Saturday, February 6, 2021

फिल्म का अंत किसी को न बताएं!

- हेमंत पाल

     फिल्म के अंत को गोपनीय बनाए रखने की इस तरह की हिदायतें कुछ साल पहले तक सस्पेंस फिल्मों के आखिरी दृश्य में दर्शकों के लिए परदे पर लिखी दिखाई देती थी। इसलिए कि ऐसी फिल्मों के अंत में कुछ ऐसा होता था, जो देखने वालों को चौंकाता था। फिल्म का कथानक कुछ इस तरह रचा जाता था, कि दर्शक उसके आकर्षण में फंस जाते थे। वे कहानी के ट्विस्ट की असलियत देख नहीं पाते थे और जब राज खुलता तो ऐसा पात्र संदेहों से घिरा मिलता, जिस पर किसी की नजर नहीं जाती थी! सस्पेंस फिल्मों में चौंकाने वाला इस तरह के अंत का दौर अभी ख़त्म नहीं हुआ! बस, दर्शकों को ये हिदायत देना बंद कर दिया गया कि फिल्म का अंत किसी को न बताएं! ऐसी फ़िल्में सिर्फ कलाकारों के अभिनय से ही दर्शकों को नहीं बांधती, इनकी पटकथा लेखन और डायरेक्शन भी कुछ नयापन होता है। अब तक कई थ्रिलर फिल्में आई, लेकिन सभी दर्शकों को बांध नहीं पाई। याद वहीं रहती, जिन्होंने अपनी पटकथा और डायरेक्शन का जादू दिखाया। पुरानी फिल्मों में तीसरी मंजिल, ज्वेल थीफ, इत्तेफ़ाक़, गुमनाम और आज के दौर की ए वेडनस डे, बदला, हमराज़, 100 डेज के बाद आयुष्मान खुराना की फिल्म 'अंधाधुंन' और अजय देवगन की 'दृश्यम' ऐसी ही फ़िल्में हैं, जिनके क्लाइमैक्स ने दर्शकों को कुर्सी से खड़ा कर दिया था। 'अंधाधुन' ने तो एक नया ट्रेंड बना दिया। इसमें एक अंधे आदमी का किरदार काफी रहस्यमय था। फिल्म की कहानी इसी के आस-पास घूमती है। इस पूरी फिल्म में अच्छा-खासा सस्पेंस बनाकर रखा गया।
     सिर्फ हिंदी फ़िल्में ही नहीं, हॉलीवुड में भी सस्पेंस, थ्रिलर वाली फिल्‍मों को सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। डायरेक्‍टर, प्रोड्यूसर और स्क्रिप्‍ट राइटर एल्‍फ्रेड हिचकाक तो हॉलीवुड के 'मास्‍टर ऑफ सस्‍पेंस' ही कहे जाते रहे हैं। फिल्म इतिहास के पन्ने पलते जाएं, तो हिंदी फिल्मों में मर्डर मिस्ट्री और सस्‍पेंस फिल्‍मों की शुरुआत का श्रेय विजय आनंद को जाता है। उन्होंने 'तीसरी मंजिल' और 'ज्वेल थीफ' उस दौर में बनाने की हिम्मत की, जब दर्शकों को ऐसी कहानियों का अंदाजा भी नहीं था। ऐसी फिल्मों में पैसा लगाना भी एक तरह ही जुआं ही था। पर, विजय आनंद ने दर्शकों पर अपना जादू चलाया और उनकी कई फ़िल्में पसंद की गईं। उन्होंने ऐसे कई प्रयोग किए, जो सस्पेंस से लबरेज थे।  
     सस्‍पेंस और थ्रिलर हमेशा ही दर्शकों का प्रिय विषय रहा है। उन्हें ऐसी सस्पेंस फ़िल्में ही ज्‍यादा पसंद आती है, जिसके अंत के बारे में उसका अनुमान गलत निकले! फिल्‍म के क्‍लाईमेक्‍स में ऐसा शख्स सामने आए, जिसका दर्शकों ने अनुमान भी नहीं लगाया हो! ऐसी ही फिल्‍में दर्शकों को बांधने वाली होती है। अभी तक ये फ़िल्में सीमित थीं, पर ओटीटी प्‍लेटफॉर्म आने के बाद लगने लगा कि दर्शक सस्पेंस, थ्रिलर और मर्डर मिस्‍ट्री ही देखना चाहता है। जबकि, ये तीनों ही अलग-अलग शैलियां हैं। थ्रिलर फिल्मों में एक्‍शन होता है, लेकिन सस्‍पेंस नहीं! उनमें सस्‍पेंस की घटनाएं होती है, जिनका राज धीरे-धीरे खुलता रहता है। सस्‍पेंस फिल्म में न तो रहस्‍य जरूरी है और न एक्शन! इनमे चौंकाने वाले सीन ज्यादा होते हैं, जो दर्शक को सोचने का मौका भी नहीं देते। 
