Friday, February 19, 2021

वक़्त के साथ खोया संगीत का माधुर्य!

- हेमंत पाल

     किसी भी फिल्म की सफलता में उसके गीत-संगीत की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। कई बार गीतों का माधुर्य ही दर्शकों को फिल्म देखने के लिए आकर्षित करता है। यही कारण है कि 50 और 60 के दशक की फिल्मों के साथ उनके संगीत को आजतक याद किया जाता है। क्योंकि, गीत-संगीत का माधुर्य कभी बनावटी नहीं होता! कालजयी गीतों को रचने से पहले गीतकार को फिल्म की सिचुएशन में डूबना पड़ता है, संगीतकार को उसमें मेहनत करना पड़ती है। क्योंकि, संगीत ऐसा सृजन है, जिसे धैर्य के साथ गढ़ा जाता है। कई दिनों की मेहनत के बाद एक गीत तैयार होता है। लेकिन, अब वो समय नहीं बचा! खाने में फास्ट फूड की तरह गीत भी रचे जाने लगे, जिनमें माधुर्य छोड़कर सब होता है! आज के संगीतकार नई पीढ़ी की पसंद की आड़ में कुछ भी परोसने से बाज नहीं आते! जबकि, ऐसा नहीं है। आज की नई पीढ़ी भी 60 और 70 के दशक के गीत ही सुनती दिखाई देती है। 
   एक दौर था जब राज कपूर, राजेंद्र कुमार, दिलीप कुमार, राजकुमार, शम्मी कपूर, विश्वजीत और जॉय मुखर्जी जैसे नायकों की फ़िल्में उनके गीतों की वजह से भी पसंद की गई! इसका कारण रहा कि इन्हें शंकर-जयकिशन, एसडी बर्मन, ओपी नैयर, सी. रामचंद्र, चित्रगुप्त, मदन मोहन, उषा खन्ना जैसे संगीतकारों का साथ मिला। इस दौर में फिल्म का कथानक गीतों के साथ आगे बढ़ता था। लगता था कि गीतों को फिल्म के कहानी के साथ बुनकर लिखा गया हो! मुगले आजम, श्री 420 और 'मधुमती' को याद कीजिए, ये कुछ ऐसी ही फ़िल्में थीं, जिनकी कहानी और गीत दोनों एक-दूसरे में गुंथे हुए से लगते थे। इन फिल्मों के सभी गीतों का माधुर्य इतना कर्णप्रिय था, कि इन्हें हर दौर में पसंद किया गया! आज की फिल्मों में मुश्किल से किसी फिल्म के एक या दो गीत ही याद रखने लायक होते हैं। अब पहली बार बनी 'आशिकी' जैसी फ़िल्में भी नहीं आती, जिसका हर गाना हिट हुआ! 'आशिकी' दूसरी बार भी बनी, पर उसके गीत नहीं चले।       
   फिल्मी संगीत का असल दौर 40 और 50 का दशक था, जब विश्व युद्ध और उसके बाद देश के बंटवारे के बीच घिरे माहौल ने संगीत को प्रभावित किया। इस वक़्त में दो तरह के गीत रचे गए। एक थे रोमांस या विरह की पीड़ा वाले और दूसरे थे बंटवारे की पीड़ा की भावनाओं को व्यक्त करने वाले गीत। पंडित अमरनाथ के गीतों में भारतीय वाद्य ढोलक का जमकर उपयोग होने लगा! यह फिल्म संगीत का सुनहरा समय था। संगीत के साथ रिकॉर्डिंग और तकनीक ने जोर पकड़ा! देसी और विदेशी वाद्य यंत्रों का मेल दिखाई देने लगा। ढोलक को गिटार के साथ जोड़कर प्रयोग किए जाने लगे। इसी समय में लता मंगेशकर का उद्भव हुआ और उन्होंने नूरजहाँ के असर वाला गीत 'जिया बेकरार है आई बहार है' जैसा कालजयी गीत गाया। सचिनदेव बर्मन, नौशाद और शंकर जयकिशन के प्रयोग सामने आने लगे। देव आनंद और फिर गुरुदत्त की फिल्मों के गीतों में गिटार सुनाई देने लगा। 'प्यासा' के गीत 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए क्या है' और 'वक्त ने किया  सितम' जैसे गीतों की रचना में जितनी मेहनत की गई, उतना ही कर्णप्रिय संगीत भी रचा गया। 'मुगले आजम' में नौशाद ने संगीत वाद्यों का जिस तरह उपयोग किया, उससे उनकी संगीत की समझ की भव्यता सामने आई! 
