Friday, June 14, 2024

दो दशक पुराना रिश्ता और प्रशासनिक दक्षता का संगम

   मध्य प्रदेश का अगला मुख्य सचिव कौन होगा, अब इस सवाल का काफी हद तक जवाब मिल गया है। डॉ राजेश राजौरा इस कतार में सबसे आगे खड़े हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है उनकी कार्यशैली और मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव के साथ उनके 20 साल पुराने संबंध, जो 2004 से सिंहस्थ के समय बने थे। आज ये दोनों अलग-अलग भूमिकाओं में प्रदेश की दो बड़ी कुर्सियों पर विराजित हैं।
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- हेमंत पाल

     रकार किसी भी पार्टी की हो और मुख्यमंत्री कोई भी हो, कुछ अफसर हमेशा चहेते बने रहते हैं। इसलिए नहीं कि उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता उनसे मेल खाती है। बल्कि, इसलिए उन्हें पसंद किया जाता है कि उनकी काम करने की शैली कुछ ऐसी होती है, जो हर मुख्यमंत्री को रास आती है। याद कीजिए जब मोहन यादव मुख्यमंत्री बने और उन्होंने जो पहली फाइल पर दस्तखत किए वो डॉ राजेश राजौरा ने उनके सामने रखी थी, जिसमें धर्मस्थलों से लाउडस्पीकर निकाले जाने संबंधी आदेश था। इससे पहले जब 2018 में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार बनी, तब भी बतौर मुख्यमंत्री उन्होंने सबसे पहले किसानों की कर्जमाफी संबंधित जो आदेश जारी किया, वो फाइल भी डॉ राजेश राजौरा ने ही उनके सामने रखी थी। 
    याद किया जाए तो 18 साल से ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान के भी वे चहेते अफसरों में एक थे। इन घटनाओं का जिक्र ही उनकी कार्यशैली दर्शाता है। मुख्यमंत्री डॉ यादव से भी उनके संबंधों का इतिहास 20 साल पुराना है। तब स्थितियां अलग थी, आज अलग है। किंतु कहीं न कहीं दोनों के बीच संबंधों का जो अंकुरण उस समय हुआ था, वो आज लहलहाता वृक्ष बन चुका है। अब वे मुख्यमंत्री के एसीएस बनाए गए हैं। 
     डॉ राजेश राजौरा को सभी परिस्थितियों में काम करने का अच्छा खासा अनुभव है। फिर वो उज्जैन का 2004 का सिंहस्थ हो (जब वे वहां कलेक्टर रहे) या आदिवासी जिला झाबुआ जहां वे जिला पंचायत के सीईओ रहे। फिर धार कलेक्टर के रूप में उन्होंने सफल कार्य किया, जिसकी आज भी चर्चा होती है। किसी कलेक्टर के लिए यह बड़ी उपलब्धि होती है कि उनके पद से हटने के बाद भी उनका जिक्र अच्छे संदर्भो में ज्यादा होता है। इंदौर जैसे बड़े जिले में बड़े ओहदे पर रहे डॉ राजेश राजौरा ने शहर में कई बड़े बदलाव किए। उन्होंने बरसों से रुके कई फैसलों को गति दी। इसमें एक एलआईजी और रिंग रोड के बीच का लिंक रोड भी है जो कई सालों से इसलिए नहीं बन पा रहा था कि रास्ते मे एक प्रभावशाली नेता कि बहन का मकान आ रहा था और उसे हटाना प्रशासन के लिए मुश्किल काम था। पर, अपने चातुर्य से डॉ राजौरा ने उसे हटवाया और आज ये लिंक रोड शहर के ट्रैफिक को आसान बना रहा है।
      इसे संयोग ही माना जाना चाहिए कि 2004 में जब राजौरा उज्जैन कलेक्टर थे, तभी वहां सिंहस्थ का आयोजन हुआ था। उस सिंहस्थ की समिति में डॉ मोहन यादव भी शामिल थे। उस समय दोनों के संबंधों की बुनियाद पड़ी। तब न तो डॉ राजौरा को मालूम था और न डॉ यादव को कि एक दिन दोनों अलग-अलग भूमिकाओं में इस ऊंचाई पर मिलेंगे। दोनों के संबंधों की जो शुरुआत 20 साल पहले पड़ी थी, आज वो बीज वटवृक्ष बन गया। यही कारण है कि मुख्यमंत्री डॉ राजेश राजौरा को अपने विश्वस्त अफसरों में मानते हैं और इसलिए उन्होंने यह अवसर दिया।
    यदि कोई अफसर अपने गृह प्रदेश में ही मुख्य सचिव की कुर्सी तक पहुंचे, तो उसके काम करने का तरीका और सोच दूसरे अफसरों से अलग होती है। क्योंकि, उस अफसर की प्रदेश के प्रति आत्मीयता और काम के प्रति ललक कुछ अलग ही होती है। यह शुभ संकेत है कि केएस शर्मा के बाद डॉ राजेश राजौरा भी मूलतः मध्य प्रदेश के ही रहने वाले हैं। केएस शर्मा का प्रदेश के मुख्य सचिव के रूप में कार्यकाल 31 जनवरी 1997 से 31 जुलाई 2001 तक रहा। वे होशंगाबाद के रहने वाले हैं। अब अगर राजौरा मुख्य सचिव बनते है तो वे केएस शर्मा के बाद दूसरे मुख्य सचिव होंगे जो मध्य प्रदेश के निवासी है। डॉ राजौरा मूलतः नीमच के रहने वाले हैं।
      पेशे से डॉक्टर इस अफसर ने एम्स (दिल्ली) से एमबीबीएस किया है। यही वजह है कि स्वास्थ्य को लेकर उनमें अतिरिक्त सजगता है। उनकी काम करने की शैली का एक प्लस पॉइंट उनकी सहजता को भी गिना जा सकता है। वे जिस भी जिले में कलेक्टर रहे, उन्हें चाहने वालों की एक लंबी फौज खड़ी हो गई। क्योंकि, उन्होंने जनता और खुद के बीच कभी कोई सीमा रेखा नहीं खींची। उनके दफ्तर के दरवाजे कभी किसी के लिए बंद हुए हों, ऐसा न कभी दिखाई दिया और न सुना गया। उनकी एक खासियत यह भी है कि उनके चेहरे के भाव देखकर कभी उनके मन की बात को पढ़ना आसान नहीं है। शायद ही कभी किसी ने उन्हें गुस्से में देखा होगा। यही उनकी सहजता भी है। अपनी प्रशासनिक दक्षता से वे हमेशा सीढियां चढ़ते रहे और अब वे उन पायदान से एक कदम पीछे है जहां पहुंचना हर आईएएस अफसर का सपना होता है।
     यहां उनका यह जिक्र इसलिए कि अपनी बेहतरीन प्रशासनिक कार्यशैली की वजह से 1990 बैच के इस आईएएस अधिकारी को अगला मुख्य सचिव बनाए जाने का रास्ता मंगलवार को साफ हो गया। नए फेरबदल में उन्हें वर्तमान दायित्वों के साथ मुख्यमंत्री का एडिशनल चीफ सेक्रेटरी नियुक्त किया गया है। समझा जाता है कि इस पद का दूसरा सिरा चीफ सेक्रेटरी की कुर्सी पर खुलता है। मुख्यमंत्री के एसीएस के साथ वे नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष, जल संसाधन और नर्मदा घाटी विभाग के अपर मुख्य सचिव बने रहेंगे। संभव है कि राजौरा की नियुक्ति में क्षिप्रा शुद्धिकरण के मकसद से की गई हो? मंत्रालय में ये तीनों विभाग काफी भारी-भरकम माने जाते हैं।
     वे मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव के विश्वस्त अफसरों में माने जाते हैं। क्योंकि, सीएम ने उन्हें 22 दिसंबर को अपने गृहनगर उज्जैन संभाग का प्रभारी बनाया। उन्हें संभागीय स्तर पर विकास कार्यों की मॉनिटरिंग के लिए भी उज्जैन संभाग का प्रभारी बनाया गया है। सरकार के इन सारे फैसलों को देखते हुए समझा जा सकता है कि वे उनके प्रदेश के अगले चीफ सेक्रेटरी बनने में अब कोई अड़चन नहीं है। यही कह सकते है कि प्रदेश का अगला मुख्य सचिव वही अधिकारी बन सकता है, जो मुख्यमंत्री के काम करने के ढांचे में अपनी प्रशासनिक दक्षता से फिट बैठता हो। वह कुशल प्रशासक के साथ मुख्यमंत्री की प्राथमिकताओं के इशारे को भी समझता हो और डॉ राजेश राजौरा की कार्यशैली उन्हें इसमें सिद्धहस्त साबित करती है।
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Monday, June 10, 2024

केंद्र की राजनीति में 'मामा' के कद का जवाब नहीं!

    शिवराज सिंह चौहान अब मध्यप्रदेश के नहीं केंद्र की राजनीति के भी बड़े नेता हैं। केंद्रीय मंत्रिमंडल में शपथ के दौरान उन्हें पार्टी में जिस तरह तवज्जो दी गई, वो उनके राजनीतिक भविष्य का संकेत है। चार बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह ने अपने कार्यकाल में कुछ ऐसे कमाल किए, जो मिसाल बन गए। वही उनकी लोकप्रियता की वजह भी बने। अपनी इन्हीं क़ाबलियत से अब वे राज्य से निकलकर केंद्र के बड़े आकाश में पहुंच गए हैं! 
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- हेमंत पाल

