Friday, April 16, 2021

फिल्म संगीत में लोक संगीत का तड़का

- हेमंत पाल

   भारतीय समाज में संगीत और गीत के बिना कोई कार्यक्रम, कोई रीति-रिवाज पूरी नहीं होती। जनम से लेकर मरण तक की सारी परम्पराएं और सामाजिक कार्य ऐसे ही गीत और संगीत से सराबोर हैं। इस मस्ती में मन को सराबोर करने में लोक संगीत का बड़ा हाथ है। यह लोक संगीत हमारे जीवन में रंग भरते हैं, दिल को छूते हैं और आंखें भी नम करते हैं। कोई और संगीत इसकी जगह नहीं ले सकता। यहाँ तक कि देशभक्ति का जज्बा भी लोक संगीत से ज्यादा कोई नहीं जगा सकता! दुनियाभर में हिंदी फिल्मों की पहचान का एक बड़ा कारण उसका संगीत भी है। गीत और संगीत का संयोजन फिल्मों का अभिन्न अंग होता है। कहानी के बीच में गीतों को इस तरह पिरोया जाता है कि सब एकाकार लगता है। हम सनातन हैं, हमारी संस्कृति सनातन हैं, हमारा राष्ट्र सनातन है और हमारे लोक गीतों से और लोक संगीत का भी पता चलता है। रामचरित मानस लोकगीत है, जिसे गोस्वामी तुलसीदास ने सुंदर तालबद्ध तरीके से संजोया है। यही कारण है कि सदियों से इसे सभी भारतीय वाल्मीकि रामायण से अधिक गाते और सुनते हैं।
     हिंदी सिनेमा ने सिर्फ तुकबंदी वाले गीतों को ही फिल्म की कहानी में नहीं पिरोया, लोकगीतों को भी उसी शिद्दत से अपनाया है! लोक संगीत हमारी लोक संस्कृति का एक सुरीला हिस्सा है! पर्व, तीज, त्यौहार और रस्मों-रिवाजों में गाए और बजाए जाने वाले गीतों को जब फिल्मों ने अपनाया तो वे अपनी सीमाओं से निकलकर पूरी दुनिया में छा गए। इस तरह लोक संगीत को देश के कोने-कोने तक पहुँचने का मौका मिला। इसका श्रेय हमारे संगीतकारों को दिया जा सकता है, जो देश के अलग-अलग प्रांत और पृष्ठभूमि से आए हैं। फिल्मों में कई बरसों से अलग-अलग प्रांतों का लोक संगीत बज रहा है। जिस संगीतकार को मौका मिला, उसने अपने इलाके के लोक संगीत को भुनाया! लेकिन, सबसे ज्यादा लोकप्रियता मिली पंजाब, उत्तर भारत, राजस्थान और गुजरात के लोक संगीत को! ओपी नैयर, रवि, जीएस कोहली और इसके बाद में पंजाब की पृष्ठभूमि से आए संगीतकारों ने वहाँ के लोक गीतों को फ़िल्मी कलेवर में पिरोया!
   ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि लोक संगीत ने ही हमारी संस्कृति को आजतक सहेजकर रखा है। हमारी जड़ों को ज़मीनी खाद इन्ही लोक गीतों से मिल रही है। क्योंकि, इनमें अजब सी मस्ती होती है, जो दिल को प्रफुल्लित कर देती है। होली पर कई गीत गाए जाते हैं, पर बात 'सिलसिला' के लोकगीत 'रंग बरसे भीगी चुनर वाली रंग बरसे' के बिना पूरी नहीं होती। अमिताभ के ही गाए 'बागबान' के गीत 'होली खेलत रघुबीरा अवध में होली खेलत रघुबीरा’ भी उतना ही पसंद किया जाता है। 'गोदान' के गीत 'होली खेलत नंदलाल बिरज में होली खेलत नंदलाल' को कोई भूल नहीं सकता! वी शांताराम की फिल्म 'नवरंग' के गीत 'अरे जा रे हट नटखट न खोल मेरा घूँघट' का जादू भी आज तक बरक़रार है। वहीं 'गोदान' का गीत 'पिपरा के बतवा सरीखे मोर मानव के हियरा में उठत हिलोर' नायक के मन में अपने गाँव की हूक जगाता है, अपने गाँव की सोंधी सुगंध को याद कराता है। वैसे ही जैसे 'मेरे देश में पवन चले पुरवाई ओ मेरे देश में' कराता है।
