Saturday, February 27, 2021

सिनेमा के परदे के हाशिए पर दलित!

हेमंत पाल

     हिंदी सिनेमा ने अपने सौ साल से ज्यादा लम्बे सफर में कई मुद्दों को छुआ। शुरू में धार्मिक कथाओं पर फ़िल्में बनी, फिर आजादी के संघर्ष को विषय बनाया गया। इसके बाद सामाजिक बदलाव और प्रेम कहानियों पर फ़िल्में बनाई जाने लगी। तात्कालिक और राजनीतिक मुद्दों पर भी फ़िल्में बनी। वे पसंद की गई या नहीं, ये बात अलग है। पर, फ़िल्मकारों ने समाज के प्रति अपने दायित्व को दर्शाने की कोशिश जरूर की। लेकिन, फिर भी एक मुद्दा ऐसा है, जिससे फ़िल्मकार हमेशा बचते रहे, वो है दलितों से जुड़े विषय। हर साल 300 से ज्यादा फ़िल्में बनाने वाली हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के इतिहास में दस फ़िल्में भी ऐसी नहीं हैं, जिनमें दलितों की वास्तविक पीड़ा को उबारा गया हो! 
     समाज में जब दशकों से इस मुद्दे पर राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर उथल-पुथल मची है, तो क्या कारण है कि फिल्मकार दलितों के हक से जुड़े सवालों से मुंह क्यों चुराते हैं! शुरू में ऐसा लगा था कि महात्मा गाँधी और उनके जैसे समाज  सुधारकों के कारण इस विषय को फिल्मकार आगे बढ़ाएंगे, पर ऐसा नहीं हुआ। क्योंकि, ऐसी फ़िल्में मुख्यधारा का हिस्सा नहीं होती और न सिनेमाघर में बैठे दर्शकों का मनोरंजन करती हैं। जब सिनेमा के परदे पर मनगढंत कहानियों का जमावड़ा है, तो फिल्म बनाने वालों को दलितों से जुड़े विषयों पर फिल्म बनाने में डर क्यों लगता है। समाज के इस दलित और पिछड़े वर्ग पर बनी फिल्मों की संख्या को जांचेंगे, तो आश्चर्य होगा कि दलित न सिर्फ़ जाति के वरीयता-क्रम से बल्कि सिनेमा से भी अछूत हैं। क्या ये माना जाए कि फिल्म इंडस्ट्री के सारे कथानक बाजार के बिकाऊ व्यवहार के साथ ही तय होते हैं!         आजादी से पहले 1936 में फ्रांज ऑस्टेन ने पहली बार 'अछूत कन्या' बनाकर दलितों के संवेदनशील मुद्दे को छुआ। फिल्म में ब्राह्मण लड़के का एक अछूत लड़की से प्रेम दिखाया गया था। तब माना गया था कि यह फिल्म महात्मा गांधी के अछूत उद्धार आंदोलन से प्रेरित है। इसके बरसों बाद 1959 में विमल राय ने भी 'सुजाता’ में एक अछूत लड़की और ब्राह्मण लड़के के बीच प्रेम का चित्रण किया! लेकिन, इन फिल्मों में जो सवाल उठाए, वे सामाजिक नहीं बल्कि निजी थे! फिल्म में दलित समाज के संघर्ष, उनकी पहचान से जुड़े सवाल का कोई जवाब नहीं था। ऐसा क्यों हुआ और इस विषय को बार-बार क्यों नहीं छुआ गया, ये अनुत्तरित ही है। 90 के दशक में जरूर दलितों से जुड़े मुद्दों पर सामाजिक चेतना जागी और इन्हीं सालों में दलितों और पिछड़ों का सामाजिक आंदोलन सड़क पर उतरा। इसके बावजूद फिल्मों में दलितों के संघर्ष और उनके अधिकार के मुद्दे गायब रहे। बैंडिट क्वीन, आरक्षण और 'मसान' जैसी फ़िल्में तो बनी, पर उनमें किरदार ही दलित दिखाई दिए, ज्वलंत मुद्दे नहीं दिखे। 
