Wednesday, November 8, 2023

मध्यप्रदेश में बागियों के हाथ में होगा नतीजों का गणित

■ हेमंत पाल

      इस बार मध्यप्रदेश का विधानसभा चुनाव भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया। भाजपा को अपनी साढ़े 18 साल पुरानी राजनीतिक विरासत बचाना है, तो कांग्रेस को भाजपा से वो हिसाब बराबर करना है, जब भाजपा ने कांग्रेस में बगावत करवाकर उसकी 15 महीने की सरकार पलट दी थी। यही वजह है, कि दोनों ने ख़म ठोंककर चुनाव जीतने को चुनौती समझ लिया। दोनों के लिए ये मुकाबला आसान नहीं है। एक कारण यह भी है कि दोनों पार्टियों के लिए ही बागियों ने बड़ा संकट खड़ा कर दिया। ऐसे में समझ नहीं आ रहा कि हवा का रुख किस तरफ है। यह भी कहा जा सकता है, कि नतीजों का दारोमदार बागियों की ताकत पर टिका है। क्योंकि, बागी भले जीते न सकें, पर दूसरों का खेल बिगाड़ने में माहिर साबित होंगे। पार्टी से बगावत करने में कांग्रेस के नेताओं की संख्या भाजपा से ज्यादा है। ऐसे में दोनों पार्टियों ने कोशिश भी की, कि नाराज नेताओं को किसी तरह मना लिया जाए, पर उम्मीद के मुताबिक कोशिशें कामयाब नहीं हुई।        
     मध्यप्रदेश की राजनीति साढ़े 18 साल से एक तरह से ठहर सी गई थी। 2003 में जब दिग्विजय सिंह को हराकर उमा भारती ने प्रदेश में भाजपा का झंडा गाड़ा, उसके बाद से तो कांग्रेस हाशिये से भी नीचे चली गई। 2018 से पहले तक भाजपा का एकछत्र राज रहा। लेकिन, पिछले (2018) विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा को चंद सीटों का बहुमत पाकर सत्ता से धकेल दिया था। कमलनाथ ने 15 महीने सरकार चलाई ही थी, कि अचानक राजनीतिक भूचाल आ गया। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने 22 राजनीतिक सैनिकों को लेकर कांग्रेस में बगावत कर दी। इस प्रसंग ने गुजरात में 1975 में हुई केशुभाई पटेल की सरकार के खिलाफ हुई बगावत की याद दिला दी, जब शंकरसिंह वाघेला ने अपने समर्थक विधायकों को लेकर खजुराहो में डेरा डाल दिया था। लेकिन, ज्योतिरादित्य सिंधिया उससे आगे बढ़कर सीधे भाजपा में शामिल हो गए और प्रदेश में फिर भाजपा की सरकार बन गई। मध्य प्रदेश विधानसभा में फ़िलहाल भाजपा के 127 विधायक और कांग्रेस के 96 विधायकों के अलावा 4 निर्दलीय, दो बसपा के और एक समाजवदी पार्टी का विधायक है। 230 विधानसभा सीटों वाली विधानसभा में बहुमत के लिए 116 विधायकों का जादुई आंकड़ा होना जरूरी है।
      प्रदेश में सिंधिया की बगावत के बाद जो हुआ, वो एक लम्बी राजनीतिक गाथा है! क्योंकि, जिस भी इलाके में सिंधिया समर्थकों ने भाजपा में घुसपैठ की, वहां भाजपा के पुराने नेताओं में असंतोष पनपा। भाजपा में सबसे ज्यादा नाराजगी ग्वालियर-चंबल इलाके में दिखाई दी। इसके अलावा मालवा इलाके की कुछ सीटें भी इस वजह से भाजपा नेताओं की नाराजगी का शिकार बनी। यही कारण है, कि इस बार का विधानसभा चुनाव उस बगावत से मुक्त नहीं