     शिवराज सिंह अब मध्य प्रदेश की राजनीतिक सीमा से बाहर निकलकर केंद्र की राजनीति का हिस्सा बन गए। बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है, इससे कहीं बहुत ज्यादा है। इसलिए कि प्रदेश के इस पूर्व मुख्यमंत्री के राजनीतिक भविष्य लेकर पिछले चार महीने में बहुत सारे अनुमान लगाए गए। लेकिन, किसी भी अनुमान में यह पुख्ता तथ्य नहीं था कि वे राज्य के मुख्यमंत्री पद से निकलकर केंद्र में कोई बड़ी जिम्मेदारी निभाएंगे। केंद्रीय मंत्री बनना बड़ी बात है, पर उससे भी बड़ा है पार्टी में तवज्जो मिलना, जो आज शिवराज सिंह को मिली। एनडीए सरकार के शपथ समारोह में शिवराज सिंह को जो जगह दी गई, यह एक तरह का इशारा है कि उनका भविष्य किस दिशा में जाएगा! उन्होंने प्रधानमंत्री के बाद 6ठे नंबर पर शपथ ली। 
     राजनीति में अमूमन दो तरह के नेता होते हैं। एक वे जो सत्ता के समीकरण गढ़ने में माहिर होते हैं और हर स्थिति में खुद के लिए जगह बना लेते हैं। ऐसे नेताओं की संख्या अनगिनत है। लेकिन, जब वे राजनीति के दायरे बाहर होते हैं, तो उन्हें पहचाना भी नहीं जाता। दूसरी तरह नेता लोगों के दिलों में जगह बनाकर राज करते हैं। राजनीति तो वे करते ही हैं, पर जनता से उनका जुड़ाव दिल से होता है और यह दिखाई भी देता है। भारतीय राजनीति के केंद्र में ऐसे नेताओं में जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद अटल बिहारी का नाम लिया जा सकता है। राज्यों की राजनीति में यह जगह पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु, तमिलनाडु में जयललिता, ओडिसा में वीजू पटनायक और मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह को ही मिली। ये चार नेता बरसों तक अपने राज्यों में मुख्यमंत्री रहे, लेकिन जनता के दिलों में बसकर। उन्होंने कोई जादू नहीं चलाया, बस अपनी काम करने की शैली ऐसी रखी जिसमें जनभावना झलकती रही। 
    शिवराज सिंह ने मुख्यमंत्री पद के अपने करीब 18 साल लम्बे कार्यकाल में सबसे बड़ा कमाल यह किया कि जनता ने उन्हें अपना मान लिया। जबकि, किसी नेता के प्रति जनता ऐसी भावना कम ही रखती है। इसका कारण यह कि नेताओं को कभी ईमानदार जनसेवक के रूप में नहीं देखा जाता। लोगों को लगता है कि नेता जो करते हैं, दिखावे के लिए करते हैं। उनकी हर बात में राजनीतिक स्वार्थ छुपा होता है। लेकिन, शिवराज सिंह अपने पूरे कार्यकाल में उससे परे रहे। उनके काम करने शैली, जनता से जुड़ाव का तरीका और उनके फैसलों से भी अलग झलक दिखाई देती रही। 
       वे बालिकाओं के 'मामा' बने रहे, तो महिलाओं के 'भाई।' ये दोनों सिर्फ शब्द नहीं, बल्कि एक नजदीकी रिश्ते का प्रतीक है, जो शिवराज सिंह ने प्रदेश में बनाया और उसे निभाया भी। आज प्रदेश में शिवराज सिंह अपने नाम से ज्यादा 'मामा' नाम से लोकप्रिय है। उन्होंने गरीब लड़कियों की पढाई और शादी के लिए जो योजनाएं चलाई, वे बाद में देश के कई राज्यों ने अपनाई। इसके बाद अपने चौथे कार्यकाल से कुछ पहले उन्होंने 'लाड़ली बहना' नाम से गरीब महिलाओं की आर्थिक मदद की जो योजना संचालित की, उसने उनकी जड़े तो मजबूत की ही, मध्यप्रदेश में भाजपा की जड़ें भी इतनी गहराई तक उतार दी कि जिन्हें न तो विधानसभा चुनाव में हिलाया जा सका और न लोकसभा चुनाव में। इसका श्रेय सिर्फ शिवराज सिंह के खाते में हो दर्ज होगा। 
    जिन्होंने शिवराज सिंह को नजदीक से देखा और समझा है, वे जानते हैं कि वे सिर्फ कार्य शैली से ही जनता के नेता नहीं हैं, उनकी भाव भंगिमाएं और भाषा शैली भी जनता और खासकर महिलाओं को प्रभावित करती है। इसे उनका राजनीतिक चातुर्य ही समझा जाना चाहिए कि उन्होंने परिवार की महिलाओं के दिलों में 'भाई' की तरह जगह बनाई। उससे पहले बालिकाओं के 'मामा' बनकर जिम्मेदारी निभाई। उनके इन दो फैसलों ने मध्यप्रदेश में भाजपा की राजनीति का चेहरा ही बदल दिया। इसी का नतीजा है कि उन्हें सम्मान के साथ केंद्र में जगह दी गई। अब वे सिर्फ केंद्र सरकार के ही बड़े नेता नहीं हैं, पार्टी में ओबीसी का भी बड़ा चेहरा हैं।   
      शिवराज सिंह में और अच्छी बात ये भी है, कि वे कभी पार्टी लाइन लांघने की कोशिश नहीं करते। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने हमेशा राजनीतिक मर्यादा का पालन किया। इस बार के विधानसभा चुनाव में सारी मेहनत के बावजूद जब उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया, तब भी वे संयत बने रहे और पार्टी के फैसलों को शिरोधार्य किया। उनमें एक अच्छाई यह भी है कि वे पार्टी के आदेश का पालन करने में कार्यकर्ता बन जाते हैं, जो बड़े नेताओं में दिखाई नहीं देता। जबकि, शिवराज सिंह ने मुख्यमंत्री पद न मिलने के बाद भी वही किया, जो पार्टी ने कहा। उनके किसी बयान और भाव से कभी नहीं झलका कि उन्हें पांचवी बार मुख्यमंत्री न बनाए जाने की पीड़ा है। वे हमेशा कहते आए हैं, कि वे पार्टी के कार्यकर्ता हैं, पार्टी उन्हें जो काम सौंपेगी, वे उसे जिम्मेदारी से निभाएंगे। उन्हें विदिशा से लोकसभा चुनाव लड़ने का निर्देश मिला, वे लड़े और 8 लाख से ज्यादा वोटों से जीते भी। यही वजह है कि आज वे ऊंचाई पर पहुंच गए जहां से आगे बढ़ने के सारे रास्ते खुले दिखाई देते हैं।                    
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लीक तोड़ती फिल्मों ने जगायी 'कांस' में नई आस

    'कांस फिल्म फेस्टिवल' में इस बार भारत का उल्लेख रेड कार्पेट पर बॉलीवुड के हीरो और हीरोइनों तक सीमित नहीं रहा। बल्कि, भारत ने प्रतिस्पर्धा में भी अपना जलवा दिखाया। अनुसुईया सेनगुप्ता ने बुल्गारिया के निर्देशक कॉन्स्टेंटिन बोजानोव की हिंदी भाषी फिल्म 'द शेमलेस’' अभिनय और पायल कपाड़िया ने 'ऑल वी इमेजिन ऐज लाइट' के लिए पाया। इस फेस्टिवल में भारत और भारतीय परिवेश पर आधारित आठ फिल्मों को स्पर्धाओं में जगह मिली। 'कांस' में भारत ने जो पाया उसके लिए उसे तीन दशक लग गए।  
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- हेमंत पाल

