Sunday, December 27, 2020

कोरोना से उपजा सिनेमाघरों का नया अवतार

हेमंत पाल

   कोरोना को आए और अपना पैर जमाए लम्बा अरसा हो चुका है। इस दौरान न केवल इंसानी जीवन बदला, बल्कि जीने का अंदाज भी बदल गया। जीने के इसी अंदाज में सिनेमा भी शामिल है। कोरोना के प्रादुर्भाव काल में एक दौर ऐसा भी आया, जब प्रोजेक्टर से निकलने वाली प्रकाश रश्मियां ठहर गई! सीटों और सिनेमा हालों में सन्नाटा पसरा रहा। यहां तक कि कैंटीन में उडने वाली स्नैक्स की खुशबू भी गायब हो गई थी। लेकिन, जीवन कोई ठहरा हुआ पानी नहीं जो ठहरकर सडांध मारने लगे। धीरे-धीरे लोगों ने कोरोना के साथ जीना सीख लिया और अब कोरोना प्रतिरोधी नई जीवनशैली रची जा रही है। मनोरंजन भी इस दौड में पीछे नहीं रहा! 
    सिनेमा ने पहले ओटीटी प्लेटफार्म का सहारा लेकर फिल्मों का प्रदर्शन किया। इसे खूब देखा और सराहा गया। जब मनचाहे समय और मनचाही जगह पर आपके सितारे आपके ड्राइंग रूम में उतर आएं तो कौन उनका स्वागत करना नहीं चाहेगा! इस बहाने मनोरंजन के सौदागरों को अपना माल बेचने का नया प्लेटफार्म भी मिल गया! लेकिन, इसे उन्होंने बजाए वरदान समझने के माल कमाने का प्लेटफार्म मान लिया और वह सब परोसने लगे जिसे दर्शकों ने पूरी तरह से नकार दिया। कोरोनाकाल के बाद ओटीटी प्लेटफार्म पर जितनी भी फिल्में प्रदर्शित हुई, इक्का-दुक्का को छोड़कर सभी बकवास निकली। ओटीटी के अलावा सैटेलाइट से सीधे फिल्म प्रसारण का भी दौर कोरोनाकाल के बाद से शुरू हुआ! इसे देश के महानगरों की बडी टाउनशिप और क्लब हाउसों में अपनाया जाकर रहवासियों और सदस्यों को सभी तरह की देसी विदेशी फिल्में दिखाई जाने लगी। कुछ सैटलाइट चैनलों ने भी ऑन पेमेंट फिल्मों का प्रदर्शन शुरू कर मनोरंजन को एक नई दिशा दी है।
   कोरोनाकाल के घटने के बाद थिएटर को पचास प्रतिशत क्षमता से फिल्में दिखाने की जो शुरूआत हुई थी, वह प्रदर्शकों के लिए दोहरे घाटे का सौदा साबित हुई। इसका एक कारण यह भी है कि मल्टीप्लेक्स में दर्शकों की संख्या भले ही आधी रखी जाए , लेकिन स्टॉफ और एक्जिबिशन कास्ट तो लगभग वही है। हर शो के बाद सेनेटाइजेशन और लम्बे अंतराल से जहां शो की संख्या घटी है, वही इस काम के लिए अतिरिक्त स्टॉफ रखा जाना जरूरी है। इतना तामझाम इकट्ठा करके जब मल्टीप्लेक्स में फ़िल्मो का प्रदर्शन आरंभ हुआ, तो इक्का-दुक्का दर्शकों ने ही मल्टीप्लेक्स जाकर फिल्में देखना पसंद किया। लिहाजा बढ़ते घाटे के बजाए अधिकांश प्रदर्शकों ने सिनेमाघरों मे ताले लटकाने में ही फायदा महसूस किया।
