Friday, July 15, 2011

काँग्रेस ने मध्यप्रदेश को क्या 'मंदप्रदेश" समझा?

(हेमंत पाल)
कांग्रेस पार्टी के एजेंडे में मध्यप्रदेश लगता है, कहीं नहीं है! या वह प्रदेश को लेकर किसी भी तरह की आशा ही नहीं पालनी। मंत्रिमंडल विस्तार में मध्यप्रदेश की जिस तरह से अनदेखी की गई, वहाँ तक तो ठीक था। परंतु, काँतिलाल भूरिया की जगह किसी और को शामिल न करना और अरुण यादव को निकालना प्रदेश के लिए ऐसा संदेश है, जिससे आम कार्यकर्ता हताश होगा। इससे प्रदेश काँग्रेस अध्यक्ष काँतिलाल भूरिया की मुश्किलें भी बढ़ेगी! क्योंकि, खानापूरी के लिए अरुण यादव को संगठन में लेने से प्रदेश में किसी खास परिवर्तन की उम्मीद नहीं की जा सकती। यह कहना हास्यास्पद होगा कि उत्तरप्रदेश को ध्यान में रखकर मंत्रिमंडल में बदलाव किया गया है। दरअसल, इस बार दबाव भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण इतना ज्यादा था कि कांग्रेस फूँक-फूँककर कदम रख रही थी। नए चेहरों का चुनाव करते वक्त भी इसी बात का ध्यान रखा गया। परंतु जरुरत से ज्यादा ध्यान देना भी कभी मुश्किल में डाल देता है, जैसा लगता है इस बार हुआ है!
मंत्रिमंडल के बदलाव में ऐसा कम ही होता है कि किसी इलाके को प्रतिनिधित्वहीन कर दिया जाए! यह अनुमान लगाए बगैर कि इस फैसले के क्या राजनीतिक नतीजे होंगे! चार में से दो मंत्रियों को हटा दिया गया। अब कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया ही केंद्र सरकार में प्रदेश के प्रतिनिधि के रूप में बचे हैं। काँतिलाल भूरिया और अरूण यादव को जिस तरह बाहर कर दिया गया, उसके पीछे कोई ठोस कारण रहा होगा, यह कहीं नजर नहीं आता। मंत्रिमंडल में जब भी बदलाव की कवायद होती है, राजनीतिक और जातीय समीकरणों का गठजोड़ बैठाया जाता है। फायदे और नुकसान का आकलन किया जाता है। राजनीतिक असंतोष न पनपे इसका भी अंदाजा लगाया जाता है, पर लगता है ताजा फेरबदल में इस मुद्दे पर गंभीरता नहीं बरती गई। कांग्रेस ने मध्यप्रदेश के साथ 'मंदप्रदेश" जैसा व्यवहार किया। राजनीतिक संतुलन के सी-सॉ में कांग्रेस ने मध्यप्रदेश से गुटों के आकाओं से ही राय ली है, संगठन से राय लेने की बात किसी के मन में शायद नहीं आई। यही कारण रहा कि आकाओं ने अपना खेल दिखा दिया! उन्होंने प्रदेश में ऐसे समीकरणों को जन्म दिया, जिसे चाहे जैसा हल करें उत्तर शून्य ही आएगा।
काँतिलाल भूरिया को हटाए जाने के बारे में तर्क दिया जा रहा है, कि मध्यप्रदेश के काँग्रेस संगठन को नए सिरे से गढ़ने के लिए के लिए उन्हें मंत्रिमंडल की जिम्मेदारियों से मुक्त किया जा रहा है। इस बात को कुछ हद तक सही भी मान लिया जाए, तो इसका आशय यह कतई नहीं होता कि उनकी जगह किसी और को शामिल नहीं किया जाए? वह भी ऐसी स्थिति में जब मध्यप्रदेश में काँग्रेस ने लोकसभा और विधानसभा दोनों ही चुनावों में अच्छे प्रदर्शन किया था। पश्चिम मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाके से काँतिलाल भूरिया की जगह गजेंद्रसिंह राजूखेड़ी को जगह दी जाती तो जातीय समीकरण भी बैलेंस होता और इलाका में काँग्रेस की पकड भी बनी रहती। वे तीन बार के सांसद हैं, और उनका दावा भी पुख्ता है। यहाँ यह बात भी ध्यान देने लायक है कि प्रदेश की सत्ता में लगातार दो बार से काबिज भारतीय जनता पार्टी का पूरा जोर पश्चिम मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाकों पर ही है और कुक्षी में काँग्रेस की हार इसीका नतीजा है। काँतिलाल भूरिया के प्रदेश काँग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद से ही भाजपा ने संगठनात्मक रूप से अपनी गतिविधियाँ आदिवासी इलाके में केंद्रित की है। ऐसे में भूरिया को हटाकर मैदान को खाली छोड़ देना किसी भी कोण से राजनीतिक समझदारी का तकाजा नहीं है।
अरूण यादव को मंत्रिमंडल से हटाना चौंकाने वाली घटना है। यह ठीक वैसी ही है, जैसा कि उन्हें मत्रिमंडल में शमिल किया जाना था! उनके हटाए जाने के पीछे फिलहाल कोई तार्किक कारण नजर नहीं आता! उन्हें जब मनमोहनसिंह ने अपनी कैबिनेट में शामिल किया था, तब यह बात कही जा रही थी कि वे देश में यादव समाज से जीतने वाले अकेले सांसद हैं, इसलिए उन्हें जगह दी गई! काँग्रेस उनका राजनीतिक लाभ लेना चाहती है, इसलिए मंत्रिमंडल में शामिल किया गया। पार्टी ने बिहार के चुनाव में उनका उपयोग भी किया, पर चुनाव के बाद उन्हें उठाकर हाशिए पर रख दिया! खानापूरी के लिए उन्हें संगठन में जगह जरूर दी गई, पर उसका कोई नतीजा नहीं निकलने वाला। कुल मिलाकर अगर बारीकी से देखा जाए तब यही तथ्य उभरता है कि यहाँ भी दिग्विजय फैक्टर ने अपना असर दिखाया है। जिस तरह से राहुल गाँधी से उनकी नजदीकी है, इस बात से कोई इंकार नहीं किया जा सकता कि अगले कुछ समय में प्रदेश के संगठन में भी यहीं फैक्टर काम करेगा!

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