    फिल्म बनाने वाले देशों में दुनिया के दो पुरस्कारों का विशेष महत्व है। ये हैं 'ऑस्कर' और 'कांस फिल्म फेस्टिवल।' जिस भी देश की किसी फिल्म को इनमें से कोई अवॉर्ड मिलता है ,उसे अभूतपूर्व उपलब्धि माना जाता है। ऐसे में वे फिल्मकार भी दुनिया की आंख में आ जाते हैं जिनकी फिल्म पुरस्कृत होती है। भारत दुनिया में सर्वाधिक फ़िल्में बनाने वाले देशों में जरूर गिना जाता है, पर यहां ऐसी फ़िल्में बहुत कम बनती है, जो पुरस्कार पाने के योग्य हों। लेकिन, इस बार 'कांस फिल्म फेस्टिवल' में अनुसुईया सेनगुप्ता और पायल कपाड़िया ने भारत का नाम रोशन किया। बुल्गारिया के निर्देशक कॉन्स्टेंटिन बोजानोव की हिंदी भाषी फिल्म 'द शेमलेस’' के लिए अनुसुईया सेनगुप्ता को फेस्टिवल में 'अनसर्टेन रिगार्ड' श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिला। कोलकाता की अनुसुईया सेनगुप्ता इस श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार जीतने वाली पहली भारतीय हैं।
      देखा जाए तो इस साल का 'कांस फिल्म फेस्टिवल' भारत के लिए हर दृष्टि से उपलब्धियों से भरा रहा। इस फेस्टिवल में आठ भारतीय या भारत पर आधारित फिल्मों को स्पर्धाओं में जगह मिली। पायल कपाड़िया की फिल्म ऑल वी इमेजिन ऐज लाइट, एफटीआईआई के छात्र चिदानंद एस नाइक की 'सनफ्लावर वेयर द फर्स्ट वन्स टू नो' और 'द शेमलेस' की अनुसूईया सेनगुप्ता को अलग-अलग श्रेणी में सम्मानित किया गया। पायल कपाड़िया की फीचर फिल्म 'ऑल वी इमेजिन ऐज लाइट' पिछले तीन दशक में मुख्य स्पर्धा में दिखाई गई भारत की पहली और किसी भारतीय महिला निर्देशक की भी पहली फिल्म है। इससे पहले 1994 में मलयालम निर्देशक शाजी एन करुण की ग्रामीण परिवेश पर बनी फिल्म 'स्वाहम' भारत की ओर से 'द पाल्मे ड’ओर' के लिए नामांकित होने वाली आखिरी फिल्म थी। 1946 में भारतीय फिल्म ने 'द पाल्मे ड’ओर' जीता था। 'द पाल्मे ड’ओर' को पहले 'ग्रांप्री द इंटरनेशनल फेस्टिवल द फिल्म' के रूप में जाना जाता था, जीतने वाली एकमात्र भारतीय फिल्म चेतन आनंद की ‘नीचा नगर’ है। यह 1946 में जीता था। इसके अलावा मृणाल सेन के घरेलू कामगारों पर बने नाटक ‘खारिज’ को 1983 में ज्यूरी पुरस्कार मिला था। तभी इस पुरस्कार को लेते समय पायल कपाड़िया ने इतिहास को ध्यान में रखकर कहा कि कृपया और एक भारतीय फिल्म के लिए और 30 साल न इंतजार करें।
        बुल्गारियन निर्देशक कॉन्स्टेंटिन बोजानोव की 'द शेमलेस' में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली अनुसुईया सेनगुप्ता 'अनसर्टेन रिगार्ड' श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार जीतने वाली पहली भारतीय बनीं। 'द शेमलेस' शोषण और उत्पीड़न की एक अंधेरी दुनिया बयां करती है, जिसमें दो यौनकर्मी एक बंधन में बंधती हैं और आजादी के लिए निकल पड़ती है। सेनगुप्ता ने यह पुरस्कार समलैंगिकों और अन्य कमजोर समुदायों को समर्पित कया। उन्होंने यह भी कहा कि जरूरी नहीं कि समानता के संघर्ष के लिए आपको समलैंगिक होने की जरूरत है। आपको गुलामी के बारे में जानने के लिए गुलाम बनकर देखना भी जरूरी नहीं है। हमें बस सभ्य इंसान बनने की जरूरत है। 
   'कांस फेस्टिवल' में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का खिताब पाने के बाद अनुसुईया सेनगुप्ता दुनियाभर में मशहूर हो गई। वे 'द शेमलेस' में अभिनय के लिए मिले इस अवॉर्ड की उपलब्धि से अभिभूत है। अपनी इस जीत को वे देश की जीत मानती है। 37 साल की अनुसुईया का कहना है कि समारोह में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार जीतना कोई व्यक्तिगत ट्रॉफी नहीं, पूरे देश को उनकी उपलब्धि पर गर्व है। उन्होंने कहा कि मुझे कुछ कहने का अधिकार नहीं है। लेकिन, फिर भी मैं इसे लेकर यही कहना चाहूंगी कि यह जीत पूरे देश की जीत है। इसके लिए तो पूरा देश गौरवान्वित महसूस कर रहा है।  
    अनुसूईया ने एक इंटरव्यू में कहा कि मेरे पास अब भी अपनी इस कामयाबी को बयां करने के लिए सही शब्द नहीं है। मेरी खुशी के इस पल में हर कोई गर्व की भावना महसूस कर रहा है। यह एहसास मेरी सफलता को और भी बेहतर बनाता है। यह वास्तव में मेरे लिए कोई व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं है। उन्होंने कहा कि हमारा 15-20 लोगों का एक समूह था, शायद इससे भी कम। लेकिन, ऐसा लगा कि हम एक बड़ी भावना का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। क्योंकि, वह बड़ी भावना हमारे देश में है। मेरी खुशी में हर किसी को खुशी महसूस होती है। सेनगुप्ता है अपनी जीत से ज्यादा पायल कपाड़िया की जीत पर खुश हैं। उनका कहना है कि मैं जानती हूं, वे और उनकी पूरी टीम मेरे और मेरी टीम के बारे में भी ऐसा ही महसूस करती होंगी। बाकी दुनिया हमें जहां एक साथ, एक-दूसरे का समर्थन करते हुए, अच्छा काम करते हुए, पहचानती है तो मुझे और भी खुशी महसूस होती है। 
'द शेमलेस' में क्या ख़ास  
    फिल्म 'द शेमलेस' की कहानी दो महिलाओं के जीवन पर आधारित है। यह दिल्ली के वेश्यालय में काम कर रही रेणुका की कहानी है, जो एक रात एक पुलिसवाले का मर्डर करके फरार हो जाती है। रेणुका भागकर उत्तर भारत में वेश्याओं के एक जमघट में शरण लेती हैं, जहां उनकी मुलाकात देविका से होती है। देविका एक कम उम्र की युवती हैं, जो वेश्या का जीवन जीने को मजबूर हैं। रेणुका और देविका साथ मिलकर कानून और समाज से बचने के लिए एक खतरनाक रास्ते पर निकल पड़ती हैं। उनका मकसद है हमेशा के लिए आजादी पाना।   
     एस नाइक की 'सनफ्लावर वेयर द फर्स्ट वंस टू नो' को ला सिनेफ (फिल्म स्कूल फिक्शन या एनिमेटेड फिल्में) श्रेणी में प्रथम पुरस्कार मिला। कन्नड़ लोककथा पर आधारित यह फिल्म एक बूढ़ी औरत पर आधारित है, जो मुर्गा चुरा लेती है। इसके बाद गांव में सूरज उगना बंद हो जाता है। इससे पहले कांस महोत्सव के लिए चुनी गईं भारतीय फिल्मों में मृणाल सेन की 'खारिज' (1983), एमएस सथ्यू की 'गर्म हवा' (1974), सत्यजीत राय की 'पारस पत्थर' (1958), राज कपूर की 'आवारा' (1953) वी शांताराम की अमर भूपाली (1952) और चेतन आनंद की 'नीचा नगर' (1946) शामिल हैं। 
कौन है पायल कपाड़िया 
    मुंबई में जन्मी पायल कपाड़िया ने प्रारंभिक शिक्षा आंध्र प्रदेश से ली। इसके बाद उन्होने मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज से इकोनॉमिक्स में ग्रेजुएशन किया। बाद में सोफिया कॉलेज से मास्टर्स की पढ़ाई की। इसके बाद वह फिल्म डायरेक्शन की पढ़ाई करने के लिए फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एफटीआईआई) से जुड़ गईं। पायल की मां नलिनी मालिनी भारत की फर्स्ट जनरेशन वीडियो आर्टिस्ट हैं। पायल इससे पहले भी कान फिल्म फेस्टिवल में अवॉर्ड जीत चुकी हैं। उन्होंने 2021 में ‘ए नाइट ऑफ नोइंग नथिंग’ नाम की एक डॉक्यूमेंट्री डायरेक्ट की थी। इसे कान फिल्म फेस्ट में 2021 में द गोल्डन आई अवार्ड मिला था। यह अवार्ड फेस्टिवल की बेस्ट डॉक्यूमेंट्री को दिया जाता है।
   'द पाल्मे ड’ओर' जीतने वाली पायल कपाड़िया ने 2014 में पहली फिल्म 'वाटरमेलन' और 'फिश एंड हाफ घोस्ट' बनाई थी। इसके बाद 2015 में 'आफ्टर क्लाउड' साल 2017 में 'द लास्ट मैंगो बिफोर द मानसून' बनाई। पायल ने 2018 में एक डॉक्यूमेंट्री 'एंड व्हाट द समर सेइंग' भी बनाई थी। पायल की फिल्म 'आल वी इमेजिन एज लाइट' का प्रीमियर 23 मई को जब फेस्टिवल दिखाई गई तो उसे काफी सराहा गया। यहां तक कि इसे 8 मिनट का स्टैंडिंग ओवेशन भी मिला था।
'ऑल वी इमेजिन एज लाइट' की कहानी
   पायल कपाड़िया की फिल्म ‘ऑल वी इमेजिन एस लाइट’ केरल की दो नर्सों की कहानी पर आधारित है। फिल्म के अनुसार दोनों नर्सें मुंबई में रहती हैं। इस फिल्म में कानी कस्तूरी, दिव्या प्रभा और छाया कदम ने मुख्य भूमिकाएं निभाईं हैं। यह हिंदी फीचर फिल्म है, जो दो नर्सों (प्रभा और अनु) की कहानी है, जो साथ रहती है। प्रभा अरेंज्ड मैरिज की है। उसका पति विदेश में रहता है। अनु प्रभा से छोटी हैं और उसकी शादी नहीं हुई। वह एक लड़के से प्यार करती हैं। प्रभा और अनु अपने दो दोस्तों के साथ एक ट्रिप पर जाती हैं। वहां उन्हें आज़ादी के मायने समझ आते हैं। यह फिल्म समाज में महिला होने का मतलब समझाती है। एक महिला का जीवन और उसकी आज़ादी जैसे मसलों पर बात करती है। 
     कांस फिल्म फेस्टिवल में 'द पाल्मे ड’ओर' का सर्वोच्च सम्मान, शॉन बेकर की सेक्स वर्कर स्क्रूबॉल कॉमेडी 'एनोरा' को मिला। पुरस्कार की घोषणा के बाद मंच पर पहुंचे बेकर ने ज्यूरी का धन्यवाद किया। बेकर ने कहा कि कांस का सर्वोत्तम पुरस्कार जीतना एक फिल्म निर्माता के रूप में पिछले 30 साल से मेरा सपना रहा है।
भारतीय फिल्मों को मिले पुरस्कार
   केन्स में सर्वोच्च पुरस्कार 'द पाल्मे ड’ओर' अब तक किसी भी भारतीय फिल्म को नहीं मिला। दूसरे नंबर का सर्वोच्च पुरस्कार जरूर मिला। इसके अलावा मीरा नायर की 'सलाम बॉम्बे' ने 1988 कांस फिल्म फेस्टिवल में 'कैमरा ड’ और' पुरस्कार जीता था। सितंबर 11 आतंकी हमलों से कुछ दिन पहले, नायर की 2001 की क्लासिक फिल्म ‘मानसून वेडिंग’ वेनिस फिल्म फेस्टिवल में गोल्डन लायन जीती थी। निर्देशक ऋतेश बत्रा की 2013 की प्रशंसित फिल्म ‘द लंचबॉक्स’ ने कांस में 'ग्रैंड गोल्डन रेल' पुरस्कार जीता।
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इंदौर में जो हुआ वो अपने आपमें अनोखा!

    जब 'नोटा' बटन को ईवीएम में शामिल किया गया था, तब यह सोचा नहीं गया था कि किसी चुनाव में इसका ऐसा उपयोग भी होगा। कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार के मैदान छोड़ने पर अपने समर्थकों को 'नोटा' में वोट डालने की अपील की और फिर 2 लाख से ज्यादा वोट का नया रिकॉर्ड बन गया।
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- हेमंत पाल