   इस तरह की स्थिति से निपटने के लिए इंदौर समेत कई शहरों में बडे पैमाने पर ड्राइव-इन-मूवी थियेटर के निर्माण की योजना पर तेजी से अमल हो रहा है। वास्तव में देखा जाए तो यह कोई नया प्रयोग नहीं है, फिर भी कोरोनाकाल और सोशल डिस्टेंसिंग को देखते हुए इसे बेहतर प्रयास माना जाएगा। ड्राइव-इन-मूवी थियेटर्स एक अनूठा प्रयोग है, जो लोग बडे पर्दे पर फिल्में देखना चाहते हैं! उनके लिए ये प्रयोग काफी कारगर साबित हो सकता है, बशर्तें आपके पास एक गाड़ी होनी चाहिए।
     पिछले दिनों कोरोना मुक्त देश न्यूजीलैंड में सिनेमाघर फिर से आबाद होने लगे है। अमेरिका जहां अब भी कोरोना वायरस शबाब पर है, वहां पर सिनेमाघरों में एक अनूठा प्रयोग अपना रहे हैं। वहां अब भी सोशल डिस्टेंसिंग और साफ-सफाई का खास ख्याल रखा जा रहा है। अमेरिका में कई थियेटर चेन इस प्रयोग को लेकर काफी उत्साहित हैं। ड्राइव-इन-मूवी थियेटर्स में लोग अपनी गाड़ियां में स्पीकर लगा लेते हैं और सामने लगी विशाल स्क्रीन पर फिल्म का लुत्फ ले सकते हैं। मुंबई में कभी इस तरह का सिनेमाघर खूब चला था। अभी अहमदाबाद में भी ये चलाया जा रहा है। ड्राइव-इन-थिएटर का प्रयोग उन्हें रास आ सकता है, जो सपरिवार फिल्में देखना पसंद करते हैं। चूंकि, लोगों को अपनी गाड़ी से बाहर निकलना ही नहीं है और दूसरे लोगों के संपर्क में भी नहीं आना है, ऐसे में कोरोना वायरस के खतरे को कम किया जा सकता है और कोरोना वायरस प्रोटोकॉल फॉलो कर आराम से बड़ी स्क्रीन पर फिल्म का आनंद लिया जा सकता है। सोशल डिस्टेंसिंग को ध्यान में रखते हुए ड्राइव-इन थियेटर्स के कुछ नियम भी हैं, जिनका पालन करना जरूरी है। जैसे कि इनके टिकटों की बिक्री केवल ऑनलाइन ही की जाए। सिनेमाघर में कोई टिकट घर न हों, ताकि वहां लाइन न लग सके। 
   गाड़ी से बाहर निकलने की परिस्थिति में मास्क लगाकर निकलना ही जरूरी होगा। कारों की पार्किंग में भी सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए उन्हें सुरक्षित दूरी पर खड़ी करवाया जाना चाहिए। ऐसी ही सावधानी खान-पान को लेकर बरतना आवश्यक है। दर्शक या तो अपना खुद का खाना साथ लेकर आएं या सुरक्षित तरीके से उपलब्ध सामग्री का उपयोग करें। इसके अलावा इन स्थानों पर बने प्रसाधन घरों का नियमित सेनेटाइजेशन भी जरूरी है। इस समय अमेरिका के न्यूयार्क, कैलिफोर्निया, फ्लोरिडा, मैरी लैंड और न्यूजीलैण्ड के ऑकलैंड, वैलिंगटन, क्रिसचर्च और हेमिल्टन के दर्शक कोरोना को भूलाकर ड्राइव सिनेमा का लुत्फ उठा रहे हैं। खुदा न खास्ता कोरोना का यह दौर यदि लम्बा चला, तो हमारे देश में भी दर्शक कार में बैठकर बडे पर्दे पर सिनेमा का लुत्फ उठाने में कोताही नहीं बरतेंगे। 
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Saturday, December 19, 2020

दिल जीतने वाले कुछ खुरदुरे किरदार!