      फिर एक ऐसा दौर आया जब समानांतर सिनेमा उभरकर सामने आया। समानांतर यानी ग्लैमर से दूर ऐसा सिनेमा जो सीधे समाज से जुड़ा हो और गंभीर सवालों के जवाब ढूंढता हो! इस दौर में श्याम बैनेगल ने सामंतियों के हाथों दलितों के शोषित होने और फिर उनके विद्रोह की कहानियाँ गढ़ी! लेकिन,  अंकुर, दामूल और 'पार' जैसी फिल्मों में दलितों के सवाल फिल्म के मूल केंद्र में दिखाई नहीं दिए। इस सबसे लगता है, कि हिंदी फिल्में दलितों, वंचितों के संघर्ष और उनके सवालों से टकराने से बचती रही हैं। सौ साल से ज्यादा पुराने हिंदी फिल्म इतिहास में आश्चर्यजनक रूप से पहली बार अनुभव सिन्हा ने आयुष्मान खुराना के साथ 'आर्टिकिल-15' में समाज और सत्ता    से किए सवाल किए हैं। नायक से ज्यादा अच्छे ढंग से फिल्म में अन्य किरदार जातिगत और राजनीतिक सवाल उठाते हैं। 
     श्याम बेनेगल को कई राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। अपनी पहली फ़िल्म 'अंकुर' 1974 में बनाई थी। यह अछूत महिला और ब्राह्मण पुरुष के रिश्ते की कहानी थी। 1981 में सत्यजित राय ने 'सदगति' बनाई, जो उनकी दूसरी हिंदी फ़िल्म थी। ये प्रेमचंद की कहानी पर आधारित थी, जो नीची जाति के दुखी नाम के एक ऐसे आदमी के बारे में है, जो अपनी बेटी की शादी करवाना चाहता है और इसके लिए उसे ब्राह्मण की जरुरत है, जो घर आकर शुभ मुहूर्त निकाल सके। 1991 में बनी फिल्म 'दीक्षा' बॉलीवुड के बाहर की हिंदी फ़िल्म थी, जिसमें दलितों का ज़िक्र किया गया था। 1992 में इस फ़िल्म को हिंदी की सबसे अच्छी फ़िल्म का पुरस्कार भी मिला। आशुतोष गोवारिकर की फिल्म 'लगान' गाँव की जिंदगी में गढ़ी हुई, व्यावसायिक कहानी थी। लेकिन, इस फिल्म में उन्होंने अछूतों को सवर्णों से बराबरी करने की अनुमति नहीं दी। गाँव का अछूत कचरा जब सकुचाकर मैदान से बाहर गई गेंद फेंकता है, तो वो घूम जाती है। फिल्म का नायक भुवन उस कचरा को अपनी टीम में लेना चाहता है, पर जब वह टीम के दूसरे सदस्यों को बताता है, तो वे खेलने से इंकार कर देते हैं। 1985 में बनी प्रकाश झा की 'दामूल' में गरीब दलितों का शोषण दिखाया गया था। इस फ़िल्म को पुरस्कार भी मिले। 2011 में उन्होंने दलितों से जोड़कर 'आरक्षण' बनाई। ऐसी ही एक फिल्म थी 1994 में बनी 'बैंडिट क्वीन' जो फूलन देवी पर केंद्रित थी। शेखर कपूर की इस फिल्म का कथानक दलितों पर नहीं था, पर माला सेन ने अपनी कहानी में इस समाज की पीड़ा को गंभीरता से दिखाया जरूर था।   
  सिनेमा की मुख्यधारा से अलग रहने वाले या यूँ कहिए कि समानांतर सिनेमा के पक्षधर निर्देशकों के सोच का तरीका कुछ अलग होता है। वे व्यावसायिक फ़िल्म निर्देशकों से ज़्यादा खुलकर सोचते हैं। उनके लिए फिल्म की व्यावसायिक सफलता ज्यादा मायने नहीं रखती। इसके बावजूद हिंदी सिनेमा में दलित समस्याओं पर बनी फिल्मों का अभाव है। जब वे सबकुछ दिखा सकते हैं, तो क्या कारण है, कि जाति के निषेध को तोड़ने की हिम्मत वे नहीं कर पाते। जबकि, अब महानगरों का नया दर्शक वर्ग समकालीन मुद्दों को परदे पर देखना चाहता है। इससे दलितों, पिछड़ों की अस्मिता के संघर्ष पर नई कहानियाँ गढ़ने का मौका मिलेगा और हिंदी सिनेमा की रचनात्मकता भी बढ़ेगी! दरअसल, हमारे देश के सिनेमा में सामाजिक जीवन के वास्तविक चित्रण का भारी अभाव है। इसका सबसे बड़ा कारण शायद यह है कि दलितों का एक बड़ा हिस्सा अभी भी सिनेमा के दर्शक समुदाय में शामिल नहीं हुआ! लेकिन, यह तब तक नहीं होगा, जब तक उनके हालात को सच्चाई के साथ नहीं दिखाया जाता।
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Friday, February 19, 2021

वक़्त के साथ खोया संगीत का माधुर्य!

