Friday, July 29, 2011

यह सेंध नहीं कब्जा करने तैयारी!

(हेमंत पाल)
राजनीति की चौपाल पर जब भी चुनावी रणनीति बनती है, सबसे पहले कमजोर कडी की तलाश की जाती है। पहले वहाँ चोट की जाती है, जहाँ प्रतिद्वंद्वी कमजोर लग रहा हो और इस चोट से उसका आत्मविश्वास डिगे! इस नजरिए से देखा जाए तो प्रदेश के आदिवासी इलाके में भारतीय जनता पार्टी की घुसपैठ पूरी तरह चुनावी तैयारियों का हिस्सा है। भाजपा को इस बात का अंदेशा हो गया है कि जो आदिवासी वोट अब तक काँग्रेस की सबसे बड़ी ताकत थी, वो उसके हाथ से दरक रही है। यही कारण है कि भाजपा ने अपने सारे रणनीतिक तीरों का मुँह प्रदेश के इस पश्चिमी इलाके के आदिवासी इलाकों की तरफ मोड़ दिया है। प्रभात झा के अध्यक्ष बनने के बाद इन गतिविधियों में कुछ ज्यादा तेजी आती दिखाई दी। अगले चुनाव में उनके 200 सीटों के दावे के पीछे इन्ही गतिविधियों का दम है। राजनीति कहती है कि आपमें सामने वाले को हतप्रभ करने की क्षमता होगी, तभी चमत्कार भी नजर आएंगे। भाजपा इसी रणनीति के तहत काम कर रही है।
मध्यप्रदेश के चुनावी इतिहास को टटोला जाए तो साफ नजर आता है कि आजादी के बाद से ही आदिवासी इलाके काँग्रेस का ऐसा वोट बैंक रहे हैं, जहाँ कोई भी पार्टी सेंध नहीं लगा पाई! क्योंकि, पहले पंडित जवारहरलाल नेहरू फिर इंदिरा गाँधी और इसके बाद राजीव गाँधी ने आदिवासियों को साधने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन, अब काँग्रेस में वह जमीनी सोच नहीं बची जो अपने परंपरागत वोट बैंक को बचाने की कोशिश कर सके। भाजपा भी बरसों से इस वोट बैंक को साधने की कोशिश करती रही, पर उसे पहली बार 2003 में बड़ी सफलता मिली, जब झाबुआ जिले (तब आलीराजपुर भी शामिल था) की सभी विधानसभा सीटें भाजपा ने जीत ली। भाजपा की इस तैयारी के पीछे संघ के आनुशांगिक संगठनों की बड़ी भूमिका थी, जो कई साल तक आदिवासी इलाके में गुपचुप तरीके से काम कर रही थीं। अब वही काम भाजपा खुलकर कर रही है और अपने मकसद को दर्शा भी रही है, ताकि 2003 की कहानी को दोहराया जा सके! कांग्रेस के लिए झाबुआ लिटमस टेस्ट है, यह सभी कांग्रेसी जानते है! क्योंकि, 2003 के विधानसभा चुनावों के नतीजों में जैसे ही झाबुआ का पहला परिणाम भाजपा के पक्ष में गया, तभी दिग्विजय सिंह ने हार स्वीकारते हुए कहा था कि अगर झाबुआ में हार गए तो मध्यप्रदेश में हार गए!
यही कारण है कि पिछले करीब छ: महीने से आलीराजपुर, झाबुआ और बड़वानी भाजपा की प्राथमिकताओं में पहले नंबर पर हैं। भाजपा बार-बार अपनी सक्रियता से आदिवासियों को इस बात का अहसास कराने की कोशिश कर रही है, कि अब काँग्रेस उनकी तारणहार नहीं रही। भाजपा के इस संदेश में दम भी है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल के बहाने जिस तरह प्रदेश के आदिवासी इलाके की अवहेलना की गई, उससे यह बात स्पष्ट भी हो जाती है। झाबुआ के सांसद काँतिलाल भूरिया को मंत्रिमंडल से हटाया जाना और उनकी जगह किसी और को मौका न देना, इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि काँग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का आदिवासियों के प्रति सोच क्या है! जब इस आदिवासी इलाके में काँग्रेस का नेतृत्व कमजोर पड़ेगा, तो तय है कि उसकी जगह लेने के लिए नया नेतृत्व पनपेगा। भाजपा उसी मौके की तलाश में थी, जो खुद काँग्रेस ने आगे बढ़कर उसकी झोली में डाल दिया।
कांग्रेस ऊपरी तौर पर विरोध जरूर कर रही है, लेकिन इसमें भी उसे केंद्रीय नेतृत्व का सहारा लेना पड़ रहा है। ऐसे में कांग्रेस के आम कार्यकर्ता को चिंता में डालने के लिए प्रभात झा का यह बयान काफी है कि कई कांग्रेसी नेता भाजपा में आने के लिए लाईन लगाए है। कांग्रेस के लिए यह आत्ममंथन करने का समय है और कुछ नई सोच और नए विचार के साथ कार्यकर्ताओं के बीच जाने का भी। वहीं भाबरा में शहीद चंद्रशेखर आजाद को याद करने के बहाने भाजपा ने जिस तरह के पांसे चले हैं, वह काँग्रेस के लिए एक चुनौती भी है! लेकिन, लगता नहीं कि काँग्रेस में इस बात को लेकर कोई गंभीर चिंतन होगा।

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