हेमंत पाल

   सिनेमा की दुनिया में बीते सालों में जो बदलाव आया उसने कई धारणाओं को खंडित किया है। सबसे बड़ा बदलाव आया है खलनायक की भूमिका को लेकर, जो किसी भी फिल्म का अहम् हिस्सा होते हैं! फिल्मों का जो खलपात्र अपनी जिस क्रूरता और शातिराना अंदाज के लिए पहचाना जाता था, वो पात्र फिल्मों से लगभग गायब हो गया! किसी फिल्म में खलनायक होता भी है, तो उसके चेहरे पर न तो क्रूरता के भाव होते हैं और न आँखों में वो अंदाज जो उसके खलनायक होने की पहचान होता है। बीते एक दशक में फिल्मों में ये बदलाव तेजी से दिखाई दिया। अब न तो मोगेम्बो का वजूद बचा, न बेडमैन का और न डॉ डेंग जैसा चेहरा ही परदे पर नजर आया। अब नायक और खलनायक में बहुत ज्यादा फर्क नहीं रहा! खलनायक वास्तव में 'ग्रे-कैरेक्टर' में बदल गया। ये बदलाव अब कई फिल्मों में दिखाई देने लगा! पर, ऐसे प्रयोग पहले भी हुए, जब कहानी में नायक की भूमिका को खलनायक की तरह रचा गया! लेकिन, फिर भी उस पात्र के साथ दर्शकों की सहानुभूति बनी रही।   
    ज्ञान मुखर्जी निर्देशित 'किस्मत' (1943) ऐसी ही फिल्म थी, जिसमें हीरो अशोक कुमार का किरदार खलनायक की तरह था। शायद यह पहली ऐसी हिंदी फिल्म थी, जो खलनायक प्रधान बनी। यह एक युवा चोर की कहानी थी। इसमें अशोक कुमार का किरदार 'शेखर' का था जो चोर-बदमाश का था। सामाजिक रूप से अस्वीकार्य होने पर भी वो दया, करुणा, प्रेम और मित्रता की मिसाल होता है। यह पहली ऐसी फिल्म थी जिसने एक करोड़ की कमाई की थी। ये फिल्म लगातार तीन साल तक थिएटर पर लगी रहने वाली भी पहली फिल्म थी। 1957 में आई 'मदर इंडिया' भी एंटी-हीरो फिल्म ही मानी जाएगी। इसमें सुनील दत्त की भूमिका नकारात्मक जरूर थी, पर उन्होंने दर्शकों का दिल जीत लिया था। वे डाकू थे, पर गरीबों के मसीहा भी थे। बाद में सुनील दत्त ने 36 घंटे (1974) और मुझे जीने दो (1963) में भी निगेटिव कैरेक्टर निभाए थे। 
  'गंगा जमुना' (1961) भी ऐसी ही फिल्म थी, जिसमें दिलीप कुमार ने दो भाइयों को अपराध के खिलाफ लड़ने की प्रवृत्ति को उबारा था। दिलीप कुमार ने गंगा की भूमिका की थी, जो अन्याय का खात्मा करता है। उसका भाई जमुना पुलिस में रहता है। दोनों भाइयों के बीच टकराव भी होता है। लेकिन, कहानी में डाकू बना पात्र दर्शकों को ज्यादा प्रभावित करता है। कुछ इसी तरह की कहानी 'दीवार' में थी, जिसमें अमिताभ बच्चन ने अपने किरदार को जीवंतता से निभाया था। कुछ ऐसा ही रमेश सिप्पी की 'शोले' (1975) में भी था। ये भले ही क्रूर डाकू गब्बर सिंह के आतंक की कहानी हो, पर दर्शकों को यही डाकू ज्यादा याद रहा। जय और वीरू बने अमिताभ और धर्मेंद्र उसके बाद याद आते हैं। फिल्म में गब्बर सिंह वो खलनायक था, जिसने दो नायकों को उबारने में पूरी मदद की। 
