Thursday, June 10, 2021

पोस्टर के कोने से झांकती है पूरी फिल्म!

- हेमंत पाल

   स सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि फ़िल्में सिर्फ प्रचार से चलती हैं। ये काम पहले भी होता था और आज भी होता है! लेकिन, वक़्त के साथ प्रचार का तरीका और संसाधन बदलते गए। पहले फिल्म के प्रचार पर इतनी मेहनत नहीं होती थी, जितनी आज होती है। तब उतनी प्रतिद्वंदिता भी नहीं थी। आज तो फिल्म की परिकल्पना से उसके रिलीज होने और उसके बाद तक दर्शकों को आकर्षित करने की कोशिश चलती है। लेकिन, एक वक़्त था जब फिल्मों के प्रचार का सबसे सशक्त माध्यम उसका पोस्टर होता था। तब ये दर्शकों  सूचना मात्र हुआ करता था। उसे देखकर दर्शक अनुमान लगाता था कि फिल्म के कलाकार कौन हैं उसके कथानक आधार क्या है। उस वक़्त प्रचार का कोई माध्यम नहीं था, बस पोस्टर ही ऐसी बेजान चीज थी जो बोलती थी। यानी पोस्टर तब भी महत्वपूर्ण थे और आज भी हैं। ये पोस्टर कला का भी एक हिस्सा हैं। दर्शकों के साथ संवाद का माध्यम होने के साथ इनमें उस फिल्म का इतिहास भी छुपा हैं। फिल्म के 100 दिन पूरे होने, सिल्वर जुबली या गोल्डन जुबली होने पर अलग से पोस्टर छापकर लगाए जाते रहे हैं। 
      मूक फिल्मों से बोलती फिल्मों के शुरूआती दिनों तक हाथों से पोस्टर बनाए जाने लगे थे। फिर उन्हें छपवाकर सिनेमाघरों और शहर के भीड़भाड़ वाले इलाकों में चिपकाया जाता। शुरुआती समय से ही फिल्मों के प्रचार में पोस्टर का सबसे बड़ा हाथ होता है, यही कारण है कि आज प्रसार के पचासों तरीकों के बावजूद फिल्मी पोस्टरों का प्रचलन बंद नहीं हुआ, बदल जरुर गया। लेकिन, अब हाथ से बनाए जाने वाले पोस्टरों का चलन लगभग बंद  हो गया और उसकी जगह मल्टीमीडिया तकनीक से छपे होर्डिंग ने ले ली। आज फिल्मी पोस्टरों में कम्प्यूटर से डिजाइन किए विनाइल पोस्टरों का उपयोग बढ़ा है। पोस्टर बनाने वालों की भी एक अपनी अलग दुनिया थी! वे फिल्म के मूड को दर्शकों तक चंद चेहरों के जरिए पहुंचा देते थे। दुनियाभर में अपनी पैंटिंग के लिए विख्यात एमएफ हुसैन ने भी जीवन के संघर्ष के दिनों में फिल्मी पोस्टर बनाए थे।
   फिल्मों को पोस्टर के जरिए प्रचारित करने का चलन कब शुरू हुआ, इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता। लेकिन, सबसे पुराना उपलब्ध पोस्टर 1924 में बनी मराठी फिल्मी 'कल्याण खजाना' का मिला है। मराठा शासक शिवाजी के जीवन पर बनी इस फिल्म के लिए फिल्म के निर्देशक बाबूराव पेंटर ने पहली बार पोस्टर बनाया था। उनका पूरा नाम बाबूराव कृष्णाराव मिस्त्री था और वे थिएटर कंपनियों के लिए सीन पेंट किया करते थे, उनका काम ऐसा था तो उनका उपनाम 'पेंटर' पड़ गया। वे पहले फिल्म निर्देशक थे, जिन्होंने प्रचार के लिए फिल्मों के पोस्टर की जरूरत को समझा। बाद में दूसरे निर्माता-निर्देशकों ने भी पोस्टर का महत्व और दर्शकों पर उसके प्रभाव को समझा और पोस्टर बनवाना शुरू किए। बाद में यही फिल्मों के प्रचार का मुख्य तरीका बन गया।
