Tuesday, May 28, 2024

हीरों के बाजार में तवायफों की मंडी

 
     अभी तक तवायफों के कथानक पर जितनी भी फ़िल्में बनी, उनमें संजय लीला भंसाली की वेब सीरीज 'हीरामंडी' सबसे अलग है। 'पाकीजा' और 'उमराव जान' भी इसके सामने फीकी है। इस वेब सीरीज का सबसे सशक्त पक्ष है भव्य सेट, भारी-भरकम पोशाख और 1940 के आसपास का लाहौर। ये फिल्मों की तरह दो-ढाई घंटे में अपनी कहानी नहीं समेटती, बल्कि आठ हिस्सों में आठ घंटे तक दर्शकों को बांधकर रखती है। लाहौर की दो तवायफों के बीच आपसी वर्चस्व की ये कहानी अंत तक पहुंचते-पहुंचते देश की आजादी के लिए लड़ने वाले क्रांतिकारियों से जुड़ जाती है।  
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- हेमंत पाल

    फ़िल्मी दुनिया में प्रतिभाओं को अभिव्यक्त करने की अपनी अलग ही भाषा है। इसमें सिर्फ फिल्मों के कलाकार ही नहीं, बल्कि निर्देशकों को भी उनकी क्षमता के मुताबिक पदवी दी जाती है। ऐसी ही एक पदवी है 'शो मैन' की। फिल्म इंडस्ट्री का पहला 'शो मैन' राज कपूर को माना जाता है, जिनके फिल्मांकन का कैनवस बहुत भव्य होता था। उनकी अधिकांश फिल्मों में ये दिखाई भी देता है कि जब किसी कथानक पर काम करते थे, तो उसमें डूब से जाते थे। उनके बाद यही नाम सुभाष घई को दिया गया। उनकी फिल्मों का कलेवर और कैनवस भी बहुत विशाल होता था। उनके बाद 'शो मैन' का ख़िताब मिला संजय लीला भंसाली को जिन्होंने अपनी फिल्मों को एक नया स्वरुप दिया। हम दिल दे चुके सनम, देवदास, बाजीराव मस्तानी और 'पद्मावत' जैसी उनकी फिल्मों में दर्शकों ने अलग ही भव्यता देखी। अब अपनी वही प्रतिभा वे अपनी पहली ओटीटी वेब सीरीज 'हीरामंडी' में ले आए। पहले वे इस विषय पर बड़े परदे के लिए भव्य फिल्म बनाना चाहते थे। लेकिन, फिल्म की कहानी इतनी फैली हुई थी, कि उसे दो-ढाई घंटे में समेटना आसान नहीं था। इसका विकल्प यही था कि इसे वेब सीरीज का रूप दिया जाए। अब आठ भागों की जो वेब सीरीज प्रकट हुई है, तो उसने ओटीटी की परिभाषा ही बदल दी।    
      इस वेब सीरीज के रिलीज होने के साथ ही संजय लीला भंसाली अच्छी खासी चर्चा में हैं। खास बात यह कि उनको लेकर हो रही सारी चर्चा उनके काम के स्तर और सकारात्मक पक्ष को लेकर है। 'हीरामंडी' जैसे तवायफों के विषय को उन्होंने जिस भव्यता से फिल्माया और बारीकियों का ध्यान रखा, वो उनके काम के प्रति समर्पण को दर्शाता है। संजय लीला भंसाली अपने काम से कोई समझौता नहीं करते, यही कारण है कि उन्हें राज कपूर और सुभाष घई की तरह या यूं कहें कि उनसे कहीं ज्यादा बड़ा 'शो मैन' कहा जाता है। 'हीरामंडी' एक पीरियड कथानक है, जो 1940 और उसके आसपास के दौर की कहानी कहता है। ख़ास बात यह भी है कि भारत के किसी शहर की नहीं, बल्कि ये बंटवारे से पहले पाकिस्तान के शहर लौहार की कहानी है। 'हीरामंडी' तवायफों का इलाका हुआ करता था, जिसे लेकर यह कहानी गढ़ी गई। वो दौर आजादी के आंदोलन का भी रहा, तो उसमें आजादी के लिए संघर्ष करने वाले क्रांतिकारियों को भी जोड़ा गया। शुरूआत के कुछ एपिसोड देखकर नहीं लगता कि 'हीरामंडी' की दो प्रतिद्वंदी तवायफों का किस्सा अंत तक आते-आते क्रांतिकारियों से जुड़ जाएगा और क्लाइमेक्स भी उसी पर केंद्रित होगा, पर हुआ यही! संजय लीला भंसाली का कहानी को फिल्माने का अपना अलग ही तरीका है, जो 'हीरामंडी' में भी दिखाई दिया। 'हीरामंडी' सिर्फ आठ घंटे के आठ एपिसोड तक फैली लंबी कहानी ही नहीं है, इसमें बहुत कुछ ऐसा है, जो अपने आप में अनोखा कहा जाएगा। 
    सेट की भव्यता तवायफों की पोशाख बताती है, कि संजय लीला भंसाली ने उस समय के दौर को कितनी गंभीरता से समझा और उसका फिल्मांकन किया। लेकिन, इस भव्यता से वेब सीरीज के बजट का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। नवाबों और महाराजाओं के उस समय काल में तवायफों की समाज में क्या जगह थी और तहजीब को लेकर उन्हें किस तरह इज्जत बख्शी जाती थी, ये 'हीरामंडी' देखकर ही पता चलता है। गौर करने वाली बात यह भी है कि फिल्म का काफी कुछ हिस्सा कम रोशनी में फिल्माया गया, जो थोड़ा खलता है। फिर भी ये निर्देशक की अपनी पकड़ है, कि वे दर्शकों को इसका अहसास नहीं होने देते।     
     संजय लीला भंसाली के लिए तवायफों की दुनिया शुरू से ही रुचि का विषय रहा है। पहले उन्होंने 'देवदास' की चिर-परिचित कहानी को अपने अंदाज में फिल्माया। इसके बाद 'गंगूबाई काठियावाड़ी' के जरिए तवायफों की जिंदगी के दुख-दर्द के अंदर झांका। जबकि, 'हीरामंडी' भी इन्हीं तवायफों की जिंदगी का सच बखान करती है, पर कुछ अलग अंदाज में। 'हीरामंडी' की ये तवायफें अभाव में नहीं जीतीं और न किसी से डरती हैं। अंग्रेजी शासनकाल में भी उनकी दबंगता का अपना अलग ही अंदाज दिखाया गया। 'हीरामंडी' में मनीषा कोइराला और उनसे जुड़ी तवायफों के जरिए इस बाजार की शानो-शौकत को दिखाया गया है। जिसमें मनीषा कोइराला और सोनाक्षी सिन्हा की आपसी प्रतिद्वन्द्विता में बाजार पर कब्जे का संघर्ष है। इनके बीच शर्मीन सहगल को अड्डे की ऐसी लड़की बताया गया, जो तवायफों की दुनिया से निकलना चाहती है। उसे शायरी करना पसंद है, पर वो बाहर निकल नहीं पाती। वो जिसके सहारे इस दलदल से निकलने की कोशिश करती है, उसी की वजह से अंग्रेज सरकार के निशाने पर भी आ जाती है। 
      पहली बार परदे पर दिखाया गया कि आजादी के संघर्ष में तवायफों की भी अपनी भूमिका रही। ये वास्तव में हुआ भी या नहीं, यह तो पता नहीं! पर, संजय लीला भंसाली ने अपनी इस वेब सीरीज में जिस तरह घटनाओं के मनकों को पिरोया है, वो देखते समय तो सच जैसा लगता है। क्योंकि, कैनवस की भव्यता और कहानी की कसावट दर्शक को कुछ और सोचने का मौका ही नहीं देती। इससे यह भी प्रतीत होता है कि यदि निर्देशक की कल्पनाशीलता विशाल हो और बजट कोई मुद्दा नहीं हो, तो सामान्य से कथानक को भी भव्यता दी जा सकती है। 'गोलियों की रासलीला: रामलीला' के बाद संजय लीला भंसाली ने पीरियड और कॉस्टयूम ड्रामा को लेकर लगातार प्रयोग किए। इसके बाद बाजीराव मस्तानी, पद्मावत और 'गंगूबाई काठियावाड़ी' में भी कॉस्ट्यूम ड्रामा ही था। पर, 'हीरामंडी' में उसका भव्य रूप नजर आता है। यह इसलिए भव्य कहा जाएगा कि भंसाली ने यह सब डिजिटल प्लेटफॉर्म के लिए रचा। वे यथार्थ की दुनिया से लाहौर की तवायफों का स्वप्नलोक गढ़ने में सफल रहे।  
     संजय लीला भंसाली ने 'हीरामंडी' के जरिए उस दौर के नवाबों की दुनिया का नजारा तो दिखाया ही साथ ही तवायफों की समाज में इज्जत और उनका दबदबा भी दिखाया। 'हीरामंडी' तवायफों की वो दुनिया थी, जहां नवाबों की अय्याशी पलती थी और ये उनकी बेगमों को स्वीकार भी था। तवायफ़ों को लाहौर के इस बाजार से महफिल सजाने के लिए बुलाया जाता था। लेकिन, वैश्याओं की तरह नहीं, बल्कि नाचने-गाने वाली फ़नकारा की तरह। उन्हें मेहमान की तरह आमंत्रित किया जाता और बकायदा इज्जत बख्शी जाती। नवाबों के यहां इन्हीं तवायफों को तहजीब की पाठशाला कहा जाता था। एक दृश्य में कुदसिया बेगम (फरीदा जलाल) लंदन से पढ़कर लौटे अपने पोते ताजदार से कहती हैं 'हिंदी जुबां और रिवायतें हम नहीं सिखा सकते, इसके लिए आपको 'हीरामंडी' जाना होगा।' इस पर ताजदार कहता है कि वहां तो अय्याशी सिखाते हें। इस पर दादी कहती हैं, व्हाट नानसेंस। वहां तो सारे नवाब जाते हैं। वहां अदब सिखाते हैं, नफासत सिखाते हैं ... और इश्क भी।
वेब सीरीज के चर्चित डायलॉग 
●  ये शाही महल की पुरानी दीवारें हैं, इसे पार नहीं कर सकती। पुरानी दीवारें पार नहीं की जाती, तोड़ दी जाती है।
●  शराफत हमने छोड़ दी, मोहब्बत ने हमें छोड़ दिया। अब सिर्फ बगावत ही हमारी जिंदगी को मायने दिला सकती है। 
●  एक बार मुजरे वाली नहीं मुल्क वाली बनकर सोचिए।
●  हम चाँद हैं जो दिखता तो है खिड़की से मगर किसी के बरामदे में नजर नहीं आता। 
●  ये मल्लिका जान का दामन है इतने से खून से इसकी प्यास नहीं बुझती।
●  ये शाही महल है और यहाँ के खुदा हम है। 
●  नवाब जोरावर अली खान जब जूता भी मारता है, तो सोने का मारता है, मल्लिका जान।
●  मोहब्बत और बगावत के बीच कोई लकीर नहीं होती और इश्क और इंकलाब के बीच कोई फर्क नहीं होता।
●  दर्द इतना है कमबख्त कि हकीम दवा की जगह मौत लिख दे।
      फिल्म कलाकारों में जिस तरह आमिर खान को मिस्टर परफेक्शनिस्ट कहा जाता है, तो निश्चित रूप से संजय लीला भंसाली भी उनसे कम नहीं हैं। सोनाक्षी सिन्हा, ऋचा चड्ढा, शर्मिन सेगल, संजीदा शेख और मनीषा कोइराला जैसे कलाकारों के पास 'हीरामंडी' को लेकर कई अनुभव है जो उन्होंने वेब सीरीज रिलीज होने के बाद कई इंटरव्यू में बताए। संजय लीला भंसाली अपने काम को लेकर कितने गंभीर हैं, इस बारे में ऋचा चड्ढा ने एक इंटरव्यू में बताया कि आपने वो पोस्टर्स तो देखें होंगे, जिनमें मेरे सिर पर फूल हैं। वो फूल कई बार बदले गए। भंसाली जी हर थोड़ी देर बाद बोलते थे कि इन गुलाब को बदल दो! संजीदा शेख ने भी ऐसा ही एक अनुभव बताया कि सेट पर सिर्फ कलाकार ही एक्टिंग नहीं करते, सेट पर रखी कुर्सियां और परदों की भी अहम् भूमिका होती है। परदों की क्रीज का भी ध्यान रखा जाता है। सोनाक्षी सिन्हा ने भी संजय लीला भंसाली की तारीफ की और कहा कि उनके जैसा विजन किसी के पास नहीं है। कभी डेकोरेटिव लैंप बुझ जाता था, कभी परदे हवा से नहीं हिलते या कभी ड्रेस की ड्रेप ठीक नहीं होती तो एक ही टेक कई बार शूट किया जाता। संजय लीला भंसाली की भांजी शर्मिन सेगल ने तो अनोखी बात बताई कि शूटिंग के बाद भंसाली जी ने कैमरे में एक धागा देख लिया। दरअसल, एक क्लोजअप शॉट में ड्रेस से धागा निकलता दिख रहा था, तो उन्होंने सीन को कट किया और वो सीन फिर से शूट हुआ। संजय लीला भंसाली ने आजादी से पहले के दौर की लाहौर की हीरामंडी की जो कहानी रची है, वो भले काल्पनिक हो, पर 'हीरामंडी' इलाका सही है। यह पाकिस्तान के लाहौर शहर का रेडलाइट एरिया है। जिसमें एक वक़्त पर हीरे, जेवरात बिका करते थे, इसलिए इसे हीरामंडी कहा जाने लगा। 
      कहा जाता है कि सिख महाराज रणजीत सिंह के मंत्री हीरा सिंह के नाम पर इसका नाम हीरामंडी रखा गया था। उन्होंने इस इलाके में पहले अनाज मंडी बनवाई इसके बाद यहां तवायफ़ों को बसा दिया था। तब के दौर में कई देशों से संगीत, नृत्य, तहजीब और कला से जुड़ी औरतों को यहां लाया जाता था। लेकिन, अंग्रेज शासन के बाद हीरामंडी उजड़ने लगा था। फिर यहां वेश्यावृत्ति पनपने लगी। 90 के दशक के बाद से हीरामंडी पूरी तरह बिखर गया। 2010 में हीरामंडी के  तरन्नुम सिनेमा के पास दो बम धमाके हुए और इसके बाद पूरे इलाके का कामकाज बंद हो गया। 'हीरामंडी' की कहानी पूरे आठ भागों में अद्भुत भव्यता से फिल्माई गई ऐसी कहानी है, जिसकी किसी और वेब सीरीज या तवायफों वाली फ़िल्मी कहानी से तुलना नहीं की जा सकती। इस वेब सीरीज ने ऐसे विषयों पर बनी और बनने वाली सभी फिल्मों के सामने एक ऊंची लाइन जरूर खींच दी कि तवायफों की फ़िल्में सिर्फ तवायफों के अड्डों और मुजरों तक सीमित नहीं होती। उनमें और भी बहुत कुछ होता है, जिसे खोजा जाना चाहिए, जैसा कि संजय लीला भंसाली ने किया।         
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कहानी सच्ची हो तो 'अमर सिंह चमकीला' जैसी