  1978 में आई 'डॉन' में भी अमिताभ बच्चन ने अंरवर्ल्ड डॉन की नकारात्मक भूमिका निभाई और ये अमिताभ की सबसे सफल फिल्मों में एक है। फिल्मों में सामान्यतः ये खलनायक वाला किरदार है, पर 'डॉन' में ये नायक ने निभाया। बाद में इसका रीमेक भी बना। इसमें अमिताभ वाला रोल शाहरुख खान ने अदा किया था। अमरीश पुरी अपने समयकाल के सबसे सफल खलनायक रहे हैं। उनकी भारी संवाद अदायगी और आँखों से टपकती क्रूरता का अपना अलग ही अंदाज था। लेकिन, 'मिस्टर इंडिया' (1987) में उनका मोगेम्बो वाला पात्र बेहद दिलचस्प था। खलनायक होते हुए दर्शकों को उस पर कभी गुस्सा नहीं आया। उनका एक डायलॉग 'मोगेम्बो खुश हुआ' बरसों तक बच्चे-बच्चे की जुबान पर रहा। 
     रामगोपाल वर्मा की बेहतरीन फिल्मों में 'सत्या' (1998) को गिना जाता है। इस फिल्म में संगठित अपराधों की कहानी थी। फिल्म का कथानक सौरभ शुक्ला और अनुराग कश्यप ने लिखा था। इसमें मनोज बाजपेयी ने भीखू म्हात्रे का किरदार निभाया था। एक अपराधी किरदार होते हुए भी भीखू म्हात्रे से दर्शकों को सहानुभूति होती है। 2006 में आई विशाल भारद्वाज की फिल्म 'ओंकारा' को आज भी दर्शक जिस किरदार की वजह से याद करते हैं, वो था ईश्वर त्यागी उर्फ ’लंगडा त्यागी' जिसने जो अपने अभिनय से दर्शकों को प्रभावित किया था। सैफ अली खान ने इस किरदार को बखूबी निभाया था। शाहिद कपूर की फिल्म 'कमीने' (2009) भी ऐसी ही फिल्म थी जिसमें जुड़वां बच्चों में होने वाला मुकाबला बताया गया था। शाहिद ने फिल्म में नकारात्मक किरदार निभाया था। फिल्म में यथार्थवादी किरदारों की सराहना की गई और बताया गया था कि अच्छाई और बुराई का कोई अंत नहीं होता! इन दोनों के बीच के अंतर को समझा जाना जरुरी है। 
  2012 में प्रदर्शित फिल्म 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' की तुलना अक्सर 'ओंकारा' से की जाती है। एक बड़े दर्शक वर्ग ने इस फिल्म को बेहद पसंद किया था। इसमें मनोज बाजपेयी ने खलनायक सरकार खान का रोल निभाया था। फिल्म में यह ऐसा किरदार है, जिससे दर्शकों ने नफरत नहीं की। शेक्सपियर की कृति 'हेमलेट' के जीवन पर बनी फिल्म हैदर (2014) में शाहिद कपूर की भूमिका को भी नायक जैसा नहीं कहा जा सकता। इसमें हैदर (शाहिद कपूर) एक ऐसा व्यक्ति है, जो अपने पिता की तलाश में निकलता है और अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है। फिल्म देखते हुए कभी महसूस नहीं होता कि हैदर का किरदार नकारात्मक है। कुछ ऐसा ही 'पद्मावत' देखते हुए दर्शकों को खिलजी (रणवीर सिंह) को देखकर लगा। खिलची के क्रूर किरदार से दर्शकों को लगाव सा हो जाता है। 
   शाहरुख खान ने भी 'डर' और 'अंजाम' जैसी फिल्मों में जो किरदार निभाए, वो खलनायक जैसे ही थे। 1993 में बनी 'डर' एक थ्रिलर प्रेम कहानी थी। इसमें शाहरुख ने पागल प्रेमी का किरदार निभाया था। जूही चावला के लिए शाहरुख ने जो पागलपन दिखाया, उसे देखकर दर्शकों को गुस्सा नहीं आया, बल्कि सहानुभूति हुई। ऐसे ही 1994 की फिल्म 'अंजाम' गलती के अंजाम पर केंद्रित है। यह महिलाओं के पर किए अत्याचारों पर बनी थी। इसमें भी शाहरुख ने नकारात्मक किरदार निभाया था, जिसके लिये उन्हें भी फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था। वैसे शाहरुख ने 'बाजीगर' और 'डुप्लीकेट' में भी निगेटिव किरदार ही निभाए थे।  
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Sunday, December 13, 2020

साधारण से हर्षद की असाधारण कहानी!

