Friday, September 3, 2021

समानांतर सिनेमा दिखाता है, जीवन का यथार्थ!

हेमंत पाल 

     विद्या बालन का एक डायलॉग कुछ समय पहले बड़ा लोकप्रिय हुआ था, जिसमें वे रोचक अंदाज में तीन बार 'इंटरटेनमेंट .. इंटरटेनमेंट ... इंटरटेनमेंट और मैं इंटरटेनमेंट हूँ!' इस डायलॉग को यदि सिनेमा के नजरिए से देखा जाए, तो लगता है कि फ़िल्में आखिर क्या है, इंटरटेनमेंट ही तो है! देखने वाला वहाँ कुछ समय के लिए अपनी सारी परेशानियां भूल जाता है। लेकिन, इंटरटेनमेंट सिर्फ मन बहलाव ही नहीं है, ये भी दो हिस्सों में बंट गया। एक सिनेमा फार्मूला कहानियों पर बनता है, जो दर्शकों को बांधता है! दूसरा सिनेमा वो है, जो जीवन का यथार्थ दिखाता है, यानी समानांतर सिनेमा! दूसरी तरह की फ़िल्में कुछ ख़ास इसलिए होती हैं कि इनकी कहानियां हमें अपनी या अपने आसपास की लगती है। समानांतर फिल्मों में मुख्यतौर पर जमींदार या पूंजीपतियों द्वारा शोषण, अंधविश्वास और धार्मिक पाखंड पर चोट, युवा वर्ग के असंतोष, महिलाओं पर अत्याचार, भेदभाव जैसे कई सामाजिक मुद्दे दिखाई देते हैं। इनका समाज से सीधा सरोकार होता है। वास्तव में समानांतर सिनेमा को एक सांस्कृतिक आंदोलन की तरह देखा गया, जिसमें विषय की गंभीरता को यथार्थ और नैसर्गिकता के साथ जोड़कर रचा जाता है। ऐसी फिल्मों में हमेशा नए अंदाज से सामाजिक और राजनीतिक घटनाक्रमों को परदे पर उतारने की कोशिश की गई।
        समानांतर सिनेमा को जीवन का यथार्थ कहा जरूर गया, लेकिन माना नहीं गया। क्योंकि, समानांतर सिनेमा का कैमरा हमेशा दमित और शोषित वर्ग पर ही फोकस होता रहा है। जबकि, सिर्फ दमन और शोषण ही समाज का यथार्थ नहीं है! समाज के यथार्थ में खुशी और गम दोनों शामिल होते हैं। फकत गम को ही समाज का यथार्थ या समानांतर सिनेमा का सच नहीं माना जा सकता। यदि समाज के यथार्थ में जीवन के सभी पक्षों को शामिल किया जाए, तो इसे समानांतर नहीं यथार्थवादी सिनेमा कहना ज्यादा उचित होगा। यदि इसमें 'अंकुर' शामिल है, तो 'हम साथ साथ है' को भी शामिल किया जा सकता है। समझा जाता है कि हमारा समानांतर सिनेमा इटैलियन न्यू रियलिज्म, फ्रांस के फ्रेंच न्यू वेव और जापान के न्यू वेव सिनेमा से प्रभावित रहा। भारतीय सिनेमा में भी यथार्थवादी झलक बहुत पुरानी बात रही। ऐसी फिल्मों की नींव 1920 से 30 के दशक में ही पड़ गई थी। 1925 में बाबूराव पेंटर ने अपनी मूक फिल्म 'सावकारी पाश' बनाई, जिसमें वी शांताराम ने गरीब किसान का किरदार निभाया था। ये किसान अपनी जमीन एक साहूकार को देने के लिए मजबूर हो जाता है और गांव छोड़कर शहर में मिल मजदूर बन जाता है! इसे भारत की पहली समानांतर फिल्म माना जाता है। महिलाओं की दुर्दशा पर भी 1937 में बनी फिल्म 'दुनिया ना माने' भी ऐसी ही फिल्म थी। लेकिन, ये परंपरा तब आगे नहीं पढ़ सकी। 
