प्रदेश की 27 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव राजनीति की नई धारा निर्धारित करेंगे! ये उपचुनाव जितना भाजपा के लिए जरुरी हैं, उतना कांग्रेस के लिए भी! यही कारण है कि दोनों ही पार्टियां बिना कोई गलती किए फूंक-फूंककर कदम रख रही हैं। भाजपा को 9 सीट जीतकर अपनी सरकार बचाना है, तो कांग्रेस को सत्ता की दौड़ में बने रहने के लिए सभी 27 सीटें जीतना हैं! भाजपा सरकार में है और उसे गिनती की सीटें जीतना है, इसलिए उसके लिए चुनौती ज्यादा मुश्किल नहीं है! लेकिन, फिर भी वो कोई रिस्क लेना नहीं चाह रही, इसलिए चुनावी रणनीति बनाने में भी कसर नहीं छोड़ रही! जबकि, कांग्रेस में अपेक्षाकृत ठंडापन है! सत्ता खोने के बाद उसे वापस पाने की कोशिश में कमलनाथ ही सबसे ज्यादा सक्रिय दिख रहे हैं! ज्यादातर बड़े नेता नेपथ्य में हैं। लम्बे समय तक पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रहे कांतिलाल भूरिया, अरुण यादव के अलावा अजय सिंह कहीं नजर नहीं आ रहे! सर्वे से लगाकर उम्मीदवारों के चयन तक कमलनाथ ही फैसले करते नजर आ रहे हैं!
कांग्रेस जानती है कि भाजपा हमेशा चुनावी मोड पर रहती है, इसलिए उससे चुनावी मुकाबला आसान नहीं है। फिर भी कांग्रेस उतनी गंभीर नहीं लग रही, जितना उसे होना चाहिए। लग रहा है कि 27 उपचुनाव अकेले कमलनाथ ही लड़ रहे हैं। उनके अलावा कोई और नेता न तो सक्रिय लग रहा है, और न किसी मंच या मीडिया में ही नजर आ रहा। ग्वालियर-चंबल इलाके में ही कांग्रेस जरूर मीडिया में मुखरता से नजर आ रही है! सोशल मीडिया में भी उसके हमले जारी हैं! पर मालवा-निमाड़ और बुंदेलखंड में कांग्रेस खेमों में बंटी है। मालवा-निमाड़ में सात सीटों पर उपचुनाव होना है, पर यहाँ ऐसा नहीं लग रहा कि कांग्रेस ने अपना माहौल बनाने की कोशिश की! कमलनाथ ने सांवेर में जरूर बड़ी सभा कर भाजपा की नींद हराम कर दी, पर बाकी सीटों पर सन्नाटा पसरा है। ऐसे में हर सीट पर स्थानीय कांग्रेसी नेताओं में जंग छिड़ी है।
कांग्रेस भले ही इस बात को स्वीकार न करे, पर ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थकों के कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जाने के बाद ग्वालियर-चंबल इलाके में कांग्रेस का संगठनात्मक चरमराया है। उपचुनाव वाली कई सीटें ऐसी है, जहाँ कांग्रेस कार्यकर्ताओं तक का अकाल लग रहा! क्योंकि, जो सिंधिया समर्थक कांग्रेसी विधायक पार्टी छोड़कर भाजपा में गए, वो अपनी फ़ौज को भी साथ ले गए। इससे ये सवाल उठता है कि इन कांग्रेस कार्यकर्ताओं की प्रतिबद्धता पार्टी के साथ थी या किसी नेता के साथ! कांग्रेस को इस घटना से ये सबक भी लेना चाहिए, कि बगावत कांग्रेस विधायक ने की या उस इलाके की पूरी कांग्रेस ने! कांग्रेस के लिए अब सिंधिया के गढ़ में नए सिरे से पार्टी को खड़ा करना चुनौती है! इस इलाके की 16 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होना हैं! इसे देखते हुए शिवराज ने कैबिनेट में अच्छा खासा प्रतिनिधित्व भी दिया है। ये रणनीति कहीं कांग्रेस के लिए परेशानी का कारण न बने!