हेमंत पाल

    नोरंजन की दुनिया पर कोरोना लॉक डाउन ने बहुत गहरा असर डाला है। सिनेमाघरों के बंद होने के बाद दर्शकों का बड़ा वर्ग वेब सीरीज देखने में व्यस्त हो गया! सबने अपनी पसंद के मुताबिक ओटीटी प्लेटफॉर्म चुन लिए। लेकिन, कुछ वेब सीरीज ऐसी भी आई, जिन्हें हर तरह के दर्शकों ने पसंद किया। इन्हीं में से एक है 'सोनी-लिव' पर आई हंसल मेहता की 'स्कैम 1992: द हर्षद मेहता स्टोरी' जो शेयर बाजार में हुए एक बड़े घोटाले पर आधारित है। 1992 में बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में हुए घोटाले में हर्षद मेहता चर्चा में आए थे। ये वेब सीरीज़ उसी घोटाले की परतें खोलती है। इस वेब सीरीज़ को आईएमडीबी (इंटरनेट मूवी डाटाबेस) पर 9 से ऊपर की रेटिंग मिली। इसे अब की देश की 'मोस्ट लाइक्ड इंडियन वेब सीरीज़' बताया जा रहा है। सुचिता दलाल की किताब पर बनी इस वेब सीरीज में दिखाया गया कि कैसे हर्षद मेहता पूरे शेयर मार्केट को चलाने लगता है। इस वेब सीरीज़ हर्षद मेहता की किरदार प्रतीक गांधी ने निभाया, जिसे बहुत ज्यादा पसंद किया गया। उनकी आँखें, बॉडी लैंग्वेज, डायलॉग डिलीवरी और अभिनय ने पात्र के किरदार के साथ पूरा न्याय किया। हंसल मेहता सच्ची घटनाओं पर फ़िल्में बनाते आए हैं। उनकी यह वेब सीरीज ऐसी ही घटना पर केंद्रित है। 
  हर्षद मेहता के जीवन का शुरूआती समय बहुत परेशानियों में बीता था। साधारण से परिवार के हर्षद ने लम्बे समय तक आर्थिक मुश्किलों को भोगा था। इस वेब सीरीज की शुरुआत भी हर्षद की ऐसी ही मुश्किलों को दिखने के साथ की गई। इसके बाद भी हर्षद के सपने बहुत बड़े थे। वह साधारण जिंदगी नहीं जीना चाहता था। लेकिन, उसे कभी गैर कानूनी सोच वाला व्यक्ति भी नहीं बताया गया। वह बैंक में क्लर्क का काम करता है, सड़क पर सामान बेचता है। इसी के बीच वह एक दिन संयोग से शेयर मार्केट की तरफ रुख कर लेता है। इसके बाद उस मार्केट की दुनिया में हर्षद इतना खो जाता है कि असाधारण व्यक्ति बन जाता है।  
     वेब सीरीज में बताया गया कि वो किसी उसूल के काम करता है और रिस्क लेने में देर नहीं करता! वो ‘रिस्क है, तो इश्क है’ वाला जुमला हमेशा बोलता रहता है और शेयर मार्केट में पैसा लगाता है। जल्दी ही वह मार्केट में अपना नाम बना लेता है और भाई अश्विन मेहता के साथ खुद की कंपनी खोल लेता है। खुद पैसे बनाने और दूसरों को हिस्सा देने के चक्कर में हर्षद शेयर मार्केट के साथ ही मनी मार्केट का बिग बुल बन जाता है। बैंकिंग सिस्टम की कमज़ोर कड़ियों को परखकर हर्षद ने सारा गोलमाल किया था। बताया गया है कि जब बैंकों को पैसे की ज़रूरत पड़ती थी, वे सरकारी बॉन्ड को कुछ समय के लिए गिरवी रखकर पैसा लेते थे! हर्षद बैंकों से 15 दिन का लोन लेता और उसे शेयर मार्केट में लगा देता। 15 दिन में वो बैंक को मुनाफे के साथ पैसा लौटा देता था।  
   निर्देशक हंसल मेहता को सच्ची घटनाओं पर फ़िल्में बनाने के लिए पहचाना जाता है। ओमर्टा, शाहिद और 'अलीगढ़' जैसी फ़िल्में बना चुके हंसल को अलग तरह की विचारधारा और कहानियों को नया ट्विस्ट देने के लिए जाना जाता है। उन्होंने हर्षद मेहता के इस कारनामे को बहुत शिद्दत से ओटीटी के परदे पर उतारा है। इस वेब सीरीज की सबसे बड़ी खासियत है समयकाल, जिसका फिल्म में बहुत ध्यान रखा गया है। 'स्कैम 1992' की पूरी कहानी में बेहद कसावट है, कहीं कोई झोल दिखाई नहीं देता। इस वेब सीरीज़ में संवाद, फोटोग्राफी, अभिनय, कास्टिंग के साथ उस समय के शेयर मार्केट का जो माहौल बनाया, वो बेहद दिलचस्प है और वही इस वेब सीरीज की जान है। 
   देश के बैंकिंग सिस्टम को हिला देने वाले इतने बड़े घोटाले के बाद भी हंसल मेहता ने हर्षद मेहता को कहीं खलनायक की तरह पेश नहीं किया! कहानी को इस तरह फिल्माया गया है कि दर्शक खुद तय करें कि हर्षद ने जो किया वो सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था या उसने सिस्टम की खामियों में अपना फ़ायदा ढूंढा था। वास्तव में ये घोटाला था भी नहीं! जिस दर्शक को शेयर बाज़ार की बारीकियों का पता न हो, उसे यह वेब सीरीज़ बोर नहीं करती। ये मनोरंजक होने के साथ शेयर मार्केट, मनी मार्केट और इस पूरे कारोबार की जानकारियां देती है। अलग सा विषय होने के बावजूद 'स्कैम 1992: द हर्षद मेहता स्टोरी' इसलिए पसंद की गई, क्योंकि इसकी पटकथा और इसका संपादन बेहद चुस्त और रोचक है। इसके लिए हंसल मेहता के साथ हर्षद मेहता का किरदार निभाने वाले प्रतीक गाँधी की भी तारीफ करना होगी कि उनके अभिनय ने दर्शकों को बांधकर रखा!