     1940 से 1960 के दशक में समानांतर सिनेमा ने फिर करवट ली। इस दौर में उसे सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, बिमल राय, मृणाल सेन, ख्वाजा अहमद अब्बास, चेतन आनंद और वी शांताराम ने पल्लवित किया। इन फिल्मों पर साहित्य की गहरी छाप थी। चेतन आनंद ने 1946 में 'नीचा नगर' जैसी फिल्म बनाई, जिसे कॉन फिल्म फेस्टिवल में ग्रैंड प्राइज मिला था। इस परम्परा को ही बाद में श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, अदूर गोपालकृष्णन तथा गिरीश कासरवल्ली ने बढ़ाया। ऐसे फिल्मकारों में एक गुरुदत्त भी थे, जिन्होंने कला और फार्मूला सिनेमा को जोड़ने का कमाल किया। उनकी फिल्म 'प्यासा' को हिंदी सिनेमा की कालजयी फिल्म माना जाता है। अमेरिका की 'टाइम' पत्रिका ने इसे 'ऑल टाइम बेस्ट 100 मूवी' में जगह दी है। लेकिन, कला फिल्मों से व्यावसायिक सफलता पाने में ऋषिकेश मुखर्जी की भी कोई बराबरी नहीं कर सकता। इस तरह की फिल्मों के दर्शकों का एक विशेष वर्ग होता है। दर्शकों का दायरा सीमित होने के कारण इन फिल्मों की व्यावसायिक सफलता संदिग्ध हमेशा ही मानी गई। लेकिन, कई कला फिल्में ऐसी हैं, जिन्हें बॉक्स ऑफिस पर अच्छी सफलता मिली। 
    आजादी के बाद 50 और 60 के दशक में सिनेमा दो धाराओं में बंट गया। एक धारा में सामाजिक सरोकार के चिंतन को स्थान दिया गया। दूसरी धारा में मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा बढ़ा! इसे मुख्यधारा का सिनेमा कहा गया। दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे, जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. दर्शकों ने समानांतर सिनेमा को व्यावसायिक सिनेमा से इतर हटकर एक नए विकल्प के रूप में देखा। बांग्ला फिल्मों में इसे बढ़ने में सत्यजित रे की खासी भूमिका रही, जो विश्व सिनेमा से प्रभावित हुए। ‘पथेर पांचाली’ (1955) से सत्यजीत रे ने यथार्थवादी फिल्मों का ये सिलसिला शुरू किया। इस फिल्म की पूरी पटकथा कभी नहीं लिखी गई। कागज पर सत्यजित राय कुछ नोट लिखते थे और स्केच बनाते थे।
    हिंदी में समानांतर सिनेमा की नई शुरुआत 1969 में मृणाल सेन की फिल्म 'भुवन सोम' को माना जाता है। 1976 में मृणाल ने 'मृगया' बनाई, जो मिथुन चक्रवर्ती की पहली फिल्म थी। इसमें मिथुन ने एक आदिवासी क्रांतिकारी का किरदार निभाया था, जो पत्नी के यौन शोषण के खिलाफ आवाज उठाता है। बाद में सत्यजीत रे ने हिंदी में पहले ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और बाद में ‘सद्गति’ बनाई। सत्यजीत रे के फ़िल्मी कथ्य में एक अलग ही शिल्प होता था। सुंदर छायांकन, विलक्षण दृष्टि बोध और दृश्य संयोजन के मामले में तो वे सदैव अनन्य रहे। 1953 में आई बिमल रॉय की ‘दो बीघा जमीन’ ने समीक्षकों की प्रशंसा के साथ व्यावसायिक सफलता भी प्राप्त की थी। इसे कॉन फेस्टिवल (1954) में भी अंतर्राष्ट्रीय सम्मान भी मिला। इसके बाद बिमल रॉय ने बिराज बहू, देवदास, सुजाता और 'बंदिनी' फिल्में बनाई। 