राजनीति में प्रतिबद्धता के लिए कोई जगह नहीं होती। क्योंकि, ये ऐसा क्षेत्र है, जहां स्वार्थ को हमेशा आगे रखकर चला जाता है। यदि पार्टी नेताओं को भाव देती है, उनकी इच्छा के मुताबिक पद देती है, तब तो वे पार्टी के साथ बने रहते हैं। लेकिन, यदि पार्टी का कोई फैसला उनकी मनमर्जी से परे जाता है, तो वे उसे छोड़ने में भी देर नहीं करते। ऐसे में यदि पार्टी की स्थिति कमजोर होती है, तो नेता उससे अलग होने के बहाने खोजने लगते हैं। इसलिए कि राजनीति में कोई फैसला घाटे का सौदा सोचकर नहीं किया जाता। मध्यप्रदेश की कांग्रेस पार्टी में जिस तरह भगदड़ मची है, उससे नेताओं की मानसिकता और पार्टी का सोच दोनों उजागर होता है।
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- हेमंत पाल
राजनीति एक ऐसी जगह है जहां सारे फैसले जमीर को किनारे रखकर लिए जाते हैं। क्योंकि, राजनीति में जमीर के लिए कोई जगह नहीं होती। इसमें जो कुछ होता है, वो सिर्फ तात्कालिक स्वार्थ के लिए होता है। राजनीति से जुड़े लोग स्वार्थ के वशीभूत होकर फैसले करते हैं और फिर उन्हें सही ठहराने की कोशिश करने से भी बाज नहीं आते। नैतिकता, खुद्दारी और आत्मसम्मान को हाशिए पर रखकर वे ऐसे फैसले करते हैं, जिसमें निष्ठा और प्रतिबद्धता के लिए कोई जगह नहीं बचती। ऐसे सैकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं, जब राजनीतिकों ने अपने स्वार्थ की खातिर प्रतिबद्धता की खिल्ली उड़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। पार्टी बदल भी राजनीति में एक ऐसी ही घटना है, जो बहुत सामान्य हो गई। चढ़ते सूरज को अर्ध्य देने की पुरातन मान्यता को नेता राजनीति में कुछ इसी तरह से इस्तेमाल करने लगे। इन दिनों मध्यप्रदेश में कांग्रेस के नेताओं की जो भागमभाग लगी है। जरूरी नहीं कि ये राजनीतिक स्वार्थ के लिए हो, इसके अलावा भी बहुत से और भी कारण है, जिस वजह से नेता पाला बदल जुगाड़ में लगे हैं। उनका सोच है कि यदि गले का दुपट्टा बदलने से उनकी स्वार्थ सिद्धि होती है, तो फिर उसमें बुराई क्या है!
करीब साढ़े तीन साल पहले मध्य प्रदेश की राजनीति में एक भूचाल सा आया था। तब कांग्रेस के नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने 22 समर्थक विधायकों के साथ पार्टी से विद्रोह किया था। इसका नतीजा ये हुआ था कि कांग्रेस की तत्कालीन कमलनाथ सरकार भरभराकर गिर गई। इसके बाद राजनीति में बहुत कुछ बदला। 2018 का विधानसभा चुनाव हारी भाजपा ने फिर प्रदेश में सरकार बना ली। लेकिन, सिंधिया के विद्रोह की जड़ें इतनी गहरे तक उतर गई, कि आज भी वो आज भी पल्लवित हो रही है। यही वजह है कि 2023 के विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस की सरकार बनने की संभावना आंककर कई भाजपा नेता कांग्रेस के पाले में आए थे। लेकिन, अब हवा उलटी चलती दिखाई दे रही, तो लोकसभा चुनाव से पहले कई नेता कांग्रेस छोड़कर भाजपा का पल्ला थामने में लगे हैं। इनमें वे नेता भी हैं, जो पहले भाजपा से कांग्रेस में गए थे, वे अब यू-टर्न लेने लगे।
कांग्रेस में भगदड़ का माहौल अभी ख़त्म नहीं हुआ। कुछ दिनों पहले मध्यप्रदेश के पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री कमलनाथ और उनके सांसद बेटे के भाजपा में जाने को लेकर भी बहुत हल्ला हुआ था। बताते हैं कि वह कोशिश राजनीतिक कारणों से साकार नहीं हो सकी, पर उसकी कमी कांग्रेस से चार बार राज्ययसभा सदस्य रहे सुरेश पचौरी, पूर्व विधायक संजय शुक्ला और विशाल पटेल के साथ तीन बार के सांसद रहे गजेंद्रसिंह राजूखेड़ी ने पूरी कर दी। ये सभी नेता अपने समर्थकों के साथ भाजपा में शामिल हो गए। सोचा जा सकता है कि आखिर कांग्रेस में ऐसा क्या हो गया कि उसमें भगदड़ जैसे हालात बन गए। रोज कोई न कोई बड़ा नेता भाजपा खेमे में खड़ा दिखाई देने लगा। इसके कारणों को खोजा जाए, तो राजनीतिक कारण कम ही दिखाई देंगे। सबके पीछे कोई न कोई निजी स्वार्थ नजर आता है। किसी ने टिकट न मिलने से नाराज होकर पार्टी छोड़ दी तो कुछ नेताओं के कारोबार पर आया संकट इसकी वजह है। लेकिन, सुरेश पचौरी जैसे 72 साल के नेता का कांग्रेस से क्यों मोहभंग हुआ और भाजपा में उनका क्या उपयोग है, ये किसी