चुनाव के माहौल में एक और सवाल कसमसा रहा है, कि उपचुनाव के प्रभारी बनाए जाने में अल्पसंख्यकों को नज़रअंदाज़ किया किया गया! इस वर्ग के नेताओं को चुनावी बैठकों में भी नहीं बुलाया जा रहा! जबकि, उपचुनाव वाले इलाकों बदनावर, सांवेर, सुवासरा, हाट पीपल्या, सुरखी, मुंगावली, ग्वालियर-ईस्ट जैसी सीटों पर अल्पसंख्यक वोट 20 से 40 हजार तक हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर उपचुनाव में कांग्रेस की नैया कैसे पार होगी? बची हुई 12 सीटों पर कितने अल्पसंख्यकों को पार्टी उम्मीदवार बनाती है, इस पर सबकी नजर है। क्योंकि, अभी घोषित 15 सीटों के उम्मीदवारों में कोई अल्पसंख्यक नहीं है! यदि उम्मीदवार नहीं बनाया जाता, तो उन्हें उपचुनाव की को अहम ज़िम्मेदारी सौंपी जाना जरुरी है।
भाजपा के मुकाबले कांग्रेस संगठन हमेशा ही कमजोर लगता रहा है। इसकी तुलना कभी भाजपा से नहीं की जा सकती! मतभेद भाजपा में भी हैं, पर कभी सतह पर नहीं आते! जबकि, कांग्रेस में नेताओं की आपसी लड़ाई भी मीडिया के मंच पर लड़ी जाती है। सिंधिया के पार्टी से जाने के बाद भी ये दावा नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस में गुटबाज़ी खत्म हो गई! उपचुनाव वाली हर सीट पर कांग्रेस सेहत बहुत अच्छी नहीं है। स्थानीय स्तर पर कांग्रेस के नेताओं में ही इतने मतभेद हैं कि वे सुलझ नहीं पा रहे! कांग्रेस ने 27 में से 15 सीटों पर उम्मीदवार घोषित करके चैन की सांस ले ली हो! पर, सबसे ज्यादा झमेला तो बची हुई 12 सीटों पर ही है। यहाँ एक सीट पर 3 से 5 तक दावेदार हैं, जो किसी भी स्थिति में अपना दावा छोड़ना नहीं चाहते! लेकिन, कहीं कोई ऐसी टीम नजर नहीं आ रही, जो आपसी मतभेद खत्म करके पार्टी को एकजुट कर सके।
अभी तक हुए चुनावी सर्वे में भाजपा को कमजोर बताया जा रहा है। पर, इसका कारण कांग्रेस का ताकतवर होना कतई नहीं है! भाजपा के पिछड़ने के अनुमान इसलिए लगाए जा रहे हैं कि सिंधिया समर्थकों के प्रति जनभावना सकारात्मक नहीं है। प्रदेश में राजनीतिक हथकंडे से चलती सरकार को गिराकर अपनी सरकार बना लेने को लोग पचा नहीं पाए। मार्च में जब विद्रोह-प्रसंग छिड़ा, तब ये सब ज्यादा मुश्किल नहीं लग रहा था, पर आज का माहौल बदला सा है। इसी में कांग्रेस अपनी जीत का फार्मूला ढूंढ रही है। मध्यप्रदेश में दो दल ही चुनाव में प्रमुख भूमिका निभाते हैं, इसलिए वोट बंटने जैसी कोई आशंका भी नहीं है! ऐसे में साफ़ कहा जा सकता है कि 27 सीटों के उपचुनाव में भाजपा की कमजोरी ही कांग्रेस को फ़ायदा दिलाएगी! अन्यथा कांग्रेस एकजुटता से ऐसी कोई मेहनत नहीं कर रही जिससे जीत का रास्ता बने!
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