- हेमंत पाल
सुमन कल्याणपुर का जब भी जिक्र आता है, लोगों को ये नाम अनजाना नहीं लगता। इसलिए कि इस सुमधुर गायिका ने कई गानों को अपनी सुरीली आवाज से सजाया है। इनमें ना तुम जानो न हम, दिल गम से जल रहा है, मेरे संग गा, मेरे महबूब न जा, जो हम पे गुजरती है और 'बहना ने भाई की कलाई में' आदि गाने शामिल हैं। इस गायिका के पिछड़ने का कारण ये रहा कि उनकी आवाज लता मंगेशकर से बहुत ज्यादा मिलती है। इतनी कि सुनने वाले को दोनों की आवाज में फर्क करना मुश्किल होता था। सुमन कल्याणपुर इस वजह से कई बार नाइंसाफी भी हुई। लता मंगेशकर की आवाज से सजा गाना 'ए मेरे वतन के लोगों' पहले सुमन कल्याणपुर ही गाने वाली थीं। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने हाल ही में नागरिक अलंकरण समारोह में वर्ष 2023 के लिए पार्श्व गायिका सुमन कल्याणपुर को पद्मभूषण से सम्मानित किया गया है।
फ़िल्मी दुनिया की रिवाज अजीब है। यहां एक बड़ी प्रतिभा के पीछे कई दूसरी प्रतिभाएं दब जाती है। ऐसे ही जब मंगेशकर बहनों का डंका बजता था, तब कई मधुर पार्श्व गायिकाओं को आगे बढ़ने का मौका नहीं मिला। ऐसी ही एक गायिका हैं, सुमन कल्याणपुर। उन्होंने अपने दौर के करीब सभी बड़े संगीतकारों के लिए गीत गाए। उनकी आवाज और गायकी का अंदाज काफी हद तक लता मंगेशकर से मिलता था। यही कारण रहा कि जब भी लता की किसी संगीतकारों या गायकों से अनबन हुई, तो उसका लाभ सुमन कल्याणपुर को मिला। लेकिन, उनके जीवन में एक घटना ऐसी घटी जो उन्हें आज भी कचोटती है। महाराष्ट्र के नांदेड़ में आयोजित 'आषाढी महोत्सव' के दौरान सुमन कल्याणपुर ने उस बात का खुलासा भी किया था। उन्होंने बताया था कि सन 1946 में पंडित नेहरू के सामने मुझे 'ए मेरे वतन के लोगों' गीत गाने का मौका मिला था। ये जानकर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। लेकिन, जब कार्यक्रम के दौरान गाना गाने के लिए मंच के पास पहुंची तो मुझे रोका गया और कहा गया कि वे इस गाने के बजाए आप दूसरा गाना गाएं। कल्याणपुर ने बताया था कि 'ए मेरे वतन लोगों' मुझसे छीन लिया गया। यह मेरे लिए बड़ा सदमा था। उन्हें यह बात आज भी चुभती है।
एक समय जब किसी मामले में मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर में अनबन हुई तो इसका लाभ सुमन कल्याणपुर को मिला। रफ़ी के साथ गाए उनके अधिकांश गीत कामयाब हुए। दिल एक मंदिर है, तुझे प्यार करते हैं करते रहेंगे, अगर तेरी जलवानुमाई न होती, मुझे ये फूल न दे, बाद मुद्दत के ये घड़ी आई, ऐ जाने तमन्ना जाने बहारां, तुमने पुकारा और हम चले आए, अजहूं न आए बालमा, ठहरिए होश में आ लूं तो चले जाईएगा, पर्वतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है, ना ना करते प्यार तुम्हीं से कर बैठे, रहें ना रहें हम महका करेंगे, इतना है तुमसे प्यार मुझे मेरे राजदार और 'दिले बेताब को सीने से लगाना होगा' जैसे गीत उसी दौर में बने थे।
अपनी गुमनाम जिंदगी के बावजूद सुमन कल्याणपुर का लता मंगेशकर से हमेशा अपनत्व बना रहा। उन्हें आज भी लता जी के गाने पसंद हैं। उनका कहना है कि लता दीदी की आवाज बहुत कोमल और मधुर थी। उनकी आवाज मतलब एक ऐसा स्वर जो हम सभी के लिए आदर्श था। आज वह स्वर नहीं रहा, इसलिए कुछ खोया-खोया सा लगता है। लेकिन, उनके गाने हमारे बीच आज भी हैं और हमेशा रहेंगे। मैं उनसे चार या पांच बार ही मिली, लेकिन जब भी मिली तो मुझे अपनापन महसूस होता था। शायद यही अपनापन वे भी महसूस करती थीं। हम एक-दूसरे का हाथ पकड़ बातें किया करते थे। लगता था जैसे लम्बे अरसे बाद दो सहेलियां मिल रही हों। हमारा एक ही डुएट गाना 'चांद के लिए' भी रिकॉर्ड हुआ था।'
सुमन कल्याणपुर का जन्म 28 जनवरी 1937 को ढाका में (उस वक्त भारत का हिस्सा था) सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के बड़े बाबू शंकरराव हेमाड़ी के यहां उनकी पहली संतान के रूप में हुआ। शंकर बाबू और उनकी पत्नी सीता ने अपनी बेटी का नाम सुमन रखा। सुमन के अलावा शंकर बाबू के यहां पांच संतानें और हुईं। बच्चों की बेहतर पढ़ाई-लिखाई का सपना संजोकर शंकर बाबू परिवार के साथ 1943 में मुंबई चले आए। उनके घर में कला और संगीत की तरफ सभी का झुकाव था। लेकिन, इतनी इजाजत नहीं थी कि सार्वजनिक तौर पर गाया जाए। पहली बार उन्हें 1952 में 'ऑल इंडिया रेडियो' पर गाने का मौका मिला। ये सुमन कल्याणपुर का पहला सार्वजनिक कार्यक्रम था!
