हैं। यहां भाजपा के कुछ स्थानीय नेताओं के बीच अंतर्कलह की स्थिति उभरकर सामने आ रही है! ऐसे में कांग्रेस भाजपा के अंदरखाने मचे संघर्ष का फायदा उठाने की कोशिश कर रही है! लेकिन, सबसे बड़ा सवाल है कि असरदार मुद्दे क्या होंगे!
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