    स बार के लोकसभा चुनाव में जो अजूबे हुए उनमें 'नोटा' में रिकॉर्ड वोट पड़ना भी एक है। यह कमाल इंदौर संसदीय क्षेत्र पर हुआ। लेकिन, इसी सीट पर भाजपा उम्मीदवार को सबसे ज्यादा वोट भी मिले और वे देश में सबसे बड़े अंतर से जीतने वाले उम्मीदवार भी बने। एक शहर में एक ही चुनाव में दो ऐसे रिकॉर्ड बने, जो एक-दूसरे के विपरीत रहे। आशय यह कि सर्वाधिक स्वीकार्य भाजपा उम्मीदवार रहे। वे देश में सबसे ज्यादा अंतर से जीतने वाले नेता भी रहे। लेकिन, 'नोटा' में वोट देकर उन्हें सबसे ज्यादा मतदाताओं ने उन्हें अस्वीकार्य भी किया! पेंच सिर्फ इतना था कि भाजपा उम्मीदवार के सामने कांग्रेस का कोई उम्मीदवार नहीं था।       
      इंदौर के चुनाव नतीजे वास्तव में अनुमान से अलग नहीं रहे। जो समझा और सोचा गया, वही हुआ। इंदौर में कोई नहीं हारा। भाजपा उम्मीदवार शंकर लालवानी को 12 लाख 26 हजार 751 वोट मिले और वे 11,75,092 वोटों के बड़े अंतर से जीते। जबकि, कांग्रेस की अपील पर 'नोटा' में 2,18,674 वोट पड़े, जो देश में एक रिकॉर्ड है। इंदौर ऐसा शहर रहा, जिसके मतदाताओं ने एक ही चुनाव में स्वीकारने और नकारने का रिकॉर्ड बनाया। भाजपा उम्मीदवार ने देश में सबसे ज्यादा वोट पाकर और सबसे बड़े अंतर से चुनाव जीता, तो यहीं सबसे ज्यादा वोट 'नोटा' में भी गिरे। इस तरह इंदौर में दो अलग-अलग तरह के रिकॉर्ड बने। ऐसी स्थिति में भाजपा देश में अपनी सबसे बड़ी जीत का जश्न मना रही है और कांग्रेस 'नोटा' में पड़े रिकॉर्ड वोटों का। तात्पर्य यह कि दोनों ही पार्टियां अपनी-अपनी उपलब्धियों से खुश हैं।          
     मतदान और नतीजों से पहले इंदौर संसदीय सीट का नतीजा क्या होगा, इससे कोई अनजान नहीं था। यही वजह है कि यहां न तो कोई उत्सुकता थी और न नतीजे का इंतजार। इस सीट पर कोई मुकाबला भी नहीं था। सारी उत्सुकता सिर्फ दो आंकड़ों को लेकर बची थी, जिसका बेहद दिलचस्प खुलासा हुआ। पहला तो यह कि भाजपा उम्मीदवार अपने निकटतम उम्मीदवार से कितने अंतर से चुनाव जीतते हैं। दूसरा, 'नोटा' के खाते में जाने वाले वोट कितने होंगे। कयास लगाए जा रहे थे कि दोनों ही मामलों में इंदौर रिकॉर्ड बनाएगा जो सही भी रहा। रिकॉर्ड बनाना और कुछ नया करना इंदौर वासियों आदत रही है। स्वच्छता में सात बार अव्वल रहने वाला इंदौर अब राजनीतिक उलटफेर में भी देश में छाया हुआ है।          
    इस संसदीय क्षेत्र में इस बार जो हुआ, वो चुनाव इतिहास में अजूबा ही कहा जाएगा। यहां जिस दिन नाम वापसी का दिन था, उसी दिन कांग्रेस के उम्मीदवार ने अपना नाम वापस लेकर कांग्रेस पार्टी को मुकाबले से बाहर कर दिया। उन्होंने न सिर्फ चुनाव मैदान छोड़ा, बल्कि उसी समय प्रतिद्वंदी पार्टी भाजपा में शामिल भी हो गए। यह भी तो देश के चुनाव इतिहास में हुई अजीब घटना थी। इस पर कांग्रेस ने कोई नया प्रयोग नहीं किया और बजाए किसी निर्दलीय उम्मीदवार को समर्थन देने के एक तरह से समर्पण कर दिया। लेकिन, मतदाताओं से यह आह्वान जरूर किया कि वे यदि इन हालातों को लोकतंत्र के लिए सही नहीं मानते. तो ईवीएम मशीन का सबसे आखिरी वाला 'नोटा' का बटन दबाएं। इससे देश के सामने यह संदेश जाएगा कि जो हुआ वो ठीक नहीं था। कांग्रेस की इस अपील का अच्छा असर हुआ और 'नोटा' खिलखिला उठा।  
     सवाल उठता है कि इंदौर में 'नोटा' में सबसे ज्यादा वोट डालने वाला इलाका कौन सा था, तो निर्वाचन आयोग ने इसका हिसाब भी दे दिया। देखा गया कि मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में 'नोटा' को बंपर वोट मिले। इंदौर के विधानसभा क्षेत्र-5 में सबसे ज्यादा 53133 वोट मिले। खजराना और आजाद नगर भी मुस्लिम बहुल क्षेत्र आते हैं। इसके बाद सबसे ज्यादा वोट इंदौर विधानसभा क्षेत्र-1 में 31835 में 'नोटा' के खाते में गए। चंदन नगर मुस्लिम बहुल क्षेत्र है। विधानसभा क्षेत्र-2 में 21330 वोट, इंदौर क्षेत्र-3 में 23 618, इंदौर क्षेत्र-4 में 22956, राऊ में 28626, देपालपुर में 17771 और सांवेर में 19086 वोट मतदाताओं ने 'नोटा' को दिए।
    इस शहर ने चुनाव के इतिहास में अपना नाम अलग तरह से दर्ज कराया है। भले ही यह एक संभावना जताई जा रही थी, लेकिन जो हुआ उससे इंकार भी नहीं किया। यहां 25 लाख से ज्यादा मतदाता हैं। इनमें से करीब साढे 15 लाख ने वोट डाले। तय था कि इसमें ज्यादातर वोट उस भाजपा उम्मीदवार के खाते में जाएंगे, जिसके सामने कोई मुकाबले में ही नहीं था। कांग्रेस ने 'नोटा' को अपने उम्मीदवार की तरह माना और अपील की थी, कि वे ईवीएम में 'नोटा' का बटन दबाकर अपना विरोध दर्ज करें। इस वजह से उम्मीद की जा रही थी कि 'नोटा' में सर्वाधिक वोट का देश में दर्ज पुराना रिकॉर्ड टूटेगा, जो अभी तक बिहार की गोपालगंज संसदीय सीट के नाम पर दर्ज है। वहां 2019 में 'नोटा' के खाते में 61,550 वोट पड़े थे। अनुमान था कि इस बार इंदौर इस आंकड़े से बहुत आगे निकल सकता है। पर, जो हुआ वो उम्मीद से कहीं बहुत ज्यादा रहा।
    भाजपा उम्मीदवार ने पिछला चुनाव साढ़े 5 लाख वोटों के अंतर से चुनाव जीते थे। संभावना लगाई गई थी, कि इस बार वह करीब दुगना होगा। अनुमान सही निकला और वे 11 लाख से ज्यादा वोटो से जीते। इससे एक तरफ ईवीएम में 'नोटा' के बटन दबाने का रिकॉर्ड बना, दूसरी तरफ भाजपा उम्मीदवार की जीत का। कांग्रेस के रकीबुल हुसैन ने इसी चुनाव में असम की धुबरी संसदीय सीट से 10.12 लाख वोटों के अंतर से जीत दर्ज कर दूसरी सबसे बड़ी जीत का रिकॉर्ड बनाया है। मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने विदिशा से 8.21 लाख वोटों से जीत दर्ज की, जो तीसरा सबसे बड़ा अंतर रहा। इससे पहले, 2019 में सबसे ज्यादा अंतर से गुजरात की नवसार सीट से भाजपा के सीआर पाटिल जीते थे। उनकी जीत का अंतर 6.90 लाख वोट था। भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियां अब अपनी-अपनी पीठ थपथपा रहे हैं। कांग्रेस को इस बात की ख़ुशी है कि मतदाताओं ने 'नोटा' में बटन दबाकर उसका साथ दिया और देश में 'नोटा' का रिकॉर्ड बना। भाजपा भी जीत की ख़ुशी तो मना ही रही है।
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Thursday, June 6, 2024

बीमारियों से कराह रही फिल्मी दुनिया

हेमंत पाल

     फिल्मों के सितारे अपनी एक्टिंग से लोगों के दिलों पर तो छाप छोड़ते ही हैं। जब अपने चाहने वालों से मिलते हैं, तो उनके चेहरे पर हमेशा मुस्कुराहट होती हैं। लेकिन, वे अपने अंदर का दर्द किसी को नहीं दिखाते। उनकी मुस्कुराहट के पीछे जो दर्द छिपा हुआ है, ये सिर्फ वे ही जानते है। कोई भी कलाकार अपनी बीमारी को कभी किसी के सामने जाहिर नहीं करता। जबकि, सितारों की ये दुनिया इन दिनों बीमारियों के संक्रमण काल से गुजर रही है। इरफ़ान खान और ऋषि कपूर जैसे दो बड़े कलाकारों की कैंसर से हुई मौत ने सिनेमा जगत के साथ फिल्मों के शौकीनों को भी हिला दिया था। हाल ही में टीवी के बड़े एक्टर ऋतुराज सिंह ने भी बीमारी के कारण दुनिया से विदा।
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    बॉलीवुड में जब कोई कलाकार किसी गंभीर बीमारी से पीड़ित होता है, तो उससे फिल्म से जुड़े कई लोग प्रभावित होते हैं। लेकिन, यह तय है कि बीमारी से कोई भी मुक्त नहीं है, फिर वो कितना भी बड़ा कलाकार ही क्यों न हो! बॉलीवुड में इन दिनों कई नामचीन लोग किसी न किसी बीमारी की गिरफ्त में हैं। कुछ की बीमारी जगजाहिर है, कुछ ने छुपा रखी है। लेकिन, बीमारी वो बला है जो कभी छुपी नहीं रहती! पहले के दौर में फिल्मी कलाकारों को लगता था कि अगर उनकी बीमारी की बात उनके चाहने वालों तक पहुंची, तो उनके करियर पर असर पड़ेगा। हो सकता है उन्हें काम भी नहीं मिलें। लेकिन, अब वो समय नहीं रहा। अब तो कलाकार खुद सोशल मीडिया पर बीमारी खुलासा करते हैं। लेकिन, पहले बीमारी को छुपाया जाता था। यही कारण है कि मधुबाला, किशोर कुमार, मीना कुमारी और गीता बाली की बीमारी का अंत तक किसी को पता नहीं चला।
 