इसके बाद 1954 में उन्हें मराठी फिल्म 'शुक्राची चांदनी' में गाने का मौका मिला। उन्हीं दिनों शेख मुख्तार फिल्म 'मंगू' बना रहे थे जिसके संगीतकार मोहम्मद शफी थे। मराठी गीतों प्रभावित होकर ही उन्हें 'मंगू' में तीन गीत रिकॉर्ड करवाए थे। किन्तु, न जाने क्या हुआ और 'मंगू' संगीतकार को बदल दिया गया। मोहम्मद शफी की जगह ओपी नैयर आ गए। उन्होंने सुमन कल्याणपुर के तीन में से दो गीत हटा दिए और सिर्फ एक लोरी 'कोई पुकारे धीरे से तुझे' ही रखी। 'मंगू' के फौरन बाद उन्हें इस्मत चुगताई और शाहिद लतीफ की फिल्म 'दरवाजा' में नौशाद के साथ पाँच गीत गाने का मौका मिला। 1954 में उन्हें ओपी नैयर के निर्देशन में बनी फिल्म 'आरपार' के हिट गीत 'मोहब्बत कर लो, जी कर कर लो, अजी किसने रोका है' में रफी और गीता का साथ देने का मौका मिला था। सुमन के मुताबिक इस गीत में उनकी गाई एकाध पंक्ति को छोड़ दिया जाए तो उनकी हैसियत महज कोरस गायिका की सी रह गई थी।
आज भी उनका नाम उन सुरीली गायिकाओं में होता है, जिन्होंने लता मंगेशकर के एकाधिकार के दौर में अपनी पहचान बनाई। इसके बावजूद उन्हें वो जगह कभी नहीं मिली, जिसकी वो हकदार थीं। शास्त्रीय गायन की समझ, मधुर आवाज़ और लम्बी रेंज जैसी सभी खासियतों के होते हुए भी सुमन कल्याणपुर को कभी लता मंगेशकर की परछाईं से मुक्त नहीं होने दिया गया। अपने करीब तीन दशक के अपने करियर में उन्होंने कई भाषाओं में तीन हजार से ज्यादा फिल्मी-गैर फिल्मी गीत-ग़ज़ल गाए। बचपन से सुमन कल्याणपुर की पेंटिंग और संगीत में सुमन की हमेशा से दिलचस्पी थी। अपने पारिवारिक मित्र और पुणे की प्रभात फिल्म्स के संगीतकार पंडित 'केशवराव भोले' से गायन उन्होंने संगीत सीखा। उन्होंने गायन को महज़ शौकिया तौर पर सीखना शुरू किया था। लेकिन, धीरे-धीरे इस तरफ उनकी गंभीरता बढ़ने लगी तो वो विधिवत रूप से 'उस्ताद खान अब्दुल रहमान खान' और 'गुरूजी मास्टर नवरंग' से संगीत की शिक्षा लेने लगीं।
सुमन कल्याणपुर का जन्म 28 जनवरी 1937 को ढाका में (उस वक्त भारत का हिस्सा था) सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के बड़े बाबू शंकरराव हेमाड़ी के यहां उनकी पहली संतान के रूप में हुआ। शंकर बाबू और उनकी पत्नी सीता ने अपनी बेटी का नाम सुमन रखा। सुमन के अलावा शंकर बाबू के यहां पांच संतानें और हुईं। बच्चों की बेहतर पढ़ाई-लिखाई का सपना संजोकर शंकर बाबू परिवार के साथ 1943 में मुंबई चले आए। उनके घर में कला और संगीत की तरफ सभी का झुकाव था। लेकिन, इतनी इजाजत नहीं थी कि सार्वजनिक तौर पर गाया जाए। पहली बार उन्हें 1952 में 'ऑल इंडिया रेडियो' पर गाने का मौका मिला। ये सुमन कल्याणपुर का पहला सार्वजनिक कार्यक्रम था!