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Sunday, December 6, 2020

सिनेमा और किसानों का जीवन दर्शन

हेमंत पाल

   भारतीय सिनेमा का एक लम्बा दौर गाँव पर केंद्रित फिल्मों का रहा। शुरूआत के दौर में धार्मिक और पौराणिक फ़िल्में बनती रही। रामायण और महाभारत के प्रसंगों को फिल्म की कहानियों का विषय बनाया गया। इसके बाद फ़िल्मकारों की नजर पारिवारिक समस्याओं और महिलाओं की पीड़ा पर पड़ी। इस समय काल में कई ऐसी फ़िल्में बनी, जिनमें गाँव थे, खेत-खलिहान थे, बदमाश मुखिया था, सूदखोर साहूकार था, पर किसान का जमीन  दर्द नदारद रहा! शुरू के करीब पाँच दशक तक फिल्मों में गाँव तो बहुत दिखाए गए, पर किसान नहीं! डाकुओं को गाँव लूटते, खेतों को जलते और साहूकारों को ब्याज वसूलते भी कई फिल्मों में दिखाया, पर किसानों के दर्द से फिल्म का परदा बचता रहा! सौ साल से ज्यादा पुराने हिंदी फिल्म इतिहास में ऐसी दस फ़िल्में भी नहीं खोजी जा सकती, जिसकी कहानियों में किसानों को मुख्य पात्र के रूप में उबारा गया हो! यही कारण रहा कि शहरी जीवन में पले-बढे लोग किसान के जीवन को सही ढंग से समझ नहीं सके।     
    सिनेमा की नजर में शायद किसान कभी फिल्म का हीरो नहीं बन सकता! क्योंकि, उसमें फ़िल्मी ग्लैमर नहीं होता! परदे पर तो वही कहानियां बिकती हैं, जिसमें दर्शकों को आकर्षित करने और बॉक्स ऑफिस पर नोट बटोरने की क्षमता होती है। ये सब किसान के जीवन में नहीं होता! यही वजह है कि देश का पेट भरने वाले हीरो के बारे में कहानियां गढ़ने की हिम्मत बहुत कम फिल्मकारों ने की! किसानों की पीड़ा से समाज का बड़ा हिस्सा अलहदा भी इसलिए रहता है, कि उसे किसानों की समस्याओं का पता ही नहीं होता। लेकिन, फिर भी कुछ चुनिंदा फ़िल्में जरूर बनी, जिनमें किसान और गाँव का वास्तविक दर्द दिखाई दिया! ऑस्कर पुरस्कारों में विदेशी भाषा की फिल्मों की श्रेणी में भारत की पहली पसंद की जाने वाली फिल्म 'मदर इंडिया' भी किसान के जीवन को दर्शाने वाली ही फिल्म थी! गौर करने वाली एक सच्चाई यह भी है कि किसानों पर जो भी गिनती की फ़िल्में बनी, सभी आजादी के बाद ही बनाई गई!   
