Sunday, December 6, 2020

सिनेमा और किसानों का जीवन दर्शन

हेमंत पाल

   भारतीय सिनेमा का एक लम्बा दौर गाँव पर केंद्रित फिल्मों का रहा। शुरूआत के दौर में धार्मिक और पौराणिक फ़िल्में बनती रही। रामायण और महाभारत के प्रसंगों को फिल्म की कहानियों का विषय बनाया गया। इसके बाद फ़िल्मकारों की नजर पारिवारिक समस्याओं और महिलाओं की पीड़ा पर पड़ी। इस समय काल में कई ऐसी फ़िल्में बनी, जिनमें गाँव थे, खेत-खलिहान थे, बदमाश मुखिया था, सूदखोर साहूकार था, पर किसान का जमीन  दर्द नदारद रहा! शुरू के करीब पाँच दशक तक फिल्मों में गाँव तो बहुत दिखाए गए, पर किसान नहीं! डाकुओं को गाँव लूटते, खेतों को जलते और साहूकारों को ब्याज वसूलते भी कई फिल्मों में दिखाया, पर किसानों के दर्द से फिल्म का परदा बचता रहा! सौ साल से ज्यादा पुराने हिंदी फिल्म इतिहास में ऐसी दस फ़िल्में भी नहीं खोजी जा सकती, जिसकी कहानियों में किसानों को मुख्य पात्र के रूप में उबारा गया हो! यही कारण रहा कि शहरी जीवन में पले-बढे लोग किसान के जीवन को सही ढंग से समझ नहीं सके।     
    सिनेमा की नजर में शायद किसान कभी फिल्म का हीरो नहीं बन सकता! क्योंकि, उसमें फ़िल्मी ग्लैमर नहीं होता! परदे पर तो वही कहानियां बिकती हैं, जिसमें दर्शकों को आकर्षित करने और बॉक्स ऑफिस पर नोट बटोरने की क्षमता होती है। ये सब किसान के जीवन में नहीं होता! यही वजह है कि देश का पेट भरने वाले हीरो के बारे में कहानियां गढ़ने की हिम्मत बहुत कम फिल्मकारों ने की! किसानों की पीड़ा से समाज का बड़ा हिस्सा अलहदा भी इसलिए रहता है, कि उसे किसानों की समस्याओं का पता ही नहीं होता। लेकिन, फिर भी कुछ चुनिंदा फ़िल्में जरूर बनी, जिनमें किसान और गाँव का वास्तविक दर्द दिखाई दिया! ऑस्कर पुरस्कारों में विदेशी भाषा की फिल्मों की श्रेणी में भारत की पहली पसंद की जाने वाली फिल्म 'मदर इंडिया' भी किसान के जीवन को दर्शाने वाली ही फिल्म थी! गौर करने वाली एक सच्चाई यह भी है कि किसानों पर जो भी गिनती की फ़िल्में बनी, सभी आजादी के बाद ही बनाई गई!   
    माना जाता है कि किसानों के सही दर्द को पहचान कर उसे परदे पर लाने वाली पहली फिल्म 1953 में 'दो बीघा जमीन' आई थी। इस फिल्म में किसान के अंतहीन दर्द को परदे पर गढ़ा गया था, जो पूरा जीवन साहूकार के कर्ज के दुष्चक्र में फंसा रहता है। फिल्म में भारतीय परिवेश में पले किसान की ऐसी कहानी थी, जो सच्चाई का आईना दिखाती है। किसी किसान की जमीन साहूकार छल से उससे छीन ले, तो उसकी पीड़ा का अहसास ही इस फिल्म की कहानी का केंद्र बिंदू था। बलराज साहनी ने उस शम्भू किसान की भूमिका में जान डाल दी थी, जिसकी जमीन साहूकार 65 रुपए के कर्ज के बदले छीन लेता है। अपने परिवार को बचाने की खातिर शम्भू गांव से शहर जाकर मजदूरी करने लगता है। समीक्षकों ने इस फिल्म को आजादी के बाद गाँव में पूंजीवाद की घुसपैठ की शुरूआत बताया था। कुछ लोगों का यह भी मानना था कि देश के विकास की सबसे ज्यादा कीमत किसान ने ही दी है और ये फिल्म उसी विकास की कलई खोलती है।     
