- हेमंत पाल
भारतीय राजनीति में ये जुमला खूब चला कि 'अच्छे दिन आएंगे!' अच्छे दिन कौन से थे और वो आए या नहीं, ये अलग मामला है! लेकिन, यदि सिनेमा के अच्छे दिन की बात की जाए, तो वे आ चुके हैं। बीच में एक दौर ऐसा भी आया, जब दर्शकों का फिल्मों से मोहभंग हो गया था। इसके बाद कोरोना ने सिनेमा की कमर तोड़ी और दर्शकों के सामने ओटीटी जैसा विकल्प खड़ा हो गया। पर, अब लगता है वास्तव में सिनेमा के अच्छे दिन आ गए। अब वो हालात भी नहीं रहे, जब फिल्मकारों को फिल्म बनाने के लिए बड़ा कर्ज लेना पड़ता था और फिल्म पिटने पर अपनी संपत्ति तक बेचना पड़ती थी। अब वो स्थिति नहीं है। कोई भी फ़िल्म आसानी से सौ-दो सौ करोड़ का बिजनेस कर लेती हैं। फिल्म इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो फिल्म निर्माण के शुरुआती दशक में 91 फिल्में बनी थी। आज सौ साल बाद इस उद्योग का चेहरा पूरी तरह बदल गया। अब हर साल हजार से ज्यादा फिल्में बनती है। बॉक्स ऑफिस पर भले ही फिल्म हिट न हो, पर निर्माता की जेब खाली नहीं होती।
हिंदी सिनेमा ने अपने सौ साल से ज्यादा पुराने इतिहास में कई उतार-चढाव देखे। कभी फ़िल्में दर्शकों की पसंद से उतरी, तो कभी विपरीत परिस्थितियों की वजह से उसे बुरे दिन देखने पड़े। लेकिन, कोरोना काल और उसके बाद के हालात और विकट रहे, जब कुछ फिल्मों के बायकाट का दौर शुरू हुआ। यह प्रवृत्ति क्यों पनपी और इसका क्या असर हुआ ये अलग मुद्दा है। पर इसने फ़िल्मी दुनिया की कमर जरूर तोड़ दी। किसी भी मुद्दे को लेकर कलाकारों का बहिष्कार किया गया और उनकी फिल्मों का बायकाट! लेकिन, इसका उन दर्शकों पर असर नहीं हुआ, जिन्हें इन सारे मुद्दों से कोई सरोकार नहीं होता! यदि फ़िल्में अच्छी थीं, तो उन्हें पसंद किया गया और बॉक्स ऑफिस पर उन फिल्मों ने अच्छा कारोबार भी किया। लेकिन, वैसे हालात नहीं है। बिगड़े दौर के बाद अब सिनेमा के परदे पर फिर चमक लौट आई है। 'गंगूबाई' के बाद 'ब्रह्मास्त्र' और 'पठान' ने उन सिनेमाघरों की रंगत वापस लौटा दी, जो दर्शकों के बिना बेरंग हो गई थी। इसलिए कहा जा सकता है कि सिनेमा के अच्छे दिन वापस लौट आए।
दो साल में फिल्मों का बॉक्स ऑफिस परफॉर्मेंस देखा जाए, तो निश्चित रूप से इसे अच्छे दिनों की शुरुआत कहा जाएगा। क्योंकि, उन दिनों में ज्यादातर बड़े सितारों की फिल्में फ्लॉप हुई। अक्षय कुमार, आमिर खान, सलमान खान, रणवीर सिंह और रणवीर कपूर जैसे कई नामचीन सितारों की फिल्मों ने तो पानी नहीं मांगा। कोरोना काल के बाद महज दो-तीन फिल्मों जैसे कार्तिक आर्यन की 'भूल भुलैया-2' और अजय देवगन की 'दृश्यम-2' ही पसंद की गई।
ये दोनों फिल्मों ने बायकॉट मुहिम में भी अच्छा कारोबार किया। लेकिन, पहले आलिया भट्ट की गंगूबाई, रणवीर कपूर की ब्रह्मास्त्र और शाहरुख खान की 'पठान' ने नई उम्मीद जगाई, इसका असर अभी भी देखा जा सकता है। अब यदि विक्की कौशल और सारा अली की 'जरा हटके जरा बचके' भी दर्शकों को पसंद आई तो ये उसी उम्मीद का असर कहा जाएगा। अच्छे दिनों का सबूत सिर्फ शाहरुख़ खान की फिल्म 'पठान' की आसमान फाड़ कमाई ही नहीं है। 'द कश्मीर फाइल्स' के बाद 'द केरल स्टोरी' भी ऐसी फिल्म है जिसने विवादों से घिरने के बावजूद कमाई के नए रिकॉर्ड बनाए।
जबकि, एक वो वक़्त था, जब सिनेमा घरों में फ़िल्में महीनों तक चलती थीं! 6 महीने चली तो 'सिल्वर जुबली' और साल भर में 'गोल्डन जुबली' मनती थी। लोग भी एक ही फिल्म को कई-कई बार देखा करते थे! उनके लिए अपने पसंदीदा कलाकार की फिल्म को बार-बार देखना एक अलग तरह का शगल था। इसके अलावा फर्स्ट डे, फर्स्ट शो फिल्म देखने का अपना अलग ही जुनून तब के दर्शकों में देखा गया। सिनेमा घरों की टिकट खिड़कियों पर मारा-मारी होना तो आम बात थी। ऐसे में टिकट खिड़की से मुट्ठी में मसली हुई टिकट पा लेना भी किसी स्पर्धा जीत लेने जैसी ख़ुशी का प्रसंग था।