    माना जाता है कि किसानों के सही दर्द को पहचान कर उसे परदे पर लाने वाली पहली फिल्म 1953 में 'दो बीघा जमीन' आई थी। इस फिल्म में किसान के अंतहीन दर्द को परदे पर गढ़ा गया था, जो पूरा जीवन साहूकार के कर्ज के दुष्चक्र में फंसा रहता है। फिल्म में भारतीय परिवेश में पले किसान की ऐसी कहानी थी, जो सच्चाई का आईना दिखाती है। किसी किसान की जमीन साहूकार छल से उससे छीन ले, तो उसकी पीड़ा का अहसास ही इस फिल्म की कहानी का केंद्र बिंदू था। बलराज साहनी ने उस शम्भू किसान की भूमिका में जान डाल दी थी, जिसकी जमीन साहूकार 65 रुपए के कर्ज के बदले छीन लेता है। अपने परिवार को बचाने की खातिर शम्भू गांव से शहर जाकर मजदूरी करने लगता है। समीक्षकों ने इस फिल्म को आजादी के बाद गाँव में पूंजीवाद की घुसपैठ की शुरूआत बताया था। कुछ लोगों का यह भी मानना था कि देश के विकास की सबसे ज्यादा कीमत किसान ने ही दी है और ये फिल्म उसी विकास की कलई खोलती है।     
     इसके बाद 1957 में आई फिल्म 'मदर इंडिया' में भी ऐसी महिला किसान राधा को कर्ज की पीड़ा से कराहते बताया गया था। उसका पति शामू घर से चला जाता है और एक बेटा डाकू बन जाता है। इस फिल्म में भी साहूकार के कारण उस महिला के जीवन की पूरी कहानी बदल जाती है। पंचायत फैसला देती है, कि बेटे की शादी के लिए राधा की सास ने जो कर्ज लिया था, उसके बदले बेटे-बहू को फसल का एक तिहाई हिस्सा सुखीलाल को देना पड़ेगा। लेकिन, हालात बदलते हैं और राधा अकेली रह जाती है। इसे 1957 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था और ऑस्कर में भी सराहा गया था। नर्गिस ने राधा के किरदार को जीवंतता दी थी और बिगड़ैल बेटे बने थे सुनील दत्त।
   1967 में मनोज कुमार ने 'उपकार' फिल्म बनाकर किसान को जवान के समकक्ष खड़ा करने की कोशिश की थी। साथ ही एक भाई के दूसरे के प्रति त्याग और बाद में इन भाइयों में मतभेद के बहाने किसानों की जमीन के बंटवारे के दर्द को भी सामने रखा था। इस फिल्म की कहानी ने किसानों की दुर्दशा और बेरुखी की वास्तविक कहानी कही थी। फ़िल्म को छ: फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था। इसी फिल्म के बाद दर्शकों ने मनोज कुमार को भारत कुमार कहना शुरू किया था।   
  इसके बरसों बाद आमिर खान जैसे प्रयोगधर्मी फिल्मकार और अभिनेता ने 2010 में 'लगान' बनाकर दर्शकों को चौंका दिया था। इस फिल्म का विषय किसानों को हमेशा सालने वाली सूखे की पीड़ा थी। लेकिन, फिल्म में ब्रिटिश राज में किसानों की लगान वाली परेशानी का हल अलग ही तरीके से निकाला गया था। इस बहाने ये संदेश भी दिया गया था, कि किसानों में यदि एकता हो, तो वे किसी भी बड़ी मुसीबत से जूझ सकते हैं। गाँव का किसान भुवन ब्रिटिश अफसर की क्रिकेट खेलने और जीतकर लगान माफ़ी की चुनौती मंजूर कर लेता हैं। जबकि, गाँव में कोई भी क्रिकेट खेलना नहीं जानता था! लेकिन, मैच किसानों के पक्ष में रहता है और वे लगान से मुक्त हो जाते हैं।           
   किसानों पर बनने वाली एक फिल्म 'पीपली लाइव' भी थी, जो 2010 में प्रदर्शित हुई। इस फिल्म को भी आमिर खान ने ही बनाया था। इस फिल्म ने किसानों के बहाने समाज के कई हिस्सों पर चोट की थी। किसानों के लिए योजना बनाने वालों, उसे अमल में लाने वाले अफसरों और किसानों मरने पर उसे सनसनीखेज खबर बनाने वाले पत्रकारों को भी फिल्म के जरिए आईना दिखाया गया था। फिल्म का केंद्र सरकार की उस कमज़ोरी का खुलासा था, जिसके पास किसान के मरने पर तो मुआवजा देने का प्रावधान था, पर जिंदा किसान के लिए कोई योजना नहीं थी! वैसे 1976 में आई फिल्म 'मंथन' में देश की श्वेत क्रांति के दौरान की दुर्दशा दिखाई गई थी। फिल्म में 5 लाख किसानों को 2-2 रुपए जमा करके श्वेत क्रांति को रूप देते हैं। इस फिल्म को उस साल श्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। इसके अलावा 2009 में आई फिल्म 'किसान' में किसानों की आत्महत्या संबंध‍ित मुद्दे को उभारने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं बन सकी थी। 
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