- हेमंत पाल

     किसी भी फिल्म की सफलता में उसके गीत-संगीत की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। कई बार गीतों का माधुर्य ही दर्शकों को फिल्म देखने के लिए आकर्षित करता है। यही कारण है कि 50 और 60 के दशक की फिल्मों के साथ उनके संगीत को आजतक याद किया जाता है। क्योंकि, गीत-संगीत का माधुर्य कभी बनावटी नहीं होता! कालजयी गीतों को रचने से पहले गीतकार को फिल्म की सिचुएशन में डूबना पड़ता है, संगीतकार को उसमें मेहनत करना पड़ती है। क्योंकि, संगीत ऐसा सृजन है, जिसे धैर्य के साथ गढ़ा जाता है। कई दिनों की मेहनत के बाद एक गीत तैयार होता है। लेकिन, अब वो समय नहीं बचा! खाने में फास्ट फूड की तरह गीत भी रचे जाने लगे, जिनमें माधुर्य छोड़कर सब होता है! आज के संगीतकार नई पीढ़ी की पसंद की आड़ में कुछ भी परोसने से बाज नहीं आते! जबकि, ऐसा नहीं है। आज की नई पीढ़ी भी 60 और 70 के दशक के गीत ही सुनती दिखाई देती है। 
   एक दौर था जब राज कपूर, राजेंद्र कुमार, दिलीप कुमार, राजकुमार, शम्मी कपूर, विश्वजीत और जॉय मुखर्जी जैसे नायकों की फ़िल्में उनके गीतों की वजह से भी पसंद की गई! इसका कारण रहा कि इन्हें शंकर-जयकिशन, एसडी बर्मन, ओपी नैयर, सी. रामचंद्र, चित्रगुप्त, मदन मोहन, उषा खन्ना जैसे संगीतकारों का साथ मिला। इस दौर में फिल्म का कथानक गीतों के साथ आगे बढ़ता था। लगता था कि गीतों को फिल्म के कहानी के साथ बुनकर लिखा गया हो! मुगले आजम, श्री 420 और 'मधुमती' को याद कीजिए, ये कुछ ऐसी ही फ़िल्में थीं, जिनकी कहानी और गीत दोनों एक-दूसरे में गुंथे हुए से लगते थे। इन फिल्मों के सभी गीतों का माधुर्य इतना कर्णप्रिय था, कि इन्हें हर दौर में पसंद किया गया! आज की फिल्मों में मुश्किल से किसी फिल्म के एक या दो गीत ही याद रखने लायक होते हैं। अब पहली बार बनी 'आशिकी' जैसी फ़िल्में भी नहीं आती, जिसका हर गाना हिट हुआ! 'आशिकी' दूसरी बार भी बनी, पर उसके गीत नहीं चले।       
   फिल्मी संगीत का असल दौर 40 और 50 का दशक था, जब विश्व युद्ध और उसके बाद देश के बंटवारे के बीच घिरे माहौल ने संगीत को प्रभावित किया। इस वक़्त में दो तरह के गीत रचे गए। एक थे रोमांस या विरह की पीड़ा वाले और दूसरे थे बंटवारे की पीड़ा की भावनाओं को व्यक्त करने वाले गीत। पंडित अमरनाथ के गीतों में भारतीय वाद्य ढोलक का जमकर उपयोग होने लगा! यह फिल्म संगीत का सुनहरा समय था। संगीत के साथ रिकॉर्डिंग और तकनीक ने जोर पकड़ा! देसी और विदेशी वाद्य यंत्रों का मेल दिखाई देने लगा। ढोलक को गिटार के साथ जोड़कर प्रयोग किए जाने लगे। इसी समय में लता मंगेशकर का उद्भव हुआ और उन्होंने नूरजहाँ के असर वाला गीत 'जिया बेकरार है आई बहार है' जैसा कालजयी गीत गाया। सचिनदेव बर्मन, नौशाद और शंकर जयकिशन के प्रयोग सामने आने लगे। देव आनंद और फिर गुरुदत्त की फिल्मों के गीतों में गिटार सुनाई देने लगा। 'प्यासा' के गीत 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए क्या है' और 'वक्त ने किया  सितम' जैसे गीतों की रचना में जितनी मेहनत की गई, उतना ही कर्णप्रिय संगीत भी रचा गया। 'मुगले आजम' में नौशाद ने संगीत वाद्यों का जिस तरह उपयोग किया, उससे उनकी संगीत की समझ की भव्यता सामने आई! 
