- हेमंत पाल
इंदौर को हिंदी पत्रकारिता की काशी कहा जाता रहा है और इस मामले में निश्चित रूप से 'नईदुनिया' कभी किसी तीर्थ से कम नहीं था। आजादी के बाद से ही 'नईदुनिया' की स्वच्छ और पाठकों प्रति समर्पित पत्रकारिता थी, जो करीब 6 दशकों से ज्यादा तक बनी रही। इस साख को बनाए रखने और इसे शिखर तक पहुंचाने में जिन लोगों का हाथ था, उनमें से प्रमुख रहे अभय छजलानी, जो अब उस यात्रा पर रवाना हो गए, जहां से कभी कोई लौटकर नहीं आता! लेकिन, उसके सद्कर्म, कर्म के प्रति उनका समर्पण और यदि पत्रकारिता की बात की जाए तो पाठकों का उनके प्रति दायित्व भाव कभी भुलाया भी नहीं जा सकता। 'नईदुनिया' की मिल्कियत उन्हें पैतृक मिली थी, पर उसमें सकारात्मक ऊर्जा अभय छजलानी ने ही भरी। हिंदी पत्रकारिता में दमदार अखबार की 'नईदुनिया' की जो भी पहचान बनी, वो इसी एक व्यक्ति की योजना, समझ और भविष्य को परखने की वजह से बनी थी।
इंदौर को हिंदी पत्रकारिता की काशी कहा जाता रहा है और इस मामले में निश्चित रूप से 'नईदुनिया' कभी किसी तीर्थ से कम नहीं था। आजादी के बाद से ही 'नईदुनिया' की स्वच्छ और पाठकों प्रति समर्पित पत्रकारिता थी, जो करीब 6 दशकों से ज्यादा तक बनी रही। इस साख को बनाए रखने और इसे शिखर तक पहुंचाने में जिन लोगों का हाथ था, उनमें से प्रमुख रहे अभय छजलानी, जो अब उस यात्रा पर रवाना हो गए, जहां से कभी कोई लौटकर नहीं आता! लेकिन, उसके सद्कर्म, कर्म के प्रति उनका समर्पण और यदि पत्रकारिता की बात की जाए तो पाठकों का उनके प्रति दायित्व भाव कभी भुलाया भी नहीं जा सकता। 'नईदुनिया' की मिल्कियत उन्हें पैतृक मिली थी, पर उसमें सकारात्मक ऊर्जा अभय छजलानी ने ही भरी। हिंदी पत्रकारिता में दमदार अखबार की 'नईदुनिया' की जो भी पहचान बनी, वो इसी एक व्यक्ति की योजना, समझ और भविष्य को परखने की वजह से बनी थी।
अभय छजलानी (नजदीकी लोगों बीच अब्बू जी) वो शख्सियत थे, जिनसे एक बार मिलने के बाद भी कोई उन्हें भुला नहीं सकता था। सलीके का पहनावा, मोहक सी मुस्कान और बातों में अपनत्व का भाव ऐसा था कि वो अपनी छाप जरूर छोड़ता था। कहने को वे 'नईदुनिया' के मालिकों में थे, पर उन्हें जानने वालों को पता है कि अभय जी ने कभी मालिक होने दंभ नहीं बताया। वास्तव में वे पहले पत्रकार ही थे, मालिक तो वे कभी रहे भी नहीं! वे खुद भी लिखते तो वो कभी सीधे छपने के लिए नहीं होता था। सम्पादकीय में जो भी सामने होता, उसे पढ़ने के लिए देते! वो भी इस हिदायत के साथ कि कोई गलती हो, तो सुधार देना। वे वास्तव में तो मालिक कभी नहीं लगे, जब भी देखा उन्हें सम्पादकीय के वरिष्ठ साथी के रूप में ही पाया। ये बात मैं इसलिए कह सकता हूं कि मैंने अपने पत्रकारिता जीवन का दो दशक से ज्यादा का समय उनके सानिध्य में बिताया। यही कारण भी रहा कि उनके साथ मेरी कई खट्टी-मीठी यादों के संस्मरण जुड़े हैं। लेकिन, खट्टी यादों में कहीं और कभी कड़वाहट का भाव नहीं था!
