Tuesday, July 5, 2011

प्रसंग : जबेरा उपचुनाव

राजनीति से सहानुभूति की लहर नदारद!
(हेमंत पाल)
मध्यप्रदेश में काँग्रेस ने नई टीम बनाकर भारतीय जनता पार्टी को मात देने का जो सपना देखा था, वह जबेरा में टूट गया! काँग्रेस की इस हार के पीछे संगठनात्मक खामी थी या भाजपा का पलड़ा भारी था, इस निष्कर्ष पर पहुँचना आसान नहीं है। लेकिन, एक बात तो स्पष्ट हो गई कि राजनीति में सिर्फ सहानुभूति की लहर पर सवार होकर चुनाव जीतने का फार्मूला अब पुराना पड़ गया। किसी नेता के आकस्मिक निधन से खाली हुई सीट पर उसके परिवार का कोई सदस्य चुनाव जीत ही जाएगा, इस बात का दावा नहीं किया जा सकता! इस जीत के लिए पार्टी को एड़ी-चोटी का जोर भी लगाना पड़ता है। सहानुभूति अकेली अपना कमाल नहीं दिखाती! कम से कम हाल के उपचुनावों के नतीजों का संकेत तो यही बताता है। जबेरा में हुई काँग्रेस की हार ने जहाँ पार्टी को भाजपा के खिलाफ और ज्यादा मेहनत करने का संदेश दिया, वहीं यह भी जता दिया कि अब मतदाताओं को सहानुभूति के आँसुओं से भरमाना आसान नहीं है।
प्रदेश विधानसभा के पिछले चुनाव में जबेरा से काँग्रेस के रत्नेश सोलोमन जीते थे। वे पहले भी विधायक रह चुके हैं, और मंत्री भी रहे। उनके निधन के बाद खाली हुई सीट के लिए हुए उपचुनाव में काँग्रेस ने उनकी बेटी डॉ तान्या सोलोमन को उम्मीदवार बनाया। काँग्रेस को उम्मीद थी, कि रत्नेश सोलोमन के प्रति क्षेत्र के लोगों की सहानुभूति और पार्टी का परंपरागत वोट बैंक तान्या की जीत सुनिश्चित कर देगा। लेकिन, काँग्रेस की यह रणनीति सफल नहीं हुई और पार्टी को बुरी तरह मात खाना पड़ी। यह पुश्तैनी-राजनीति का सोच रखने वाली पार्टियों के लिए भी एक संदेश है। अब उन्हें सोचना होगा कि राजनीति को परिवार की बपौती नहीं माना जा सकता। जहाँ तक सहानुभूति की बात है, तो राजनीति में भी इतना पेशेवर अंदाज आ गया है, कि मतदाता अब सहानुभूति जैसे फैक्टर को खास तवज्जो नहीं देते। यह बात सिर्फ जबेरा तक ही सीमित नहीं है, हाल ही में ऐसे कई राजनीतिक संकेत मिले जो पुश्तैनी नेतागिरी को हाशिए पर धकेलते दिखाई दिए। इसलिए कि अब राजनीति महज सहानुभूति से नहीं, समीकरणों के जोड़-घटाव से चलती है।
भाजपा के दिलीप भटेले के 2007 में निधन के बाद पार्टी ने भटेले की पत्नी धारेश्वरी भटेले को यह सोचकर लाँजी से चुनाव मैदान में उतारा था, कि मतदाताओं की सहानुभूति अपना असर दिखाएगी, पर पांसा उल्टा पड़ गया। लाँजी से समाजवादी पार्टी के किशोर समरीते ने चुनाव जीता। सांवेर से भाजपा के टिकट पर जीतने वाले प्रकाश सोनकर के निधन के बाद दिसंबर 2007 में हुए उपचुनाव में तो पार्टी ने सोनकर परिवार के किसी सदस्य को टिकट न देकर अन्य उम्मीदवार को उतारा, पर वो चुनाव हार गया। पार्टी को लगा कि शायद उसने गलत उम्मीदवार का फैसला किया था। यही कारण था कि 2009 में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी ने गलती सुधारकर प्रकाश सोनकर की पत्नी निशा सोनकर को टिकट दिया। यह सोचकर कि शायद उनके परंपरागत वोट बैंक और मतदाताओं की सहानुभूति कोई कमाल कर जाए, पर पार्टी की यह रणनीति भी पलट गई और भाजपा को हार का मुँह देखना पड़ा।
हाल ही एक मामला जमुनादेवी का भी है जो प्रदेश की बड़ी काँग्रेस नेता थी और कुक्षी में उन्हें मात देना टेढ़ी खीर था। लेकिन, उनके निधन के बाद हुए उपचुनाव में काँग्रेस उनकी भतीजी निशा सिंघार को जीत नहीं दिला पाई! जबकि, देखा जाए तो जमुनादेवी के नाम पर तो सहानुभूति का बवंडर चलना था, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ! इन उदाहरणों के बीच लक्ष्मणसिंह गौड़ की पत्नी मालनी गौड़ की जीत मायने रखती है। सहानुभूति के जरिए चुनाव जीतने वाले मामले में मालिनी गौड़ के अलावा एक नाम काँग्रेस रणवीरसिंह जाटव का भी है जो गोहद क्षेत्र से अपने पिता माखनसिंह जाटव के निधन के बाद हुए उपचुनाव में जीते। गौर करने वाली बात यह, कि हादसे में हुई नेताओं की मौत के साथ सहानुभूति अब भी कायम है।
भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर भले ही कोई बड़ा कमाल नहीं कर पा रही हो, पर प्रदेश में तो भाजपा का ही सिक्का चल रहा है। जबेरा की जीत ने इस बात पर मुहर भी लगा दी! जबेरा से पहले सोनकच्छ और कुक्षी के उपचुनावों में भी भाजपा ने अपनी चुनावी रणनीति का असर दिखा दिया था। इस नजरिए से देखा जाए तो यह भाजपा की जीत की हैट्रिक है। वैसे राजनीति में अभी तक यह माना जाता था, कि जो भी पार्टी सत्ता में होती है, उसके लिए उपचुनाव में जीत हांसिल करना मुश्किल होता है। क्योंकि, एंटीइनकम्बेंसी फैक्टर मतदाताओं को सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ वोट देने के लिए प्रभावित करता है। लेकिन, सहानुभूति के नाम पर चुनाव की जंग जीत लेने का काँग्रेस का फार्मूला कुक्षी के बाद जबेरा में भी फेल हो गया। इसे उम्मीदवार के चयन की खामी तो कहा ही जा सकता है, चुनाव में पार्टी को झौंक देने की शिद्दत की भी कमी नजर आई! जबेरा और इससे पहले के उपचुनाव में काँग्रेस की हार को सिर्फ उम्मीदवार की हार नहीं कहा जा सकता, यह सीधे-सीधे पार्टी की रणनीतिक खामी है।

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