- हेमंत पाल

       जब फिल्मों की शुरुआत हुई, तब बरसों तक गढ़ी कहानियों पर फ़िल्में बनाई जाती रही। फिर राजा-महाराजाओं के किस्सों और धार्मिक कथाओं के आधार पर फ़िल्में बनाई गई। पर, वक्त के साथ इसमें बदलाव आते रहे। दर्शकों का मनोरंजन करने के लिए नए-नए विषय खोजे गए। सामाजिक स्थितियों से उत्पन्न घटनाओं को कथानक का रूप देकर उसे फिल्माया जाने लगा। लेकिन, दर्शक की पसंद कभी एक जैसी नहीं रहती। कुछ दिनों में वह एक से कथानक जैसी फिल्मों से ऊबने लगता है। फिल्मकारों ने इसका भी उपाय खोजा और अलग-अलग क्षेत्रों में अपनी उपलब्धियों से लोगों की नजरों में छाए लोगों पर फ़िल्में बनाई। इस तरह की बायोपिक फिल्मों को पसंद किया गया। अब फिल्मकार उसमें भी रोचक किरदारों के साथ घटनाएं ढूंढने लगे। क्योंकि, कई बायोपिक को दर्शकों ने नापसंद किया। ऐसे में कुछ सालों से सच्ची घटनाओं पर आधारित फिल्मों का चलन बढ़ा। ऐसी फिल्में कारोबार भी अच्छा कर रही हैं। सच्ची कहानियों पर फ़िल्में बनाना आसान नहीं है। साथ ही यह अनिश्चय वाला प्रयोग है, फिर भी ये दर्शकों को पसंद आ रहा। इसलिए कि दर्शक घटना के सच से वाकिफ होना चाहते हैं। 
    सच्ची घटनाओं पर बनी फिल्मों में गुंजन सक्सेना, छपाक के बाद '12वीं फेल' और 'अमर सिंह चमकीला' ने जिस तरह सफलता पाई, वो चमत्कृत करने वाली बात है। 12वीं फेल ने एक औसत क्षमता वाले स्टूडेंट की जिद बताई जिसे अफसर बनना है। मुश्किल हालात के बावजूद वो आईपीएस बनता है। जबकि, 'अमर सिंह चमकीला' पंजाब के गायक पर बनी फिल्म है, जिसने 80 के दशक के इस गुमनाम हो चुके पंजाबी गायक को चारों तरफ फिर लोकप्रिय बना दिया। 80 के दशक का जो गायक अभी तक पंजाब तक सीमित था और वक़्त ने उसकी यादों को भी भुला दिया था, वो देश-विदेश में पहचाना जाने लगा। फिल्म 'अमर सिंह चमकीला' को सिर्फ बायोपिक नहीं कहा जा सकता। ये पंजाब के लोक गायक अमर सिंह चमकीला के उत्थान और अंत से जुड़ी कहानी है। मुख्य किरदार निभाने वाले दिलजीत दोसांझ भी इस फिल्म से दर्शकों की आंख का तारा बन गए। इम्तियाज अली की इस फिल्‍म ने कहानी को बखूबी दर्शाया। इसमें पंजाब की परंपरा और लोगों के संगीत के शौक को फिल्माया। फिल्म की खास बात यह भी कही जा सकती है कि इसमें चमकीला की कमजोरियों को छिपाने की कोशिश नहीं की गई। उन पर गंदे गाने का आरोप लगा, तो उसे उसी तरह फिल्माया भी गया। यही वजह है कि 'अमर सिंह चमकीला' सच्ची कहानियों वाली फिल्मों के लिए मील का पत्थर बन गई।         
       सच्ची कहानियों वाली फिल्मों के इतिहास को कुरेदा जाए तो युद्धकाल के हालात पर ऐसी फ़िल्में ज्यादा बनी है। फिल्म 'गुंजन सक्सेना: द कारगिल गर्ल' (2020) देश की पहली महिला एयरफोर्स पायलट के जीवन और युद्ध क्षेत्र की एक घटना पर बनी है। फिल्म में जाह्नवी कपूर की मुख्य भूमिका है। कथानक के अनुसार, यह 1999 में कारगिल युद्ध के दौरान एक महिला फ्लाइंग ऑफिसर के शौर्य की कहानी है, जब उसने एक चीता विमान को विपरीत परिस्थितियों में युद्ध क्षेत्र में उतारा और कई सैनिकों को बचाया था। 'शेरशाह' (2021) भी युद्ध की स्थितियों में बनी सफल फिल्म रही। इसमें सिद्धार्थ मल्होत्रा ने कारगिल युद्ध के शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा किरदार निभाया है। इस फिल्म में विक्रम बत्रा के युद्ध के मैदान में दिखाए अदम्य साहस का कथानक है। फिल्म में कियारा आडवाणी ने विक्रम बत्रा की प्रेमिका डिम्पल की भूमिका की है।
      'उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक' (2019) एक एक्शन फिल्म है। इसका कथानक 2016 में पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर (पीओके) में आतंकवादी लॉन्च पैड के खिलाफ भारतीय सेना के सर्जिकल स्ट्राइक पर रचा गया है। उरी में आतंकवादी हमले में 19 भारतीय सैनिक मारे गए थे। यह फिल्म ऑपरेशन के दौरान हुई 11 अराजक घटनाओं के बारे में बताती है। इसमें विक्की कौशल, यामी गौतम के अभिनय को सराहा गया था। सनी देओल की हिट फिल्मों में से एक 'बॉर्डर' (1997) की कहानी सत्य घटना से प्रेरित है। फिल्म में 1971 के भारत-पाक युद्ध के समय लड़े गए लोंगेवाला के युद्ध को फिल्माया गया। जिसमें राजस्थान के लोंगेवाला पोस्ट पर 120 भारतीय जवान सारी रात पाकिस्तान की टाँक रेजिमेंट का सामना करते हैं।
      2016 में आयी फिल्म 'रुस्तम' युद्धकाल की कहानी तो नहीं सुनाती, पर ये नौसेना के एक अफसर रुस्तम (अक्षय कुमार) पावरी की पत्नी सिंथिया (इलियाना डिक्रूज) के विवाहेत्तर संबंधों पर बनी फिल्म है। ये नौसेना के अफसर केएम नानावटी की सच्ची घटना पर बनाई गई है। 2022 में आई फिल्म 'मेजर' की कहानी मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले (26/11) में शहीद हुए 51 एनएसजी जवान मेजर संदीप उन्नीकृष्णन की जिंदगी पर आधारित है। फिल्म 'द गाजी अटैक' भारत-पाकिस्तान के बीच हुए 1971 के युद्ध की सच्ची घटनाओं पर बनी। गाजी एक पाकिस्तानी पनडुब्बी थी, जिसे भारत के जांबाजों ने नष्ट किया था। 'मद्रास कैफे' श्रीलंका के तमिल उग्रवादियों के खिलाफ भारतीय सेना के हमले पर बनाई गई। 'परमाणु: द स्टोरी ऑफ पोखरण' युद्धक फिल्म  है, पर ये भारत की परमाणु तैयारियों पर बनी है। 
     फिल्म भारत के परमाणु बम के पोखरण में हुए परीक्षण की घटनाओं पर आधारित है। फिल्म में दिखाया गया है कि किन परिस्थितियों और मुश्किलों का सामना करते हुए परमाणु का सफल परीक्षण किया गया था। फिल्म 'भुज: द प्राइड ऑफ इंडिया' (2021) एक सत्य घटना पर बनाई गई। भारत-पाकिस्तान के बीच 1971 में युद्ध के दौरान गुजरात के भुज एयरबेस के रनवे को पाक सेना ने बमबारी करके तहस-नहस कर दिया था। उस वक्त भुज एयरबेस के तत्कालीन प्रभारी आईएएफ स्क्वाड्रन लीडर विजय कर्णिक और उनकी टीम ने गुजरात के मधापर व उसके आसपास के गांव की 300 महिलाओं की मदद से वायुसेना के एयरबेस का पुनः निर्माण किया था। फिल्म में  विजय कर्णिक की भूमिका अजय देवगन की है। 
    अक्षय कुमार की फिल्म 'केसरी' (2019) सारागढ़ी की प्रसिद्ध लड़ाई (1897) पर बनी है। इस युद्ध में 21 सिख सैनिकों ने 10 हजार पश्तून आक्रमणकारियों की सेना के खिलाफ बहादुरी और जोश के साथ लड़ाई लड़ी थी। ब्रिटिश भारतीय सेना की '36 सिख रेजिमेंट' के 21 जाट सिखों को सारागढ़ी में तैनात किया गया था। 'राजी' (2018) एक जासूसी कथानक पर बनाई गई फिल्म है। इसमें आलिया भट्ट ने 'राजी' की भूमिका निभाई है। वो भारतीय जासूस होती है, जिसकी शादी पाकिस्तानी सैन्य अधिकारी से शादी कर है। ये एक सच्ची कहानी पर आधारित है, जिसका कथानक 2008 में प्रकाशित हरिंदर सिक्का के उपन्यास 'कॉलिंग सहमत' पर आधारित है। 'सरबजीत' फिल्म (2016) पाकिस्तान की जेल में बंद भारतीय कैदी सरबजीत पर आधारित है। फिल्म में उनके और उनके परिवार के जीवन को बखूबी दर्शाया गया। फिल्म में रणदीप हुड्डा और ऐश्वर्या राय मुख्य किरदार निभाए हैं।      