मैं नईदुनिया की 1986 की दूसरी बैच में चयनित होने वाला प्रशिक्षु पत्रकार था। लिखित परीक्षा पास करने के बाद इंटरव्यू का दृश्य आज भी याद है। राहुल बारपुते, रणवीर सक्सेना के साथ अभय जी भी उस इंटरव्यू में थे। मेरे छपे आलेखों की फाइल पलटते हुए उनकी नजर मुंबई में हुए कांग्रेस के शताब्दी समारोह की कतरन पर पड़ी, जो मैंने 'नवभारत' के सभी संस्करणों के लिए कवर किया था। इसके अलावा मालवा के सूखे पर 'जनसत्ता' में छपी ग्राउंड रिपोर्ट के अलावा 'रविवार' और 'दिनमान' की कतरने भी उन्होंने देखी। इसके बाद कहा कि इतना काम करने के बाद भी तुम प्रशिक्षु पत्रकार क्यों बनना चाहते हो? मेरा जवाब था 'पत्रकार तो हमेशा ही प्रशिक्षु होता है! इसलिए कि इस काम में रोज ही तो नया सीखना पड़ता है!' मेरा इतना कहना था कि राहुल बारपुते जी बोल पड़े 'फिर तो तुम आ रहे हो, हमें ऐसा जवाब देने वालों की ही जरुरत है!' इसके बाद मैंने 'नईदुनिया' ज्वाइन किया।
मैं नईदुनिया की 1986 की दूसरी बैच में चयनित होने वाला प्रशिक्षु पत्रकार था। लिखित परीक्षा पास करने के बाद इंटरव्यू का दृश्य आज भी याद है। राहुल बारपुते, रणवीर सक्सेना के साथ अभय जी भी उस इंटरव्यू में थे। मेरे छपे आलेखों की फाइल पलटते हुए उनकी नजर मुंबई में हुए कांग्रेस के शताब्दी समारोह की कतरन पर पड़ी, जो मैंने 'नवभारत' के सभी संस्करणों के लिए कवर किया था। इसके अलावा मालवा के सूखे पर 'जनसत्ता' में छपी ग्राउंड रिपोर्ट के अलावा 'रविवार' और 'दिनमान' की कतरने भी उन्होंने देखी। इसके बाद कहा कि इतना काम करने के बाद भी तुम प्रशिक्षु पत्रकार क्यों बनना चाहते हो? मेरा जवाब था 'पत्रकार तो हमेशा ही प्रशिक्षु होता है! इसलिए कि इस काम में रोज ही तो नया सीखना पड़ता है!' मेरा इतना कहना था कि राहुल बारपुते जी बोल पड़े 'फिर तो तुम आ रहे हो, हमें ऐसा जवाब देने वालों की ही जरुरत है!' इसके बाद मैंने 'नईदुनिया' ज्वाइन किया।
अभय जी के साथ 'नईदुनिया' में काम करने वालों को जितनी वैचारिक और लिखने की आजादी थी, आज तो उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। उन्होंने हमेशा अच्छा और कुछ नया लिखने वालों को कभी दबाया नहीं और न उस पर अपनी मर्जी थोपी! कई बार मैंने कुछ ऐसा भी लिखा, जो उनकी सोच से अलग था, पर उन्होंने कभी उस पर कलम नहीं चलाई! उनमें व्यक्ति की क्षमताओं को जानने और उसका उपयोग करने की जबरदस्त परख थी। कौन क्या काम अच्छा कर सकता है, ये वे पहचान जाते थे और जब भी कोई ऐसी चुनौती आई, उन्होंने उस व्यक्ति को हमेशा मौका दिया। जब भी फिल्म और राजनीति पर कहीं जाने या लिखने का प्रसंग होता, वे मुझसे कह देते कि जो काम कर रहे हो, वो अभी छोड़ दो और पहले ये करो।
ढाई साल 'नईदुनिया' करने के बाद जब मैंने 1989 में 'जनसत्ता' जाने का फैसला किया और इस्तीफ़ा दे दिया तो उन्होंने मुझे बुलाकर समझाया कि सोच लो, तुम्हारा क्या फैसला सही है? मैंने जब अपने फैसले पर अड़े रहने का नजरिया दिखाया तो उन्होंने मुझे कांटेक्ट की शर्ते याद दिलाते हुए हिदायत दी! लेकिन, मैं शुरू से ही कुछ ज्यादा ही मुखर और अड़ियल सा रहा। अपनी बात पर अड़ा रहा और 'नईदुनिया' छोड़ दी। ये वो दौर था जब 'नईदुनिया' अख़बारों की दुनिया में शिखर पर था। मुझे लगा कि इस घटना के बाद अभय छजलानी और 'नईदुनिया' से कोई संबंध नहीं रहेंगे, पर मेरा भ्रम गलत निकला! नईदुनिया को परिवार सिर्फ कहने को नहीं कहा जाता था। वो अहसास भी कराया जाता था कि आप उसी का हिस्सा हो!
