Wednesday, March 16, 2022

सुहास भगत का प्रमोशन हुआ या उन्हें हटाया गया, इसमें कई पेंच!

- हेमंत पाल

    मध्यप्रदेश के भाजपा प्रदेश संगठन महामंत्री सुहास भगत को 'संघ' (आरएसएस) में वापस में भेज दिया गया। उन्हें एमपी-छत्तीसगढ़ का बौद्धिक प्रमुख बनाया गया है। अब वे भोपाल के बजाए जबलपुर में रहेंगे। उन्हें 2016 में 'संघ' से ही भाजपा में भेजा गया था, अब वे फिर 'संघ' में बुला लिए गए। वे 6 साल से प्रदेश भाजपा में संगठन महामंत्री थे। उनके इस बदलाव को सुहास भगत के प्रमोशन के रूप में प्रचारित किया गया! कहा गया कि उन्हें दो राज्यों का बौद्धिक प्रमुख बनाया गया है। इस बात को ज्यादा जोर से कहा गया! जबकि, सच्चाई यह है कि सुहास भगत को संगठन महामंत्री के महत्वपूर्ण पद हटाया गया है। वे जिस पद पर थे, वो राजनीतिक रूप से ज्यादा महत्वपूर्ण कुर्सी थी! भले ही 'संघ' से नजरिए से बौद्धिक प्रमुख बड़ा पद कहा जा रहा हो, पर राजनीति की बारीकियों और उसकी तासीर को समझने वालों को ये प्रमोशन गले नहीं उतर रहा!  
      संघ की प्रतिनिधि सभा में हुए इस फैसले को सकारात्मक नजरिए से जरूर देखा गया हो, पर संगठन महामंत्री का उनका कार्यकाल बेदाग़ नहीं रहा। न उसे पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं ने सकारात्मक रूप से लिया है। उन पर पक्षपाती होने के भी आरोप लगे। कार्यकर्ताओं से संवाद के मामले में उन्हें बेहद कमजोर समझा गया। चंद लोगों को छोड़ दिया जाए, तो ज्यादातर कार्यकर्ता और नेता उनसे खुश नहीं थे। वे न तो कार्यकर्ताओं को आसानी से उपलब्ध थे और उनका संवाद सहज रहा। कई कार्यकर्ताओं को शिकायत रही, कि वे मिलते भी थे, तो संवादहीनता की स्थिति में! मोबाइल फोन में देखते हुए कार्यकर्ताओं से उनके संवाद की आदत भी नाराजगी का कारण रहा! जो कार्यकर्ता 6 साल तक खामोश रहे, अब वे मुखर होने लगे हैं। जमीनी स्तर पर संवादहीनता और अपने खास लोगों के अलावा अन्य कार्यकर्ताओं से संवादहीनता और दूरी बनाए रखना उनकी सबसे बड़ी कमजोरी रही। इस वजह से पार्टी में बरसों से काम कर रहे कार्यकर्ता अपने आपको उपेक्षित महसूस करने लगे थे! 
   मुख्यमंत्री से भी सुहास भगत के रिश्ते भी कभी सहज नहीं रहे। उनकी तरफ से सरकार और शिवराज सिंह चौहान के लिए कभी सकारात्मक धारा भी बहती दिखाई नहीं दी। जबकि, सरकार और सत्ताधारी पार्टी के संगठन में गहरा गठजोड़ होता है, पर सुहास भगत ने कभी इस दिशा में प्रयास किए हों, ऐसा नहीं लगा। यही कारण था कि पहले रहे संगठन महामंत्रियों की तरह मुख्यमंत्री का इनसे सामंजस्य नहीं बन सका। कई बार ये साफ़-साफ़ दिखाई भी दिया। इसे मुख्यमंत्री की सदाशयता ही कहा जाना चाहिए कि उन्होंने इसे जाहिर नहीं होने दिया और अपनी तरफ से सहजता बनाए रखी!  
    कहा ये भी जा रहा कि प्रदेश के विधानसभा चुनाव को करीब डेढ़ साल बचा है। ऐसे में भाजपा ने अभी से संगठन को कसना शुरू कर दिया। यदि इस बात को सही भी मान लिया जाए, तो उनकी संगठनात्मक योग्यता को देखते हुए उन्हें हटाया नहीं जाना था! पर, उन्हें 'संघ' ने भाजपा से वापस बुला लिया! जबकि, देखा जाए तो भाजपा उनके कार्यकाल में ही 2018 का चुनाव भाजपा हारी थी! बाद में जिस तरह भाजपा सरकार बनी, वो पार्टी की अपनी रणनीति का नतीजा था। निश्चित रूप उसमें सुहास भगत की कोई भूमिका नहीं रही! कहा ये भी जा रहा है, कि प्रदेश का भाजपा संगठन 2023 के चुनाव में कोई रिस्क नहीं लेना चाहता, इसलिए वो अभी से अपने तरीके से जमावट कर रहा है। सुहास भगत की 'संघ' में वापसी कहीं उसी जमावट का हिस्सा तो नहीं!      