को समझ नहीं आ रहा। कांग्रेस छोड़ने वाले ज्यादातर नेताओं का कहना है, कि पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व का राम मंदिर लोकार्पण समारोह का निमंत्रण ठुकराना सही फैसला नहीं था। इससे कई नेताओं की आस्था आहत हुई और फिर इससे राजनीति की गई। इसलिए कांग्रेस के इन नेताओं ने पार्टी को तिलांजलि देने का फैसला किया। पार्टी में भगदड़ के जो हालात बने, उसका मूल कारण फिलहाल तो यही बताया जा रहा है। क्योंकि, भगवान राम के प्रति श्रद्धा हर भारतीय में है, ऐसे में लोकार्पण का निमंत्रण ठुकराना उन्हें अनुचित लगा। कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व को अंदाजा नहीं था कि इस फैसले का खामियाजा उन्हें इस तरह भुगतना पड़ेगा। वास्तव में कांग्रेस को इस सच का अनुमान नहीं था कि मंदिर के निमंत्रण की अवहेलना उन्हें इतनी ज्यादा महंगी पड़ेगी।
कांग्रेस नेताओं का पार्टी छोड़ने के फैसले को कम से कम राजनीतिक विचारधारा में बदलाव तो नहीं कहा जा सकता। क्योंकि, विचारधारा की जड़ें इतनी कच्ची नहीं होती कि झटके में उखड़ जाएं। इसके अलावा भी बहुत से ऐसे कारण हैं, जिससे ये नेता कांग्रेस छोड़ने को मजबूर हुए। इंदौर के धन्नासेठ पूर्व विधायक संजय शुक्ला ने अपने विधायक कार्यकाल में पूरे पांच साल क्षेत्र के लोगों को अयोध्या की मुफ्त यात्रा कराई। ऐसे में राम मंदिर लोकार्पण को लेकर कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व की हठधर्मी ने उन्हें आहत किया। उन्हें पार्टी छोड़ना ही सही विकल्प लगा। ये तो पार्टी से अलग होने का एक उदाहरण है, ऐसे ही हर नेता के पास कोई न कोई तार्किक कारण है, जो उनके फैसले को न्यायोचित ठहराता है। एक आंकड़ा भी सामने आया कि अभी तक 5800 से ज्यादा कांग्रेसियों ने पार्टी का 'हाथ' छोड़ दिया। यानी इन सभी के पास ऐसी कोई न कोई वजह है, जिसने इन्हें कांग्रेस छोड़ने के लिए मजबूर किया।
ऐसे नेताओं की भी कमी नहीं, जो पहले भाजपा में रहे, फिर माहौल बदला तो कांग्रेस में आ गए, चुनाव जीतकर सांसद और विधायक बने और अब वापस लौट गए या लौटने वाले हैं। धार संसदीय क्षेत्र से तीन बार सांसद और एक बार मनावर विधानसभा से विधायक रहे आदिवासी नेता गजेंद्र सिंह राजूखेड़ी ने भी गले में भाजपा का भगवा गमछा डाल लिया। जबकि, राजूखेड़ी का रणनीति में पदार्पण भाजपा का झंडा थामकर हुआ था। उन्होंने 1989 में मध्य प्रदेश के उपमुख्यमंत्री रहे कांग्रेस नेता शिवभानुसिंह सोलंकी को मनावर विधानसभा में हराया था। लेकिन, इसके बाद वे भाजपा छोड़कर कांग्रेस में आ गए और तीन बार सांसद चुने गए। लेकिन, उनका आरोप है कि कांग्रेस ने उनकी उपेक्षा की। वे विधानसभा चुनाव लड़ना चाहते थे, पर कांग्रेस ने टिकट नहीं दिया। लोकसभा चुनाव में भी उनका नाम पैनल से काट दिया गया। यही कारण रहा कि उन्होंने कांग्रेस को बाय-बाय बोल दिया। कहा जा सकता है कि वे जिस भाजपा को छोड़कर आए थे, उसी पार्टी में लौट गए।
तात्कालिक रूप से कांग्रेस नेताओं का पार्टी बदल का ये माहौल भाजपा के हित में देखा जा रहा हो! लेकिन, इसका भविष्य में इसके क्या परिणाम होंगे, उसका अनुमान जरूर लगाया जा सकता है। निश्चित रूप से इससे भाजपा को नुकसान होगा। क्योंकि, इससे मूल भाजपा के वे प्रतिबद्ध नेता हाशिये पर चले जाएंगे और पार्टी में उनकी उपयोगिता लगभग ख़त्म हो जाएगी। तब कांग्रेस से गए नेता भाजपा में हावी हो जाएंगे। ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके पूरे गुट के भाजपा में जाने के बाद प्रदेश के उन इलाकों में भाजपा के नेता हाशिये पर चले ही गए, जहां सिंधिया-गुट का दबदबा था। लेकिन, अभी की राजनीति इस तरह के सोच की इजाजत नहीं देती कि दूरगामी नजरिया रखा जाए! राजनीति को हमेशा फास्ट फूड की तरह देखा जाता है। ऐसे में भविष्य के नजरिए को अक्सर नजरअंदाज किया जाता है। तात्कालिक रूप से भाजपा को अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदी को खत्म करने का मौका मिल रहा है, तो वह उससे चुकेगी भी नहीं। लेकिन, देखना है कि लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी बदल के कितने दौर चलते हैं!
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