Sunday, April 4, 2021

ज्यादा नहीं डराती, हिंदी की डरावनी फ़िल्में

- हेमंत पाल

   हिंदी फिल्मों ने काफी हद तक हॉलीवुड की फिल्मों की नक़ल कर ली और मुकाबला भी किया! लेकिन, डरावनी फिल्मों के मामले में हिंदी सिनेमा बहुत पीछे है। सौ साल से ज्यादा पुराने हिंदी सिनेमा के खाते में दस फ़िल्में भी नहीं है, जिन्होंने दर्शकों को डराकर मनोरंजन किया हो! जबकि, हॉलीवुड की कुछ फ़िल्में ऐसी हैं, जो दर्शक अकेले देखने से बचते हैं। हिंदी में हर साल कई फिल्में बनती हैं, पर उनमें डर को विषय बनाकर बनाई जाने वाली फ़िल्में इक्का-दुक्का होती है! पर, इन्हें देखकर डर नहीं लगता! 70 और 80 के दशक की फिल्मों में डरावनी फिल्मों का मतलब होता था भूत! लेकिन, समय के साथ हिंदी में बनने वाली हॉरर फिल्मों की गुणवत्ता में कुछ सुधार हुआ है। 'स्त्री' जैसी कुछ फ़िल्में जरूर आईं, जिन्होंने दर्शकों को भयभीत भी किया और आखिरी दृश्य तक बांधकर भी रखा! 
    हिंदी फिल्मों के इतिहास के पन्नों को पलटा जाए, तो मधुबाला की फिल्म 'महल' (1949) कमाल अमरोही की बतौर निर्देशक पहली फिल्म थी। इस फिल्म को हिंदी की पहली डरावनी फिल्म भी कहा जाता है। लेकिन, इसमें दर्शकों को डराने की कोशिश नहीं की गई, फिल्म की कहानी जरूर डर से जुड़ी थी। इस फिल्म को खेमचंद प्रकाश के संगीत ने ज्यादा रहस्यपूर्ण और डरावना बनाया था। इसके 25 साल बाद 1975 में बनी अमेरिकी फिल्म 'द इंकार्नेशन ऑफ़ पीटर प्राउड' की कहानी 'महल' से प्रेरित थी। 60 के दशक में दो ऐसी फ़िल्में आई, जिन्हें डरावनी कहा गया। ये थीं वहीदा रहमान और विश्वजीत की 'बीस साल बाद' (1962) और 'कोहरा' (1964) इन दोनों फिल्मों के निर्माता, निर्देशक, लेखक, नायक और नायिका और यहाँ तक कि संगीतकार तक एक ही थे। ;बीस साल बाद' आधी रात में भटकती एक रहस्यमयी महिला की कहानी थी। इसे हॉलीवुड के कॉनन डॉयल की फ़िल्म 'द हाउंड ऑफ़ बास्केरविल्ले' से प्रेरित बताया जाता है। जबकि, 'कोहरा' डेफ्नी डू मॉरिएर के उपन्यास रेबीका पर बनी थी। इस फ़िल्म के क्लाइमेक्स की बहुत तारीफ हुई थी। ये दोनों फ़िल्में हेमंत कुमार ने बनाई थी और दोनों फिल्मों की कामयाबी में इसके संगीत का बड़ा हाथ था, जिसे हेमंत कुमार ने ही दिया था। 
    1965 की फिल्म 'भूत बंगला' महमूद की लिखी, निर्देशित फिल्म थी। इसमें मुख्य भूमिका भी महमूद ने ही निभाई थी। इस फिल्म में एक भयानक संगीत थ्रिलर बनाया गया था जो गानों पर नाचते हुए भूतों के साथ था! इसी साल (1965) में ही आई राजा नवाथे की फिल्म 'गुमनाम' भी डराने वाली फिल्म थी। इसमें सात लोगों को हवाई जहाज से एक वीरान द्वीप में उतार दिया जाता है और वहां एक-एक करके उनकी हत्या होने लगती है। मनोज कुमार फिल्म के नायक थे और शंकर-जयकिशन का संगीत फिल्म की जान था। इसके बाद लम्बे अरसे तक ऐसी फ़िल्में परदे से नदारद रही। राजकुमार कोहली ने रीना रॉय और रेखा की 'नागिन' (1976) और मल्टी स्टारर 'जानी दुश्मन' (1979) बनाई। इन दोनों फिल्मों में सितारों की भीड़ जुटाकर उन्होंने गज़ब के रहस्य का माहौल बनाया। दोनों फिल्मों में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का संगीत था, जो काफी पसंद किया गया। 1980 में आई 'फिर वही रात' एक रहस्यमय थ्रिलर फिल्म थी, जिसे डैनी डेन्जोंगपा ने निर्देशित किया था। राजेश खन्ना अभिनीत इस फिल्म में किम यशपाल ने एक महिला की भूमिका निभाई थी, जो गंभीर बुरे सपने से पीड़ित होती है और इलाज की तलाश में है।
   रामगोपाल वर्मा ने जो चंद देखने लायक फिल्म बनाई, उनमें एक 'रात' (1992) को गिना जा सकता है। इस फ़िल्म में एक बिल्ली मर जाती है, जिसे एक लड़की की आत्मा अपने वश में कर लेती है। इसी निर्देशक की 2003 में आई फिल्म 'डरना मना है' 6 छोटी कहानियां थी, जो बेहद डरावनी हैं। उर्मिला मातोंडकर की 2003 में आई फिल्म 'भूत' भी रामगोपाल वर्मा ने बनाई थी। फिल्म का संगीत दर्शकों की रूह कंपा देता था। साउंड इफ़ेक्ट के कारण ये फिल्म अपने मकसद में कामयाब हुई थी। लेकिन, विद्या बालन और अमीषा पटेल की फिल्म 'भूल भुलैया' (2007) प्रियदर्शन की ऐसी फिल्म थी, जो अपने साइकोलॉजिकल थ्रिलर विषय के कारण दर्शकों को डराने में ज्यादा कामयाब रही। रामगोपाल वर्मा निर्देशित फिल्म 'फूँक' 2008 में रिलीज़ हुई थी। काफी कम बजट में बनी फिल्म ने अच्छी कमाई की थी। यह फिल्म इतनी डरावनी थी की डायरेक्टर ने एलान किया था कि फिल्म को अकेले थिएटर में देखने पर 5 लाख रुपए का इनाम दिया जाएगा। 2018 की फिल्म 'परी' अनुष्का शर्मा ने बनाई और उन्होंने ही इसमें काम भी किया था।  
   विक्रम भट्ट और मुकेश भट्ट ने भी डरावनी फिल्मों में हाथ आजमाया और 2002 में 'राज' बनाई। इसमें कोई स्पेशल इफ़ेक्ट नहीं था। सिर्फ़ कथानक और बिपाशा बसु की एक्टिंग ने पूरी फिल्म को डरावना बना दिया था। यह हॉलीवुड फिल्मकार मिशेल पफेर की फिल्म 'व्हाट लाइज बिनीथ' से प्रभावित थी। बाद में इसके सीक्वल भी बने। भट्ट कैम्प ने 2008 में '1920' नाम से फिल्म बनाई थी। ये फिल्म एक सुनसान हवेली, एक रहस्यमय चौकीदार और एक नए शादी-शुदा जोड़े के कथानक वाली फिल्म थी। इसमें न ख़ास ग्राफ़िक्स थे, न स्पेशल साउंड इफ़ेक्ट्स! फिर भी ये बेहद डरावनी फ़िल्म थी। 2010 में विक्रम भट्ट ने 'शापित' बनाई थी। इसमें उन्होंने डर का जो माहौल बनाया, वो अपनी कोशिश में सफल भी रहा। किरदार, लाइट, साउंड इफ़ेक्ट्स और अंधेरे के आस-पास बनी ये फ़िल्म, भट्ट कैम्प की दूसरी फ़िल्मों की तरह दर्शकों को डराने में कामयाब रही। 2013 की फिल्म 'हॉरर स्टोरी' के नाम से ही उसके डरावने होने का अहसास हो जाता है। फिल्म में कुछ दोस्तों का प्लान बनता है कि वो एक रात किसी भुतहा होटल में बिताएंगे। लेकिन, होटल जाने के बाद उनकी जिंदगी बदल जाती है। 2002 में आई विशाल भारद्वाज की फिल्म 'मकड़ी' ने भी बहुत डराया। इस फिल्म में चुड़ैल का किरदार शबाना आजमी ने निभाया था और अपनी एक्टिंग से उन्होंने दर्शकों को जमकर डराया। 2018 में आई 'स्त्री' एक हॉरर-कॉमेडी फिल्म है। अमर कौशिक की ये फिल्म गुदगुदाएगी भी है और डराती भी है। 
 