     इसके बाद 1957 में आई फिल्म 'मदर इंडिया' में भी ऐसी महिला किसान राधा को कर्ज की पीड़ा से कराहते बताया गया था। उसका पति शामू घर से चला जाता है और एक बेटा डाकू बन जाता है। इस फिल्म में भी साहूकार के कारण उस महिला के जीवन की पूरी कहानी बदल जाती है। पंचायत फैसला देती है, कि बेटे की शादी के लिए राधा की सास ने जो कर्ज लिया था, उसके बदले बेटे-बहू को फसल का एक तिहाई हिस्सा सुखीलाल को देना पड़ेगा। लेकिन, हालात बदलते हैं और राधा अकेली रह जाती है। इसे 1957 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था और ऑस्कर में भी सराहा गया था। नर्गिस ने राधा के किरदार को जीवंतता दी थी और बिगड़ैल बेटे बने थे सुनील दत्त।
   1967 में मनोज कुमार ने 'उपकार' फिल्म बनाकर किसान को जवान के समकक्ष खड़ा करने की कोशिश की थी। साथ ही एक भाई के दूसरे के प्रति त्याग और बाद में इन भाइयों में मतभेद के बहाने किसानों की जमीन के बंटवारे के दर्द को भी सामने रखा था। इस फिल्म की कहानी ने किसानों की दुर्दशा और बेरुखी की वास्तविक कहानी कही थी। फ़िल्म को छ: फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था। इसी फिल्म के बाद दर्शकों ने मनोज कुमार को भारत कुमार कहना शुरू किया था।   
  इसके बरसों बाद आमिर खान जैसे प्रयोगधर्मी फिल्मकार और अभिनेता ने 2010 में 'लगान' बनाकर दर्शकों को चौंका दिया था। इस फिल्म का विषय किसानों को हमेशा सालने वाली सूखे की पीड़ा थी। लेकिन, फिल्म में ब्रिटिश राज में किसानों की लगान वाली परेशानी का हल अलग ही तरीके से निकाला गया था। इस बहाने ये संदेश भी दिया गया था, कि किसानों में यदि एकता हो, तो वे किसी भी बड़ी मुसीबत से जूझ सकते हैं। गाँव का किसान भुवन ब्रिटिश अफसर की क्रिकेट खेलने और जीतकर लगान माफ़ी की चुनौती मंजूर कर लेता हैं। जबकि, गाँव में कोई भी क्रिकेट खेलना नहीं जानता था! लेकिन, मैच किसानों के पक्ष में रहता है और वे लगान से मुक्त हो जाते हैं।           
   किसानों पर बनने वाली एक फिल्म 'पीपली लाइव' भी थी, जो 2010 में प्रदर्शित हुई। इस फिल्म को भी आमिर खान ने ही बनाया था। इस फिल्म ने किसानों के बहाने समाज के कई हिस्सों पर चोट की थी। किसानों के लिए योजना बनाने वालों, उसे अमल में लाने वाले अफसरों और किसानों मरने पर उसे सनसनीखेज खबर बनाने वाले पत्रकारों को भी फिल्म के जरिए आईना दिखाया गया था। फिल्म का केंद्र सरकार की उस कमज़ोरी का खुलासा था, जिसके पास किसान के मरने पर तो मुआवजा देने का प्रावधान था, पर जिंदा किसान के लिए कोई योजना नहीं थी! वैसे 1976 में आई फिल्म 'मंथन' में देश की श्वेत क्रांति के दौरान की दुर्दशा दिखाई गई थी। फिल्म में 5 लाख किसानों को 2-2 रुपए जमा करके श्वेत क्रांति को रूप देते हैं। इस फिल्म को उस साल श्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। इसके अलावा 2009 में आई फिल्म 'किसान' में किसानों की आत्महत्या संबंध‍ित मुद्दे को उभारने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं बन सकी थी। 
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