Tuesday, March 5, 2024

चांद चुराने और चरखा चलाने से इतर भी गुलजार की दुनिया

- हेमंत पाल

    गुलजार के गीतों में कुछ शब्दों का प्रयोग बहुत ज्यादा दिखाई देता रहा। उनके गीतों में 'चांद' नए रूपों में मौजूद है। लाज, लिहाज, ताना और आत्मीयता लगभग हर एक प्रसंग के लिए गुलजार ने चांद को याद किया। 'चांद' यहां इच्छाओं का बिम्ब बन गया। चांद से यह नजदीकी गुलजार में इतनी गहरी है, कि कभी वे चांद चुराकर चर्च के पीछे बैठने की बात करते हैं, कभी कहते हैं 'शाम के गुलाबी से आंचल में दीया जला है चाँद का, मेरे बिन उसका कहां चांद नाम होता!' उनके गीतों में एक भूखे इंसान को चांद में भी रोटी नजर आती है 'आज की रात फुटपाथ से देखा मैंने रात भर रोटी नजर आया है, वो चांद मुझे।' ये ऐसे कुछ चंद उदाहरण हैं जो गुलजार के एक शब्द के अलग-अलग प्रयोग बताते हैं। एक बात यह भी कि वे ऐसी साहित्यिक ऊंचाई हैं, जिस पर लम्बे समय तक टिके रहना बिरली घटना है।
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     गुलज़ार फिल्मों के ऐसे गीतकार हैं, जिनके गीतों की खनक कुछ अलहदा है। उनके गीतों के लफ्ज़ उनके श्वेत परिधान की तरह उजले और ठसकदार आवाज की तरह ठस्की से भरपूर हैं। गीतों में छायावाद या प्रयोगधर्मिता उनका शगल रहा। शब्दों के बियाबान से वे दूसरी भाषाओं से ऐसे अनोखे शब्द चुनकर लाते हैं, कि सुनने वाला भी हैरान हो जाए! कानों को सुरीला लगने के बावजूद उनके गीतों को गुनगुनाना आसान नहीं होता! क्योंकि, दो चार बार सुनने के बाद भी उनके गीतों के कई शब्दों को समझना मुश्किल होता है। 'गुलामी' फिल्म के एक गीत में फ़ारसी के शब्दों 'ज़ेहाल-ए-मिस्कीन मकुन बारंजिश बाहाल-ए-हिजरा बेचारा दिल है' को आखिर कोई कैसे समझे! शब्दों के साथ चुहलबाजी गुलज़ार का पुराना शगल है। अपनी पहली ही फिल्म 'बंदिनी' के गीतों में उन्होंने 'मोरा गोरा ऱंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे' लिखकर चौंकाने की शुरुआत की थी, जो आज भी जारी है। लेखन में उर्दू समेत अन्य भाषाओं के शब्दों की बहुलता पर गुलजार का कहते हैं कि मेरे लिखने की भाषा हिन्दुस्तानी है। जिस भाषा का प्रयोग बोलने में करता हूं, उसी में लिखता हूँ।
     शब्दों की इस प्रयोग यात्रा में उन्होंने कभी 'चप्पा चप्पा चरखा' चलाया तो कभी चर्च के पीछे बैठकर चांद चुराने की बात की। 'घर' फिल्म के गीत 'तेरे बिना जिया जाए ना' में 'जीया' और 'जिया' का पारस्परिक संगम छायावाद का बेहतरीन उदाहरण है। 'परिचय' फिल्म के गीत 'सारे के सारे गामा को लेकर गाते चले' में उन्होंने सरगम का जो प्रयोग किया है, वो अद्भुत है। 'मेरे अपने' में उनका एक गीत 'रोज अकेली जाए रे चांद कटोरा लिए' गीत में उन्होंने रात को चांद का कटोरा थमाने की कोशिश बताया, जो ऐसी कल्पनाशीलता का चरम है, जो सहज नहीं कही जा सकती। 'किताब' फिल्म में बाल मनोविज्ञान को गीतों से समझाने के लिए उन्होंने 'धन्नो की आंख में रात का सुरमा' जैसे शब्द रचे! 