     ये भी कहा जाता है कि बाबूराव पेंटर ने 1923 में अपनी फिल्म 'वत्सलाहरण' के प्रचार के लिए पहली बार पोस्टर बनाया था। पोस्टर के जरिए फिल्मों के प्रचार में शुरुआती योगदान बाबूराव पेंटर का ही रहा है। वे सिर्फ फिल्मों के पोस्टर ही नहीं बनाते थे, फिल्मों की कहानी और कलाकारों के फोटोयुक्त प्रचार पुस्तिकाएं भी बांटा करते थे। ऐसी पुस्तिकाओं का चलन बाद में बहुत बढ़ गया था। 'आलम आरा' (1931) के लिए बनाया जुबैदा का उनका पोस्टर बहुत चर्चित रहा था। 1913 में दादा साहेब फाल्के ने पहली भारतीय फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' का निर्माण और निर्देशन किया था। लेकिन, इसका कोई पोस्टर नहीं, प्रदर्शन की सूचना देने वाला विज्ञापन था। डेढ़ घंटे की इस फिल्म के रोज चार शो होते थे और दोगुना प्रवेश शुल्क लिया गया था। तब अखबारों में सूचना जैसे विज्ञापन के साथ हैंडबिल बांटे जाते थे। क्योंकि, फिल्म दर्शकों तक पहुंचने का यही एक साधन था। 
     इन पोस्टरों में उपयोग किए जाने वाले बहुरंग और नायक, नायिका और खलनायक के चेहरे के भाव फिल्म की कहानी का अहसास भी करा देते थे। इसके अलावा कई बार कॉमेडियन को भी इन पोस्टर में जगह मिला करती थी! लेकिन, ये सम्मान जितना महमूद और जॉनी वॉकर को जितना मिला, उतना किसी और हास्य कलाकार को नहीं! चटख रंग में हीरो का अंदाज और हीरोइन के जलवे दिखाए जाते थे, तो खलनायक का चेहरा क्रूरता से भरा होता था। उसकी आँखों से ललामी झलकती थी! यदि फिल्म डाकुओं की हुई (मेरा गांव-मेरा देश, कच्चे धागे, गंगा की सौगंध) तो हीरो के हाथ में बंदूक और डांस करती हीरोइन छाई रहती थी! पोस्टर से दर्शकों को आकर्षित करने में पेंटर अपनी सारी कलाकारी झौंक देते थे। फिल्मों के पोस्टर में कलाकारों के हर मनोभाव व्यक्त करने के लिए अलग-अलग रंगों का उपयोग किया जाता रहा है। यदि फिल्म प्रेम कहानी हो और रोमांटिक भावना दर्शाना हो, तो गुलाबी रंग ज्यादा उंडेला जाता था। खलनायक का क्रूर चेहरा नीले रंग से रंगा होता था और लाल होंठ उसकी क्रूरता को और गाढ़ा करते थे। 
   अमिताभ बच्चन को एंग्री यंगमैन बनाने में  पोस्टर का बड़ा हाथ रहा है। दर्शक पोस्टर पर अमिताभ का गुस्सैल अंदाज देखकर ही टिकट खरीदते थे। लेकिन, सुपरहिट फिल्म 'जंजीर' के पोस्टर में अमिताभ का चेहरा जया भादुड़ी से बहुत छोटा था। इस फिल्म के पोस्टर में प्राण, अजीत और जया इसलिए छाए थे, क्योंकि वे अमिताभ से बड़े कलाकार थे। लेकिन, 'दीवार' तक आते-आते अमिताभ का कद शशि कपूर से ज्यादा बड़ा हो गया। उनके पोस्टर के अलावा कटआउट भी लगने लगे थे। इन फ़िल्मी पोस्टर की ही महिमा कही जाना चाहिए कि सलीम-जावेद से पहले किसी स्क्रिप्ट राइटर का नाम कभी