      बॉलीवुड का इतिहास फिल्मों से जुड़े लोगों की बीमारियों से भरा पड़ा है। कई बड़े कलाकार और डायरेक्टर जानलेवा बीमारियों का शिकार हुए! कुछ इलाज से ठीक हो गए, तो कुछ को बीमारियों ने लील लिया। अमिताभ बच्चन जैसे महानायक कई बीमारियों से पीड़ित हैं। करीब 40 साल पहले 'कुली' की शूटिंग के दौरान वे गंभीर रूप से घायल हो गए थे। उन्हें लीवर सिरोसिस भी है, जो 'कुली' के सेट पर घायल होने दौरान ब्लड ट्रान्सफ्यूशन से हुआ। इसका असर आज भी खत्म नहीं हुआ। उन्हें अक्सर पेट में दर्द की शिकायत रहती है। उन्हें हेपेटाइटिस-बी भी हुआ था, जिसके चलते उनके लीवर का 75% हिस्सा खराब हो गया। इसके अलावा वे अस्थमा, लीवर सिरोसिस, टीबी, डाइवर्टिक्युलाइटिस ऑफ स्मॉल इंटेस्टाइन जैसी बीमारियों से जूझ रहे हैं। 
    सलमान खान आज के सबसे सफल नायक हैं। लेकिन, वे भी लंबे समय से एक अजीब सी बीमारी से परेशान हैं। मेडिकल की भाषा में इसे 'ट्राइजेमिनल न्यूराल्जिया' (प्रोसोपाल्जिया) कहा जाता है। यह चेहरे और जबड़े से जुड़ी ऐसी बीमारी है, जिसमें मरीज को हमेशा झनझनाहट जैसा दर्द होता रहता है। इसे फेसियल डिसऑर्डर भी समझा जा सकता है। ये बीमारी हज़ारों में एक को होती है। सलमान को इस बीमारी के चलते बहुत परेशानी होती है। कई बार बोलते समय उन्हें बहुत तेज दर्द होता है। यह दर्द कुछ सेकंडों या मिनटों के लिए होता है जो असहनीय होता है। उन्होंने अमेरिका से इसका इलाज करवाया जिसके बाद वो बेहतर हैं।
     शाहरुख खान भी अब तक शरीर के अलग-अलग हिस्सों की आठ सर्जरी करा चुके हैं। बताया जाता है कि इसका कारण फिल्मों में डांस और एक्शन सीन हैं। फिल्म 'कृष' की शूटिंग के 2013 में रितिक रोशन ने कई एक्शन सीन किए थे। इसका असर उनके दिमाग पर भी पड़ा। दो महीने तक सिरदर्द की शिकायत रहने के बाद जब उनका सीटी स्कैन और एमआरआई किया गया तो पता चला कि उनके दिमाग में क्लॉट है, इसे क्रोनिक सबड्यूरल हीमेटोमा कहा जाता है। समझने के लिए इतना है कि उनके दिमाग में खून के थक्के जमा हैं। डॉक्टरों के मुताबिक सामान्यतः दिमाग की ऐसी स्थिति 65 साल की उम्र के बाद होती है। लेकिन, ऑपरेशन के बाद से रितिक ठीक हैं।
    मिथुन चक्रवर्ती को फिल्मों में अपनी डांस स्टाइल के लिए जाना जाता रहा है। लेकिन, इन दिनों वे अपनी खराब सेहत की वजह से चर्चा में हैं। मिथुन को कोलकाता के एक प्राइवेट हॉस्पिटल भर्ती कराया गया था। उन्हें सीने में दर्द की शिकायत थी। दरअसल, उन्हें इस्केमिक सेरेब्रोवास्कुलर स्ट्रोक हुआ था। यह हार्ट से जुड़ी एक स्थिति है। इस प्रकार के स्ट्रोक में ब्रेन की तरफ ब्लड सर्कुलेशन में रुकावट आने लगती है। ब्रेन में रक्त का संचार स्लो होने के कारण ब्रेन को ऑक्सीजन और अन्य पोषक तत्व नहीं मिल पाते हैं जिससे ब्रेन डैमेज का रिस्क बढ़ जाता है। यह जानलेवा बीमारी है। इसे दुनिया की 10 घातक बीमारियों में एक माना जाता है। संजय दत्त ने भी 2020 में एक सोशल मीडिया पोस्ट में इस बात की पुष्टि की थी कि उन्हें कैंसर है। उनका देश और विदेश में इलाज हुआ। वरुण धवन ने भी खुलासा किया कि वे वेस्टिबुलर हाइपर फंक्शन नाम की बीमारी के शिकार हैं। यह एक बैलेंस डिसऑर्डर होता है, जो कान में इंफेक्शन या अन्य वजहों से हो जाता है।
     70 के दशक की चर्चित अभिनेत्री मुमताज ब्रेस्ट कैंसर जैसी गंभीर बीमारी से ग्रसित रहीं। 2000 में उन्हें इस बीमारी का पता चला और इसका इलाज हुआ। मुमताज के अलावा सोनाली बेंद्रे, लीजा रे, मनीषा कोइराला, ताहिरा कश्यप (आयुष्मान खुराना की पत्नी), अनुराग बासु कुछ ऐसे नाम हैं, जिन्होंने कैंसर को मात दी। अभिनेत्री फातिमा सना शेख ने भी ब्रेन डिसऑर्डर एपिलेप्सी की समस्या होने की बात कही थी। इसमें मरीज को मिर्गी के दौरे आते हैं। अभिनेत्री सामंथा रूथ प्रभु ने भी सोशल मीडिया पर बताया था कि वे मायोसाइटिस नामक एक ऑटोइम्यून डिसऑर्डर से ट्रस्ट हैं। यह कई बीमारियों का एक ग्रुप है। खूबसूरत अभिनेत्री यामी गौतम स्किन से जुड़ी बीमारी से पीड़ित हैं। इसे स्किन कंडीशन केराटोसिस पिलारिस कहा जाता हैं। इसमें स्किन पर छोटे-छोटे दाने हो जाते हैं। यामी इन दानों को छिपाने के लिए मेकअप का इस्तेमाल करना पड़ता है। 
    ऐश्वर्या राय की हमशक्ल मानी जाने वाली अभिनेत्री स्नेहा उल्लाल भी गंभीर बीमारी से पीड़ित रह चुकी हैं। वे ऑटोइम्यून डिसऑर्डर से पीड़ित रही। यह बीमारी खून से जुड़ी है। इससे वे इतनी कमजोर हो गईं थीं कि आधे घंटे खड़ी भी नहीं रह पाती थीं। लंबे समय तक उनका इलाज चला और अब वे ठीक हैं। अनिल कपूर की बेटी सोनम कपूर को इंडस्ट्री की स्टाइलिश एक्ट्रेस कहा जाता है। सोनम अपनी फिटनेस का भी काफी ख्याल रखती हैं। लेकिन, टीन एज में वे डायबिटीज से पीड़ित रह चुकी हैं। सोनम ने डाइट कंट्रोल करके इस बीमारी से निजात पाया।
    कलाकारों पर सबसे ज्यादा कहर बरपाया कैंसर ने! ऋतुराज सिंह, ऋषि कपूर, इरफ़ान खान से पहले मुमताज, फिरोज खान, राजेश खन्ना, विनोद खन्ना, टॉम आल्टर और उससे पहले नरगिस और पृथ्वीराज कपूर भी कैंसर के सामने हार चुके हैं! राकेश रोशन को भी गले का कैंसर बताया गया है। 2007 में सैफ अली खान को छाती में दर्द की तकलीफ हुई थी। डॉक्टरों ने बताया कि उन्हें दिल का हल्का दौरा पड़ा था। उसके बाद से सेहत को लेकर ज्यादा सचेत हो गए हैं। ऐसा नहीं कि आज के कलाकारों पर ही बीमारियां मेहरबान हो रही है। गुजरे जमाने के राज कपूर भी दमे का शिकार हुए थे। 
   जाने-माने अभिनेता दिलीप कुमार दुनिया से विदा हो चुके। वे लंबे समय तक किडनी की समस्या से जूझते रहे। इसके अलावा उन्हें फेफड़ों में भी संक्रमण था, जिसके चलते वे अकसर अस्पताल में भर्ती रहे। एक्ट्रेस साधना ऐसे रोग से बीमार हुई, जिसका इलाज आज 50 पैसे की गोली से हो जाता है। बचपन में चेचक का टीका न लगने से गीताबाली को जान गंवानी पड़ी थी। पृथ्वीराज कपूर कैंसर का शिकार होने वाले पहले फिल्म सितारा थे। उनके बेटे शम्मी कपूर ने अपने जीवन की सांझ डायलिसिस करते गुजारी। जुबली फिल्मों के सितारे राजेंद्र कुमार भी बीमारी का ही शिकार हुए थे!
   फ़िल्मी दुनिया के वे सितारे खुशनसीब हैं, जो दर्द से कराहकर और इलाज कराकर आज दर्शकों का मनोरंजन कर रहे हैं। लेकिन, ये किस्मत संजीव कुमार, विनोद मेहरा, अमजद खान, संगीतकार आदेश श्रीवास्तव, टॉम आल्टर, फिरोज खान, लक्ष्मीकांत बेर्डे, नरगिस, मीना कुमारी, मधुबाला और गीता बाली जैसे लोगों की नहीं रही! ये सभी किसी न किसी बीमारी का असमय शिकार हुए थे। लेकिन, बीमारी किसी की लोकप्रियता से प्रभावित नहीं होती! जब बीमारी को आना होता है, तो वो कोई पहचान नहीं देखती कि उसका शिकार होने वाला इरफ़ान खान है ऋषि कपूर है या कोई आम आदमी!
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'पानी' पर कोई फिल्म बनाना क्यों नहीं चाहता!

