- हेमंत पाल
देश के गृह मंत्री और बीजेपी की चुनावी रणनीति के शिल्पकार अमित शाह 22 अप्रैल शुक्रवार को भोपाल आ रहे हैं। वे मुख्य रूप से यहाँ जंबूरी मैदान में तेंदूपत्ता संग्राहक सम्मेलन में शामिल होंगे। देखने और कहने में ये एक औपचारिक सरकारी कार्यक्रम है, पर इसके पीछे के राजनीतिक मंतव्य कुछ अलग हैं। इसके पीछे एक तयशुदा चुनावी रणनीति है। तेंदूपत्ता संग्राहक सम्मेलन इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जिसमे देश की सबसे बड़ी पार्टी के सबसे ताकतवर नेता शामिल हों! लेकिन, यदि वे इसमें शामिल हो रहे हैं, तो इसके पीछे सिर्फ अगले विधानसभा में बीजेपी के लिए रास्ते के कांटे हटाना है। तेंदूपत्ता संग्रहण के काम से विंध्य और बुंदेलखंड के कुछ इलाकों के आदिवासी ही जुड़े हैं, जिन पर बीजेपी ने नजर गड़ा रखी है।
अमित शाह के इस कार्यक्रम को 2023 के विधानसभा चुनाव से पहले आदिवासियों को लुभाने की एक बड़ी कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। इसलिए कि 2018 के चुनाव में बीजेपी को बड़ी चोट आदिवासी सीटों से ही मिली थी, यही कारण था कि वो सत्ता पाने से चूक गई थी! बाद में जो हुआ, वो एक अलग कहानी है। बीजेपी नहीं चाहती कि उसे फिर आदिवासी वोटरों से कोई झटका मिले! इसलिए इस बड़े कार्यक्रम के जरिए वे आदिवासी वोटरों पर अपनी पकड़ मजबूत करना चाहती है। प्रदेश की 230 विधानसभा सीटों में से 87 विधानसभा सीटों पर आदिवासी वोट सीधा असर डालता हैं। 47 सीटें तो आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं ही! ये एक बड़ा आंकड़ा है, जो सरकार बनने या समीकरण बिगाड़ने में असर डालता है।
आदिवासी मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के नजरिए से गृह मंत्री अमित शाह के इस दौरे को इसीलिए गंभीरता से देखा जा रहा है। क्योंकि, प्रदेश के मालवा-निमाड़, महाकौशल और विंध्य ऐसे इलाके हैं, जहां आदिवासियों की संख्या सर्वाधिक है। इसके अलावा बुंदेलखंड ऐसा इलाका है जहां तेंदूपत्ता संग्रहण के काम से आदिवासी समुदाय लगा है। भविष्य की राजनीति के हिसाब से देखा जाए, तो 2023 के चुनाव में जिस भी पार्टी को आदिवासी वर्ग का साथ मिलेगा, उसके लिए सत्ता की सीढ़ी आसान हो जाएगी। 2013 के विधानसभा चुनाव में आदिवासी वोटरों ने बीजेपी का साथ दिया था। यही कारण है कि तब बीजेपी ने 87 सीटों में से 59 सीटों पर जीत का झंडा लहराया था। लेकिन, 2018 के विधानसभा चुनाव में यह वर्ग बीजेपी से छिटक गया और उसे 87 में से सिर्फ 34 सीटों पर जीत मिली। इस बार बीजेपी कोई रिस्क लेना नहीं चाहती। अमित शाह अपने इस दौरे से आदिवासियों को पार्टी से फिर जोड़ने के अभियान को आगे बढ़ाएंगे। पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अब अमित शाह आदिवासी वर्ग को यह दर्शाने की कोशिश करेंगे कि बीजेपी ही आदिवासी समुदाय की सच्ची हितेषी है। ऐसे में अमित शाह अपनी भोपाल यात्रा दौरान सरकार की तरफ से कोई बड़ी घोषणा कर दें, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इसलिए कि यह पूरा आयोजन आदिवासियों पर ही फोकस है।