     हिंदी फिल्मों में डर को विषय बनाने और उसे कामयाब बनाने में सात भाइयों के बैनर 'रामसे ब्रदर्स' का बड़ा हाथ रहा है। रामसे ब्रदर्स ने परदे पर ख़ौफ़ का ऐसा माहौल बनाया कि वे इसके ब्रांड बन गए। 70 और 80 के दशक में इस बैनर ने क़रीब 45 फ़िल्में बनाईं। उस दौर में रामसे ब्रदर्स ने डर को अलग ही मुकाम तक पहुंचाया और अपनी पहचान बनाई! उन्होंने पहली फिल्म बनाई 'नन्ही मुन्नी लड़की' जो सफल नहीं हुई, मगर इस फ़िल्म के एक सीन जिसमें पृथ्वीराज कपूर एक भूत का मास्क पहनकर लड़की को डराते हैं, खूब वाहवाही बटोरी। इस एक सीन ने उन्हें भुतहा और डरावनी फ़िल्म बनाने की और प्रेरित किया। फिर उन्होंने बनाई 'दो गज़ ज़मीन के नीचे!' इस फिल्म ने तहलका मचा दिया। इस फ़िल्म की सफलता के बाद रामसे ब्रदर्स ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने तय किया कि अब वे सिर्फ़ डरावनी फ़िल्म ही बनाएंगे। फिर तो उन्होंने डरावनी फिल्मों की झड़ी लगा दी! दरवाज़ा, गेस्ट हाउस, पुराना मंदिर, पुरानी हवेली, बंद दरवाज़ा और 'वीराना' जैसी कई सफल फ़िल्में बनाईं! लेकिन, अब तो दर्शकों ने ऐसी फिल्मों से डरना बंद कर दिया। शायद यही कारण है कि ऐसी फ़िल्में बनना भी बंद हो गई!  
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