तीन महीने बाद अभय जी किसी काम से मुंबई आए तो मुझे मिलने का फोन आया। मिलने पर जरा भी नहीं लगा कि उनके दिल में मेरे प्रति कोई कटुता का भाव है। बल्कि, उन्होंने मुझसे 'नईदुनिया' में फिल्मों पर लिखते रहने को कहा! ' नईदुनिया' हर साल एक फिल्म की किताब निकालता था। जब मैं मुंबई में था तब 'परदे की परियां' शीर्षक से किताब निकली थी, जिसके लिए कई अभिनेत्रियों के इंटरव्यू मैंने किए थे। बाद में जब मैंने 'जनसत्ता' छोड़ा, तो इंदौर में एक कार्यक्रम में मिलने पर अभय जी ने नाराजी व्यक्त की, कि मैं आकर उनसे क्यों नहीं मिला! अगले ही दिन मेरे पास महेंद्र सेठिया का फोन आया, उन्होंने मुझसे कहा कि अभय जी ने कहा है कि नईदुनिया ज्वाइन करो। मेरे जैसा व्यक्ति जो गुस्से में संस्थान छोड़कर गया हो, उससे वहां के मालिक इतनी आत्मीयता दिखाएं, ऐसा कम ही होता है! आज की पत्रकारिता की प्रोफेशनल लाइफ में तो ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता।
ढाई साल 'नईदुनिया' करने के बाद जब मैंने 1989 में 'जनसत्ता' जाने का फैसला किया और इस्तीफ़ा दे दिया तो उन्होंने मुझे बुलाकर समझाया कि सोच लो, तुम्हारा क्या फैसला सही है? मैंने जब अपने फैसले पर अड़े रहने का नजरिया दिखाया तो उन्होंने मुझे कांटेक्ट की शर्ते याद दिलाते हुए हिदायत दी! लेकिन, मैं शुरू से ही कुछ ज्यादा ही मुखर और अड़ियल सा रहा। अपनी बात पर अड़ा रहा और 'नईदुनिया' छोड़ दी। ये वो दौर था जब 'नईदुनिया' अख़बारों की दुनिया में शिखर पर था। मुझे लगा कि इस घटना के बाद अभय छजलानी और 'नईदुनिया' से कोई संबंध नहीं रहेंगे, पर मेरा भ्रम गलत निकला! नईदुनिया को परिवार सिर्फ कहने को नहीं कहा जाता था। वो अहसास भी कराया जाता था कि आप उसी का हिस्सा हो!
तीन महीने बाद अभय जी किसी काम से मुंबई आए तो मुझे मिलने का फोन आया। मिलने पर जरा भी नहीं लगा कि उनके दिल में मेरे प्रति कोई कटुता का भाव है। बल्कि, उन्होंने मुझसे 'नईदुनिया' में फिल्मों पर लिखते रहने को कहा! ' नईदुनिया' हर साल एक फिल्म की किताब निकालता था। जब मैं मुंबई में था तब 'परदे की परियां' शीर्षक से किताब निकली थी, जिसके लिए कई अभिनेत्रियों के इंटरव्यू मैंने किए थे। बाद में जब मैंने 'जनसत्ता' छोड़ा, तो इंदौर में एक कार्यक्रम में मिलने पर अभय जी ने नाराजी व्यक्त की, कि मैं आकर उनसे क्यों नहीं मिला! अगले ही दिन मेरे पास महेंद्र सेठिया का फोन आया, उन्होंने मुझसे कहा कि अभय जी ने कहा है कि नईदुनिया ज्वाइन करो। मेरे जैसा व्यक्ति जो गुस्से में संस्थान छोड़कर गया हो, उससे वहां के मालिक इतनी आत्मीयता दिखाएं, ऐसा कम ही होता है! आज की पत्रकारिता की प्रोफेशनल लाइफ में तो ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता।
मैंने अपने कार्यकाल के दौरान कई सालों तक चुनाव के दौरान 'नईदुनिया' की चुनाव डेस्क के प्रभारी के रूप में भी काम किया। यह अखबार की सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों में से एक होती थी। इस डेस्क के जिम्मे चुनाव की आचार संहिता लगने से लगाकर चुनाव के नतीजों तक का पूरा काम होता था। सभी संस्करणों के रिपोर्टर अपनी रिपोर्ट सीधे इसी डेस्क को भेजते थे, जो अखबार में उपयोग होती थी। जब पहली बार मुझे यह जिम्मेदारी सौंपी गई, तो मैंने सहजता से अभय जी से पूछ लिया कि मुझे किस तरह काम करना है? मेरा आशय था कि राजनीति में जो पहचान और सम्मान था, राजनेताओं से जो संबंध थे, क्या उनका ध्यान रखा जाए!