   मिस्‍ट्री और सस्‍पेंस थ्रिलर फ़िल्में एक जैसी नहीं होती। दोनों का ट्रीटमेंट अला-अलग होता है। सस्‍पेंस फिल्मों में राज धीरे-धीरे खुलते हैं! पर, मिस्‍ट्री फिल्मों में सिर्फ एक राज होता है, जिस पर से फिल्म के अंत में परदा उठता है। इस तरह की फिल्मों की पटकथा का ताना-बाना किसी हत्या के इर्द-गिर्द बुना जाता है। पूरी कहानी अनजान हत्यारे की खोज पर आधारित होती है। संदेह के लिए कई पात्रों को निशाने पर रखा जाता है। हत्यारे को पकड़ने के लिए पुलिस जो भी चाल चलती है, वही फिल्म का आकर्षण होता है। कभी फिल्म के नायक, नायिका या सबसे शरीफ पात्र के भी कातिल होने की स्थितियाँ निर्मित की जाती है। यानी दर्शकों को बांधने और उनका ध्यान बांटने के लिए कई हथकंडे रचे जाते हैं। देखा जाए तो दर्शकों को वही सस्पेंस फ़िल्में ज्यादा पसंद आती है, जो उन्हें हर सीन में चौंका दें। तीसरी मंजिल, ज्वेल थीफ, क़त्ल के बाद 'गुप्त' ऐसी ही रोचक फिल्म थी।    
   रामगोपाल वर्मा की 'कौन' को बॉलीवुड की बेस्ट साइकोलॉजिकल थ्रिलर फिल्म कहा हैं। यह पूरी फिल्म घर में बंद एक लड़की (उर्मिला मातोंडकर) की कहानी है, जो अजनबी (मनोज बाजपेयी) से बचने की कोशिश में रहती है। लेकिन, फिल्म का क्लाईमैक्स दर्शकों के होश उड़ा देता है। इसी तरह की फिल्म 'फोबिया' भी थी, जिसमें राधिका आप्टे ने काम किया। यह फिल्म ऐसी लड़की की कहानी है, जो बाहर निकलने से डरती है और खुद को घर में बंद कर लेती है। उसका डर ही फिल्म का क्लाइमैक्स है। बॉबी देओल, काजोल और मनीषा कोइराला की 'गुप्त' बेहतरीन सस्पेंस थ्रिलर फिल्म थी। इसमें अंत तक किसी का ध्यान नहीं जाता और खलनायिका काजोल निकलती है। विद्या बालन की 'कहानी' और 'कहानी-2' दोनों ही फ़िल्में दर्शकों को अंत तक कुर्सी से बांधकर रखती है। किसी को भी अंदाजा नहीं होता कि आखिरी में क्या होगा! फिल्म 'नैना' एक अंधी लड़की की कहानी थी, जिसकी आंखें ट्रांसप्लांट की जाती है। लेकिन, इसके बाद उसे अजीब सी चीज़ें दिखाई देने लगती है। 'बदला' को हाल के दौर की बड़ी मर्डर मिस्ट्री फिल्म माना जाता है! इसे अंत तक देखने के बाद ही समझ आता है कि आखिर फिल्म क्या चाहती है! ये पूरी फिल्म सस्पेंस से भरी है! कलाकारों का अभिनय भी हैरान करता है!
   आज की संस्पेंस फिल्मों में ‘दृश्‍यम’ सबसे अच्छा उदाहरण है। इसमें अपराधी सामने होता है, लेकिन न तो पुलिस उसे पकड़ पाती है और न दर्शकों को समझ आता है कि उसने ये सब किया कैसे होगा! इस फिल्‍म में कोई मारधाड़ नहीं है और न कोई रहस्‍य! हत्यारा सबके सामने होता है, किंतु अपनी चतुराई से बचता रहता है। कोई ठोस सबूत न होने से पुलिस भी अंत तक उस पर हाथ नहीं डाल पाती! इसमें सस्‍पेंस और इमोशन का ऐसा घालमेल किया गया है कि फिल्म देखने वाले भी हत्यारे के पक्ष में नजर आते हैं। वे भी नहीं चाहते कि अपराधी पकड़ा जाए! कानून, गुमनाम, मेरा साया, इत्तेफाक, धुंध, अपराधी कौन, कब क्‍यों और कहां, खिलाड़ी, गुप्‍त, वह कौन थी, डिक्‍टेटर व्‍योमकेश बक्‍शी, मनोरमा सिक्‍स फीट अंडर, भूल भुलैया, एक चालीस की लास्‍ट लोकल, बदला, जानी गद्दार, अगली, तलवार, अंधाधुन, क़त्ल, दृश्‍यम और 'कहानी' ऐसी ही फ़िल्में थीं, जिनका जादू दर्शकों पर जमकर चला। 
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