पोस्टर पर नहीं आता था। लेकिन, सलीम-जावेद की लोकप्रियता जा आसमान छूने लगी तो कलाकारों के साथ उनका नाम भी दिया गया। ये बात भी अविश्वसनीय भले लगे, पर सच है कि 'मदर इंडिया' के सुपरहिट होने के पीछे इस फिल्म के पोस्टर का बड़ा योगदान था। इस फिल्म के प्रचार के लिए के आसिफ ने कुछ नहीं किया था। लेकिन, फिल्म का एक पोस्टर फिल्म की अपार सफलता  कारण बन गया। इस पोस्टर में खुद को बैल की जगह जोतकर खेत जोतती और पीड़ा से कराहती नरगिस को दिखाया था। इस पोस्टर को देखने के बाद शायद ही कोई खुद को फिल्म देखने से रोक पाया होगा। फिल्म के पोस्टर ने एक औरत के संघर्ष को जिस तरह प्रदर्शित किया, वो पहले कोई नहीं कर पाया था।   
       फिल्मी पोस्टर फिल्म का प्रचार तो करते है, पर कभी ये विवाद भी खड़े करते हैं। 'क्रिमिनल' फिल्म के पोस्टर में नायिका की हत्या को लेकर पोस्टरों में ऐसा माहौल बनाया गया था कि उसकी वास्तव में हत्या हो गई। शाहरुख़ खान की फिल्म 'रा-वन' के एक पोस्टर को धूमधड़ाके साथ प्रदर्शित किया गया था। लेकिन, उसके बारे में कहा गया कि वो हॉलीवुड की एक फिल्म की हूबहू नकल है। फिल्म 'हेट स्टोरी' के अश्लील पोस्टर ने भी विवाद खड़ा किया था। प्रोड्यूसर एकता कपूर की वेब सीरीज 'हिज स्टोरी' के पोस्टर पर भी विवाद हुआ। सुधांशु सरिया ने एकता कपूर पर पोस्टर चोरी का आरोप लगाया। उनका कहना था कि ये उनकी फिल्म 'लोएव' के पोस्टर की नक़ल है। इस विवाद के बाद ऑल्ट बालाजी ने पोस्टर को डिलीट कर दिया था। डायरेक्टर अमजद खान की फ़िल्म 'गुल मकई' को लेकर भी फ़तवा जारी हुआ था। पाकिस्तानी एजुकेशन एक्टिविस्ट मलाला यूसुफजई पर आधारित इस फ़िल्म के पोस्टर पर धार्मिक ग्रंथ के अपमान का आरोप लगा। नोएडा के एक मुस्लिम धर्मगुरु ने इस अपमान को लेकर फ़तवा जारी किया था। पोस्टर में मलाला को हाथ में एक किताब लिए दिखाया गया, दूसरी तरफ ब्लास्ट का सीन है। उन्हें लगता है कि यह एक धार्मिक ग्रंथ है। 
   समय के साथ पोस्टर तकनीक में भी अंतर आता रहा। शुरुआत से साठ के दशक तक पोस्टर हाथ से बनते रहे। उसके बाद पोस्टर बनाने की कट-पेस्ट तकनीक लोकप्रिय हुई। इसमें पोस्टर बनाने वाले फोटो से कलाकारों की छवि काटकर उसे कोलाज बनाकर चिपका देते थे। इसके बाद पोस्टर विधा पर छपाई तकनीक ने ऐसा जलवा दिखाया कि पोस्टर सिर्फ चेहरों तक सीमित नहीं रहे। कंप्यूटर डिजाइनिंग ने इसे आसान और प्रभावी बना दिया। जो पोस्टर कलाकार मास्टरपीस पोस्टर बनाने माहिर थे, वे इतने लोकप्रिय हो गए कि फिल्मकार उन्हें कोई भी कीमत देने को तैयार हो जाते। इन पोस्टरों की कलात्मकता को इतना पसंद किया गया कि देश सबसे बड़े आर्ट कॉलेज मुंबई के जेजे स्कूल आफ आर्टस में इन्हें पढाया जाने लगा। 
--------------------------------------------------------------------------------------------------

No comments: