मध्यप्रदेश की विधानसभा में डॉ गोविंद सिंह की गिनती वरिष्ठ नेताओं में ही होती है। फ़िलहाल सदन में उनसे वरिष्ठ सिर्फ मंत्री गोपाल भार्गव ही हैं, जो 8वीं बार के विधायक हैं। इसके बाद गोविंद सिंह का ही नंबर आता है। वे भिंड जिले की लहार सीट से 7वीं बार विधानसभा चुनाव जीते। कांग्रेस में तो वे सबसे वरिष्ठ विधायक हैं ही! पार्टी ने उनके लम्बे राजनीतिक अनुभव, पार्टी के प्रति समझ और सरकार पर हमले की रणनीति को देखते हुए ही उन्हें नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी सौंपी है। अभी तक भले नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी कमलनाथ निभा रहे थे! पर, सदन में शिवराज सरकार को घेरने की पूरी रणनीति गोविंद सिंह ही बनाया करते थे। आज भी उनका मानना है कि कमलनाथ ने नेता प्रतिपक्ष का पद नहीं छोड़ा है! बल्कि, अपनी जिम्मेदारी बांटी है।
- हेमंत पाल
लम्बे अरसे बाद मध्य प्रदेश की कांग्रेस राजनीति में बड़ा बदलाव देखने को मिला। दो पद संभाल रहे कमलनाथ ने नेता प्रतिपक्ष पद छोड़ दिया। अब यह पद ग्वालियर-चंबल के कद्दावर नेता डॉ गोविंद सिंह को सौंपा गया है। लेकिन, गोविंद सिंह को नेता प्रतिपक्ष बनाए जाने के कई राजनीतिक मायने हैं। देखा जाए तो कांग्रेस ने एक तीर से कई निशाने साध लिए। ज्योतिरादित्य सिंधिया ग्वालियर-चंबल के सबसे बड़े नेता हैं और कांग्रेस से उनके जाने के बाद पार्टी को इस इलाके में ऐसे नेता की जरूरत थी, जो 2023 के विधानसभा चुनाव के लिहाज से भाजपा से हर स्तर पर मुकाबला कर सके। गोविंद सिंह उस काम में माहिर हैं! भाजपा भी जानती है कि वे कच्चे खिलाड़ी नहीं है।
दोनों ही पार्टियों के लिए 2023 का विधानसभा चुनाव प्रतिष्ठा का प्रश्न है। 2018 में कांग्रेस की सरकार बनने का कारण भी यही था कि इस अंचल से कांग्रेस ने अच्छी सीटें जीती थीं। कांग्रेस की सरकार गिरने का कारण भी यही अंचल था। इस क्षेत्र की 34 सीटें इस बार भी निर्णायक साबित होने वाली हैं। अब कांग्रेस को भाजपा और ज्योतिरादित्य सिंधिया से मुकाबले के लिए कांग्रेस को ऐसे ही आक्रामक नेता की जरूरत थी, जो न तो सिंधिया से दबे, न डरे और सामने आकर मुकाबला कर सके। गोविंद सिंह के राजनीतिक इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो वे हर पन्ने पर सिंधिया परिवार का मुखर विरोध करते दिखाई देंगे। सिंधिया जब कांग्रेस में थे, तब भी अगर उनके खिलाफ कोई बात होती तो गोविंद सिंह खुलकर उस पर प्रतिक्रिया देते थे। ऐसे में उनको डराने, झुकाने जैसी स्थिति तो शायद कभी नहीं बनेगी। इसलिए कहा जा सकता है कि अगले विधानसभा चुनाव में इस इलाके का चुनाव दिलचस्प होगा।
गोविंद सिंह 7वीं बार विधायक चुने गए है। वे दिग्विजय सिंह और कमलनाथ दोनों की सरकारों में मंत्री भी रहे। कांग्रेस संगठन में उन्होंने कई बड़ी जिम्मेदारियां निभाई। विधानसभा में भी कई समितियों में उन्होंने काम किया है। मध्यप्रदेश में उनकी पहचान कांग्रेस के बड़े नेता के तौर पर होती है। पार्टी के दिल्ली दरबार में भी उनकी सीधी पहुंच है। उन्हें दिग्विजय सिंह के करीबी माना जाता हो! लेकिन, वे सामंजस्य के भी बड़े खिलाड़ी हैं। कुछ लोगों का यह भी कहना है, कि गोविंद सिंह को नेता प्रतिपक्ष बनाए जाने के पीछे कहीं न कहीं दिग्विजय सिंह का दबाव रहा है। लेकिन, ऐसी कोई बात इस वरिष्ठ नेता का कद छोटा करती है। वे पार्टी में अपनी एक अहम् जगह रखते हैं और इसी की खातिर उन्हें यह पद मिला।
जब ये हालात बने कि अब कमलनाथ को नेता प्रतिपक्ष का छोड़ना पड़ेगा, तो कमलनाथ गुट की तरफ से यह दबाव बनाया जाने लगा कि किसी युवा विधायक को यह पद दिया जाना चाहिए। लेकिन, विधानसभा चुनाव की निकटता और भाजपा की आक्रामकता को देखते हुए गोविंद सिंह का चयन सबसे सही निर्णय रहा। गोविंद सिंह को नेता प्रतिपक्ष बनाने के फैसले के पीछे मूलतः दो कारण थे। एक तो उनका सीनियर होना और दूसरा उनका ग्वालियर-चंबल इलाके से ऐसा मुखर नेता होना जो सिंधिया के सामने ख़म ठोंककर खड़ा हो सकता है। उनके नाम पर न तो कमलनाथ को एतराज हुआ न दिग्विजय सिंह और न अरुण यादव को। गोविंद सिंह का नाम सबकी सहमति वाला नाम समझा जा सकता है।
ग्वालियर-चंबल इलाका ठाकुरों का है। कई सीटों पर यहां ठाकुर ही निर्णायक स्थिति में हैं। भाजपा के पास इस वर्ग से नरेंद्र सिंह तोमर है। वे बड़े नेता भले हों, पर ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में जाने के बाद उनका प्रभाव घटा है! भाजपा की तरफ झुकाव को लेकर ठाकुरों में भी असमंजस है। क्योंकि, सिंधिया और ठाकुरों में कभी आसान तालमेल संभव नहीं है। ऐसे में गोविंद सिंह का कांग्रेस में कद बढ़ना पार्टी के लिए फायदेमंद हैं। इसके अलावा गोविंद सिंह को चुनाव मैनेंजमेंट का भी अच्छा अनुभव है। सिंधिया बगावत के बाद 28 सीटों पर हुए उपचुनाव में कांग्रेस को कई सीटें जिताने में भी उनकी भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वे समय-समय पर पार्टी में अपनी उपयोगिता भी साबित कर चुके हैं।
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