- हेमंत पाल
हिंदी सिनेमा ने अपने सौ साल से ज्यादा लम्बे सफर में कई मुद्दों को छुआ। शुरू में धार्मिक कथाओं पर फ़िल्में बनी, फिर आजादी के संघर्ष को विषय बनाया गया। इसके बाद सामाजिक बदलाव और प्रेम कहानियों पर फ़िल्में बनाई जाने लगी। तात्कालिक और राजनीतिक मुद्दों पर भी फ़िल्में बनी। वे पसंद की गई या नहीं, ये बात अलग है। पर, फ़िल्मकारों ने समाज के प्रति अपने दायित्व को दर्शाने की कोशिश जरूर की। लेकिन, फिर भी एक मुद्दा ऐसा है, जिससे फ़िल्मकार हमेशा बचते रहे, वो है दलितों से जुड़े विषय। हर साल 300 से ज्यादा फ़िल्में बनाने वाली हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के इतिहास में दस फ़िल्में भी ऐसी नहीं हैं, जिनमें दलितों की वास्तविक पीड़ा को उबारा गया हो!
समाज में जब दशकों से इस मुद्दे पर राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर उथल-पुथल मची है, तो क्या कारण है कि फिल्मकार दलितों के हक से जुड़े सवालों से मुंह क्यों चुराते हैं! शुरू में ऐसा लगा था कि महात्मा गाँधी और उनके जैसे समाज सुधारकों के कारण इस विषय को फिल्मकार आगे बढ़ाएंगे, पर ऐसा नहीं हुआ। क्योंकि, ऐसी फ़िल्में मुख्यधारा का हिस्सा नहीं होती और न सिनेमाघर में बैठे दर्शकों का मनोरंजन करती हैं। जब सिनेमा के परदे पर मनगढंत कहानियों का जमावड़ा है, तो फिल्म बनाने वालों को दलितों से जुड़े विषयों पर फिल्म बनाने में डर क्यों लगता है। समाज के इस दलित और पिछड़े वर्ग पर बनी फिल्मों की संख्या को जांचेंगे, तो आश्चर्य होगा कि दलित न सिर्फ़ जाति के वरीयता-क्रम से बल्कि सिनेमा से भी अछूत हैं। क्या ये माना जाए कि फिल्म इंडस्ट्री के सारे कथानक बाजार के बिकाऊ व्यवहार के साथ ही तय होते हैं! आजादी से पहले 1936 में फ्रांज ऑस्टेन ने पहली बार 'अछूत कन्या' बनाकर दलितों के संवेदनशील मुद्दे को छुआ। फिल्म में ब्राह्मण लड़के का एक अछूत लड़की से प्रेम दिखाया गया था। तब माना गया था कि यह फिल्म महात्मा गांधी के अछूत उद्धार आंदोलन से प्रेरित है। इसके बरसों बाद 1959 में विमल राय ने भी 'सुजाता’ में एक अछूत लड़की और ब्राह्मण लड़के के बीच प्रेम का चित्रण किया! लेकिन, इन फिल्मों में जो सवाल उठाए, वे सामाजिक नहीं बल्कि निजी थे! फिल्म में दलित समाज के संघर्ष, उनकी पहचान से जुड़े सवाल का कोई जवाब नहीं था। ऐसा क्यों हुआ और इस विषय को बार-बार क्यों नहीं छुआ गया, ये अनुत्तरित ही है। 90 के दशक में जरूर दलितों से जुड़े मुद्दों पर सामाजिक चेतना जागी और इन्हीं सालों में दलितों और पिछड़ों का सामाजिक आंदोलन सड़क पर उतरा। इसके बावजूद फिल्मों में दलितों के संघर्ष और उनके अधिकार के मुद्दे गायब रहे। बैंडिट क्वीन, आरक्षण और 'मसान' जैसी फ़िल्में तो बनी, पर उनमें किरदार ही दलित दिखाई दिए, ज्वलंत मुद्दे नहीं दिखे।