है। प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियां इस चुनाव में अपने बागियों से परेशान है। देखा जाए तो बगावत का झंडा चुनाव से काफी पहले से भाजपा में उठता दिखाई देने लगा था। पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी के विधायक बेटे दीपक जोशी और इंदौर और बदनावर के विधायक भंवरसिंह शेखावत ने सबसे पहले पार्टी को निशाने पर लिया। अंततः दोनों पार्टी छोड़कर कांग्रेस के पाले में चले गए और अब ये दोनों नेता कांग्रेस के उम्मीदवार हैं। लेकिन, यहां से शुरू हुआ बगावत का सिलसिला आंधी बनकर चुनावी चुनौती बन गया।
      इस बार मध्य प्रदेश के ज्यादातर इलाकों में राजनीति के पुराने खिलाड़ी ही अपनों के लिए चुनौती बने हैं। वे अपनी परंपरागत पार्टी से बगावत करके उन्हें चुनौती देने के लिए चुनाव में खड़े हो गए। इस तरह से उन्होंने अपनी दशकों पुरानी पारिवारिक विरासत को तोड़ दिया। जबकि, मध्य प्रदेश के राजनीतिक संस्कार ऐसे रहे हैं, कि कई नेताओं की दो-तीन पीढ़ियां एक ही पार्टी में रही। अभी भी कुछ नेताओं की नई पीढ़ियां चुनाव मैदान में हैं। लेकिन, 2023 का चुनाव माहौल बदला सा है। दोनों ही पार्टियों के लिए बागी बड़ी मुसीबत बनकर अड़ गए। भाजपा और कांग्रेस को 40 से ज्यादा सीटों पर इन बागियों से ही चुनौती मिल रही है। कुछ को तो मना लिया, पर कई ने पार्टी उम्मीदवारों की नींद उड़ा दी। भाजपा की कोशिशों के बाद भी करीब 14 सीटों पर बागी खतरा बने हैं। लेकिन, कांग्रेस के 23 बगावतियों ने पीछे हटने से मना कर दिया। अब पार्टियां कुछ भी दावे करें, पर तय है कि कांटाजोड़ चुनावी मुकाबले में ये बागी ही नतीजों में पलीता लगाएंगे।
    इन बागियों ने जब नामांकन पत्र दाखिल किए, तब पता चला कि दोनों पार्टियों में इनकी संख्या करीब 80-90 के करीब है। इनमें करीब 40-45 ऐसे थे, जो खेल बिगाड़ सकते हैं। दोनों पार्टियों के लिए इन्हें मनाना टेढ़ी खीर इसलिए था कि इन नाराज नेताओं में बड़ी संख्या उनकी है, जिनकी उम्र ज्यादा है। अगले विधानसभा चुनाव में ये मैदान में उतरने के काबिल नहीं होंगे, इसलिए वे हर हालत में जोर-आजमाईश में लगे रहे। इस चुनाव का एक महत्वपूर्ण फैक्टर यह भी रहा, कि बगावत करने वालों को साधने के लिए तीसरा मोर्चा तैयार दिखा। जिस भी नेता ने अपनी पार्टी से बगावत की बांग लगाई समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और आम आदमी पार्टी ने उन्हें थामने में देर नहीं की। इस वजह से बागियों ने निर्दलीय चुनाव लड़ने के बजाए इन पार्टियों के झंडे थाम लिए। ऐसा नहीं कि ये बागी चुनाव जीतने में सक्षम हैं! ज्यादातर बागी खुद भले जीत न सकें, पर अपनी पार्टियों के समीकरण जरूर बिगाड़ देंगे। इसलिए कि मध्यप्रदेश में चंद सीटें ही ऐसी हैं, जहां जीत का अंतर ज्यादा होता है। अधिकांश सीटों पर कम अंतर से हार-जीत तय होती रही।  