     युद्ध के अलावा क्रिकेट और अन्य खेलों के कथानक पर भी कुछ फ़िल्में बनी। कुछ बायोपिक बनी तो कुछ किसी एक सच्ची घटना पर केंद्रित करके बनाया गया। विश्वकप क्रिकेट में 1983 में भारतीय टीम की जीत पर 2021 में बनी फिल्म '83' को कप्तान कपिल देव पर केंद्रित किया गया। इसमें रणवीर सिंह ने कपिल देव का रोल किया था। यह विश्व कप क्रिकेट में भारत की जीत पर बनी है। लेकिन, इस फिल्म को करीब चार दशक बाद बनाया गया, इसलिए दर्शक पचा नहीं पाए। 
    2016 में आई फिल्म 'एमएस धोनी : द अनटोल्ड स्टोरी' भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान की जिंदगी के उतार चढ़ाव को दिखाया गया। इस फिल्म में सुशांत सिंह राजपूत ने एमएस धोनी का किरदार बखूबी से निभाया है। इसी तरह की क्रिकेट वाली फिल्म 'शाबाश मिथु' (2022) भारतीय महिला क्रिकेटर मिताली राज की जिंदगी पर बनाया गया है। सचिन तेंदुलकर पर भी एक फिल्म बनाने की कोशिश हुई, पर ये महज वृत्तचित्र बनकर रह गई। आमिर खान की सफल फिल्मों में गिनी जाने वाली 'दंगल' (2016) भारतीय पहलवान गीता फोगाट, बबीता फोगाट और उनके पिता महावीर फोगाट के जीवन संघर्ष पर आधारित है। महिला पहलवान के शिखर तक पहुंचने वाली इस फिल्म ने बिजनेस भी अच्छा किया था। 2018 में रिलीज हुई अक्षय कुमार की 'गोल्ड' एक ऐतिहासिक स्पोर्ट्स ड्रामा फिल्म है। इसमें अक्षय कुमार ने तपन दास का किरदार निभाया है, जिसने 1948 के ग्रीष्मकालीन ओलंपिक में भारत के लिए हॉकी में पहला स्वर्ण पदक जीता था। यह 1948 के ग्रीष्मकालीन ओलंपिक में भारत की पहली राष्ट्रीय हॉकी टीम की यात्रा पर आधारित है।
     सिर्फ युद्धकाल और खेल की सच्ची कहानियों पर ही फ़िल्में नहीं बनाई गई, साहसिक और सामाजिक घटनाओं पर भी फ़िल्में बनी और पसंद की गई। ऐसी ही एक फिल्म बनी 'नीरजा' जो बहादुर फ्लाइट अटेंडेंट नीरजा भनोट की सच्ची कहानी पर है। वे 1986 के पैन अमेरिकन फ्लाइट हाईजैक के दौरान यात्रियों की रक्षा करते हुए मारी गई थी। इसके बाद 2020 में मेघना गुलजार के निर्देशन में फिल्म 'छपाक को विषय बनाया गया जो एसिड अटैक सर्वाइवर लक्ष्मी अग्रवाल की जिंदगी पर आधारित फिल्म है। इस फिल्म में दीपिका पादुकोण ने लक्ष्मी का किरदार निभाया, जिसे दर्शकों ने पसंद किया। इस फिल्म के जरिए ही एसिड अटैक सर्वाइवर लक्ष्मी अग्रवाल की कहानी घर-घर तक पहुंची।
     'छपाक' में उनके साथ अभिनेता विक्रांत मैसी और रोहित सुखवानी मुख्य भूमिका में थे। ऐसी ही एक सामाजिक कहानी थी रानी मुखर्जी की 'मिसेज चटर्जी वर्सेस नार्वे' जो बेहद संवेदनशील सच्ची कहानी पर आधारित है। कुछ सच्ची प्रेम कहानियां भी ऐसी फिल्मों का आधार बना। फिल्म 'मांझी: द माउंटेन मैन' (2015) ऐसी ही सच्ची प्रेम घटना पर बनाई गई है। बिहार के गया जिले युवक दशरथ मांझी ने अपनी पत्नी के प्यार में पहाड़ काटकर रास्ता बनाया था। क्योंकि, पहाड़ की वजह से उनकी पत्नी अस्पताल नहीं पहुंच पाई और उसकी मौत हो गई। छेनी और हथौड़े के सहारे मांझी ने 55 किलोमीटर की दूरी को 15 किलोमीटर की दूरी में बदल दिया था। 
     'एयरलिफ्ट' (2016) फिल्म 1990 में इराक-कुवैत युद्ध में फंसे एक लाख 70 हजार भारतीयों को सुरक्षित निकालने की सच्ची कहानी है। कुवैत में बसे कुछ भारतीयों की मदद और भारत सरकार की पहल पर एयर इंडिया के विमान 59 दिनों में 488 उड़ानों के जरिए सभी भारतीयों को सुरक्षित स्वदेश लेकर लौटे थे। फिल्म में अक्षय कुमार एक सफल व्यवसायी की भूमिका निभाते हैं जो अपने परिवार और अन्य लोगों को भारत पहुंचने तक सुरक्षित रखने का प्रयास करता है। पटना के प्रसिद्ध गणितज्ञ आनंद कुमार के जीवन और परिश्रम को दर्शाने वाली फिल्म सुपर-30 (2019) बायोपिक से ज्यादा प्रेरणादायक फिल्म है। यह बायोग्राफिकल ड्रामा फिल्म गणित के शिक्षक आनंद कुमार के जीवन और उनके शैक्षिक कार्यक्रम पर आधारित है। वास्तव में तो 'सुपर 30' पटना में रामानुजन स्कूल ऑफ मैथमेटिक्स द्वारा स्थापित एक भारतीय शैक्षिक कार्यक्रम है। इसमें ऋतिक रोशन ने आनंद कुमार का किरदार निभाया। प्रियंका चोपड़ा की फिल्म ‘द स्काई इज पिंक’ (2019) फिल्म 18 साल की चर्चित लेखिका आयशा चौधरी के कम उम्र में किए गए अद्भुत कार्यों और उनकी जिंदगी पर आधारित है।
      सच्ची कहानियों पर बनी फिल्मों की सूची कभी ख़त्म नहीं होगी। फिल्म 'रेड' (2018) सच्ची कहानी पर आधारित है। इसमें अजय देवगन, सौरभ शुक्ला और इलियाना डिक्रूज ने काम किया हैं। यह फिल्म 80 के दशक में सरदार इंदर सिंह पर आयकर विभाग की वास्तविक छापेमारी पर आधारित है। 2018 में आई 'केदारनाथ' (2018) का कथानक सच्ची प्राकृतिक त्रासदी वाली फिल्म है। इसी में पनपती है एक प्रेम कथा। जून 2013 में उत्तराखंड में अचानक आई बाढ़ में 169 लोग मारे गए और 4021 लोग लापता हो गए। संजय लीला भंसाली की 'गंगूबाई काठियावाड़ी' (2022) गंगूबाई हरजीवनदास की सच्ची कहानी पर आधारित बनी फिल्म है। उन्होंने मुंबई के कमाठीपुरा में एक वेश्यालय चलाया, जिसने ग्राहकों के रूप में कई कुख्यात अपराधियों को भी आकर्षित किया। गंगूबाई की भूमिका आलिया भट्ट ने निभाई है। फिल्म 'आर्टिकल-15' (2019) बदायूं में 2014 में हुए कांड पर आधारित है जिसने उत्तर प्रदेश के जातिवाद का बेहद खराब दिखाया था। पिछड़े वर्ग की दो लड़कियां एक पेड़ से लटकी मिली थीं। लड़कियों के घरवालों का आरोप था कि सीबीआई की रिपोर्ट झूठी है। क्योंकि, लड़कियों के साथ ये कृत्य करने वाले ऊंची जाति के लोग हैं। वास्तविक घटनाओं पर फ़िल्में बनने का सबसे बड़ा फ़ायदा ये होता है कि दर्शक उसका क्लाइमेक्स जानता है फिर भी सारा घटनाक्रम जानने उसमें उत्सुकता बनी रहती है।  
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सिनेमा से बड़ा बनकर उभरा ओटीटी

     फिल्मों के सभी बड़े सितारे धीरे-धीरे ओटीटी के परदे में समा गए। यहां तक कि नामी फिल्म डायरेक्टरों ने भी ओटीटी प्लेटफॉर्म के लिए फ़िल्में और वेब सीरीज बनाना शुरू कर दिया। मनोरंजन के इस माध्यम ने कुछ ऐसे सितारों को भी जन्म दिया, जो फ़िल्मी सितारों से ज्यादा लोकप्रिय हो गए। ओटीटी के आने से पारंपरिक सिनेमा और टीवी के अलावा भी कुछ अभिनेताओं को अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए नया प्लेटफॉर्म मिला। यह माध्यम वेब सीरीज निर्माताओं के साथ नए कलाकारों के लिए भी रास्ते खोल रहा है। ओटीटी ने भौगोलिक और भाषा की सीमाओं से परे दर्शकों को प्रभावित किया है। इस ठिकाने से मनोरंजन की दुनिया में बड़ा बदलाव देखने को मिला। 
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- हेमंत पाल