मुझे लगा था कि शायद वे मुझे कोई सीमा रेखा बताएंगे! लेकिन, मेरा अनुमान गलत साबित हुआ। उन्होंने मुझसे साफ़ कहा कि तुम राजनीति को समझते हो, प्रदेश को भी समझते हो, यह जिम्मेदारी तुम्हें बहुत सोच समझकर दी है, इसलिए तुम्हारी राजनीतिक समझ को मैं जानता हूं। इसलिए तुमको अखबार के हित में जो ठीक लगे उस तरह काम करो। यह जरूरी नहीं कि जो रिपोर्टर खबरें भेजें उनको वैसे ही छाप दी जाए। उनको देखो, संपादित करो, उपयोग करने लायक हो तो करो अन्यथा मत करो। बस यह ध्यान रखना 'नईदुनिया' में कोई ऐसी रिपोर्ट न छपे जो बाद में गलत साबित हो। उनका यह कहना मेरे लिए बहुत था।
उसके बाद मैंने लंबे अरसे तक पंचायत चुनाव से लगाकर लोकसभा चुनाव तक की डेस्क पर काम किया। बल्कि, मैंने अपने कार्यकाल में 'नईदुनिया' का हर नया किया। फिर वो चुनाव डेस्क हो, दिवाली विशेषांक हो, नईदुनिया प्लस का संपादन हो, राज्य की नईदुनिया निकाली गई लोकसभा क्षेत्रों की किताब हो, सहस्त्राब्दी विशेषांक हो या फिर 'नईदुनिया' के साठ साल होने पर लगातार तीन दिन तक 60 पेजों का विशेषांक निकालने की जिम्मेदारी हो! इसलिए कि अभय जी जानते थे कि दफ्तर कौन, क्या करने में समर्थ है। आज उनके न रहने पर वो सारे दृश्य आंखों के सामने से गुजर रहे हैं! क्योंकि, अखबार की ताकत क्या होती है, ये अहसास हिंदी पत्रकारिता को अभय छजलानी जैसे ही कुछ लोगों ने करवाया है।
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उसके बाद मैंने लंबे अरसे तक पंचायत चुनाव से लगाकर लोकसभा चुनाव तक की डेस्क पर काम किया। बल्कि, मैंने अपने कार्यकाल में 'नईदुनिया' का हर नया किया। फिर वो चुनाव डेस्क हो, दिवाली विशेषांक हो, नईदुनिया प्लस का संपादन हो, राज्य की नईदुनिया निकाली गई लोकसभा क्षेत्रों की किताब हो, सहस्त्राब्दी विशेषांक हो या फिर 'नईदुनिया' के साठ साल होने पर लगातार तीन दिन तक 60 पेजों का विशेषांक निकालने की जिम्मेदारी हो! इसलिए कि अभय जी जानते थे कि दफ्तर कौन, क्या करने में समर्थ है। आज उनके न रहने पर वो सारे दृश्य आंखों के सामने से गुजर रहे हैं! क्योंकि, अखबार की ताकत क्या होती है, ये अहसास हिंदी पत्रकारिता को अभय छजलानी जैसे ही कुछ लोगों ने करवाया है।
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