    आजादी से पहले कई संगीतकार मुस्लिम घराने के थे और पुराने संगीत घरानों की जड़ों से जुड़े थे। उनके संगीत में उर्दू का प्रभाव दिखाई देता था। देश के आजाद होने के बाद लम्बे समय तक हिंदी फिल्म संगीत से उर्दू गायब सा हो गया था। लेकिन, पिछले कुछ सालों से फिर उर्दू शायरी और इस भाषा के सिद्धहस्त कलाकार सामने आए। राहत फतेहअली खान और शफकत अमानत अली जैसे गायकों के जुड़ने से संगीत में उर्दू भाषा का चलन बढ़ा है। ऐसे घरानों से संबंध रखने वाले कलाकारों की वजह से संगीत ने भी एक तरह की करवट ली। 
    सिनेमा के बीते दौर में फिल्मकारों को संगीत की अच्छी समझ होती थी! वे गीतों के बोल और संगीत की धुन से अंदाजा लगा लेते थे इन्हें लेकर दर्शकों/श्रोताओं की प्रतिक्रिया क्या होगी! लेकिन, अब व्यावसायिक प्रतिद्वंदिता में माधुर्य वाले गीत गायब हो गए! गुलज़ार, इरशाद कामिल, जावेद अख्तर और स्वानंद किरकिरे जैसे कुछ गीतकारों को छोड़ दिया जाए, तो बाकी तो याद करने लायक भी नहीं हैं। बीते युग में सत्यजित रे और राज कपूर को संगीत की बहुत अच्छी समझ थी। इसके बाद सुभाष घई और जेपी दत्ता को भी इस लिस्ट में रखा  है, जिनकी फिल्मों के गीत याद रखने योग्य होते हैं। इसके बाद एक लम्बा दौर आया, जब फिल्मों से अच्छे गीत बिदा हो गए। लेकिन, संजय लीला भंसाली आज के दौर में अकेले ऐसे फ़िल्मकार हैं, जिन्हें सिनेमा की हर विधा में महारथ हांसिल है। उनकी फिल्म 'खामोशी' से लगाकर 'पद्मावत' तक के गीत-संगीत भुलाए नहीं जा सकते! संगीत को लेकर उनकी समझ इतनी अच्छी है कि 'रामलीला' से उन्होंने खुद अपनी फिल्मों का संगीत देना शुरू कर दिया। 'रामलीला' के बाद 'बाजीराव मस्तानी' में उनके संगीत को काफी सराहा गया। 
    फ़िल्मकार में यदि संगीत की पुख्ता समझ हो, तो वो किसी भी संगीतकार से अच्छा काम करवा सकता है। ऐसे ही एक फ़िल्मकार हैं, जेपी दत्ता जिनकी ज्यादातर फिल्मों का संगीत अन्नू मलिक ने दिया और उनके गीत खूब चले भी! जबकि, अन्नू मलिक का ट्रेक रिकॉर्ड इतना अच्छा नहीं है, कि उनके नाम पर मधुर गीतों की लिस्ट चस्पा हो! इसके बाद भी बॉर्डर, रिफ्यूजी, एलओसी और उमराव जान के लिए दत्ता ने अन्नू को निचोड़कर रख दिया और फिर जो गीत बने, अलग ही माधुर्य लिए थे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि फिल्म संगीत के माधुर्य में संगीतकार के साथ-साथ निर्देशक की समझ भी जरुरी है। फिल्म के कथानक के साथ गीतों की जुगलबंदी बहुत जरुरी है।       
   फिल्म संगीत को गुलशन कुमार ने 90 के दौर में आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वे खुद न तो गीतकार थे और न फिल्मों में संगीत देते थे, पर वे सिनेमा में म्यूजिक बैंक का ऐसा कांसेप्ट सामने लाए थे, जिसने नए गीतकारों और संगीतकारों को मौका दिया। उन्होंने ऐसे दौर में मधुर गीतों को जिंदा रखा, जब फिल्म संगीत पटरी से उतरने लगा था। मिथुन चक्रवर्ती की डिस्को वाली फिल्मों से कानफोडू संगीत हावी होने लगा था। ऐसे में उन्होंने महेश भट्ट के साथ जोड़ी बनाकर कई ऐसी फ़िल्में बनाई, जिनके गीत याद किए गए। बहार आने तक, आशिकी, साजन, सड़क, दीवाना, दिल है कि मानता नहीं, हम हैं राही प्यार के जैसी संगीतमय फिल्में दीं। उन्होंने कई फ़िल्में तो सिर्फ गीतों के लिए बनाई! उनके बाद भी उनकी कंपनी तो है, पर उसमें से गीतों का माधुर्य गुम हो गया। बरसों से टी-सीरीज ने कोई संगीत से सजी फिल्म भी नहीं बनाई!  