चुनाव रणनीति को हर स्तर से समझने वाले अमित शाह जानते हैं, कि चुनाव से पहले पार्टी कार्यकर्ताओं को भी तैयार करके उन्हें इलेक्शन मोड़ में लाना है। यही वजह है कि सात महीने में प्रदेश में यह उनका दूसरा दौरा है। वे पहले जबलपुर आए थे, अब भोपाल पहुंच रहे हैं। अमित शाह से पहले पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा भी इंदौर आए थे। माना जा रहा है कि प्रदेश में बीजेपी पूरी तरह से खुद को चुनाव के लिए तैयार करना चाहती है। बीजेपी का इतिहास भी है कि वो हमेशा चुनाव के लिए कमर कसकर तैयार रहती है। किसी भी चुनाव में उतरने से पहले वो सारे समीकरण भी परखती है। निश्चित रूप से बीजेपी की नजर में 2018 के चुनाव का वो सच नजर आया होगा, जिसमें आदिवासियों की नाराजगी दिखाई दी थी। बीजेपी उनकी इसी नाराजगी को दूर करने और अंतर को भरने की कोशिश में है। बीजेपी में अमित शाह को संगठन की रणनीति का जानकार माना जाता है।
जीत बरक़रार रखने की कोशिश
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को जो बड़ी जीत मिली, उसे अन्य राज्यों में भी बरक़रार रखना चाहती है। इसीलिए बीजेपी ने विधानसभा चुनावों के लिए अभी से कमर कस ली। 2023 के चुनाव को देखते हुए अमित शाह का ये दौरा काफी अहम है। इस बार मध्यप्रदेश में सत्ता पाने का सीधा मंत्र आदिवासियों को साधना है। पिछले साल नवंबर में नरेंद्र मोदी का इसी जंबूरी मैदान पर 'आदिवासी गौरव दिवस' में शामिल होना इसी चरण का पहला हिस्सा था। इस बीच मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी आदिवासियों को साधने का कोई मौका नहीं छोड़ा! भगोरिया मेलों में मुख्यमंत्री ने जमकर जश्न मनाया और आदिवासियों को खुश किया। अब इसे आगे बढ़ाने का काम अमित शाह करेंगे।
आदिवासी वोटर क्यों अहम
मध्य प्रदेश में 43 वर्गों में बंटे हुए करीब 2 करोड़ आदिवासी वोटर हैं। 2013 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 32 सीटें जीती थीं। कांग्रेस को 15 सीटें मिली थीं। लेकिन, 2018 के विधानसभा चुनाव हालात पलट गए और बीजेपी सत्ता से बाहर हो गई! क्योंकि, बीजेपी के खाते में सिर्फ 16 सीट आई थीं। जबकि, कांग्रेस ने 30 सीटों सीट हासिल की थी। 2018 में कांग्रेस की 15 साल के बाद सत्ता वापसी में आदिवासी वोट बैंक को ही बड़ी वजह माना जा रहा। बीजेपी 2023 के विधानसभा में भी सत्ता में बने रहने के लिए आदिवासी समीकरण पर फोकस कर रही है।
शिवराज ने भी कसर नहीं छोड़ी
आदिवासी राजनीति करने में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह भी पीछे नहीं रहे। इस बार के राज्य के बजट में भी आदिवासियों के लिए 26 हजार करोड़ का प्रावधान किया है। आदिवासियों के लिए प्रदेश में 'पेसा एक्ट' लागू किया। इंदौर में एक चौराहे का नाम टंट्या भील के नाम पर रखना भी उनके मिशन का ही हिस्सा था। 15 नवंबर को बिरसा मुंडा की जयंती को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने का ऐलान भी किया गया। भोपाल के हबीबगंज रेलवे स्टेशन का नाम भी गोंड रानी कमलापति के नाम पर रखा गया। होली से पहले भगोरिया के बहाने उन्होंने मालवा इलाके में चुनाव के लिए बिसात बिछाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसके बाद बड़वानी में आदिवासियों की रैली निकाली। सीधा सा मतलब है कि शिवराज सरकार आदिवासियों को अपने पक्ष में करने में कोई कसर नहीं छोड़ी! इससे पहले पिछले साल 18 सितंबर को जबलपुर में आयोजित शहीदी दिवस पर भी अमित शाह शामिल हुए थे। अब अमित शाह का भोपाल दौरा इसी मिशन पर केंद्रित है।
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