    मध्यप्रदेश में राजनीतिक विरासत को समझने के लिए गुना जिले की राघौगढ़ विधानसभा सीट सबसे अच्छा उदाहरण है, जो कांग्रेस के बड़े नेता दिग्विजय सिंह परिवार की घरेलू सीट है। अब तक हुए 14 चुनावों और उपचुनाव में यहां से इसी राज परिवार की तीन पीढ़ियों ने 9 बार चुनाव जीता। दिग्विजय सिंह के पिता बलभद्र सिंह ने पहली बार 1952 में अखिल भारतीय हिंदू महासभा के उम्मीदवार के रूप में यहां से चुनाव जीता था। चार बार दिग्विजय सिंह, दो बार उनके छोटे भाई लक्ष्मण सिंह और दो बार उनके बेटे जयवर्धन सिंह ने यहां से जीत का झंडा गाड़ा। इस बार यहां जयवर्धन सिंह के सामने भाजपा ने हिरेंद्र सिंह 'बंटी बना' को मैदान में उतारा है। वे दो बार कांग्रेस विधायक (1985 और 2008) रहे मूल सिंह के बेटे हैं। एक समय था, जब हिरेंद्र के पिता को दिग्विजय सिंह परिवार से जुड़ा माना जाता रहा। लेकिन, हिरेंद्र सिंह ने अपनी राजनीतिक विचारधारा बदली और ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए। इस बार वे एक तरह से परंपरागत संबंधों को हाशिये पर रखकर प्रतिद्वंदी बनकर राधौगढ़ के राज परिवार के सामने खड़े हैं।
     इस विधानसभा चुनाव को किसी भी दृष्टि से एक तरफ़ा नहीं कहा जा सकता। हर सीट पर कांटे की टक्कर साफ़ दिखाई दे रही है। ये स्थिति बहुत कुछ पिछले चुनाव (2018) जैसी ही है, जब मुकाबला बेहद नजदीकी था। इस चुनाव में भाजपा को अंदाजा नहीं था, कि उनके खेमे में बगावत का झंडा बुलंद करने वालों की संख्या इतनी बढ़ेगी। लेकिन, सच्चाई सामने आई तो पार्टी को पूरा दमखम लगाना पड़ा। जब प्रदेश के बड़े नेताओं के आश्वासन काम नहीं आए, तो भाजपा की दिल्ली ब्रिगेड ने बागियों को समझाने की कोशिश की। अमित शाह ने खुद प्रदेश के दस संभागों में घूमकर बागियों से सीधे बात की। लेकिन, नतीजा बहुत सकारात्मक दिखाई नहीं दिया। कुछ उनकी बात मानकर बैठ गए, पर सभी नहीं।  
    यही सब कांग्रेस में भी हुआ। प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ ने बागियों को बुला-बुलाकर समझाया, कुछ को फोन करके आगे ध्यान रखने का भरोसा दिलाया। घोषित 230 उम्मीदवारों में से 7 के नाम बदल भी दिए। इससे कुछ जगह समीकरण बदले, पर अब नतीजे बताएंगे कि समझाइश कितनी असरदार रही। उनके साथ पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भी मोर्चा संभाला। घूम-घूमकर नाराज नेताओं को अपने प्रभाव और आश्वासन से मनाने की कोशिश की। दिग्विजय सिंह ने तो चुनाव से 6 महीने पहले ही एक मोर्चा संभाला था। उन्होंने उन 66 सीटों को चुना, जो कांग्रेस ऐसी ही बगावत की वजह से पिछले तीन से पांच चुनाव नहीं जीत सकी। उन्होंने एक-एक इलाके में जाकर वहां दावेदारों को कसम खिलाई कि उम्मीदवार कोई भी हो, कोई बगावत नहीं करेगा। इसका असर भी हुआ, पर पूरी तरह नहीं। अब भाजपा और कांग्रेस में बागियों से बचकर किसने अपना पलड़ा भारी रखा, ये तो नतीजे ही बताएंगे।      
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