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Sunday, February 14, 2021

मोहब्बत से सराबोर रहा सिनेमा का परदा!

हेमंत पाल

    फिल्मों के लिए प्रेम यानी मोहब्बत बेहद मुफीद विषय रहा है। ये जीवन का ऐसा कोमल अहसास हैं, जिसे कहीं से भी मोड़कर उसे कथानक का रूप दिया जा सकता है। गिनती की जाए तो अभी तक जितनी भी फ़िल्में बनी, उनमें सबसे ज्यादा फिल्मों के विषय मोहब्बत के आसपास ही घूमते रहे। फिल्मों के  शुरूआती समय में धार्मिक और पौराणिक कथाओं पर फ़िल्में बनी, फिर आजादी के बाद संघर्ष को विषय बनाकर कहानियाँ गढ़ी गई। लेकिन, उसके बाद 60 के दशक से लम्बे समय तक अधिकांश फिल्मों का कथानक मोहब्बत ही रहा! सफल और असफल दोनों तरह की प्रेम कहानियों पर खूब फ़िल्में बनी और चली! राजाओं, महाराजाओं की मोहब्बत के किस्से भी दर्शकों को चाशनी चढ़ाकर परोसे गए! दरअसल, सिनेमा में  मोहब्बत ऐसा जीवंत और जज्बाती विषय है, जिसकी सफलता की गारंटी ज्यादा होती है। प्रेम कहानियों पर बनी फ़िल्में परदे पर नए चेहरों को परोसने का भी सुरक्षित और मजबूत आधार रहा है। सिनेमा का इतिहास बताता है कि परदे पर जब भी में नए कलाकारों को उतारने का मौका आया, सबसे अच्छा विषय प्रेम से सराबोर कहानियों को ही समझा गया। 
      जब से मानव जीवन की शुरुआत हुई, पुरूष के साथ औरत की जरूरत महसूस की गई! क्योंकि, बिना औरत के प्रेम और सृष्टि की रचना असंभव है। इतिहास में भी इस बात का जिक्र है कि कई बड़े युद्ध सिर्फ मोहब्बत की खातिर लड़े गए। कई सल्तनतें इसी मोहब्बत की भेंट चढ़ी! इसलिए प्यार के जज्बे से हिंदी फ़िल्में भी अलग नहीं रह सकीं। फिल्म का कथानक कितना नयापन लिए हो, उसका मोहब्बत से कोई वास्ता न हो, फिर भी उसमें कहीं न कहीं एक प्रेम कहानी जन्म जरूर पनपती है। क्योंकि, प्रेम जीवन की वो शाश्वत सच्चाई है, जिसे नकारा नहीं जा सकता! भारतीय दर्शक के जीवन में  मोहब्बत के अलग ही मायने हैं और वो इन्हीं भावनाओं को वो हर पल जीता है। उसे 'मुगले आजम' की सलीम और अनारकली का इश्क कामयाब न होना उतना ही सालता है जितना 'सदमा' में श्रीदेवी और कमल हासन का बिछड़ना! फिल्म बनाने वालों ने भी दर्शकों की इस कमजोरी को अच्छी तरह समझ लिया। फिल्मों के हर कथानक में एक लव स्टोरी इसलिए होती है, कि ये सबसे बिकाऊ तड़का जो होता है। 
   फिल्मों में प्रेमियों का मिलन का तरीका कई बार इतना जोरदार होता है, कि युवा दर्शक अपने प्रेम को भी उसी रूप में महसूस करके समाज और परिवार से विद्रोह तक कर देते हैं। इसके विपरीत जब फिल्मों में मोहब्बत की  दुखांत कहानियां जन्म लेती हैं और देवदास, एक दूजे के लिए, क़यामत से कयामत तक और 'सैराट' जैसी फ़िल्में बनती है, तो यही दर्शक ख़ुदकुशी तक कर लेते हैं। क्योंकि, प्यार ऐसा जज्बात है, जिसकी तलाश हर किसी को जीवनभर रहती है। उसका स्वरूप चाहे जैसा भी हो, किंतु सच्ची मोहब्बत प्यार हर किसी की चाहत होती है। वैसे तो सामान्य जिंदगी में भी प्रेम कथाओं की कमी नहीं होती, पर दर्शक फिल्मों के जरिए अपनी मोहब्बत के अधूरे सपनों को जीता है। मुगले आजम, देवदास, सोहनी महिवाल से लगाकर 'धड़क' तक ने प्रेम के जज्बात को दर्शकों के दिलों में बसाया और जगाया! प्रेम के बिना भारतीय सिनेमा ब्लैक एंड व्हाइट के युग से अधूरा है! इसका सबसे सशक्त उदाहरण है कि साहित्यकार शरद चंद्र की कालजयी रचना 'देवदास' जिस पर सबसे ज्यादा फ़िल्में बनीं और हमेशा ही पसंद भी की गई! न सिर्फ हिंदी में बल्कि बांग्ला, तमिल, तेलुगु, असमिया और भोजपुरी समेत कई भाषाओं में दस से ज्यादा बार इस फिल्म के रीमेक बनें। इसमें पहली बार बनी मूक फिल्म भी शामिल है। ऐसा इसलिए कि शरद चंद्र ने प्रेम का ऐसा त्रिकोण रचा, जिसमें दर्शक हर बार उलझता रहा!