'चल गुड्डी चल बाग में पक्के जामुन टपकेंगे' और 'जंगल-जंगल बात चली है' के अलावा 'मासूम' फिल्म के लिए उन्होंने 'लकड़ी की काठी  ... काठी पे घोडा' जैसी रचनाएं लिखी, जो बच्चों के प्रति उनके मनोभावों को व्यक्त करती हैं। गुलजार ही हैं जिन्होंने 'चड्डी पहन के फूल खिला है' जैसा बच्चों का गीत लिखने का साहस किया। वे खुद कहते हैं कि बच्चों के लिए लिखना अच्छा लगता है! हर लिखने वाले को बच्चों के लिए लिखना चाहिए। बच्चे संवेदनशील होते हैं, उनसे बतियाना मेरा प्रिय शगल है। वे कहते हैं कभी तो लगता है कि मैं आज भी बच्चा ही हूं। उन्होंने बच्चों के लिए कई किताबें लिखी कायदा, एक में दो, बोस्की की गप्पें, बोस्की का पंचतंत्र का तो कोई जोड़ नहीं। बोस्की दरअसल उनकी बेटी मेघना का प्यार का नाम है, जिसे उन्होंने अपनी किताबों के शीर्षकों में भी उपयोग किया। 
      उर्दू जुबान में फ़िल्मी गीत लिखने वालों में गुलजार के अलावा और भी शायर हैं! पर, गुलजार ने हिंदी के साथ उर्दू, अरबी,फ़ारसी और लोक भाषाओं का जो संगम बनाया वो बेजोड़ है। वे हिंदी और उर्दू को एक करने वाली हिंदुस्तानी जुबान के उस मोड़ पर खड़े दिखाई देते हैं, जहां कविता, कहानी और गीत आकर मिल जाते हैं। उनका एक गीत है 'मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है' बेहद सुमधुर कविता है पर फिल्म 'इजाजत' (1987) में ये एक गीत है। उन्होंने एक नई परंपरा की ये शुरुआत भी की, जिसमें हिंदी, उर्दू के साथ राजस्थानी, भोजपुरी, पंजाबी जैसी भाषाओं के शब्दों को भी अपनी रचनाओं में प्रयोग किया! उन्होंने एक ही माला में अलग-अलग भाषाओं के शब्दों को पिरोने में कभी परहेज नहीं किया। फिल्मों के संसार में गुलजार के कई रूप हैं! वे गीतकार के अलावा पटकथाकार, संवाद लेखक और निर्देशक भी हैं! लेकिन, गुलजार को ज्यादा प्रसिद्धि उनके गीतों के कारण मिली। उनके गीत ही उन्हें सिनेमा के शौकीनों से सीधा जोड़ते हैं। उनकी सबसे बड़ी खासियत ये है कि वे बदलते परिवेश और सिनेमा की मांग के अनुरूप अपने आपको ढालते रहे! 'बंदिनी' से गीतों का सफर शुरू करने वाले गुलजार ने अपने गीतों के जरिए कई विविधताओं के दर्शन कराए! उनका मन बच्चों और युवाओं से लगाकर हर वर्ग को समझता है।
       कोई बचपन में शायद लेखक या कवि बनने की कल्पना नहीं करता, पर गुलजार ने की। उनका मन लेखन और संगीत में ही लगा करता था, जिसे परिवार वाले समय की बर्बादी समझते थे। इस वजह से वे गुलजार के लेखन वाले शौक के खिलाफ रहे। इस विरोध के कारण वे घरवालों से छुपकर पड़ोसी के यहां जाकर लिखा करते थे। जन्म 18 अगस्त 1936 को झेलम जिले के दीना में जन्मे गुलजार का असल नाम तो संपूरण सिंह कालरा है। लेखन के इसी जुनून ने उन्हें मायानगरी का रुख करने पर मजबूर भी किया। पर, यहां आकर उनका संघर्ष बढ़ गया था। कई छोटी-मोटी नौकरियां कीं। पेट पालने के लिए मैकेनिक तक का काम किया। इसी दौरान उनकी पहचान लेखकों से हुई। लंबे संघर्ष के बाद बिमल रॉय, ऋषिकेश  मुखर्जी और संगीत निर्देशक हेमंत कुमार के सहायक बनने का भी उन्हें मौका मिला। लेकिन, गीत लिखने का पहला मौका बिमल रॉय ने 'बंदिनी' में दिया, जिसके वे सहायक रहे।  