    कोरोना काल के बाद मनोरंजन का चेहरा काफी कुछ बदल गया। महामारी के कारण जब सारे सिनेमाघर बंद कर दिए गए थे, उस दौर में दर्शकों की मनोरंजन की कमी ओटीटी प्लेटफॉर्म ने पूरी की। करीब डेढ़ साल तक इसी माध्यम दर्शकों ने कई घंटों तक दिल बहलाया। तब तो इस तरह की समीक्षा का समय नहीं था कि ओटीटी प्लेटफार्म पर क्या अच्छा है और नहीं! पर, जब कोरोना काल ख़त्म हुआ और सिनेमा घरों के दरवाजे खुले, तब भी दर्शकों का ओटीटी मोह ख़त्म नहीं हुआ। अब महामारी के वे बुरे दिन बीत गए, फिल्मों का पुराना दौर लौट आया, फिर भी ओटीटी का मोह ख़त्म नहीं हुआ। कोरोना के समय तो ओटीटी पर दर्शकों ने अपनी पसंद-नापसंद का ध्यान नहीं रखा। क्योंकि, उस समय मनोरंजन का कोई और विकल्प नहीं था, पर अब ओटीटी ने अपना स्तर फिल्मों की तरह सुधार लिया। बल्कि, कुछ मामलों में फिल्मों से बेहतर हो गया। जिस फिल्म इंडस्ट्री को अपने सर्वशक्तिमान होने का दंभ था, वह भी ओटीटी के सामने शरणागत हो गया। 
     एक समय था जब फिल्मों में वही चलता, जिसका नाम होता था। प्रतिभा होने के बावजूद नए कलाकारों को बड़ी मुश्किल से मौका मिलता रहा। लेकिन, अब वो दौर नहीं रहा। ओटीटी ऐसे कई ऐसे नए कलाकारों को सामने लाने और अपनी अदाकारी दिखाने का जरिया बना, जिनके सपनों पर जंग लगने लगी थी। इनमें कई ऐसे चेहरे भी हैं, जिन्हें फिल्मकारों ने नकार दिया था, पर आज वे ओटीटी के सितारे हैं। फिल्म इंडस्ट्री में यह बदलाव बरसों बाद आया। दरअसल, ये हालात दो तरह से आए। एक तो नए कलाकारों को इस प्लेटफॉर्म ने मौका दिया और सिनेमा के नामी सितारों को इस सच्चाई से वाकिफ कराया कि अच्छा कथानक, अच्छा निर्देशन और अच्छी अदाकारी कहीं भी हो उसे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता।    
    जयदीप अहलावत आज ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आने वाली वेब सीरीज के बड़े कलाकार हैं। उनकी अपनी पहचान है। पर, एक समय वे फिल्मों में छोटे-मोटे रोल तक सीमित थे। अक्षय कुमार की फिल्म 'खट्टा मीठा' और आलिया भट्ट की 'राज़ी' से उन्हें पहचाना तो गया, पर उतना काम नहीं मिला। लेकिन, 'पाताल लोक' वेब सीरीज ने उन्हें दर्शकों की आंख में ला दिया। अपनी अदाकारी से उन्होंने साबित कर दिया, कि वे जिस तरह के कलाकार थे, उसे सिर्फ ओटीटी ने साबित किया। ऐसे ही एक कलाकार हैं प्रतीक गांधी जिन्होंने हर्षद मेहता पर बनी वेब सीरीज '1992 : द स्कैम' में लीड रोल किया और देखने वालों के दिल पर छा गए। जबकि, इससे पहले वे गुजराती फिल्मों और थिएटर तक सीमित थे। वे अच्छे कलाकार हैं, पर उन्हें पहचाना गया ओटीटी की वेब सीरीज जरिए ही। 
     'मिर्ज़ापुर' जैसी हिट वेब सीरीज़ में निगेटिव लीड रोल निभाने वाले दिव्येंदु शर्मा को 'बत्ती गुल मीटर चालू' में श्रद्धा कपूर के साथ रोमांस करने का मौका इसीलिए मिला कि उन्होंने 'मिर्जापुर' से नाम कमाया। सीज़न 2 में उनका कैरेक्टर खत्म जरूर हो गया, पर उनके मुन्ना भैया के किरदार को भुलाया नहीं जा सकेगा। फिल्म इंडस्ट्री में विक्रांत मेसी दस साल तक छोटे-छोटे किरदार निभाते रहे। लेकिन, सितारों की रोशनी में उनकी कोई चमक दिखाई नहीं देती थी। लेकिन, जब वे 'मिर्ज़ापुर' वेब सीरीज़ में बबलू और 'क्रिमिनल जस्टिस' में आदित्य बने तो दर्शकों ने उनकी अदाकारी लोहा माना। मानवी गगरू ने नो वन किल्ड जेसिका, आमरस में और यहाँ तक कि 'पीके' में भी सपोर्टिंग रोल किए। किंतु, जब दर्शकों ने 'ट्रिपलिंग' में मानवी को देखा तो वे समझ गए इस लड़की की ऐक्टिंग में दम है। इसके बाद ही उन्हें 'शुभ मंगल ज़्यादा सावधान' और 'उजड़ा चमन' जैसी फिल्मों में लीड रोल का मौका मिला। 
      वेब सीरीज 'फर्जी' में अपराध की दुनिया में शाहिद कपूर के पार्टनर बने भुवन अरोड़ा ने फ़िरोज़ की भूमिका में अपने काम से दर्शकों को प्रभावित किया। यह अब तक कि सबसे स्ट्रीमिंग वेब सीरीज में से एक है। टीवी सीरियल में करण टॅकर जाना माना नाम थे। लेकिन, उनके करियर में मोड़ आया नीरज पांडे के 'स्पेशल ऑप्स' से। इसमें उन्होंने अपनी वास्तविक प्रतिभा दिखाई। 'खाकी: द बिहार चैप्टर' में आईपीएस अमित लोढ़ा की लाइफ को चित्रित करते हुए प्रशंसा अर्जित की। ये भी सफल ओटीटी शो में से एक रहा। इसी तरह ताहा शाह बदूशा ने 'लव का द एंड' में श्रद्धा कपूर के साथ चॉकलेट बॉय का रोल निभाया। उन्होंने मैग्नम ओपस, ताज: डिवाइडेड बाय ब्लड के साथ खतरनाक राजकुमार मुराद के किरदार में अपना कौशल दिखाया। इस शो ने मुगल राजवंश के कई अनकहे रहस्यों को उजागर किया और ताहा को एक कलाकार के रूप में पहचान दी।
    वेब सीरीज 'क्लास' में नीरज की भूमिका में गुरफतेह सिंह पीरजादा ने अपनी अलग छाप छोड़ी। स्पेनिश हिट शो 'एलीट' के रूपांतरण शो 'क्लास' ने अपना मूल भाव नहीं खोया और ओटीटी के दर्शकों की भावनाओं  झंकृत कर दिया। गुरफतेह सिंह पीरजादा को दर्शकों ने पहले 'ब्रह्मास्त्र' और 'गिल्टी' में भी देखा था। लेकिन 'क्लास' में गंभीर प्रदर्शन से अलग  बनाई। वेब सीरीज 'जुबली' ने नए सितारे सिद्धांत गुप्ता को जन्म दिया। आत्मविश्वास से भरपूर किरदार में उन्होंने दर्शकों को प्रभावित किया। उन्हें भविष्य के सबसे होनहार सितारों में से एक बना दिया। 'इनसाइड एज' और 'सिल्वर स्क्रीन' पर अपने काम की काबिलियत की झलक दिखाने के बाद सिद्धांत गुप्ता ने 'जुबली' से अपनी क्षमता को साबित किया। थिएटर से आने वाले जिम सर्भ ने फिल्म और ओटीटी समेत सभी माध्यमों पर अपनी छाप छोड़ी। इसके अलावा 'पद्मावत' और 'मेड इन हेवन' जैसी फिल्मों में भी उन्होंने अच्छा काम किया। 'रॉकेट बॉयज़' में डॉ होमी भाभा के किरदार में उन्होंने न केवल प्रशंसा बटोरी बल्कि पुरस्कारों में भी हिस्सेदारी की। ये वो कलाकार हैं जिन्हें दर्शक चेहरे से जानते हैं। 
    कोरोना काल समाप्त हो गया, पर महामारी के दौर ने दर्शकों को घर में ही मनोरंजन की दुकान का रास्ता जरूर बता दिया। जब टीवी आया, तब भी मनोरंजन की दुनिया में इतना बड़ा बदलाव नहीं आया था, जो ओटीटी से आया। सबसे बड़ा चमत्कार तो यह हुआ कि बड़े परदे के नामी सितारों ने भी ओटीटी में अपनी हिस्सेदारी ढूंढ ली। सिर्फ एक्टिंग में ही नहीं वेब सीरीज निर्माण में भी ये सितारे और फ़िल्मकार उतर आए। संजय लीला भंसाली के बाद अब फिल्म इंडस्ट्री में उनसे कोई बड़ा डायरेक्टर नहीं बचा, जो ओटीटी में नहीं आया हो! अब दर्शक घर में बैठकर मनोरंजन करना पसंद करने लगे। बॉबी देओल, नसीरुद्दीन शाह, अरशद वारसी काजोल, करिश्मा कपूर और अभिषेक बच्चन जैसे कई कलाकारों ने ओटीटी पर डेब्यू किया। कई नामचीन और बड़े स्टार्स ने फिल्मों और वेब सीरीज के जरिए डेब्यू किया। रवीना टंडन ने ओटीटी पर अपना डेब्यू 'आरण्यक' के साथ किया। इसमें वे पुलिस वाले की भूमिका निभा रही हैं। वे एक हत्या के मामले का पता लगाने के लिए कोई मौका नहीं छोड़ती है।
     अजय देवगन की रूद्र, रवीना टंडन की आरण्यक, माधुरी की 'फेम गेम' और सुष्मिता सेन की आर्या-1 और आर्या-2। ने इन्हें नईदुनिया रास्ता दिखा दिया। अजय देवगन 'रुद्र : द एज ऑफ डार्कनेस' की रिलीज के साथ अपना एक्चुअल ओटीटी डेब्यू करने वाले हैं। इस सीरीज में वे एक पुलिस वाले की भूमिका निभाते हुए नजर आएंगे। उनके साथ ईशा देओल भी हैं। माधुरी भी ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आ चुकी है। अपने वेब शो 'फाइंडिंग अनामिका' से उन्होंने ओटीटी पर डेब्यू किया। यह एक थ्रिलर शो है। सोनाक्षी सिन्हा ने 'फॉलन' सीरीज से अपना ओटीटी डेब्यू किया।
     फिल्मों में बड़ी पहचान की मोहताज रही सुष्मिता सेन ने भी ओटीटी प्लेटफॉर्म पर अपना जलवा दिखाया। उनकी वेब सीरीज 'आर्या' में अपनी एक्टिंग से दर्शकों को उन्होंने चौंका दिया। इस शो का दूसरा सीजन भी आ गया। ओटीटी प्लेटफॉर्म के सराहे जाने के बाद कई सितारों ने ओटीटी पर डेब्यू किया। शाहिद कपूर ने वेब सीरीज ‘फर्जी’ से ओटीटी पर कमाल दिखाया। अनिल कपूर ने 66 की उम्र में ‘द नाइट मैनेजर’ से माध्यम को अपनाया। मनीष पॉल जैसे होस्ट और एक्टर ने फिल्म ‘रफूचक्कर’ से ओटीटी पर डेब्यू किया। आदित्य रॉय कपूर ने भी वेब सीरीज ‘द नाइट मैनेजर’ से ओटीटी पर धमाकेदार एंट्री की। करीना कपूर भी ओटीटी पर डेब्यू किया। वे ‘जाने जान’ में नजर आई। सोनाक्षी सिन्हा ने भी 'दहाड़' वेब सीरीज से ओटीटी पर कदम रखा। 
       मनोज बाजपेयी ने ऐसे किरदार निभाए, जिनकी तारीफ की गई। उन्हें हमेशा एक अच्छे कलाकार के तौर पर लोग याद किया गया। उनकी वेब सीरीज 'द फैमिली मैन' सीरीज ने उन्हें ओटीटी का बड़ा स्टार बना दिया। 'सेक्रेड गेम्स' से सैफ अली खान ने ओटीटी पर डेब्यू किया और दर्शकों को लुभा लिया। नवाजुद्दीन सिद्दीकी भी बड़े अभिनेताओं की लिस्ट में हैं। काजोल ड्रामा सीरीज़ 'द ट्रायल' में अपने प्रदर्शन और 'लस्ट स्टोरीज़-2' में अपनी भूमिका के साथ ओटीटी की दुनिया में भी कदम रखा। पंकज त्रिपाठी तो अपने प्रभावशाली अभिनय के लिए मशहूर हैं। मिर्जापुर, सेक्रेड गेम्स और 'क्रिमिनल जस्टिस' जैसी वेब सीरीज़ में उनकी भूमिकाओं ने उन्हें पहचान दिलाई। कियारा आडवाणी ने 'लस्ट स्टोरीज़' और 'गिल्टी' जैसे प्रोजेक्ट से ओटीटी पर नाम कमाया। नरगिस फाखरी ने 'टटलूबाज' में अभिनय के साथ काम शुरू किया। ओटीटी पर मनोज बाजपेयी की यात्रा असाधारण रही। ओटीटी ने उन्हें डिजिटल दुनिया में ख़ास भूमिका निभाने वाले कलाकार के रूप में स्थापित किया। द फैमिली मैन, रे, गुलमोहर और 'बंदा' जैसे शो उनकी प्रतिभा का प्रतीक है। 
      फिल्म इंडस्ट्री में कई कलाकार ऐसे हैं, जिनका सितारा बहुत कम वक्त के लिए ही चमका। इन कलाकारों ने जब इंडस्ट्री में कदम रखा तो दर्शकों ने जमकर प्यार लुटाया। लेकिन, बाद में इनके सितारे गर्दिश में चले गए। बॉबी देओल ऐसे ही कलाकार हैं। बॉबी की ही तरह कई ऐसे कलाकार हैं, जिनके करियर को ओटीटी ने बचाया। इस माध्यम ने ऐसे कई कलाकारों को जीवनदान दिया। बरसात, बिच्छू, सोल्जर और 'बादल' जैसी फिल्मों से चमके बॉबी देओल का अचानक ही बुरा वक्त शुरू हो गया। पर, ओटीटी ने उन्हें फिर स्टार बना दिया। बॉबी की 'आश्रम' सीरीज ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। अब तक इसके तीन सीजन आ गए। ऐसे ही अभिषेक बच्चन ने बॉब बिस्वास, दसवीं और 'द बिग बुल' जैसी फिल्मों से अपनी अलग पहचान बनाई है। जैकलीन फर्नांडिस ने 'मिसेस सीरियल किलर' से दर्शकों को बता दिया है कि अच्छे रोल मिलें तो वे कमाल कर सकती हैं। अर्जुन कपूर ने कोरोना काल के दौरान भूत पुलिस, संदीप और पिंकी फरार और 'सरदार का ग्रैंडसन' जैसी फिल्में ओटीटी पर रिलीज की। अभी आगे देखना है कि ओटीटी मनोरंजन की दुनिया में कहां-कहां अपना जादू चलाता है।  
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किस मज़बूरी में अक्षय बम ने चुनाव मैदान छोड़ा!