     इससे पहले कप्तान सिंह सोलंकी प्रांत प्रचारक रहते हुए, मध्यप्रदेश भाजपा के संगठन महामंत्री बने थे। उन्हें भी पद के दायित्व से मुक्त किया गया था, पर उनकी मूल संगठन में वापसी नहीं की गई। वे बाद में भी भाजपा में काम करते रहे और राज्यपाल भी बने। अनिल दवे भी 'संघ' से भाजपा में आए थे और अपनी काबिलियत के दम पर केंद्रीय मंत्री के पद तक पहुंचे। माखन सिंह और कृष्णमुरारी मोघे को भी संगठन मंत्री बनाकर भेजा गया था, उनकी भी वापसी नहीं हुई। इसलिए सुहास भगत की 'संघ' में वापसी को प्रमोशन कहना गले उतरने वाली बात नहीं है।  
   इस बात से इंकार नहीं कि सुहास भगत ने अपने कार्यकाल में कई नए प्रयोग शुरू किए। युवाओं को संगठन में ज्यादा मौका दिया। मंडल अध्यक्षों के लिए अधिकतम 35 साल का आयु बंधन लागू किया। फिर जिला अध्यक्षों के लिए भी 45 साल पैमाना बनाया गया। इसका अच्छा नतीजा भी निकला और प्रदेश में नई भाजपा बन गई। उन्होंने पूरी तरह संघ के एजेंडे के हिसाब से काम किया। बहुत से नए प्रयोग किए! पर, जरूरी नहीं कि सभी प्रयोग सफल हों! क्योंकि, राजनीति में कई ऐसे पेंच होते हैं, जो कब और कहां खुल जाए कोई अंदाजा नहीं लगा सकता। ऐसा ही कुछ सुहास भगत के प्रयोगों में भी हुआ!  
   संगठन महामंत्री बनते ही सुहाग भगत ने विंध्य क्षेत्र के संगठन मंत्री चंद्रशेखर झा को हटाया था। इस फैसले पर कई विपरीत टिप्पणियां भी हुई। प्रदेश सह संगठन मंत्री के रूप में उनकी अतुल राय की नियुक्ति भी चर्चा में रही। बाद में शिकायतों के बाद अतुल राय को हटाना गया। पार्टी के जिला अध्यक्षों की नियुक्ति में हुए विवाद को तो आज भी कोई भूला नहीं! सुहास भगत ने दर्जनभर जिलों में अपनी पसंद के अध्यक्ष बनाए थे। बताया गया था कि उन जिलों के वरिष्ठ भाजपा नेताओं से इस बारे में बात तक नहीं की गई। यही कारण था कि जिला अध्यक्षों के नाम सामने आते ही इंदौर, खरगोन और ग्वालियर में जमकर विरोध हुआ था। इंदौर में तो भाजपा नेता उमेश शर्मा ने तो तभी से कमर कस रखी है, जो कई बार उनकी नाराजगी के रूप में सामने भी आई!  
    शिकायत के आधार पर संभागीय संगठन मंत्री के पद से हटाए गए चार लोगों को फिर लाभ के पद पर बैठाना सुहास भगत के कार्यकाल का अच्छा फैसला नहीं कहा गया। जिन संगठन महामंत्रियों को हटाया गया, वे फिर ऐसे पदों पर बैठ गए, जिसके लिए भाजपा के निष्ठावान नेताओं ने उम्मीद लगा रखी थी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जयपाल सिंह चावड़ा को इंदौर विकास प्राधिकरण का अध्यक्ष बनाया जाना! अनुशासन से बंधे होने के कारण किसी नेता ने खुलकर मुंह तो नहीं खोला, पर इस पर अंदर ही अंदर विरोध बहुत हुआ! जिस दिन चावड़ा ने अध्यक्ष पद ग्रहण किया, सारे नेताओं को वहां मौजूद रहने की हिदायत दिए जाने की भी ख़बरें थीं। दरअसल, चावड़ा के विरोध का सबसे बड़ा कारण था, उनका बाहरी होना! इतना बाहरी कि वे जिस देवास के हैं, वो उज्जैन संभाग का एक जिला है! जो व्यक्ति इंदौर का ही नहीं है, उसे विकास प्राधिकरण का अध्यक्ष बनाया जाना कहां तक उचित था!      
   कार्यकर्ताओं के नजरिए से कुशाभाऊ ठाकरे, प्यारेलाल खंडेलवाल, कृष्णमुरारी मोघे, कप्तानसिंह सोलंकी, भगवतशरण माथुर, माखन सिंह और अरविंद मेनन की तुलना में सुहास भगत को लोकप्रिय संगठन महामंत्री नहीं कहा जा सकता! उनके फैसलों की कभी दबकर तो कभी खुलकर आलोचना होती रही। उनके रहते संगठन और विचारधारा का पक्ष पीछे छूटता गया, ये कहने वालों की कमी नहीं है। ऐसे हालात में यदि ये कहा जाए कि सुहास भगत का प्रमोशन करके उन्हें दो राज्यों का बौद्धिक प्रमुख बनाया गया, तो ये तार्किक रूप से सही कैसे माना जाए! यदि वास्तव में सुहास भगत का प्रमोशन ही किया जाना था तो उन्हें 'संघ' में उनकी मर्जी का काम दिया जाता। वे संघ के प्रकल्प 'नर्मदा समग्र' में जाना चाहते थे और 'नदी का घर' में रहने की मंशा रखते थे। लेकिन, उन्हें भोपाल के बजाए जबलपुर भेज दिया गया। इन सारी सच्चाइयों को देखते हुए कैसे मान लिया जाए कि वे प्रमोशन पर बौद्धिक प्रमुख बने हैं!  
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