फिर एक ऐसा दौर आया जब समानांतर सिनेमा उभरकर सामने आया। समानांतर यानी ग्लैमर से दूर ऐसा सिनेमा जो सीधे समाज से जुड़ा हो और गंभीर सवालों के जवाब ढूंढता हो! इस दौर में श्याम बैनेगल ने सामंतियों के हाथों दलितों के शोषित होने और फिर उनके विद्रोह की कहानियाँ गढ़ी! लेकिन, अंकुर, दामूल और 'पार' जैसी फिल्मों में दलितों के सवाल फिल्म के मूल केंद्र में दिखाई नहीं दिए। इस सबसे लगता है, कि हिंदी फिल्में दलितों, वंचितों के संघर्ष और उनके सवालों से टकराने से बचती रही हैं। सौ साल से ज्यादा पुराने हिंदी फिल्म इतिहास में आश्चर्यजनक रूप से पहली बार अनुभव सिन्हा ने आयुष्मान खुराना के साथ 'आर्टिकिल-15' में समाज और सत्ता से किए सवाल किए हैं। नायक से ज्यादा अच्छे ढंग से फिल्म में अन्य किरदार जातिगत और राजनीतिक सवाल उठाते हैं।
श्याम बेनेगल को कई राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। अपनी पहली फ़िल्म 'अंकुर' 1974 में बनाई थी। यह अछूत महिला और ब्राह्मण पुरुष के रिश्ते की कहानी थी। 1981 में सत्यजित राय ने 'सदगति' बनाई, जो उनकी दूसरी हिंदी फ़िल्म थी। ये प्रेमचंद की कहानी पर आधारित थी, जो नीची जाति के दुखी नाम के एक ऐसे आदमी के बारे में है, जो अपनी बेटी की शादी करवाना चाहता है और इसके लिए उसे ब्राह्मण की जरुरत है, जो घर आकर शुभ मुहूर्त निकाल सके। 1991 में बनी फिल्म 'दीक्षा' बॉलीवुड के बाहर की हिंदी फ़िल्म थी, जिसमें दलितों का ज़िक्र किया गया था। 1992 में इस फ़िल्म को हिंदी की सबसे अच्छी फ़िल्म का पुरस्कार भी मिला। आशुतोष गोवारिकर की फिल्म 'लगान' गाँव की जिंदगी में गढ़ी हुई, व्यावसायिक कहानी थी। लेकिन, इस फिल्म में उन्होंने अछूतों को सवर्णों से बराबरी करने की अनुमति नहीं दी। गाँव का अछूत कचरा जब सकुचाकर मैदान से बाहर गई गेंद फेंकता है, तो वो घूम जाती है। फिल्म का नायक भुवन उस कचरा को अपनी टीम में लेना चाहता है, पर जब वह टीम के दूसरे सदस्यों को बताता है, तो वे खेलने से इंकार कर देते हैं। 1985 में बनी प्रकाश झा की 'दामूल' में गरीब दलितों का शोषण दिखाया गया था। इस फ़िल्म को पुरस्कार भी मिले। 2011 में उन्होंने दलितों से जोड़कर 'आरक्षण' बनाई। ऐसी ही एक फिल्म थी 1994 में बनी 'बैंडिट क्वीन' जो फूलन देवी पर केंद्रित थी। शेखर कपूर की इस फिल्म का कथानक दलितों पर नहीं था, पर माला सेन ने अपनी कहानी में इस समाज की पीड़ा को गंभीरता से दिखाया जरूर था।
सिनेमा की मुख्यधारा से अलग रहने वाले या यूँ कहिए कि समानांतर सिनेमा के पक्षधर निर्देशकों के सोच का तरीका कुछ अलग होता है। वे व्यावसायिक फ़िल्म निर्देशकों से ज़्यादा खुलकर सोचते हैं। उनके लिए फिल्म की व्यावसायिक सफलता ज्यादा मायने नहीं रखती। इसके बावजूद हिंदी सिनेमा में दलित समस्याओं पर बनी फिल्मों का अभाव है। जब वे सबकुछ दिखा सकते हैं, तो क्या कारण है, कि जाति के निषेध को तोड़ने की हिम्मत वे नहीं कर पाते। जबकि, अब महानगरों का नया दर्शक वर्ग समकालीन मुद्दों को परदे पर देखना चाहता है। इससे दलितों, पिछड़ों की अस्मिता के संघर्ष पर नई कहानियाँ गढ़ने का मौका मिलेगा और हिंदी सिनेमा की रचनात्मकता भी बढ़ेगी! दरअसल, हमारे देश के सिनेमा में सामाजिक जीवन के वास्तविक चित्रण का भारी अभाव है। इसका सबसे बड़ा कारण शायद यह है कि दलितों का एक बड़ा हिस्सा अभी भी सिनेमा के दर्शक समुदाय में शामिल नहीं हुआ! लेकिन, यह तब तक नहीं होगा, जब तक उनके हालात को सच्चाई के साथ नहीं दिखाया जाता।
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