     इंदौर के कांग्रेस उम्मीदवार अक्षय बम ने अपना चुनाव नामांकन वापस लेकर सियासी गलियारों को गरमा दिया। कोई समझ नहीं पाया कि आखिर ये क्या और क्यों हुआ? भाजपा के सामने अक्षय बम बेहद कमजोर उम्मीदवार थे, इसमें शक नहीं, पर वे इस तरह मैदान छोड़कर भाग जाएंगे इसका अंदाजा नहीं लगाया गया था। खास बात यह कि वे कांग्रेस से उम्मीदवारी छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए। इसके पीछे कोई तो ऐसा पेंच है जो अभी सामने नहीं आया!
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- हेमंत पाल

     इंदौर से लोकसभा के कांग्रेस उम्मीदवार अक्षय कांति बम ने मैदान छोड़ दिया। नाम वापसी के दिन कुछ घंटे पहले हुए उनके इस फैसले के साथ ही राजनीतिक भूचाल आ गया। वे भाजपा विधायक रमेश मेंदोला और अन्य भाजपा नेताओं के साथ निर्वाचन कार्यालय पहुंचे और चुनाव से हट गए। इस अप्रत्याशित घटना से कांग्रेस में सन्नाटा है। किसी नेता के पास कोई जवाब नहीं, कि इसके पीछे क्या कारण हैं, ऐसा क्यों हुआ? खुद अक्षय बम ने भी अपने इस फैसले को लेकर कोई बयान नहीं दिया कि कांग्रेस से उनका मोहभंग क्यों हुआ! भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय की 'एक्स' पर की गई पोस्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि वे कांग्रेस से पल्ला छुड़ाकर भाजपा में शामिल होने जा रहे हैं।   
   इस बार के लोकसभा चुनाव में जिस तरह की चौंकाने वाली घटनाएं घट रही है, उसमें ये सबसे अनोखी है। खजुराहो में समाजवादी पार्टी की उम्मीदवार मीरा यादव का नामांकन परचा रद्द होना। क्योंकि, उन्होंने नामांकन ने दस्तखत नहीं किए थे। सूरत में कांग्रेस उम्मीदवार का परचा रद्द होना और भाजपा को छोड़कर सभी अन्य उम्मीदवारों का नाम वापस ले लेना। ... और अब इंदौर से कांग्रेस के लोकसभा उम्मीदवार का मैदान ही छोड़ देना, स्वाभाविक नहीं है। ये तीनों घटनाएं सोची-समझी और पहले से बनाई गई राजनीतिक पटकथा का हिस्सा लगती है। मध्य प्रदेश में खजुराहो के बाद इंदौर दूसरी लोकसभा सीट है, जहां अब 'इंडिया' गठबंधन का कोई उम्मीदवार भाजपा के सामने मुकाबले में नहीं है।
    अब सवाल उठ रहे हैं कि यदि इंदौर के कांग्रेसी उम्मीदवार अक्षय बम को चुनाव नहीं लड़ना था, तो उन्होंने महीनेभर सघन चुनाव प्रचार क्यों किया? चुनावी सभाएं क्यों की और पूरे प्रचार तंत्र पर बड़ी धनराशि क्यों खर्च की? इन सवालों का यही जवाब नजर आता है, कि जो हालात बने वो उनकी उम्मीदवारी के बाद ही सामने आए। इस वजह से उन्होंने मैदान से हटना बेहतर समझा। जो ख़बरें चर्चा में हैं उनके मंतव्य को समझा जाए और सीधे शब्दों में कहा जाए तो कांग्रेस का असहयोग और भाजपा के दबाव ने ही उन्हें मैदान से हटने के लिए मजबूर किया होगा।
    उनकी गिनती कांग्रेस के पैसे वाले उम्मीदवारों में जा रही थी। उनकी 14 लाख की घड़ी पहनने की खबर भी चर्चा में आई। इस सबके बावजूद शुरू से ही वे चुनाव जीत सकने की संभावनाओं से बहुत दूर थे। 1989 में इंदौर संसदीय सीट से सुमित्रा महाजन के चुनाव जीतने के बाद से यहां कांग्रेस का लगातार पतन होता गया। वे यहां से 8 बार चुनाव जीतीं। पिछली बार (2019) के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने शंकर लालवानी को मौका दिया और वे साढ़े 5 लाख से ज्यादा वोटों से चुनाव जीते। इस बार भी पार्टी ने शंकर लालवानी को ही उम्मीदवार बनाया। उनके सामने कांग्रेस के अक्षय बम बहुत हल्के उम्मीदवार लग रहे थे। यह उम्मीद भी नहीं की जा रही थी कि वे पिछली लीड को भी कम कर सकेंगे। अक्षय बम को टिकट देने का एक कारण यह भी देखा गया कि यहां से कोई कांग्रेसी नेता चुनाव लड़ने के लिए आगे भी नहीं आया। इसका आशय यही है कि अक्षय बम एक निश्चित्त हार के लिए मैदान में उतरे थे। अक्षय ने विधानसभा चुनाव में भी क्षेत्र-4 से टिकट मांगा था, लेकिन कांग्रेस ने उन्हें नहीं देकर राजा मांधवानी को कांग्रेस ने उमीदवार बनाया था। आज अक्षय बम की तरह वे भी भाजपा में शामिल हो गए।   
    अक्षय बम ने कांग्रेस क्यों छोड़ी और भारतीय जनता पार्टी क्यों ज्वाइन की, इसे लेकर जो खबरें सामने आई उसके मुताबिक कांग्रेस की तरफ से अक्षय बम को चुनाव के लिए कोई सहयोग नहीं मिल रहा था। न तो कोई स्टार प्रचारक उनके प्रचार के लिए इंदौर भेजा जा रहा था और न संगठन ने इसकी कोई तैयारी की। इसके अलावा उन्हें चुनाव के लिए कोई आर्थिक सहयोग भी नहीं दिया गया। सारा खर्च उन्हें ही करना था। यह भी पता चला कि स्थानीय नेता चुनाव का अधिकांश खर्च अक्षय बम से लेकर खुद अपने हाथ से करना चाहते थे, इसे लेकर उन्होंने विरोध भी जताया था। बताया गया कि बूथ के खर्च को लेकर कुछ नेताओं से उनके मतभेद भी हुए।   
    जब कांग्रेस उम्मीदवार की अपनी पार्टी से नाराजगी उभरने लगी तो भाजपा ने इसे मौके के रूप में लिया और उन्हें भाजपा में शामिल करने का दांव खेला। बताते हैं कि अक्षय बम को कांग्रेस की उम्मीदवारी से हटकर भाजपा में शामिल करने की रणनीति एक होटल में बनाई गई। भाजपा नेताओं ने उन्हें हर तरह के सहयोग देने का भरोसा दिलाया। शर्तें यह रखी कि वे चुनाव मैदान से हट जाएं। जिस तरह के हालात बने थे और जीत की कोई संभावना कहीं नजर नहीं आ रही थी, तो अक्षय बम के लिए यही ठीक था कि वे उम्मीदवारी छोड़ दें और वही हुआ भी। बताया जा रहा है कि इससे पहले भाजपा के सभी बड़े नेताओं से सहमति ली गई। उसके बाद यह तय किया गया कि उन्हें उम्मीदवारी से हटाने के बाद भाजपा में शामिल कर लिया जाए। 
     समझा जा सकता है कि इंदौर में अब भाजपा के लिए कोई चुनौती नहीं है। वैसे तो अक्षय बम को चुनौती माना ही नहीं जा रहा था। लेकिन, आज मैदान छोड़कर उन्होंने पिछली लीड कम करने की कांग्रेस की उम्मीदों को भी पलीता जरूर लगा दिया। कांग्रेस उम्मीदवार के भाजपा में जाने के बाद इसे पार्टी के लिए बड़े झटके के रूप में देखा जा रहा है। क्योंकि, इसकी भनक कांग्रेस में किसी को नहीं लगी। कांग्रेस का कोई नेता इस मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया भी नहीं दे रहा। सिर्फ कांग्रेस के मीडिया से जुड़े केके मिश्रा ने जरूर 'एक्स' पर अपनी नाराजगी भरी टिप्पणी जरूर की। उन्होंने बेहद तीखे शब्द लिखे 'अक्षय बम, तुम तो 'फुस्सी बम' निकले, तुमसे अच्छी तो वैश्यायें हैं, जो अपने प्रोफेशन के प्रति ईमानदार होती हैं, कितने में बिके हो? वक्त हमेशा बदलता है, जिस कारण बिके हो,वही कारण हमेशा कायम रहेगा और वही तुम्हें भविष्य में शिकंजे में भी लेगा!
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Wednesday, May 1, 2024