- हेमंत पाल

   सिनेमा किसी भी मुद्दे को प्रभावी ढंग से लोगों तक अपनी बात पहुंचाने का सबसे सशक्त माध्यम है। लोग इसे परदे पर देखकर उससे सीधे जुड़ते हैं और इसका सीधा असर उनके जहन पर पड़ता है। देखा जाए तो सामाजिक मुद्दों को लेकर बॉलीवुड शुरू से ही सजग रहा है। फिल्मों के शुरुआती काल से 80 के दशक तक सामाजिक मुद्दों पर कई गंभीर फिल्में बनी। राज कपूर, ख्वाजा अहमद अब्बास, रित्विक घटक और उसके बाद श्याम बेनेगल जैसे विख्यात फिल्मकारों ने अपनी कई फिल्मों का ताना-बाना सामाजिक मुद्दों से ही चुना! मगर 80 के दशक के बाद ऐसे कई मुद्दे हाशिए पर चले गए। सामाजिक मुद्दों पर फिल्में बननी कम हो गई, यही कारण है कि पानी की किल्लत पर भी फ़िल्में नहीं बनी। आज जब देश के सामने पानी की समस्या विकराल रूप ले रही है, कोई भी फिल्मकार इस विषय पर फिल्म बनाने का जोखिम उठाने को तैयार नहीं! शायद इसलिए कि इसे फ्लॉप आइडिया माना जाता है।
       1971 में ख्वाजा अहमद अब्बास ने पानी से जुड़ी फिल्म 'दो बूंद पानी' बनाई थी। यह फिल्म राजस्थान में बन रहे गंगा सागर कनाल प्रोजेक्ट की पृष्ठभूमि में आधारित थी। इसमें अपना योगदान देने के लिए एक सूखाग्रस्त गांव से नायक जलाल आगा अपना परिवार छोड़कर आ जाता है कि यह प्रोजेक्ट राजस्थान के रेगिस्तान की तकदीर बदल देगा। कनाल प्रोजेक्ट तैयार हो जाता है, राजस्थान को पानी मिल जाता है, पर नायक को समाज के कारण अपना परिवार खोना पड़ता है। इस फिल्म को राष्ट्रीय अखंडता के लिए पुरस्कार भी मिला। लेकिन, 1971 के बाद से फिर पानी की समस्या पर कोई फिल्म नहीं बनी! आमिर खान ने 2001 में 'लगान' जरूर बनाई! लेकिन, ये बारिश की कमी से किसानों को होने वाली परेशानी और अंग्रेज सरकार द्वारा वसूले जाने वाले लगान पर आधारित थी। अपने सशक्त कथानक के कारण फिल्म हिट रही, पर इसमें जल संकट जैसा मुद्दा दब गया। 2013 और 2014 में पानी के मुद्दे पर ‘कौन कितने पानी में’ और ‘जल’ जरूर आई थी। ‘जल’ को कच्छ के रण में फिल्माया गया था। ये बक्का नाम के एक ऐसे युवक की कहानी थी, जिसके पास दैवीय शक्ति है। इसके दम पर वो रेगिस्तान में भी पानी खोज सकता है। इस फिल्म को विदेशी भाषा की ऑस्कर अवॉर्ड फिल्मों में भारत की तरफ से भेजा भी गया था। 2005 में दीपा मेहता ने 'वाटर' नाम फिल्म जरूर बनाई, पर इसका पानी वास्ता नहीं था। यह फिल्म 1938 में स्थापित वाराणसी में एक आश्रम में विधवाओं के जीवन पर बनी थी। 
   शेखर कपूर ने 2010 के कान्स फिल्म समारोह में 'पानी' बनाने का ऐलान किया था। 'पानी' की थीम काफी हटकर है। इसमें भविष्य के ऐसे दौर की कल्पना की गई है, जहां पानी पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा है और आम लोग इसकी एक-एक बूंद के लिए संघर्ष कर रहे हैं। तब यह बात सामने आई थी कि 'स्लमडाॅग मिलिनेयर' के निर्देशक डैनी बॉयल 'पानी' से बतौर निर्माता जुड़ेंगे। ऋतिक रोशन मुख्य भूमिका में होंगे और संगीत एआर रहमान देंगे। फिर 2013 में सुनने में आया कि यह फिल्म 'यशराज फिल्म्स' के बैनर पर बनेगी और सुशांत सिंह अहम किरदार में होंगे। इसके बाद ये आइडिया आता-जाता रहा, पर ‘पानी’ पर फिल्म नहीं बन सकी। 2013 में शेखर कपूर ने इस प्रोजेक्ट पर काम शुरू किया, जिसमें अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत लीड रोल में नजर आने वाले थे।  कुछ वजहों से ये प्रोजेक्ट बंद कर दिया गया। कहा जाता है कि इस प्रोजेक्ट के बंद होने से सुशांत बुरी तरह टूट से गए थे।
    फिल्म का मूल भाव है कि जब कुआं सूख जाएगा, तब हम पानी की कीमत समझेंगे? इस फिल्म की कहानी 2040 के कालखंड जोड़कर बुनी गई है, जब मुंबई के एक क्षेत्र में पानी नहीं होता और दूसरे में पानी होता है। ऐसे में पानी के लिए जंग छिड़ती है। इसी जंग में प्रेम पनपता है। फिल्म में सुशांत सिंह राजपूत, आयशा कपूर और अनुष्का शर्मा को लिया गया था। इसका पोस्टर भी जारी हुआ, जिसमें एक आदमी मुंह में घड़ा लगाए दिखाया गया, लेकिन घड़े में एक बूँद भी पानी नहीं होता! शेखर कपूर ने अपने इस महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट के बारे में एक इंटरव्यू में बताया था कि उन्होंने इसे एक 'आध्यात्मिक कहानी' के साथ एक 'ड्रामेटिक स्क्रिप्ट' करार देते हुए कहा था कि 'पानी' की कहानी एक लव स्टोरी के साथ कई रिश्तों के बारे में है। पानी की समस्या पर बनी एक फिल्म है ‘कड़वी हवा’ जिसकी कहानी दो ज्वलंत मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमती है। एक है जलवायु में बदलाव के कारण बढ़ता जलस्तर और सूखे की समस्या! फिल्म में सूखाग्रस्त बुंदेलखंड दिखाया गया है। सूखे की समस्या के कारण यहां के किसान कर्ज में डूबे हैं। किसानों की बेबसी और सूखी जमीन की हकीकत दिखाती फिल्म ‘कड़वी हवा’ में संजय मिश्रा ने बेहतरीन अभिनय किया है। ऐसी ही एक फिल्म 'कौन कितने पानी में' दो गांवों 'ऊपरी' और 'बैरी' की कहानी है। ऊपरी गाँव ऊंची जाति वालों का है और बैरी गाँव में पिछड़ी जाति के लोग रहते हैं। लेकिन, वे जागरूक हैं और पानी को सहेजते हैं। एक ऐसा समय आता है, जब ऊंची जाति वालों के गाँव में पानी की किल्लत आती है। जबकि, पिछड़ी जाति वालों के गाँव में पानी बहुलता से रहता है।
        इस पानी के लिए ऊंची जाति वाले बैरी गाँव से छल करके पानी जुगाड़ लेते हैं। फिल्म का निष्कर्ष है कि यदि पानी को सहेजा नहीं गया तो इस किल्लत से हमें निपटना पड़ेगा। देखा गया है कि पानी की सबसे ज्यादा किल्लत गरीबों को ही चुकानी पड़ती है। अमीर तो पानी खरीदकर पी लेते हैं, लेकिन गरीब पानी खरीदकर किसे पिएं!  पानी की किल्लत पर कई डॉक्यूमेंट्री भी बन चुकी है। इनमें से एक है 'थर्स्टी सिटी।' 2013 में बनी इस फिल्म में दिल्ली में पानी की किल्लत और पानी के लिए श्रमिकों के संघर्ष को कैमरे में कैद किया गया है। पानी की किल्लत पर फ़िल्में बनाने वाले निर्देशकों को इस पर काम करने का विचार तब आया, जब उन्होंने अपनी आँखों से इस समस्या को देखा और महसूस किया! 
    मानव अस्तित्व से जुड़ी इस गंभीर समस्या को समझते हुए शेखर कपूर फिल्म बनाने का साहस कर रहे हैं, यह अच्छी बात है। इससे यह उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि संगीन विषयों पर सार्थक फिल्में बनाने वाले दूसरे निर्देशक भी आगे आएंगे। वे पानी की समस्या को रूपहले पर्दे पर उकेरकर पानी का कर्ज उतारेंगे और अपना सामाजिक दायित्व पूरा करेंगे। देव आनंद की बहुचर्चित फिल्म 'गाइड' और आमिर खान की 'लगान' में जब परदे पर पानी की बूंदे आसमान से बरसती हैं तो खुशी से सिर्फ पात्र ही उल्लसित नहीं होते, दर्शकों के मन में भी पानी की जीवनदायिनी अहमियत का अहसास होता है। किंतु, जब परदे से गांव ही गायब हो गए, तो भला खेत और पानी की बूंदों की अहमियत ही कहां बची! फिल्म 'अनोखी रात' का गीत … ओह रे ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में, सागर मिले कौन से जल में' हमारे जीवन दर्शन को अभिव्यक्त करता लगता है। फिल्म ही नहीं, गीतों में भी पानी की चर्चा मुहावरे के रूप में सुनी जाती है। लेकिन, यह सवाल फिर भी जिंदा है कि क्या हिन्दी सिनेमा में कभी पानी की वास्तविक समस्या दिखेगी! 
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भाजपा के लिए सबक है लोकसभा चुनाव की ये हार!

   लोकसभा चुनाव के नतीजों ने भाजपा को सबक दिया कि अति आत्मविश्वास किसी के लिए भी घातक होता है। देश को दस साल पहले 'कांग्रेस मुक्त भारत' का नारा देने वाले नरेंद्र मोदी अपनी पार्टी को पूर्ण बहुमत भी नहीं दिला सके। उनके 'मोदी की गारंटी' का नारा भी चुनाव में बेअसर रहा। भाजपा को इन चुनाव ने यह भी सिखाया कि पार्टी के अंदर भी लोकतंत्र होना जरूरी है। अभी तक सिर्फ दो नेता पार्टी के फैसले करते रहे हैं, लेकिन इन चुनाव के नतीजों के बाद शायद उनका रवैया बदले!


- हेमंत पाल

    लोकसभा चुनाव के नतीजे आ गए। ये नतीजे भाजपा के दावों और एग्जिट पोल के अनुमानों के विपरीत कहे जाएंगे। भाजपा ने इस बार 400 पार का नारा दिया था। लेकिन, यह नारा भाजपा को स्पष्ट बहुमत से पहले ही अटक गया। भाजपा ढाई सौ तक भी नहीं पहुंच पाई और 241 पर रुक गई। पिछली बार भाजपा ने अकेले ही 303 सीटें जीती थी, इस बार वह उससे बहुत पीछे रुक गई। केंद्र में तीसरी बार एनडीए सरकार जरूर बनने के आसार हैं, पर भाजपा उसमें अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने में पिछड़ गई। सबसे ज्यादा नुकसान उसे उतर प्रदेश और महाराष्ट्र में हुआ। पहले के अनुमानों में महाराष्ट्र में भाजपा को नुकसान बताया गया था, पर उत्तर प्रदेश के नतीजे चौंकाने वाले ही कहे जाएंगे। अब ये हार किसकी है नरेंद्र मोदी की या योगी की, इस पर भाजपा में घमासान होना है। महाराष्ट्र में तो जनता ने अपना फैसला दे दिया कि असली शिवसेना उद्धव ठाकरे की और असली एनसीपी वही है जिसके नेता शरद पवार हैं। इन दोनों क्षेत्रीय पार्टियों को तोड़कर भाजपा ने वहां शिवसेना के शिंदे गुट की सरकार बनवा दी थी। इस फैसले को महाराष्ट्र जनता ने नकार दिया।  
     देशभर के मतदाताओं ने इंडिया गठबंधन को 234 सीट जिताकर एग्जिट पोल के अनुमानों को गलत साबित कर दिया। यह आंकड़ा इसलिए महत्वपूर्ण है कि मतदान के अंतिम चरण के ख़त्म होते ही सारे न्यूज़ चैनलों ने एक तरफ़ा एनडीए को 370 से ज्यादा सीटों पर जीतने का दावा किया था। एक बारगी लगा भी, कि क्या वास्तव में ऐसा होगा! क्योंकि, जमीनी हकीकत इसका इशारा नहीं कर रही थी। एग्जिट पोल के अनुमानों का आधार वोट देकर निकलने वाले मतदाता होते हैं। उनसे जो फीडबैक मिला, उसे न्यूज़ चैनलों ने सही मान लिया। जबकि, सच्चाई यह है कि लोग अपने परिवार में भी नहीं बताते कि उन्होंने किसे वोट दिया, तो वे न्यूज़ चैनलों को क्यों बताएंगे! यही वजह है कि एक बार फिर एग्जिट पोल की पोल खुल गई। उन्होंने तीन दिन तक जो हवा बनाई, उस गुब्बारे को फटने में देर नहीं लगी।
     इस बार का चुनाव कई बातों के लिए एक सबक भी माना जाएगा। पहला सबक तो यह कि अति आत्मविश्वास किसी भी पार्टी के लिए आत्मघाती साबित होता है, जो भाजपा के मामले में सामने आ गया। भाजपा ने अपने चुनाव प्रचार में 'मोदी की गारंटी' को ज्यादा ही प्रचारित किया। भाजपा के नेता समझ नहीं पाए कि उनकी इस बात का जनता पर क्या असर हो रहा है। जनता ने इस गारंटी को गंभीरता से नहीं लिया। याद किया जाए तो अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में चुनाव में 'इंडिया शाइनिंग' नारा दिया गया था, जिसे जनता ने नहीं स्वीकारा था। वही हश्र 'मोदी की गारंटी' का हुआ। आज का मतदाता इतना नासमझ नहीं है कि उसे नारों और जुमलों की बाजीगरी में भरमाया जा सके।      
   दूसरा सबक एग्जिट पोल को लेकर है। नतीजों को लेकर न्यूज़ चैनलों के अनुमान पूरी तरह प्रायोजित दिखाई दिए। कहीं से नहीं लगा कि इनमें कुछ सच्चाई है। जिस तरह से इंडिया गठबंधन को मुकाबले से बाहर समझा और समझाया गया, वह किसी के गले नहीं उतरा। उसकी वास्तविकता भी सामने आ गई। जनता के मन में क्या था और क्या दिखाया गया, यह नतीजों ने दिखा दिया। यह पहली बार नहीं है, जब इस तरीके से एग्जिट पोल की असफलता सामने आई। ऐसे अनुमान पहले भी कई बार ध्वस्त हो चुके हैं। अब ये न्यूज़ चैनलों के लिए आत्मचिंतन का विषय है, कि वे सत्ता से प्रभावित होकर चुनाव के दौर में अपना अनुमान न लगाएं। क्योंकि, ऐसे अनुमान ज्यादा दिन छुपते नहीं और बहुत जल्द सामने आ जाते हैं।  
     अब सरकार तो एनडीए की ही बनेगी या नहीं, अभी इस बात का दावा नहीं किया जा सकता। क्योंकि, संख्यात्मक रूप से एनडीए के पास स्पष्ट बहुमत जरूर है, पर जोड़तोड़ की संभावना अभी जिंदा है। इंडिया गठबंधन विपक्ष में बैठा तो कई सालों बाद संसद में विपक्ष ताकतवर होगा। इतना कि वह मोदी की तीसरी बार की सरकार को चैन नहीं लेने देगा। भाजपा की मोदी सरकार के सामने खतरा इस बात का भी है कि उसके पास स्पष्ट बहुमत नहीं है, इसलिए उसे उसके सहयोगी दल भी गरियाने से नहीं चूकेंगे। पिछली दो बार की सरकारों में भाजपा का रवैया यही देखने में मिलता रहा। इस बार भाजपा को कम सीटें मिली, तो उसे भी सरकार में हावी होने का दंभ छोड़ना होगा। यदि केंद्र में एनडीए की सरकार बनती है, तो आशय यह कि इस बार नरेंद्र मोदी को वास्तविक गठबंधन की सरकार चलाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।      
    भाजपा को स्पष्ट बहुत न मिलने का खामियाजा पार्टी के अंदर भी उठाना पड़ सकता है। इसलिए कि अभी तक भाजपा की हर जीत का श्रेय नरेंद्र मोदी और अमित शाह को दिया जाता रहा है। अब, जबकि स्थिति विपरीत है, तो उन्हें भाजपा की हार का विरोध भी सहना होगा। ऐसी स्थिति में एक बड़ा खतरा भाजपा के अंदर से दिखाई दे रहा है, जो इस बात का संकेत देता है कि भाजपा के अंदर खदबदाता लावा भी बाहर निकल सकता। क्योंकि, अभी तक कई बड़े और पुराने नेता पार्टी में अपनी बात कहने में संकोच करते थे या उनकी बात को दबा दिया जाता रहा। लेकिन, अब शायद वे खुलकर बोलेंगे। भाजपा में ऐसे कई नेता हैं जो कई बार मोदी और शाह के फैसलों से सहमत नहीं होते, पर वे विरोध करने का साहस नहीं कर पाते थे, अब देखना है कि उनका रवैया क्या होता है।    
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Wednesday, June 5, 2024