    पहली बार परदे पर उतरने वाले कलाकारों के लिए भी प्रेम कथाएं सबसे ज्यादा बार सफलता का आधार बनी! जब भी किसी सितारे के बेटे या बेटी को दर्शकों के सामने उतारा गया, ऐसी पटकथा रची गई, जिसका मूल विषय प्रेम रहा! आमिर खान (कयामत से कयामत तक), सलमान खान-भाग्य श्री (मैंने प्यार किया), अजय देवगन (फूल और कांटे), ऋतिक रोशन-अमीषा पटेल (कहो न प्यार है), राहुल रॉय-अनु अग्रवाल (आशिकी), संजय दत्त (रॉकी), सनी देयोल-अमृता सिंह (बेताब), कमल हासन-रति अग्निहोत्री (एक दूजे के लिए), ऋषि कपूर-डिम्पल (बॉबी), ट्विंकल खन्ना-बॉबी देयोल (बरसात), कुमार गौरव-विजयता पंडित (लव स्टोरी), शाहिद कपूर-अमृता राव (इश्क विश्क), दीपिका पादुकोण (ओम शांति ओम), इमरान खान (जाने तू या जाने ना), रनबीर सिंह (बैंड बाजा बारात), रणवीर कपूर-सोनम कपूर (सांवरिया), अभय देओल (सोचा न था), आयुष्मान खुराना (विकी डोनर), आलिया भट्ट-सिद्धार्थ-वरुण (स्टूडेंट ऑफ द ईयर) और आयुष शर्मा (लवयात्री) आदि। बाद में इन्होंने रास्ते भी बदले, पर करियर के शुरूआती दौर में रिस्क लेने की हिम्मत नहीं की।    
    हिंदी सिनेमा में अमर प्रेम कथाओं की फेहरिस्त अंतहीन है। मुगले आजम, आवारा, कागज के फूल, प्यासा, साहिब बीवी और गुलाम, पाकीजा, कश्मीर की कली, आराधना, बॉबी, सिलसिला, देवदास, मैंने प्यार किया, कयामत से कयामत तक, एक दूजे के लिए, दिल है कि मानता नहीं, लव स्टोरी, साजन, दिल, उमराव जान, 1942 ए लव स्टोरी, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, कुछ कुछ होता है, रंगीला, कल हो न हो और 'जब वी मेट' के बाद बॉलीवुड में नई पीढ़ी के प्रेम को दर्शाने के लिए भी कई प्रेम कहानियां रची गई! जिसमें रहना है तेरे दिल में, बचना ए हसीनों, सलाम नमस्ते, लव आजकल, ये जवानी है दीवानी, वेकअप सिड, अजब प्रेम की गजब कहानी, रॉक स्टार, बर्फी, टू स्टेट्स, आशिकी-टू, कॉकटेल, शुद्ध देसी रोमांस, तनु वेड्स मनु, मसान, तमाशा, ए दिल है मुश्किल, बरेली की बर्फी जैसी अनेकों फिल्में रही! आशय यह कि परदे पर मोहब्बत का ये सिलसिला न कभी रुका है न रुकेगा। 
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Saturday, February 6, 2021

फिल्म का अंत किसी को न बताएं!