अब बहुत बदल गई सिनेमा की नायिका

- हेमंत पाल

   फिल्मों के बारे में एक आम धारणा रही है कि इसमें एक नायक होता है और एक नायिका। फिल्म की कहानी पूरी तरह नायक पर केंद्रित होती है और नायिका उससे प्रेम करती है, प्रेम गीत गाती है और फिल्म के अंत में दोनों की शादी हो जाती है। आशय यह कि फिल्म की कहानी में नायिका का बहुत ज्यादा योगदान नहीं होता। यह आज की बात नहीं है, बरसों से यही होता आया है। लेकिन, बदलते समय ने नायिका की छवि को काफी हद तक खंडित कर दिया। अब नायिका सिर्फ प्रेमिका तक सीमित नहीं रही, उससे बहुत आगे निकल गई। याद कीजिए पुरानी फिल्म 'खानदान' में एक गीत था 'तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा, तुम ही देवता हो!' ये गीत सुनील दत्त और नूतन पर फिल्माया गया था। वास्तव में ये गीत पत्नी का पति के प्रति अगाध प्रेम का प्रतीक माना जा सकता है। लेकिन, आज किसी फिल्म में इस तरह का कोई गीत हो, तो क्या दर्शक उसे पसंद करेंगे?
      पत्नी का पति से प्रेम अपनी जगह है, पर क्या नायिका के समर्पण का ये पूजनीय अंदाज सही है! जब ये फिल्म बनी, तब सामाजिक दृष्टिकोण से इसे स्वीकार किया गया हो, पर आज के संदर्भ में सिर्फ पति को पूजनीय मान लेने से बात नहीं बनती! समाज में भी और फिल्मों में भी आज ऐसी पत्नी या नायिका को पसंद किया जाता है, जो प्रैक्टिकल हो! वास्तव में हिंदी फिल्मों में नायक के किरदार उतने नहीं बदले, जितने नायिकाओं के! आजादी के बाद जब समाज मनोरंजन के लिए थोड़ा अभ्यस्त हुआ, तो फिल्मों में नायिका को नायक की सहयोगी की तरह दिखाया जाने लगा। तब सामाजिक दृष्टिकोण से भी यह जरुरी था। लेकिन, वक़्त के बदलाव ने फिल्मों की नायिका के किरदार को भी बदल दिया। अब नायिका को एक जरुरी फैक्टर की तरह नहीं रखा जाता।
     सौ साल से ज्यादा पुरानी हिंदी फिल्मों की अधिकांश कहानियां नायक केंद्रित होती थी। इक्का-दुक्का फ़िल्में ही ऐसी नजर आती है, जिसका केंद्रीय पात्र नायिका हो! लेकिन, अब ऐसा नहीं है। याद कीजिए 'सुई-धागा' को, जिसकी नायिका परेशान पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उसकी मदद करती है। उसका आत्मविश्वास जगाकर उसे सहारा देती है। लेकिन, ऐसी फ़िल्में बनाने का साहस कितने निर्माता कर पाते हैं? फिल्मकारों को लगता है कि नायक के सिक्स-पैक और मारधाड़ ही दर्शकों की डिमांड है! वे कहानी में नायिका की जगह तो रखते हैं, पर उसके कंधों पर इतना भरोसा नहीं करते कि वो फिल्म को बॉक्स ऑफिस की संकरी गली से निकाल सकेगी! जब 'दामिनी' आई थी, तो किसने सोचा था कि ये फिल्म के नायक सनी देओल के अदालत में चीख-चीखकर बोले गए संवाद से कहीं ज्यादा मीनाक्षी शेषाद्री के किरदार के कारण पसंद की जाएगी?  
      दरअसल, बॉक्स ऑफिस को लेकर फिल्मकारों का अज्ञात भय ही नायिका को परम्पराओं की देहरी पार नहीं करने देता तय! हर बार नायिका में सहनशील और परम्परावादी नारी की छवि दिखने की कोशिश की जाती। इस वजह से नायिकाओं ने लंबे अरसे तक अपनी महिमा मंडित छवि को बनाए रखने के लिए त्याग, ममता और आंसुओं से भीगी इमेज को बनाए रखा। लेकिन, अब जरुरत है सुई धागा, छपाक, कहानी, क्वीन और 'गंगूबाई काठियावाड़ी' जैसी फिल्मों की जिसकी नायिका फिल्म कथानक में बराबरी की हिस्सेदारी रखती है। 'अभिमान' वाली जया भादुड़ी जैसे किरदार अब बीती बात हो गई! जया का वो किरदार उस वक़्त की मांग थी, जो पति को आगे बढ़ने का मौका देने के लिए अपना कॅरियर त्याग देती है। आज दर्शकों को न तो ऐसी फिल्मों की जरूरत है और ऐसे किरदारों की!  बेआवाज फिल्मों से 'अछूत कन्या' और 'मदर इंडिया' के बाद से सुजाता, बंदिनी, दिल एक मंदिर और 'मैं चुप रहूंगी' तक नायिकाएं परदे पर सबकी प्रिय बनी रहीं। इन नायिकाओं ने मध्यवर्गीय पुरातन परिवार के दमघोंटू माहौल में अपनी किस्मत को कोसते हुए 'मैं चुप रहूंगी' जैसी फिल्मों का दौर भी देखा है। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगें’ से लेकर ‘हम दिल दे चुके सनम’ तक में करवा चौथ का माहौल भी देखा है। 
       हिंदी फिल्मों में बनने वाली ज्यादातर फिल्मों में हीरो ही कहानी का केंद्रीय बिंदु होता रहा है। फिल्मों का हिट या फ्लॉप होना उसी पर निर्भर करता है। ऐसे में यह माना जाता है कि यदि किसी फिल्म में दमदार हीरो है, तो बॉक्स ऑफिस पर वह हिट साबित होगी। लेकिन, हिंदी की माइल स्टोन फिल्म 'मदर इंडिया' (1957) महिला प्रधान फिल्म है। नरगिस दत्त की भूमिका वाली इस फिल्म की लोकप्रियता का अंदाज़ इससे लगा सकता है कि विदेश तक में चर्चित हुई। यह फिल्म महज एक वोट से ऑस्कर जैसे प्रतिष्ठित अवार्ड से चूक गई थी। फिल्म में नरगिस ने ऐसी गरीब महिला ‘राधा’ का किरदार निभाया जो न्याय के लिए अपने बेटे तक को गोली मार देती है। 1987 में आई फिल्म 'मिर्च मसाला' में महिला सशक्तिकरण की गहरी छाप थी। मसाले कूटने वाली स्मिता पाटिल ने ‘सोन बाई’ का ऐसा किरदार निभाया, जो दबंग सूबेदार नसीरुद्दीन शाह तक की नहीं सुनती। कुख्यात डकैत फूलन देवी की कहानी पर आधारित फिल्म 'बैंडिट क्वीन' (1994) में सीमा विश्वास ने फूलन देवी के मासूम महिला से डकैत बनने तक के सफर और उनके बदले की कहानी को दिखाया था। विद्या बालन ने सस्पेंस और थ्रिल से भरपूर फिल्म 'कहानी' और उसके सीक्वल में गजब की भूमिका की। फिल्म ऐसी महिला की कहानी है, जो अपने पति की मौत का बदला लेने के लिए अंडर कवर एजेंट के तौर पर काम करती है और आतंकवाद का सफाया करती है।
    कंगना रनोट की फिल्म ‘क्वीन’ (2014) भी ऐसी लड़की की कहानी है, जिसका पति शादी से ठीक पहले उसे छोड़ देता है। ऐसे में कंगना पहले से बुक हनीमून टूर पर अकेले ही निकल जाती है। उसकी यह यात्रा पूरी लाइफ बदल देती है। 'गंगूबाई काठियावाड़ी' भी इसी स्तर की फिल्म है जिसमें एक औरत का संघर्ष बताया गया। अब ऐसी फिल्मों का चलन बढ़ रहा है। विद्या बालन ने डर्टी पिक्चर्स, तुम्हारी सुलु, शेरनी और 'कहानी' जैसी फिल्मों में काम करके हीरोइन की परिभाषा बदल दी। इन फिल्मों में नायिका की खूबसूरती को नहीं उसकी ताकत को दिखाया गया था।
    आलिया भट्ट ने अपनी फिल्मों में कई ऐसे ही किरदार किए जो महिलाओं की कमसिन छवि को तोड़ता है। गंगूबाई काठियावाड़ी, हाईवे और 'राजी' ऐसी ही कुछ फिल्में हैं जो पूरी तरह नायिका केंद्रित रही। कृति सेनन वैसे तो नई अभिनेत्री है, पर फिल्म में उन्होंने सरोगेट मदर की भूमिका निभाई, जो अपने आप में अनोखा किरदार है। प्रियंका चोपड़ा ने भी कुछ इसी तरह की फिल्मों के काम किया। तापसी पन्नू ने पिंक, थप्पड़, हसीन दिलरूबा, रश्मि और 'रॉकेट' में महिलाओं के व्यक्तित्व के हर रंग को दिखाया है। लेकिन, सिनेमा का इतिहास बताता है कि हर दौर में ऐसी नायिकाएं भी सामने आईं हैं, जिन्होंने इस मिथक को तोड़ा है। समाज के लिए वे मुक्ति का आख्यान हैं, लेकिन अब इनकी संख्या उंगलियों पर गिनने लायक ही हो पाईं! पर, अब यंग इंडिया की सोच बदल रही है। इसलिए महिलाओं के प्रति भी सोच बदलने की जरूरत है। लड़की है, तो खाना बनाएगी और लड़का है तो काम करेगा। ये विचारधारा अब नहीं चलती! समाज और लोगों की सोच में बदलाव आया है, लेकिन अभी फिल्मों में बहुत कुछ बदलना बाकी है।
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परदे पर गढ़ी गई बीमारियों की दर्द भरी दास्तान