नाम से ज्यादा चर्चित है इनके 'निक नेम'

- हेमंत पाल

फिल्मों में कलाकारों के नाम का बहुत महत्व है। इतना ज्यादा कि कई कलाकारों ने इंडस्ट्री में आकर अपने नाम बदले। फिल्म इंडस्ट्री में नाम बदलने का चलन बरसों पुराना है। बहुत से कलाकार ने अपना नाम बदलकर ही दर्शकों के दिलों पर राज किया। युसूफ खान दिलीप कुमार बन गए, रणवीर नाथ कपूर ने अपना नाम राज कपूर रख लिया, जतिन खन्ना ने नाम बदलकर राजेश खन्ना रख लिया और राजीव भाटिया अक्षय कुमार बन गए। सिर्फ नायकों ने ही नहीं नायिकाओं ने भी अपने नाम बदले। महजबीं बानो ने अपना नाम मीना कुमारी रख लिया। आज की नायिका कियारा आडवाणी का भी असली नाम आलिया आडवाणी है। लेकिन, इनके असली या बदले नाम से ज्यादा चर्चित हैं कलाकारों के 'निक नेम' यानी जिनकी वजह से उनकी पहचान है। कलाकारों को ये नाम धीरे-धीरे ये नाम नाम इतने फैमस हो गए कि कलाकारों की पहचान बन गए। सौ से पुरानी फ़िल्मी दुनिया में नाम बदलने और निक नेम से चर्चित होने का चलन बहुत पुराना है। पहले भी कलाकारों को उनकी अदाकारी के मुताबिक नाम के साथ निक नेम का तमगा मिलता था, आज भी वही होता है! 
    आज यदि सिर्फ 'टाइगर' कहा जाए तो लोग समझ जाएंगे कि बात सलमान खान की हो रही है। 'बाबा' बोलते ही दिमाग में संजय दत्त की छवि उभरती है और 'खिलाड़ी' यानी अक्षय कुमार! ये चलन आजकल का नहीं, दशकों पुराना है। ये नाम कब और कहां से आए, इसकी जानकारी कम ही मिलती है! लेकिन, दर्शकों या मीडिया जनित यह नाम इतने मशहूर हुए कि इनका जिक्र आते ही उस सितारे की छवि सामने आ जाती है। ‘झकास' कहते ही अनिल कपूर की मुद्रा सामने आ जाती है और 'मिस्टर परफेक्शनिस्ट का जिक्र आते ही समझ आता है कि बात आमिर खान की हो रही है। कलाकरों को इस तरह के टाइटल दिए जाने का सिलसिला उतना ही पुराना है, जितना सितारों से जुड़ा उनका स्टारडम! 
     जब देव आनंद दिलीप कुमार और राजकपूर की तिकड़ी परदे पर राज किया करती थी। इन तीनों सितारों को एक-एक नाम मिला था, जो इनके पर्दे वाले नाम से भले ही अलग था लेकिन इनकी छबि पर एकदम फिट बैठता था। दिलीप कुमार ने अपनी अदाकारी से पर्दे पर इतने आंसू उड़ेंगे कि उन्हें 'ट्रेजेडी किंग' कहा जाने लगा। उन्हीं की तरह पर्दे पर हमेशा अपने आसूंओ से सैलाब लाने वाली मीना कुमारी को 'ट्रेजेडी क्वीन' कहा गया! ये बात अलग है कि जब भी दिलीप कुमार और मीना कुमारी साथ आए तो परदे पर ट्रेजेडी नहीं काॅमेडी का झरना बहा। कोहिनूर, आजाद और यहूदी में दोनों साथ थे, पर तीनों फिल्मों में एक बूंद आंसू तक नहीं बहा! मुस्कुराते चेहरे वाली मधुबाला को आज भी बॉलीवुड की 'मोनालिसा' कहा जाता है। देव आनंद ने आजीवन हीरो की भूमिका निभाई, तो उन्हें 'एवरग्रीन' कहा गया! अपनी फिल्मों में भव्यता दिखाने वाले राज कपूर 'ग्रेट शोमैन' कहलाए! बाद में यह तमगा सुभाष घई ने जरूर लगाना चाहा, लेकिन वे 'शौमेन' तक ही सीमित रहे 'ग्रेट' नहीं बन पाए। 
     इनसे पहले अशोक कुमार का जलवा था, उन्हें 'दादा मुनि' कहा जाता रहा। पृथ्वीराज कपूर तो अकबर का किरदार निभाने के बाद भी 'पापाजी' ही कहलाए! साठ के उत्तरार्ध में धर्मेन्द्र, राजेन्द्र कुमार, मनोज कुमार  शम्मी कपूर, जितेन्द्र आए। धर्मेन्द्र को 'पत्थर के फूल' के बाद 'ही-मैन' की उपाधि मिली। राजेन्द्र कुमार एक के बाद एक हिट फिल्में देकर 'जुबली कुमार' बने। शम्मीकपूर को 'बागी' कहा गया तो जीतेन्द्र 'जम्पिग जैक' कहलाए। इन्हीं के समकालीन मनोज कुमार ने सेल्युलाइड को देशभक्ति की चासनी में इतना डुबोया कि उन्हें 'भारत कुमार' कहा जाने लगा। 
     इसके बाद दौर आया राजेश खन्ना, अमिताभ, मिथुन चक्रवर्ती का। एक के बाद एक 16 गोल्डन जुबली फ़िल्में देने वाले राजेश खन्ना बॉलीवुड के पहले 'सुपर स्टार' बने। अमिताभ बच्चन को सलीम-जावेद की 'जंजीर' ने 'एंग्री यंग मैन' का तमगा दिला दिया। डिस्को डांस करके 'डिस्को डांसर' की उपाधि पाने वाले मिथुन को दो नाम मिले। उन्हें गरीबों का अमिताभ बच्चन भी कहा जाता था। उनके साथ आए शत्रुघ्न को 'शॉटगन' का नाम मिला तो विनोद खन्ना को 'डेशिंग' का! इमरान हाशमी को उनकी भूमिकाओं की वजह से 'सीरियल किसर' कहा गया तो रणबीर कपूर को 'डेबोनियर।'
    खिताबों का सिलसिला केवल नायकों तक ही सीमित नहीं रहा। नूतन ने 'दिल्ली का ठग' में बिकनी पहनकर पहली 'बिकनी गर्ल' का दर्जा पाया, तो अपने दमदार प्रदर्शन के कारण नादिया बनी हंटरवाली।' हेलन 'डांसिंग डॉल' बनी तो नीलम 'बेबी डाॅल।' हेमा मालिनी आज भी 'ड्रीम गर्ल' ही कहलाती है, तो श्रीदेवी को 'हवा हवाई' और विद्या बालन को 'एंटरटेनमेंट गर्ल' कहा जाता है। 'कश्मीर की कली' की नायिका शर्मिला 'डिम्पल गर्ल' कहलाई। अपने दमदार अभिनय से लेकर अपने विवादों तक के लिए सुर्खियां बटोरने वाले संजय दत्त की पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ हमेशा चर्चा में रही। फैंस ने संजय दत्त को संजू बाबा, बाबा और 'खलनायक' जैसे नामों से नवाजा है। इन्हीं में एक नाम 'संजू बाबा' पर तो उनकी बायोपिक भी बनी। दर्शकों और फैंस में सलमान खान  ही क्रेज है। एक्शन और रोमांस के जोड़ से दिलों में जगह बनाने वाले सलमान खान का असल नाम तो बस बैनर और पोस्टर पर ही रहा, उनको तो ‘सल्लू भाई’ और ‘भाईजान’ जैसे नाम से ज्यादा जाना जाता है।
      अपने ज़माने के विख्यात अभिनेता दिलीप कुमार आज दुनिया में नहीं रहे हैं, लेकिन उनके किरदार आज भी दिलों में जिंदा हैं। मुगल-ए-आजम, सौदागर, क्रांति और 'देवदास' जैसी फिल्मों में काम करने वाले दिलीप कुमार को 'ट्रेजडी किंग' नाम दिया गया था। इसी तरह मनोज कुमार का वैसे तो असल नाम हरिकिशन गिरि गोस्वामी है, पर सिनेमा से प्रभावित होकर अपना नाम बदल लिया था। शहीद', क्रांति और 'पूरब-पश्चिम' जैसी देशभक्ति प्रधान फिल्मों की वजह से मनोज कुमार को 'भारत कुमार' कहा जाता रहा। अमिताभ बच्चन को उनके चाहने वाले कई नाम से पहचानते हैं। उन्हें 'सदी का महानायक' और 'शहंशाह' कहा जाता है। उन्हें 'बिग-बी' कहने वाले भी कम नहीं हैं। लेकिन, फिल्मों में अपने दमदार अभिनय और एक्शन के चलते अमिताभ बच्चन को 'एंग्री यंग मैन' का टाइटल मिला। 
     धर्मेंद्र अपनी दमदार बॉडी और एक्शन के लिए मशहूर रहे हैं। उन्हें भी 'ही-मैन' नाम से ज्यादा पुकारा जाता है। इंडस्ट्री में रोमांस की नई परिभाषा लिखने वाले शाहरुख खान को किंग खान, बादशाह और ‘किंग ऑफ रोमांस’ जैसे नाम से नवाजा गया। आमिर खान को दर्शक उनकी फिल्मों में परफेक्शन के लिए जानते हैं। कहा जाता है कि वे अपने किरदार को निभाने के लिए किसी भी हद तक गुजर जाते हैं। वजन बढ़ाना हो या फिर सिर मुंडवाना हो आमिर सबके लिए तैयार रहते हैं। उनकी इसी खासियत की वजह से उन्हें 'मिस्टर परफेक्शनिस्ट' नाम दिया गया। अक्षय कुमार को उनके जबरदस्त स्टंट और खिलाड़ी सीरीज की फिल्में करने की वजह से ‘खिलाड़ी कुमार’ का नाम दिया गया। 
      ये चलन सिर्फ नायकों तक ही सीमित नहीं रहा। 70 के दशक में जब हेमा मालिनी इंडस्ट्री में आई तो अपनी खूबसूरती और डांसिंग स्किल्स की वजह से सुर्खियां बटोरी। दर्शकों ने प्यार से उन्हें 'ड्रीम गर्ल' पुकारा। बाद में इसी नाम से 1977 में उनकी एक फिल्म भी आई। मीना कुमारी को 'ट्रेजेडी क्वीन' कहा गया तो माधुरी दीक्षित उन अभिनेत्रियों में शामिल हैं, जिनके नाम से ही फिल्में हिट हो जाती थीं। उनका डांस भी लोगों को हैरानी में डाल देता था। माधुरी जितनी कमाल की एक्ट्रेस हैं उतना ही शानदार डांस करती हैं। माधुरी को उनके डांस 'धक-धक करने लगा' की वजह से 'धक-धक गर्ल' और शानदार डांस की वजह से 'डांसिंग दीवा' नाम दिया गया। आज प्रियंका चोपड़ा ग्लोबल आइकॉन बन चुकी हैं। लेकिन, 'दोस्ताना' फिल्म के गाने 'देसी गर्ल' के बाद से ही अभिनेत्री को फैंस 'देसी गर्ल' बुलाया जाने लगा। बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। परदे के पीछे रहने वालों में मोहम्मद रफी 'आवाज के शहंशाह' कहलाए तो तलत महमूद 'गजलों के बादशाह।' नामों का यह सिलसिला कल भी प्रचलित था, आज भी है और उम्मीद है कि आगे भी कलाकार नए-नए नामों से पुकारे जाते रहेंगे। क्योंकि, जब तक मनोरंजन की दुनिया है, कलाकार भी रहेंगे और अदाकारी से साथ उनके नाम भी।   
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इंदौर में क्या दो नए चुनावी रिकॉर्ड बनेंगे!