ऐसे भी किस्से हैं, जब लोग अगले दिन का पहला शो देखने के लिए देर रात या अलसुबह से ही टिकट की लाइन में लग जाया करते थे। लेकिन, अब ये सब गुजरे दिन की बात हो गई! सिंगल परदे वाले थियेटर की जगह मल्टीप्लेक्स ने ली! अब टिकट खिड़की भी पहले की तरह नहीं रही, सब ऑनलाइन हो गया! अब तो किसी दर्शक के खिड़की पर जाए बिना ही पूरा हॉल बुक हो जाता है। इतने बदलाव के बाद भी फिल्म देखने वाले आज भी वही हैं। पीढ़ी बदल गई, पर दर्शकों की पसंद नहीं बदली।
हमारे यहाँ फिल्म बनाना भी एक तरह से जुनून ही रहा। दादा साहेब फाल्के ने जब 1913 में भारत में पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाई, तो उन्हें पत्नी के गहने तक बेचने पड़े थे। राज कपूर ने 'मेरा नाम जोकर' बनाई, तब उनका सब कुछ कर्ज में डूब गया। लेकिन, अब ऐसे किस्से सुनाई नहीं देते। क्योंकि, फ़िल्में ऐसा बिजनेस नहीं रह गया कि फिल्मकार की सारी पूंजी डूब जाए! भारतीय फिल्म उद्योग तेजी से आगे बढ़ रहा है। वो स्थिति नहीं कि फ्लॉप फिल्म के निर्माता को कर्ज अदा करने के लिए अपना बंगला और गाड़ी तक गंवाना पड़ती हो! सच तो यह है कि अब कोई फिल्म फ्लॉप ही नहीं होती। फिल्मकारों ने कमाई के कई तरीके खोज लिए। फिल्म से जुड़े इतने सारे अधिकार (राइट्स) होते हैं कि फ्लॉप फिल्में भी आसानी से अपनी लागत निकालने में तो कामयाब हो जाती हैं।
फ़िल्मी सितारों की लोकप्रियता पर टिकी सिनेमा की दुनिया के अर्थशास्त्र को कॉरपोरेट कंपनियों ने अपनी पूंजी के सहारे मुनाफा कमाने के फॉर्मूले से जोड़ लिया है। बड़ी फ़िल्म के ढाई-तीन हजार प्रिंट रिलीज किए जाते हैं, जो प्रचार के दम पर तीन दिन में ही लागत के साथ मुनाफा निकाल लेते हैं। बताते हैं कि यशराज फिल्म की 'ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान' बुरी तरह फ्लॉप हुई। इस फिल्म ने प्रचार से ऐसा आभामंडल बनाया था कि शुरू के तीन दिन में ही इसने कमाई कर ली।
हाल ही में आई सलमान खान की 'किसी का भाई किसी की जान' के साथ भी यही हुआ। फिल्म तो नहीं चली, पर इसके कई राइट्स ने लागत से ज्यादा कमाई कर ली। फिल्म निर्माण का अर्थशास्त्र पूरी तरह मुनाफे के सिद्धांत पर चलने लगा। अब तो अप्रवासी भी इसमें पैसा लगाने लगे। 2001 में जब सरकार ने फिल्मों को उद्योग का दर्जा दिया, इसके बाद से फिल्म उद्योग का पूरी तरह कॉरपोरेटीकरण हो गया!
फिल्म निर्माण से इसके डिस्ट्रीब्यूशन तक के तरीके में इतना बदलाव आ गया। हिट और फ्लॉप फिल्म की परिभाषा ही बदल गई। फिल्म के रिलीज से पहले ही सैटेलाइट, ओवरसीज, म्यूजिक और ओटीटी के लिए अलग-अलग राइट्स फिल्म की रिलीज से पहले ही बेच दिए जाते हैं। इससे प्रोडक्शन हाऊस को जबरदस्त आय होती है और एक तरह से रिलीज से पहले ही फिल्म की लागत निकल आती है। प्रोडक्शन हाउसों ने तो सिनेमा कारोबार का पूरा खेल ही बदल दिया। इनका फिल्मों में पैसा लगाने का तरीका भी अलग है। अब ये फिल्म नहीं ‘पोर्टफोलियो मैनेजमेंट’ करते हैं। मल्टीप्लेक्स ने भी फिल्म देखने के तरीके बदल दिए। यही कारण है कि कम बजट की फ़िल्में भी दर्शकों तक पहुंच रही है और अच्छा खासा बिजनेस कर रही है। सिर्फ कुछ अलग सी कहानी के दम पर ही निर्माता लागत से तीन से चार गुना कमाई करने लगे। जिस तरह से फिल्मों के दिन फिरे हैं अब रणवीर सिंह की फिल्म 'गली बॉय' के गाने 'अपना टाइम आएगा' की तरह फिल्मकार भी यही उम्मीद कर सकते हैं!
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