    आजादी से पहले कई संगीतकार मुस्लिम घराने के थे और पुराने संगीत घरानों की जड़ों से जुड़े थे। उनके संगीत में उर्दू का प्रभाव दिखाई देता था। देश के आजाद होने के बाद लम्बे समय तक हिंदी फिल्म संगीत से उर्दू गायब सा हो गया था। लेकिन, पिछले कुछ सालों से फिर उर्दू शायरी और इस भाषा के सिद्धहस्त कलाकार सामने आए। राहत फतेहअली खान और शफकत अमानत अली जैसे गायकों के जुड़ने से संगीत में उर्दू भाषा का चलन बढ़ा है। ऐसे घरानों से संबंध रखने वाले कलाकारों की वजह से संगीत ने भी एक तरह की करवट ली। 
    सिनेमा के बीते दौर में फिल्मकारों को संगीत की अच्छी समझ होती थी! वे गीतों के बोल और संगीत की धुन से अंदाजा लगा लेते थे इन्हें लेकर दर्शकों/श्रोताओं की प्रतिक्रिया क्या होगी! लेकिन, अब व्यावसायिक प्रतिद्वंदिता में माधुर्य वाले गीत गायब हो गए! गुलज़ार, इरशाद कामिल, जावेद अख्तर और स्वानंद किरकिरे जैसे कुछ गीतकारों को छोड़ दिया जाए, तो बाकी तो याद करने लायक भी नहीं हैं। बीते युग में सत्यजित रे और राज कपूर को संगीत की बहुत अच्छी समझ थी। इसके बाद सुभाष घई और जेपी दत्ता को भी इस लिस्ट में रखा  है, जिनकी फिल्मों के गीत याद रखने योग्य होते हैं। इसके बाद एक लम्बा दौर आया, जब फिल्मों से अच्छे गीत बिदा हो गए। लेकिन, संजय लीला भंसाली आज के दौर में अकेले ऐसे फ़िल्मकार हैं, जिन्हें सिनेमा की हर विधा में महारथ हांसिल है। उनकी फिल्म 'खामोशी' से लगाकर 'पद्मावत' तक के गीत-संगीत भुलाए नहीं जा सकते! संगीत को लेकर उनकी समझ इतनी अच्छी है कि 'रामलीला' से उन्होंने खुद अपनी फिल्मों का संगीत देना शुरू कर दिया। 'रामलीला' के बाद 'बाजीराव मस्तानी' में उनके संगीत को काफी सराहा गया। 
    फ़िल्मकार में यदि संगीत की पुख्ता समझ हो, तो वो किसी भी संगीतकार से अच्छा काम करवा सकता है। ऐसे ही एक फ़िल्मकार हैं, जेपी दत्ता जिनकी ज्यादातर फिल्मों का संगीत अन्नू मलिक ने दिया और उनके गीत खूब चले भी! जबकि, अन्नू मलिक का ट्रेक रिकॉर्ड इतना अच्छा नहीं है, कि उनके नाम पर मधुर गीतों की लिस्ट चस्पा हो! इसके बाद भी बॉर्डर, रिफ्यूजी, एलओसी और उमराव जान के लिए दत्ता ने अन्नू को निचोड़कर रख दिया और फिर जो गीत बने, अलग ही माधुर्य लिए थे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि फिल्म संगीत के माधुर्य में संगीतकार के साथ-साथ निर्देशक की समझ भी जरुरी है। फिल्म के कथानक के साथ गीतों की जुगलबंदी बहुत जरुरी है।       
   फिल्म संगीत को गुलशन कुमार ने 90 के दौर में आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वे खुद न तो गीतकार थे और न फिल्मों में संगीत देते थे, पर वे सिनेमा में म्यूजिक बैंक का ऐसा कांसेप्ट सामने लाए थे, जिसने नए गीतकारों और संगीतकारों को मौका दिया। उन्होंने ऐसे दौर में मधुर गीतों को जिंदा रखा, जब फिल्म संगीत पटरी से उतरने लगा था। मिथुन चक्रवर्ती की डिस्को वाली फिल्मों से कानफोडू संगीत हावी होने लगा था। ऐसे में उन्होंने महेश भट्ट के साथ जोड़ी बनाकर कई ऐसी फ़िल्में बनाई, जिनके गीत याद किए गए। बहार आने तक, आशिकी, साजन, सड़क, दीवाना, दिल है कि मानता नहीं, हम हैं राही प्यार के जैसी संगीतमय फिल्में दीं। उन्होंने कई फ़िल्में तो सिर्फ गीतों के लिए बनाई! उनके बाद भी उनकी कंपनी तो है, पर उसमें से गीतों का माधुर्य गुम हो गया। बरसों से टी-सीरीज ने कोई संगीत से सजी फिल्म भी नहीं बनाई!  
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