इसके बाद 1954 में उन्हें मराठी फिल्म 'शुक्राची चांदनी' में गाने का मौका मिला। उन्हीं दिनों शेख मुख्तार फिल्म 'मंगू' बना रहे थे जिसके संगीतकार मोहम्मद शफी थे। मराठी गीतों प्रभावित होकर ही उन्हें 'मंगू' में तीन गीत रिकॉर्ड करवाए थे। किन्तु, न जाने क्या हुआ और 'मंगू' संगीतकार को बदल दिया गया। मोहम्मद शफी की जगह ओपी नैयर आ गए। उन्होंने सुमन कल्याणपुर के तीन में से दो गीत हटा दिए और सिर्फ एक लोरी 'कोई पुकारे धीरे से तुझे' ही रखी। 'मंगू' के फौरन बाद उन्हें इस्मत चुगताई और शाहिद लतीफ की फिल्म 'दरवाजा' में नौशाद के साथ पाँच गीत गाने का मौका मिला। 1954 में उन्हें ओपी नैयर के निर्देशन में बनी फिल्म 'आरपार' के हिट गीत 'मोहब्बत कर लो, जी कर कर लो, अजी किसने रोका है' में रफी और गीता का साथ देने का मौका मिला था। सुमन के मुताबिक इस गीत में उनकी गाई एकाध पंक्ति को छोड़ दिया जाए तो उनकी हैसियत महज कोरस गायिका की सी रह गई थी।
आज भी उनका नाम उन सुरीली गायिकाओं में होता है, जिन्होंने लता मंगेशकर के एकाधिकार के दौर में अपनी पहचान बनाई। इसके बावजूद उन्हें वो जगह कभी नहीं मिली, जिसकी वो हकदार थीं। शास्त्रीय गायन की समझ, मधुर आवाज़ और लम्बी रेंज जैसी सभी खासियतों के होते हुए भी सुमन कल्याणपुर को कभी लता मंगेशकर की परछाईं से मुक्त नहीं होने दिया गया। अपने करीब तीन दशक के अपने करियर में उन्होंने कई भाषाओं में तीन हजार से ज्यादा फिल्मी-गैर फिल्मी गीत-ग़ज़ल गाए। बचपन से सुमन कल्याणपुर की पेंटिंग और संगीत में सुमन की हमेशा से दिलचस्पी थी। अपने पारिवारिक मित्र और पुणे की प्रभात फिल्म्स के संगीतकार पंडित 'केशवराव भोले' से गायन उन्होंने संगीत सीखा। उन्होंने गायन को महज़ शौकिया तौर पर सीखना शुरू किया था। लेकिन, धीरे-धीरे इस तरफ उनकी गंभीरता बढ़ने लगी तो वो विधिवत रूप से 'उस्ताद खान अब्दुल रहमान खान' और 'गुरूजी मास्टर नवरंग' से संगीत की शिक्षा लेने लगीं।
सत्तर के दशक में नए संगीत निर्देशकों और गायिकाओं के आने के साथ ही सुमन कल्याणपुर की व्यस्तताएं कम हो गई। 1981 में बनी फिल्म 'नसीब' का 'रंग जमा के जाएंगे' उनका आखिरी रिलीज गीत साबित हुआ। सुमन के मुताबिक, फिल्म 'नसीब' के बाद मुझे गायन के मौके अगर मिले भी तो वो गीत या तो रिलीज ही नहीं हो पाए और अगर हुए भी तो उनमें से मेरी आवाज नदारद थी। गोविंदा की फिल्म 'लव 86' में मैंने एक सोलो और मोहम्मद अजीज के साथ एक युगल गीत गाया था। लेकिन, जब वो फिल्म और उसके रेकॉर्ड रिलीज हुए तो मेरी जगह कविता कृष्णमूर्ति ले चुकी थीं।
कुछ ऐसा ही केतन देसाई की फिल्म 'अल्लारखा' में भी हुआ, जिसके संगीतकार अनु मलिक थे। सुमन कल्याणपुर को रसरंग (नासिक) का 'फाल्के पुरस्कार' (1961), सुर सिंगार संसद का 'मियां तानसेन पुरस्कार' (1965 और 1970), 'महाराष्ट्र राज्य फिल्म पुरस्कार' (1965 और 1966), 'गुजरात राज्य फिल्म पुरस्कार' (1970 से 1973 तक लगातार) जैसे करीब एक दर्जन पुरस्कार मिल चुके हैं। उन्हें मध्यप्रदेश सरकार ने भी वर्ष 2017 के लिए राष्ट्रीय लता मंगेशकर सम्मान देने की घोषणा की, जो उन्हें 6 फ़रवरी 2020 को लता मंगेशकर की जन्मस्थली इंदौर में दिया गया। बरसों की गुमनामी के बाद अब उन्हें पद्मभूषण दिया जाना एक गलती को सुधारने जैसी बात है।
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