     'मेरा रंग दे बसंती चोला मेरा रंग दे चोला' पंजाब का बच्चा-बच्चा गाता है, होली में गाते हुए नाचता है। इस लोक संगीत को और सुर देने की कोशिश एआर रहमान ने की! लेकिन, वे उसकी आत्मा नहीं जगा पाए, जो जमीन से जुड़ी लाल ने जगाई थी। कौन सा ऐसा व्यक्ति है जो 'ए मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन, तुझपे दिल कुर्बान' पर अपनी आँखें नम न कर ले। खासकर यदि वह अपने वतन से दूर है तो! क्योंकि, यह गीत उसके पास उसके देश की मिट्टी की सुगंध लेकर आता है। ये लोक संगीत की ही तरंग है कि नौशाद एक ही फिल्म में ठेठ भोजपुरी में सुनाते हैं 'नैन लड़ गई हैं तो मनवा मा खटक होई बे करी' तो उसी नायक से पंजाबी ताल पर भी गँवा देते हैं 'उड़े जब जब जुल्फें तेरी' और किसी दर्शक को यह बात खटकती भी नहीं। आज दशकों बाद भी ये दोनों गाने हमें आनंदित करते हैं। 
    इधर, कल्याणजी-आनंदजी, इस्माइल दरबार और संजय लीला भंसाली ने गुजरात के लोक संगीत की अजब मिठास घोली है! गरबा और डांडिया इसी गुजराती लोक संगीत का हिस्सा है। फिल्मों में गुजराती लोक संगीत की शुरुआत का श्रेय कल्याणजी-आनंदजी को दिया जाता है। ‘सरस्वतीचंद्र’ में लोक धुन पर बना गीत ‘मैं तो भूल चली बाबुल का देस' फिल्म की जान बन गया था। उन्हें इस गीत की रचना पर राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। गुजराती लोक धुन पर ही उन्होंने ‘जौहर महमूद इन हाँगकाँग’ में 'हो आयो-आयो नवरात्रि त्यौहार हो अंबे मैया तेरी जय-जयकार' गीत बनाया, जो आज भी सुनाई देता है। गुजरात के संगीत की लोकप्रियता ने इसे सिनेमा संगीत में ऊँचा स्थान दिलाया! उत्तर भारत की लोक धुनों का भी फिल्मों में जमकर उपयोग हुआ! 'सिलसिला' का होली गीत ‘रंग बरसे भीगे चुनरवाली रंग बरसे‘ और 'लम्हे' का ‘मोरनी बागा में बोले आधी रात को’ अपने माधुर्य के कारण दिल के अंदर तक उतर जाता है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने भी 'दिल्ली-6' में छत्तीसगढ़ का लोकगीत शामिल किया था 'सैंया छेड़ देवे, ननंद चुटकी लेवे' जिसे काफी पसंद किया गया!
     लोक संगीत इस तरह का संगीत है, जो हाथ दर हाथ आगे बढ़ता रहा। वह कभी किसी की मिल्कियत नहीं होता! नदी के पत्थर की तरह लोक संगीत लुढ़कता रहा, बहता रहा और खूबसूरत आकार में ढलता रहा। यही लोकगीत की खासियत भी है! फिल्मों ने इनकी पहचान को स्थाई जरूर बना दिया! इसलिए जब तक हिंदी फिल्मों में संगीत रहेगा, लोक संगीत को उससे अलग करके नहीं देखा जा सकता! ऐसा नहीं कि आज के ज़माने के संगीतकार लोक संगीत और गीत से दूर गए! उनके पास शायद जड़ों से जुड़ी धुनों के बिना सदाबहार गीत देना मुश्किल हैं, वर्ना इतनी सुपरहिट फिल्में लोक संगीत से ही नहीं पहचानी जाती। संजय लीला भंसाली की 'पद्मावत' घूमर गीत के बिना अधूरी है। 'इंग्लिश विंगलिश' की भावुकता बिना ‘नवराई माझी लाडा ची’ दिल को पकड़ न पाती। 'माचिस' को याद करते ही ‘चप्पा चप्पा चरखा चले’ अपने आप होंठों पर आ जाता है। 'मिशन कश्मीर' का गीत 'भुंबरो भुंबरो श्याम रंग भुंबरो’ के बिना पूरी नहीं लगती। 'हम दिल दे चुके सनम' में 'निम्बुडा निम्बुडा' ही नायिका की भोली अल्हड़ता को उभार सकता है। इतना ही नहीं, फिल्म न चले लेकिन उसके लोकगीत उसे हमारे यादों में बसा देते हैं। चाहे वह 'दिल्ली-6' का 'ससुराल गेंदा फूल' हो या 'दुश्मनी' का 'बन्नो तेरी अखियाँ सुरमेदानी' गीत हो! 'तीसरी कसम' यदि अमर हुई है, तो वह भी उसके लोक संगीत के कारण। फिल्म संगीत से लोक संगीत की हिस्सेदारी को अलग कर दिया जाए, तो सुरों की ये दुनिया विधवा की जिंदगी की तरह बेरंग हो जाएगी।  
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