    फिल्मों को जीवन का आईना यूं ही नहीं कहा जाता। इनमें सुख भी होता है और दुःख भी। जीवन भी होता है और मृत्यु भी। बीमारियों से उबरने के किस्से भी होते हैं और उससे हारकर मौत के मुंह में जाने की सच्चाई भी। फिल्मों के कथानक में असाध्य रोग भी एक विषय हैं, जो दर्शकों को बीमारी के सच से वाकिफ कराते हैं। कभी ऐसी फिल्मों का अंत सुखद होता है, पर हमेशा नहीं! बरसों से ऐसी फ़िल्में बनती रही हैं और ये विषय अभी भी फिल्मों के हिट होने का फार्मूला है। लेकिन, ऐसी फ़िल्में तब भी पसंद की जाती है, जब उनके कथानक में दर्शकों बांधकर रखने की क्षमता होती है। 
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- हेमंत पाल 

    फिल्मों के कथानक का मकसद दर्शकों को बांधकर रखना होता है। क्योंकि, फिल्म में कथानक ही होता है, जो फिल्म की सफलता या असफलता की वजह बनता है। कई बार ये कोशिश सफल होती है, लेकिन, हमेशा नहीं। ऐसे कई प्रमाण हैं, जब बड़े बजट की फ़िल्में सिर्फ कथानक के रोचक न होने की वजह से फ्लॉप हुई। लेकिन, ऐसा भी हुआ कि कुछ कम बजट और अंजान कलाकारों की फिल्मों ने दर्शकों को इतना प्रभावित किया कि फिल्म ने सफलता के झंडे गाड़ दिए। फिल्मकारों का पूरा ध्यान भी ऐसे कथानक ढूंढना होता है, जिसमें नयापन हो। दूसरे विषयों की तरह बीमारियों से जुड़ी कहानियां भी ऐसा ही विषय है, जिसने हमेशा दर्शकों की संवेदनाओं को झकझोरा है। अब वो समय नहीं रहा जब दर्शक प्रेम कहानियों, पारिवारिक झगड़ों, बिगड़ैल लड़कों, संपत्ति के विवाद या गांव के जमींदार की ज्यादतियों पर बनी फिल्मों को पसंद करें। पीढ़ी के बदलाव के साथ दर्शकों की पसंद में भी बदलाव आया। ऐसे में फिल्मकारों के सामने नए विषय चुनना और ऐसे कथानक गढ़ना भी चुनौती है, जो दर्शकों को सिनेमाघर तक आने के लिए मजबूर करे। देखा गया है कि बीमारियों के बारे में जानना हर व्यक्ति की उत्सुकता होती है। जब ऐसे किसी विषय पर कोई फिल्म बनती है, तो दर्शक उससे बंधता है।         
      बीमार के प्रति सभी की सहानुभूति होती है। इस मनोविज्ञान को समझते हुए ही फिल्मों में कई ऐसे कथानक गढ़े गए, जिनमें नायक या नायिका को असाध्य रोगों से पीड़ित बताया गया। उनकी गंभीर तकलीफों को कहानी का मुद्दा बनाने के साथ उनके इलाज में परिवार को परेशान बताया गया। कैंसर, प्रोजेरिया, सिजोफ्रेनिया, आटिज्म, डिस्लेक्सिया और एड्स जैसी गंभीर बीमारियों वाले कथानकों का अंत हमेशा सुखद नहीं होता। क्योंकि, बीमारियों पर किसी का बस नहीं चलता। कई बार डॉक्टरों की कोशिश सफल होती है, पर हर बार नहीं। याद कीजिए फिल्म 'मिली' का अंत, जिसमें अमिताभ बच्चन फिल्म की नायिका जया भादुड़ी को कैंसर के इलाज के लिए विदेश ले जाते हैं। आसमान में जाते हवाई जहाज को पिता अशोक कुमार हाथ हिलाकर विदा करते हैं और फिल्म का अंत हो जाता है। कुछ ऐसा ही अंत 1971 में आई 'आनंद' का भी था। इसमें डॉक्टर किरदार निभाने वाले अमिताभ बच्चन सारी कोशिशों के बाद भी आंत और ब्लड कैंसर से पीड़ित राजेश खन्ना को बचा नहीं पाते। यही इस फिल्म की सफलता का कारण भी था। लेकिन, 'आनंद' के बाद कैंसर आधारित कथानकों वाली फ़िल्मों का दौर चल पड़ा था। सफ़र, अनुराग, मिली और अंखियों के झरोखे से फिल्में ऐसे ही कथानकों पर बनी थी। 
       बड़े बजट की फ़िल्में बनाने वाले डायरेक्टर संजय लीला भंसाली के खाते में भी 'ब्लैक' जैसी फिल्म भी दर्ज जो बीमारी पर केंद्रित है। 2005 में आई इस फिल्म में रानी मुखर्जी ने ऐसी लड़की का किरदार निभाया, जो देख, सुन और बोल नहीं सकती। जबकि, अमिताभ बच्चन उसके टीचर बने थे जो अल्जाइमर बीमारी से ग्रस्त थे। यह ऐसी मानसिक बीमारी होती है, जिसमें रोगी बीमारी के बढ़ने के साथ सब भूलने लगता है। अमिताभ भी फिल्म का अंत आते-आते रानी मुखर्जी को भूल जाते हैं। जब ऐसी फिल्मों की बात हो, तो अमिताभ बच्चन की 2009 में आई 'पा' को भुलाया नहीं जा सकता। इसमें विद्या बालन और अभिषेक बच्चन थे। फिल्म की खासियत यह थी कि इसमें अभिषेक ने अमिताभ के पिता का किरदार निभाया है। यह एक दुर्लभ जेनेटिक डिसऑर्डर 'प्रोजेरिया' से प्रभावित बच्चे की कहानी है। प्रोजेरिया ऐसा डिसऑर्डर है, जिसमें 10-12 साल के बच्चे बुजुर्ग दिखाई देने लगते हैं। संजय लीला भंसाली ने 'ब्लैक' के बाद 2010 में 'गुजारिश' बनाई, जिसमें रितिक रोशन ने क्वाड्रीप्लेजिक मरीज का किरदार निभाया था। बीमारी में मरीज गर्दन के निचले हिस्से से पैराडाइज था। इस फिल्म ने इच्छा मृत्यु पर एक बहस भी शुरू की थी। 
       शाहरुख खान की बेस्ट फिल्मों में एक 2003 में आई 'कल हो ना हो' को भी गिना जाता है। करण जौहर निर्देशित यह फिल्म ऐसी लव स्टोरी है, जिसमें नायक अपनी प्रेमिका प्रीति जिंटा की शादी किसी और से करवा देता है। क्योंकि, उसे कैंसर होता है। लव, इमोशन और गंभीर बीमारी के इस ताने-बाने ने दर्शकों को हिला दिया था। 'फिर मिलेंगे' (2004) में सलमान खान और शिल्पा शेट्टी ने एड्स के मरीज का किरदार निभाया था। एड्स पीड़ित होने के बाद नौकरी से निकाले जाने, फिर कानूनी लड़ाई लड़ते शिल्पा शेट्टी के किरदार को काफी सराहा गया था। 
       बीमारी पर बनी आमिर खान की फिल्म 'तारे जमीं पर' (2007) में डिस्लेक्स‍ि‍या से पीड़ित बच्चे की कहानी दिखाई थी। आमिर खान उसके ड्राइंग टीचर बनते हैं और उसकी परेशानी समझकर उसे ड्राइंग के जरिए हल करने की कोशिश करते हैं। ऐसी ही एक फिल्म 'गजनी' है, जो 2008 में आई थी। आमिर खान ने इसमें इन्टेरोगेट एम्नेसिया (शॉर्ट टर्म मेमोरी लॉस) से ग्रस्त के मरीज का किरदार निभाया था। यह फिल्म हॉलीवुड फिल्म 'मेमेंटो' का रीमेक थी। 2010 में आई फिल्म 'माई नेम इज खान' में शाहरुख खान ने एस्पर्जर सिंड्रोम के मरीज का किरदार निभाया था। जिसमें उन्होंने बीमारी से जूझते हुए धर्म के बारे में लोगों की गलतफहमी दूर करने वाले संजीदा व्यक्ति का किरदार निभाया था। अनुराग बासु की फिल्म 'बर्फी' में प्रियंका चोपड़ा ने दुर्लभ बीमारी ऑटिज्म से पीड़ित लड़की किरदार निभाया था। जबकि, रणबीर कपूर ने गूंगे-बहरे लड़के का किरदार निभाया था। 
   सोनाली बोस की 2012 में रिलीज हुई फिल्म 'मार्गरीटा विद ए स्ट्रा' में कल्कि कोचलिन ने इसमें सेलि‍ब्रल पाल्सी से ग्रस्त लडक़ी का किरदार निभाया था। कल्कि ने बीमार होने के बावजूद पढ़ने के लिए न्यूयार्क जाने वाली प्यार की तलाश करती युवा लड़की का किरदार निभाया था। फिल्म पीकू (2015) को अपने अनोखे कथानक के कारण दर्शकों ने खूब सराहा था। इस फिल्म एक बार फिर अमिताभ बच्चन ने कब्ज की बीमारी होती है। जिनकी मौत का कारण भी कब्जियत ही होता है।
      'ए दिल है मुश्किल' (2016) में रणबीर कपूर, ऐश्वर्या राय और अनुष्का शर्मा ने काम किया था। फिल्म में अनुष्का शर्मा ने टर्मिनल कैंसर से पीड़ित लड़की किरदार निभाया। इस कैंसर को लाइलाज रोग माना जाता है, जिसमें पीड़ित की मौत किसी भी समय हो सकती है। 'शुभ मंगल सावधान' (2017) भी अलग तरह की फिल्म है, जो पुरुषत्व के मुद्दे के कथानक पर बनी है। फिल्म में आयुष्मान खुराना ने पुरुषों की सेक्सुअल कमजोरी (इरेक्टाइल डिसफंक्शन) को सहजता से परदे पर पेश किया। 
   इसके अगले साल 2018 में आई फिल्म 'हिचकी' में रानी मुखर्जी मुख्य भूमिका में थी। रानी मुखर्जी खास तरह की बीमारी टुरेट सिंड्रोम से पीड़ित थी। इस बीमार से पीड़ित व्यक्ति शब्दों को दोहराने, हिचकी आने, खांसने, छींकने, चेहरा या सिर हिलाने और पलकों को झपकाना शुरू कर देता है। शाहरुख खान की एक और बीमारी से संबंधित फिल्म है 'जीरो' जो 2018 में आई थी। इसमें उन्होंने बौने का किरदार अदा किया था। बौना होने की वजह मेटाबोलिक और हार्मोन की कमी होता है। यह फिल्म शाहरुख़ की फ्लॉप फिल्मों में से एक थी। इसमें शाहरुख़ का किरदार बौआ सिंह का था जो 38 साल का बौना आदमी है, जिसे जीवनसाथी की तलाश रहती है। इसी साल 2018 में आई डायरेक्टर शुजीत सरकार की फिल्म 'अक्टूबर' में भी बीमारी का कथानक था। वरुण धवन और बनिता संधू की यह फिल्म एक संवेदनशील लव स्टोरी है। बनिता के साथ एक एक्सीडेंट के बाद वह कोमा में चली जाती हैं। वह धीरे-धीरे रिकवर होती हैं, लेकिन अंत में उनका निधन हो जाता है। इसमें कोई बीमारी नहीं बताई, पर कथानक अस्पताल के इर्द-गिर्द ही घूमता है। 
      अब थोड़ा पहले चलते हैं। बालू महेंदू की 1983 में आई फिल्म 'सदमा' तमिल फिल्म का रीमेक है। इसमें श्रीदेवी और कमल हासन की प्रमुख भूमिका है। फिल्म में श्रीदेवी को एक कार दुर्घटना में सिर में चोट लग जाती है और भूलने की बीमारी के कारण उसमें बचपन का दौर आ जाता है। वह परिवार से खो जाती है और वेश्यालय में फंस जाती है। फिर वो स्कूल टीचर सोमू (कमल हासन) द्वारा छुड़ाए जाने से पहले वेश्यालय में फँस जाती है, जिसे उससे प्यार हो जाता है। फिल्म का अंत बेहद संवेदनशील है, जब श्रीदेवी की याददाश्त लौट आती है और कमल हासन को ही भूल जाती है। असाध्य रोगों पर बनने वाली फ़िल्में तभी दर्शकों की संवेदनाओं को प्रभावित कर पाती हैं, जब उनके कथानक में कसावट होने के साथ बीमारी की गंभीरता को दिखाया जाता है। खास बात ये भी कि ऐसी सभी फिल्मों बड़े कलाकारों ने काम किया है।   
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भोजशाला के सर्वे की भंग होती गोपनीयता और दावे