1970 और 1980 के दौरान समानांतर सिनेमा ने जमकर विकास किया। श्याम बेनेगल शैली के फिल्मकारों का हौसला बुलंद हुआ! इसी दौर में शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, रेहाना सुल्तान, साधु मैहर, अमोल पालेकर, ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, अनुपम खेर, कुलभूषण खरबंदा, पंकज कपूर, गिरीश कर्नाड के साथ समय-समय पर रेखा और हेमा मालिनी का भी सानिध्य मिला। 
    श्याम बेनेगल समानांतर सिनेमा के नवसृजन के प्रमुख हस्ताक्षर बने। उन्होंने 1973 में पहली फिल्म 'अंकुर' बनाई। गांवों में शहरी घुसपैठ के परिणामों पर बनी यह फिल्म सफल रही। 'अंकुर' ने तीन राष्ट्रीय समेत 42 अवॉर्ड जीते। 1975 में बेनेगल ने 'निशांत' और 1976 में 'मंथन' बनाई। 'मंथन' को भी राष्ट्रीय पुरस्कार नवाजा गया। उनकी मंडी, कलियुग और 'जुनून' भी बेहद चर्चित रही। श्याम बेनेगल के साथ जुड़े गोविंद निहलानी भी इसी रास्ते पर आगे बढे और ऐसी ही यथार्थवादी फिल्में बनाई। निहलानी की 1981 में आई 'आक्रोश' को दर्शकों के साथ समीक्षकों ने भी सराहा। बाद में निहलानी ने कला और फार्मूला कथानकों पर फ़िल्में बनाना शुरू किया। पुलिस की विवशता पर अर्धसत्य, वायुसेना पर विजेता, मिल मालिक और मजदूरों के आपसी संघर्ष पर आघात, समाज के नवधनाढ्य वर्ग के खोखलेपन पर 'पार्टी' और आतंकवाद पर 'द्रोहकाल' बनाई। 1980 में मणि कौल ने गजानन माधव मुक्तिबोध की रचना पर 'सतह से उठता आदमी' का निर्माण किया। 1983 में कुंदन शाह ने कालजयी फिल्म 'जाने भी दो यारों' बनाई। 1984 में सईद अख्तर मिर्जा ने 'मोहन जोशी हाजिर हो' और 'अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है' बनाकर नए रास्ते खोले। 1986 में केतन मेहता ने स्मिता पाटिल को लेकर 'मिर्च मसाला' बनाई।  
    1990 के शुरुआती दौर में निर्माण लागत बढ़ने का सबसे बड़ा प्रभाव समानांतर फिल्मों पर पड़ा और ऐसी फिल्मों का बनना लगभग बंद हो गया। फिल्मकारों ने समानांतर सिनेमा से मुंह मोड़ लिया। शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, नसीरुद्दीन शाह और कुलभूषण खरबंदा जैसे कला फिल्मों से उपजे कलाकारों ने भी अपने रास्ते बदल लिए। लेकिन, 2000 के बाद फिर यथार्थवादी सिनेमा के घोड़े बदले अंदाज में परदे पर दौड़े। इस दौर में प्रायोगिक फिल्मों के नाम से नए प्रयोग हुए। मणिरत्नम ने 'दिल से' और 'युवा' बनाई तो नागेश कुकनूर ने 'तीन दीवारें' और डोर परदे पर उतारी। सुधीर मिश्रा की हजारों ख्वाहिशें ऐसी, जानू बरूआ की मैने गाँधी को नहीं मारा, नंदिता दास की फिराक, ओनिर की 'माय ब्रदर निखिल' और 'बस एक पल' ने माहौल बदलना शुरू किया। इसके बाद अनुराग कश्यप ने 'देव डी' और 'गुलाल' पीयूष झा की 'सिकंदर' के बाद विक्रमादित्य मोटवानी की 'उड़ान' ने नई धारा को जन्म दिया। 
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