- हेमंत पाल

     फिल्म के अंत को गोपनीय बनाए रखने की इस तरह की हिदायतें कुछ साल पहले तक सस्पेंस फिल्मों के आखिरी दृश्य में दर्शकों के लिए परदे पर लिखी दिखाई देती थी। इसलिए कि ऐसी फिल्मों के अंत में कुछ ऐसा होता था, जो देखने वालों को चौंकाता था। फिल्म का कथानक कुछ इस तरह रचा जाता था, कि दर्शक उसके आकर्षण में फंस जाते थे। वे कहानी के ट्विस्ट की असलियत देख नहीं पाते थे और जब राज खुलता तो ऐसा पात्र संदेहों से घिरा मिलता, जिस पर किसी की नजर नहीं जाती थी! सस्पेंस फिल्मों में चौंकाने वाला इस तरह के अंत का दौर अभी ख़त्म नहीं हुआ! बस, दर्शकों को ये हिदायत देना बंद कर दिया गया कि फिल्म का अंत किसी को न बताएं! ऐसी फ़िल्में सिर्फ कलाकारों के अभिनय से ही दर्शकों को नहीं बांधती, इनकी पटकथा लेखन और डायरेक्शन भी कुछ नयापन होता है। अब तक कई थ्रिलर फिल्में आई, लेकिन सभी दर्शकों को बांध नहीं पाई। याद वहीं रहती, जिन्होंने अपनी पटकथा और डायरेक्शन का जादू दिखाया। पुरानी फिल्मों में तीसरी मंजिल, ज्वेल थीफ, इत्तेफ़ाक़, गुमनाम और आज के दौर की ए वेडनस डे, बदला, हमराज़, 100 डेज के बाद आयुष्मान खुराना की फिल्म 'अंधाधुंन' और अजय देवगन की 'दृश्यम' ऐसी ही फ़िल्में हैं, जिनके क्लाइमैक्स ने दर्शकों को कुर्सी से खड़ा कर दिया था। 'अंधाधुन' ने तो एक नया ट्रेंड बना दिया। इसमें एक अंधे आदमी का किरदार काफी रहस्यमय था। फिल्म की कहानी इसी के आस-पास घूमती है। इस पूरी फिल्म में अच्छा-खासा सस्पेंस बनाकर रखा गया।
     सिर्फ हिंदी फ़िल्में ही नहीं, हॉलीवुड में भी सस्पेंस, थ्रिलर वाली फिल्‍मों को सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। डायरेक्‍टर, प्रोड्यूसर और स्क्रिप्‍ट राइटर एल्‍फ्रेड हिचकाक तो हॉलीवुड के 'मास्‍टर ऑफ सस्‍पेंस' ही कहे जाते रहे हैं। फिल्म इतिहास के पन्ने पलते जाएं, तो हिंदी फिल्मों में मर्डर मिस्ट्री और सस्‍पेंस फिल्‍मों की शुरुआत का श्रेय विजय आनंद को जाता है। उन्होंने 'तीसरी मंजिल' और 'ज्वेल थीफ' उस दौर में बनाने की हिम्मत की, जब दर्शकों को ऐसी कहानियों का अंदाजा भी नहीं था। ऐसी फिल्मों में पैसा लगाना भी एक तरह ही जुआं ही था। पर, विजय आनंद ने दर्शकों पर अपना जादू चलाया और उनकी कई फ़िल्में पसंद की गईं। उन्होंने ऐसे कई प्रयोग किए, जो सस्पेंस से लबरेज थे।  
     सस्‍पेंस और थ्रिलर हमेशा ही दर्शकों का प्रिय विषय रहा है। उन्हें ऐसी सस्पेंस फ़िल्में ही ज्‍यादा पसंद आती है, जिसके अंत के बारे में उसका अनुमान गलत निकले! फिल्‍म के क्‍लाईमेक्‍स में ऐसा शख्स सामने आए, जिसका दर्शकों ने अनुमान भी नहीं लगाया हो! ऐसी ही फिल्‍में दर्शकों को बांधने वाली होती है। अभी तक ये फ़िल्में सीमित थीं, पर ओटीटी प्‍लेटफॉर्म आने के बाद लगने लगा कि दर्शक सस्पेंस, थ्रिलर और मर्डर मिस्‍ट्री ही देखना चाहता है। जबकि, ये तीनों ही अलग-अलग शैलियां हैं। थ्रिलर फिल्मों में एक्‍शन होता है, लेकिन सस्‍पेंस नहीं! उनमें सस्‍पेंस की घटनाएं होती है, जिनका राज धीरे-धीरे खुलता रहता है। सस्‍पेंस फिल्म में न तो रहस्‍य जरूरी है और न एक्शन! इनमे चौंकाने वाले सीन ज्यादा होते हैं, जो दर्शक को सोचने का मौका भी नहीं देते। 