     धार की विवादास्पद भोजशाला वास्तव में सरस्वती मंदिर है, जिसे राजा भोज ने बनाया था या कमाल मौला मस्जिद? यह विवाद बरसों से उलझा हुआ है। इसका हल खोजने के लिए हाई कोर्ट के आदेश पर साइंटिफिक पुरातात्विक सर्वेक्षण हो रहा है। सर्वे के निष्कर्ष की रिपोर्ट हाई कोर्ट में पेश होगी। लेकिन, इस सर्वे को लेकर टीम के साथ रोज परिसर में जाने वाले हिंदू और मुस्लिम पक्षों के बयानवीर भी पीछे नहीं हैं। इस बहाने वे सर्वे की गोपनीयता भी भंग कर रहे हैं।
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- हेमंत पाल

    धार शहर में स्थित भोजशाला की सच्चाई जानने के लिए ऑर्कलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया (एएसआई) इन दिनों सर्वे कर रही है। यह सर्वे हाई कोर्ट के निर्देश पर किया जा रहा है। कोर्ट ने हिंदू और मुस्लिम पक्ष के प्रतिनिधियों को भी सर्वे टीम के साथ रहने की इजाजत दी है। लेकिन, दोनों पक्ष सर्वे को लेकर अपने-अपने पक्ष में तर्क कर रहे हैं। जबकि, एएसआई ने अभी तक सर्वे को लेकर कोई बयान नहीं दिया। दोनों धर्मों के प्रतिनिधियों की बयानबाजी सामाजिक सामंजस्य की हवा जरूर बिगाड़ रही है।     
    अयोध्या, ज्ञानवापी और मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि की धार्मिक प्रमाणिकता के लिए कोर्ट के निर्देश पर ऑर्कलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया (एएसआई) ने साइंटिफिक सर्वे किया था। कोर्ट को दी गई अपनी प्रामाणिक रिपोर्ट से एएसआई ने जो साबित किया, वो दुनिया के सामने है। हाई कोर्ट की इंदौर खंडपीठ के निर्देश पर इसी तरह का सर्वे धार की भोजशाला में किया जा रहा है। एएसआई को अपने सर्वे से साबित करना है कि भोजशाला वास्तव में राजा भोज द्वारा निर्मित सरस्वती मंदिर है या मौलाना कमालुद्दीन की बनाई मस्जिद! 
     दोनों पक्षों के बीच सौ सालों से ज्यादा समय से यह विवाद है। एएसआई को निर्धारित समय में कोर्ट को अपनी रिपोर्ट देना है। एक महीने से एएसआई भोजशाला में सर्वे कर रही है। ये सर्वे दो महीने और चलेगा। अभी तक ऐसे कोई प्रमाण सामने नहीं आए और न आधिकारिक रूप से बताया गया कि दोनों में से किसका दावा पुख्ता है। हाई कोर्ट ने एएसआई को सर्वे करके और अपनी रिपोर्ट जुलाई में सौंपने का निर्देश दिया है। पहले यह रिपोर्ट 29 अप्रैल को दी जाना थी, लेकिन, अब एएसआई ने इसके लिए 8 सप्ताह का अतिरिक्त समय मांगा। क्योंकि, निर्धारित अवधि में काम पूरा होना संभव नहीं है।    
   सर्वे के प्रमाणिकता को बनाए रखने के लिए कोर्ट के निर्देश पर हिंदू और मुस्लिम प्रतिनिधियों को भी सर्वे टीम के साथ अंदर जाने की इजाजत मिली है। पहले दिन मुस्लिम पक्ष ने सर्वे टीम के साथ परिसर में जाना टाला, उसके बाद से दोनों पक्षों के प्रतिनिधि सर्वे टीम के साथ सुबह से शाम तक मौजूद रहते हैं। इसमें सबसे गौर करने वाली बात यह है कि सर्वे टीम ने अभी तक अपनी तरफ से कोई बयान नहीं दिया। इस तरह के कोई संकेत भी नहीं दिए कि सर्वे के दौरान भोजशाला परिसर से किस तरह के प्रमाण मिल रहे हैं। उन्हें इस तरह का बयान देने की इजाजत भी नहीं है। क्योंकि, उन्हें अपनी रिपोर्ट हाई कोर्ट में जमा करना है। इसके बावजूद देखा गया कि रोज सुबह जब सर्वे टीम के साथ दोनों पक्षों के प्रतिनिधि अंदर जाते हैं, तो वे मीडिया के सामने कोई न कोई ऐसी बात जरूर करके जाते हैं जो इस सर्वे की गोपनीयता को भंग करने जैसी होती है। 
    मुस्लिम पक्ष के प्रतिनिधि तो सर्वे की जानकारी पर तो ज्यादा नहीं बोलते, लेकिन वे सर्वे में अब तक हुए काम को लेकर जिक्र जरूर करते हैं। वे हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में उनके द्वारा लगाई गई आपत्तियों का जिक्र करने के साथ यह भी बताते हैं कि बीते सौ सालों से ज्यादा समय में भोजशाला विवाद में क्या कुछ हुआ! वे अपने तर्कों से यह भी बताने की कोशिश करते हैं कि भोजशाला वास्तव में मुस्लिम स्मारक है, जिस पर हिंदू बेवजह अपना दावा जता रहे है। वे उन तर्कों को भी नकारते हैं, जो हिंदू पक्ष के लोग सामने रखने की कोशिश करते हैं। 
    इसी तरह हिंदू पक्ष के दोनों प्रतिनिधि मुखरता से इस बात का जिक्र करते हैं कि सर्वे के दौरान अंदर मिलने वाले प्रमाण इस बार का संकेत दे रहे हैं, कि यह सरस्वती मंदिर रहा है। दरअसल, उनके इस तरह के बयान हाई कोर्ट के दिशा-निर्देशों की विपरीत है। क्योंकि, उनके इस तरह के बयानों का कोई मतलब नहीं। वास्तव में तो सीधे-सीधे इस बात की मार्केटिंग करने की भी कोशिश की जा रही है कि एएसआई का यह सर्वे हिंदू धर्मावलंबियों की याचिका पर ही किए जाने के निर्देश हुए हैं। इस तरह की गैर-प्रामाणिक बातें बार-बार करना, इस बात का भी संकेत है कि उनके तर्कों पर ही सर्वे किया जा रहा है। एएसआई की सर्वे रिपोर्ट के हाई कोर्ट में पेश किए जाने से पहले ऐसी बयानबाजी इसकी गोपनीयता को भंग करने जैसा कृत्य कहा जा सकता है। 
     सर्वे के दौरान जब भी मंगलवार या शुक्रवार आता है, तो हिंदू और मुस्लिम पक्ष के लोग भोजशाला परिसर में जाकर अपनी आराधना करते हैं। शुक्रवार को मुस्लिम नमाज़ अता करने और मंगलवार को हिंदू परिसर में हनुमान चालीसा का पाठ करते हैं। कई साल पहले केंद्र सरकार ने दोनों पक्षों को यह व्यवस्था दी थी, तब से प्रशासन की देखरेख में इसका पालन किया जा रहा है। देखा गया कि सर्वे के दौरान हर मंगलवार को जब हिंदू पक्ष भोजशाला में पूजा-अर्चना के लिए जाते हैं, उस दिन हिंदू पक्ष की तरफ से भोजशाला आंदोलन से जुड़ा कोई बड़ा हिंदूवादी नेता मीडिया के सामने कोई न कोई ऐसी बात जरूर करता है, जो सुर्खी बनती है। वास्तव में तो उन्हें एएसआई सर्वे को लेकर कोई बयान देने की जरूरत है और न इजाजत। लेकिन, फिर भी दोनों पक्षों को जब भी मौका मिलता है, वे अपनी बात करने से नहीं चूकते। 
    हिंदू पक्ष के लोग बार-बार मथुरा, ज्ञानवापी और अयोध्या के एएसआई सर्वे के नतीजे को आधार बनाकर भोजशाला में भी उसी तरह के प्रमाण मिलने का दावा करते हैं। जबकि, मुस्लिम प्रतिनिधि का दावा रहता है कि 1902 और 1903 में भी इसी तरह का सर्वे हुआ था और उस समय यह मान लिया गया था कि यह मंदिर नहीं है। आज भी उनका दावा है कि 1300 ईस्वी में जब मौलाना कमालुद्दीन यहां आए थे और उन्होंने मस्जिद बनाई थी। उस समय कई तरह यहां कई तरह का रॉ-मटेरियल मस्जिद के निर्माण के लिए लाया गया था। संभवतः उस समय लाए गए रॉ-मैटेरियल में कुछ ऐसी सामग्री आ गई होगी, जो यहां हिंदू धर्म के प्रमाण दे रही है। लेकिन, वास्तव में यहां सरस्वती मंदिर जैसी कोई बात नहीं है। 
    भोजशाला में बनी एक अक्कल कुईया को लेकर भी दोनों पक्षों के पास ऐसे दावे हैं, जो सर्वे को प्रभावित कर सकते हैं। हिंदुओं का कहना है कि इस तरह की अक्कल कुईया आर्यावर्त में 7 जगह है जिसमें से तीन जगह भारत में है। एक इलाहाबाद में, एक तक्षशिला और तीसरी भोजशाला में। धार की भोजशाला की अक्कल कुईया के बारे में उनका कहना है कि यह सरस्वती नदी से जुड़ा हुआ जल स्रोत था। माना जाता है कि जहां भी शिक्षा के विकसित केंद्र रहे, वहां विद्यार्थियों को ज्ञान देने के लिए इस तरह की कुईया का निर्माण किया गया। 
     इसमें वे पत्थर पाए गए, जो विलुप्त हुई सरस्वती नदी में होते थे। इसके प्रमाण में हिंदू पक्ष विष्णु श्रीधर वाकणकर की किताब का हवाला देते हैं। जबकि, मुस्लिम पक्ष का कहना है कि वास्तव में यह अक्कल कुईया नहीं, बल्कि मस्जिदों के में पाई जाने वाला जल कुंड है, न कि अक्कल कुईया जैसा कोई प्रमाण। लेकिन, वास्तव में इसकी सच्चाई क्या है यह एएसआई के सर्वे से ही पता चलेगा। लेकिन दोनों पक्षों की बयानबाजी से एक अलग तरह की भावना जन्म ले रही है, जो निश्चित रूप से सामाजिक सामंजस्य के लिए उचित नहीं है। 
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