'बंटी और बबली' तथा 'झूम बराबर झूम' जैसी कमर्शियल फिल्मों के गीतों की जबरदस्त लोकप्रियता इस बात की मिसाल है कि वे हर सुर में शब्द पिरो सकते हैं। उन्हें बाजारू गीत लिखने से भी कभी परहेज नहीं किया। 'कजरारे कजरारे तेरे नैना कारे कारे नैना' का जादू भी दर्शकों के सिर चढ़कर बोला था। 'झूम बराबर झूम' के शीर्षक गीत पर तो युवा पीढ़ी झूम उठी! लेकिन, कौन सोच सकता है कि 'ओमकारा' के 'बीड़ी जलई ले जिगर से पिया' जैसा गीत ने भी गुलजार की कलम से जन्म लिया है। 
      गैर पारंपरिक शब्दों के बावजूद हर रंग के गीत लेखन का नतीजा ये रहा कि गुलजार को दर्जनभर बार फिल्म फेयर पुरस्कार नवाजा गया! ये उनके गीतों की सामाजिक स्वीकार्यता भी दर्शाता है। वे अकेले गीतकार हैं जिनका नाम 'ऑस्कर' जीतने वालों की लिस्ट में भी है। उन्हें फिल्मों की सफलताओं के लिए कई बार नेशनल अवार्ड मिले। ऑस्कर के साथ ग्रैमी अवॉर्ड और दादा साहब फाल्के भी मिला। गुलजार ने पहला गीत 'बंदिनी' के लिए 'मोरा गोरा रंग' लिखा। यहीं से उनका रास्ता खुला और उनकी प्रतिभा को पहचाना गया। बिमल रॉय गुलजार के काम करने के तरीके से खुश थे। उनके साथ गुलजार को निर्देशन की बारीकियां सीखने का मौका मिला और निर्देशन की शुरुआत 'मेरे अपने' फिल्म से की थी। इसके बाद मेरे अपने, आंधी, मौसम, कोशिश, खुशबू, किनारा, नमकीन, मीरा, परिचय, अंगूर, लेकिन, लिबास, इजाज़त, माचिस और 'हू-तू-तू' जैसी कई सार्थक फिल्मे बनाई। उन्होंने मिर्जा गालिब पर टीवी सीरियल बनाया और दूरदर्शन के लिए 'गोदान' पर लंबी फिल्म के अलावा प्रेमचंद की कई कहानियों पर फिल्में बनाईं। गीतकार के रूप में उनका कोई सानी नहीं। सदमा के ऐ जिंदगी गले लगा ले, आंधी के तेरे बिना जिंदगी से, गोलमाल के आने वाला पल जाने वाला है, खामोशी के हमने देखी हैं आंखों से, मासूम के तुझसे नाराज नहीं जिंदगी, परिचय के मुसाफिर हूं यारों, थोड़ी सी बेवफाई के हजार राहें मुड़ के देखी जैसे गीत कालजयी हैं, जिनका कभी किसी से कोई मुकाबला संभव नहीं। 
     गुलजार को साहित्य की दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार 'ज्ञानपीठ' उनके उर्दू लेखन के लिए मिला। लेकिन, सिनेमा की दुनिया में उनकी पहचान सिर्फ उर्दू के लिए नहीं है। गुलजार के गीतों के गुलदस्ते में अरबी भी है और फारसी भी। गुलजार ने शुरुआत में नज़्मों का संग्रह उर्दू में 'जानम' और हिंदी में 'एक बूंद चांद' लिखा था। उनकी कहानियों का पहला संग्रह 'चौरस रात' आया, जिसमें ज्यादातर कहानियां लंबी नहीं थी। उनका सैकड़ों नज़्मों का सफ़र बड़े मुकाम पर पहुंचा और 2002 में एक किताब 'रात पश्मीने की' आई। इसे काफी पसंद किया गया। 2002 में गुलज़ार को कहानी संग्रह 'धुआं' पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। ये उर्दू के गीतकार नहीं, बल्कि साहित्यकार गुलज़ार का सम्मान था। लेकिन, पुरस्कारों ने उन्हें कभी विचलित नहीं किया न तो वे खुश होकर रूके और न अपनी रचनाकर्म के मूल तत्व को बदला। उनके फिल्मी गीतों में भी जो काव्य है, वही उनकी कविता है।
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