   मिस्‍ट्री और सस्‍पेंस थ्रिलर फ़िल्में एक जैसी नहीं होती। दोनों का ट्रीटमेंट अला-अलग होता है। सस्‍पेंस फिल्मों में राज धीरे-धीरे खुलते हैं! पर, मिस्‍ट्री फिल्मों में सिर्फ एक राज होता है, जिस पर से फिल्म के अंत में परदा उठता है। इस तरह की फिल्मों की पटकथा का ताना-बाना किसी हत्या के इर्द-गिर्द बुना जाता है। पूरी कहानी अनजान हत्यारे की खोज पर आधारित होती है। संदेह के लिए कई पात्रों को निशाने पर रखा जाता है। हत्यारे को पकड़ने के लिए पुलिस जो भी चाल चलती है, वही फिल्म का आकर्षण होता है। कभी फिल्म के नायक, नायिका या सबसे शरीफ पात्र के भी कातिल होने की स्थितियाँ निर्मित की जाती है। यानी दर्शकों को बांधने और उनका ध्यान बांटने के लिए कई हथकंडे रचे जाते हैं। देखा जाए तो दर्शकों को वही सस्पेंस फ़िल्में ज्यादा पसंद आती है, जो उन्हें हर सीन में चौंका दें। तीसरी मंजिल, ज्वेल थीफ, क़त्ल के बाद 'गुप्त' ऐसी ही रोचक फिल्म थी।    
   रामगोपाल वर्मा की 'कौन' को बॉलीवुड की बेस्ट साइकोलॉजिकल थ्रिलर फिल्म कहा हैं। यह पूरी फिल्म घर में बंद एक लड़की (उर्मिला मातोंडकर) की कहानी है, जो अजनबी (मनोज बाजपेयी) से बचने की कोशिश में रहती है। लेकिन, फिल्म का क्लाईमैक्स दर्शकों के होश उड़ा देता है। इसी तरह की फिल्म 'फोबिया' भी थी, जिसमें राधिका आप्टे ने काम किया। यह फिल्म ऐसी लड़की की कहानी है, जो बाहर निकलने से डरती है और खुद को घर में बंद कर लेती है। उसका डर ही फिल्म का क्लाइमैक्स है। बॉबी देओल, काजोल और मनीषा कोइराला की 'गुप्त' बेहतरीन सस्पेंस थ्रिलर फिल्म थी। इसमें अंत तक किसी का ध्यान नहीं जाता और खलनायिका काजोल निकलती है। विद्या बालन की 'कहानी' और 'कहानी-2' दोनों ही फ़िल्में दर्शकों को अंत तक कुर्सी से बांधकर रखती है। किसी को भी अंदाजा नहीं होता कि आखिरी में क्या होगा! फिल्म 'नैना' एक अंधी लड़की की कहानी थी, जिसकी आंखें ट्रांसप्लांट की जाती है। लेकिन, इसके बाद उसे अजीब सी चीज़ें दिखाई देने लगती है। 'बदला' को हाल के दौर की बड़ी मर्डर मिस्ट्री फिल्म माना जाता है! इसे अंत तक देखने के बाद ही समझ आता है कि आखिर फिल्म क्या चाहती है! ये पूरी फिल्म सस्पेंस से भरी है! कलाकारों का अभिनय भी हैरान करता है!
   आज की संस्पेंस फिल्मों में ‘दृश्‍यम’ सबसे अच्छा उदाहरण है। इसमें अपराधी सामने होता है, लेकिन न तो पुलिस उसे पकड़ पाती है और न दर्शकों को समझ आता है कि उसने ये सब किया कैसे होगा! इस फिल्‍म में कोई मारधाड़ नहीं है और न कोई रहस्‍य! हत्यारा सबके सामने होता है, किंतु अपनी चतुराई से बचता रहता है। कोई ठोस सबूत न होने से पुलिस भी अंत तक उस पर हाथ नहीं डाल पाती! इसमें सस्‍पेंस और इमोशन का ऐसा घालमेल किया गया है कि फिल्म देखने वाले भी हत्यारे के पक्ष में नजर आते हैं। वे भी नहीं चाहते कि अपराधी पकड़ा जाए! कानून, गुमनाम, मेरा साया, इत्तेफाक, धुंध, अपराधी कौन, कब क्‍यों और कहां, खिलाड़ी, गुप्‍त, वह कौन थी, डिक्‍टेटर व्‍योमकेश बक्‍शी, मनोरमा सिक्‍स फीट अंडर, भूल भुलैया, एक चालीस की लास्‍ट लोकल, बदला, जानी गद्दार, अगली, तलवार, अंधाधुन, क़त्ल, दृश्‍यम और 'कहानी' ऐसी ही फ़िल्में थीं, जिनका जादू दर्शकों पर जमकर चला। 
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