      इंदौर में राजनीतिक सन्नाटा है। इसलिए कि इस सीट पर कोई मुकाबला ही नहीं है। इंदौर से कांग्रेस के लोकसभा उम्मीदवार ने न सिर्फ चुनाव से पलायन किया, बल्कि अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता भी बदल ली। इसके बावजूद उम्मीद के विपरीत यहां मतदान संतोषजनक हुआ। अब उत्सुकता दो आंकड़ों को लेकर बची है। पहली, यह कि बीजेपी उम्मीदवार अपने निकटतम उम्मीदवार से कितने अंतर से चुनाव जीतता है। दूसरी उत्सुकता ‘नोटा’ के खाते में जाने वाले वोटों को लेकर है। कयास लगाए जा रहे हैं कि दोनों ही मामलों में इंदौर रिकॉर्ड बनाएगा।
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- हेमंत पाल
 
    देश में मध्यप्रदेश की इंदौर संसदीय सीट का नतीजा क्या होगा, इससे कोई अनजान नहीं है। यही वजह है कि यहां न तो कोई उत्सुकता है और न इंतजार। जब पूरे देश में चुनावी चर्चा चरम पर रही, इंदौर में राजनीतिक सन्नाटा रहा। इसलिए कि इस सीट पर कोई मुकाबला ही नहीं है। इंदौर से कांग्रेस के लोकसभा उम्मीदवार ने न सिर्फ चुनाव से पलायन किया, बल्कि अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता भी बदल ली। इसके बावजूद उम्मीद के विपरीत यहां मतदान संतोषजनक हुआ। अब उत्सुकता दो आंकड़ों को लेकर बची है। पहली तो यह कि बीजेपी उम्मीदवार अपने निकटतम उम्मीदवार से कितने अंतर से चुनाव जीतता है। दूसरी उत्सुकता 'नोटा' के खाते में जाने वाले वोटों को लेकर है। कयास लगाए जा रहे हैं कि दोनों ही मामलों में इंदौर रिकॉर्ड बनाएगा। क्योंकि, रिकॉर्ड बनाना और कुछ नया करना इंदौर वासियों आदत रही है।          
   इंदौर एक संभावनाशील शहर है, जो हमेशा कुछ नया करने की कोशिश में रहता है। स्वच्छता में लगातार सात बार देश में अव्वल रहने के बाद शुद्ध हवा के मामले में भी शहर ने रिकॉर्ड बनाया। यहां की आबोहवा को जीवन के लिए बेहतर माना गया और यहां की हवा की शुद्धता उत्कृष्ट रही। देश के स्मार्ट शहरों में भी इंदौर का नाम चमका। यहां स्मार्ट शहर की दिशा में जो काम हुआ, उसे देश में सराहा गया। जहां तक खानपान की बात है, तो इंदौर से ज्यादा बेहतर खानपान देश के शायद किसी और शहर में होगा। ये शहर भौगोलिक रूप से देश के मध्य में स्थित है, इसलिए यहां चारों दिशाओं की संस्कृति और खानपान का असर है। यहां ठेठ मालवी खाना भी पसंद किया जाता है और राजस्थानी और पंजाबी भी।
    ये ऐसा शहर है जो सबको आत्मसात कर लेता है। इसलिए यहां इंदौर के मूल निवासियों के अलावा राजस्थान के लोग भी मिलेंगे, महाराष्ट्र के भी उत्तर प्रदेश के साथ पंजाब के भी। दक्षिण भारत के लोगों की भी बहुतायत है। बिहारियों की भी यहां बड़ी तादाद है। अब यह शहर चुनाव के इतिहास में भी देश में अपना नाम बनाने जा रहा है। भले ही यह एक संभावना हो, लेकिन जो दिखाई दे रहा और समझा जा रहा, उससे इंकार नहीं किया जा सकता। मुद्दा यह है कि इस बार इंदौर 'नोटा' में भी रिकॉर्ड बनाएगा। बीजेपी का उम्मीदवार रिकार्ड मतों से चुनाव जीतेगा, इसलिए कि यहां से कांग्रेस के उम्मीदवार ने एन वक्त पर अपना नाम वापस ले लिया था। ऐसी स्थिति में बीजेपी के उम्मीदवार के सामने कोई ताकतवर प्रतिद्वंदी नहीं है। जो 16 निर्दलीय मैदान में हैं, उनमें उनका किसी का ऐसा वजूद नहीं कि कोई चमत्कार हो सके।
    यहां 25 लाख से ज्यादा मतदाता हैं। इनमें से करीब साढे 15 लाख ने वोट डाले। यानी मतदान करीब 61% से ज्यादा हुआ। तय है कि इसमें ज्यादातर वोट उस बीजेपी के उम्मीदवार के खाते में जाएंगे, जिसके सामने कोई मुकाबले में ही नहीं है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार के मैदान छोड़ने के बाद किसी निर्दलीय उम्मीदवार को समर्थन नहीं दिया। उसने कांग्रेस समर्थकों से अपील की, कि वे ईवीएम में 'नोटा' का बटन दबाकर अपना विरोध दर्ज करें। इस वजह से है उम्मीद की जा रही है कि 'नोटा' में सर्वाधिक वोट का देश में दर्ज पुराना रिकॉर्ड टूटेगा, जो अभी तक बिहार की गोपालगंज संसदीय सीट के नाम है। वहां 'नोटा' के खाते में 61,550 वोट पड़े थे। ऐसा अनुमान है कि इस बार इंदौर इस आंकड़े से बहुत आगे निकल सकता है। क्योंकि, कांग्रेस ने 'नोटा' के बटन को अपने उम्मीदवार की तरह समझा और मतदाताओं को भी समझाया। अब इसका फायदा रिकॉर्ड बनने में मिलेगा।  
       जहां तक 16 निर्दलीय उम्मीदवारों की बात है, तो उनमें से कोई भी इतना ताकतवर नहीं, जो बीजेपी उम्मीदवार का प्रतिद्वंद्वी माना जाए। ऐसे में पिछली बार जो बीजेपी उम्मीदवार साढ़े 5 लाख वोटों के अंतर से चुनाव जीता था, संभावना है कि इस बार वह करीब दुगना होगा। इससे एक तरफ ईवीएम में 'नोटा' के बटन दबाने का रिकॉर्ड बनेगा, दूसरी तरफ बीजेपी उम्मीदवार की जीत का। इसलिए कहा जा सकता है कि बीजेपी और कांग्रेस दोनों  पार्टियां नतीजे वाले दिन अपनी-अपनी  पीठ थपथपाएंगे। कांग्रेस को इस बात की ख़ुशी होगी कि मतदाताओं ने 'नोटा' में बटन दबाकर उसका साथ दिया और देश में 'नोटा' का रिकॉर्ड बना। बीजेपी भी जीत की ख़ुशी मनाएगी। पर, उसके समर्थकों में ये कसक भी रहेगी कि वे ऐसा मुकाबला जीते, जिसमें कोई प्रतिद्वंदी ही नहीं था। सीधे शब्दों में कहा जाए तो इंदौर में बीजेपी भी जीतेगी और कांग्रेस भी।      
      इंदौर संसदीय क्षेत्र के चुनाव में इस बार जो हुआ, वो वास्तव में अजूबा ही कहा जाएगा। यहां जिस दिन नाम वापसी का दिन था, उसी दिन कांग्रेस के उम्मीदवार ने अपना नाम वापस लेकर कांग्रेस पार्टी को मुकाबले से बाहर कर दिया। उन्होंने न सिर्फ चुनाव मैदान छोड़ा, बल्कि उसी समय प्रतिद्वंदी पार्टी बीजेपी में शामिल हो गए। ये देश के चुनाव इतिहास में हुई अजीब घटना है। कई घंटों तक कांग्रेस की राजनीति में सन्नाटा छाया रहा। क्योंकि, नया फैसला करने का समय भी नहीं बचा था। मध्य प्रदेश की 29 लोकसभा सीटों में से कांग्रेस के हाथ से एक और सीट निकल गई। लेकिन, उसने कोई नया प्रयोग नहीं किया और बजाए किसी उम्मीदवार का समर्थन करने के एक तरह से समर्पण ही किया। लेकिन, मतदाताओं से यह आह्वान जरूर किया कि वे यदि इन हालातों को लोकतंत्र के लिए सही नहीं मानते. तो ईवीएम मशीन का सबसे आखिरी वाला 'नोटा' का बटन दबाएं। इससे देश के सामने यह संदेश जाएगा कि जो हुआ वो ठीक नहीं था। कांग्रेस की अपील कितना असर दिखाती है, ये तो नतीजे बताएंगे। लेकिन, देश के सामने इस लोकसभा सीट का चुनाव भी एक उदाहरण है।    
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