Sunday, September 1, 2024

मंत्रियों को प्रभार सौंपने में भी राजनीति

- हेमंत पाल 

     सात महीने बाद मध्य प्रदेश के मंत्रियों को जिलों का प्रभार सौंप दिया गया। प्रभारी मंत्रियों को स्वतंत्रता दिवस पर जिलों में झंडा फहराना था, इसलिए प्रभारी मंत्रियों की लिस्ट आनन-फानन में कर दिए गए, अन्यथा इसमें और देरी होने  संभावना थी। कहा जा रहा है कि प्रदेश की मोहन-सरकार फैसले लेने में कुछ ज्यादा ही ढीली है, पर इसके पीछे असलियत कुछ और है। कहा जाता है कि मोहन-सरकार के हर फैसले दिल्ली से होते हैं। इसलिए जब तक वहां से हरी झंडी नहीं मिलती, सरकार कुछ नहीं कर सकती। मंत्रियों को जिलों के प्रभार वाले मामले में भी देरी का कारण यही है। इस बार प्रभारी मंत्रियों  सबसे बड़ी खासियत यह है कि मुख्यमंत्री मोहन यादव भी इंदौर के प्रभारी बने हैं।   
       मुख्यमंत्री के इंदौर जिले के प्रभारी मंत्री बनने से कई नेताओं की रातों की नींद उड़ गई। ऐसा पहली बार हुआ कि प्रदेश का मुख्यमंत्री किसी जिले का प्रभारी मंत्री भी बना हो। मोहन यादव की आदत है कि वे लाइन ही ऐसी खींचते हैं कि दूसरों की लाइन अपने आप छोटी हो जाती है। वे यूं ही प्रभारी मंत्री नहीं बने। वे प्रभारी महत्वपूर्ण रणनीति के तहत बने है। क्योंकि, यह सबको पता है कि इंदौर में भाजपा इतने बड़े-बड़े नेता हैं जिनका हर मामले मे हस्तक्षेप रहता है। यह किसी से छिपा भी नहीं है। दरअसल, इन सबको बैलेंस करने के लिए ही मुख्यमंत्री ने इंदौर  पास रखा।  
   इंदौर में हमेशा ही कुछ ऐसे हालात बन जाते हैं कि यहां का प्रभारी मंत्री कुछ फैसले करने के बजाय फैसले न करने की स्थिति में ज्यादा रहता है। अंततः बाद में निर्णय मुख्यमंत्री को ही करना पड़ता था। अब, मुख्यमंत्री खुद ही प्रभारी हैं, तो कम से कम ये हालात तो नहीं बनेंगे। चाहे दिग्गी राजा हों, उमा भारती या शिवराज सिंह चौहान, सभी ने इन हालात को देखा है। यही वजह है कि मोहन यादव ने सोचा कि निर्णय मुख्यमंत्री के रूप में मुझे ही करना है, तो प्रभारी मंत्री बनकर निर्णय और जल्दी कर सकता हूं। इससे जनता के काम और योजना में अनावश्यक देरी होने से मुक्ति मिलेगी और नेताओं को भी जादूगरी करने का अवसर कम मिलेगा। यानी कि फिलहाल तो मुख्यमंत्री के इंदौर प्रभारी मंत्री बनने वाला निर्णय शहर हित के लिए मोहन यादव का मास्टर स्ट्रोक ही माना जा रहा है।
      प्रभारी मंत्रियों वाले प्रसंग में दूसरा मामला है ज्योतिरादित्य सिंधिया के गुट के मंत्रियों को जिलों के प्रभार दिए जाना। इन सभी को उन्हीं जिलों की कमान सौंपी गई, जहां सिंधिया का प्रभाव है। सीधे शब्दों में कहें तो मध्यप्रदेश में सिंधिया अघोषित मुख्यमंत्री हैं, जिनकी इच्छा और इशारों में कोई दखल नहीं देता। इस मामले में भी सिंधिया ने जिसे जहां चाहा वहां का प्रभारी बताया गया। इस नजरिए से ज्योतिरादित्य सिंधिया सबसे ताकतवर बनकर उभरे हैं। यह भी साबित हुआ भाजपा में आने के चार साल बाद भी सिंधिया को भाजपा से ज्यादा अपने गुट वाले मंत्रियों पर ही ज्यादा भरोसा है, भाजपा के नेताओं पर नहीं।  
   वे अभी भी भाजपा में पूरी तरह नहीं मिल पाए। सिंधिया के ताकतवर होने का प्रमाण यह भी है कि जिस ग्वालियर शहर में उनका महल है, वहां के प्रभारी मंत्री उनके समर्थक तुलसी सिलावट बनाए गए। जिस संसदीय क्षेत्र का वे प्रतिनिधित्व करते हैं, वहां गोविंद सिंह राजपूत को गुना और प्रद्युम्न सिंह तोमर को शिवपुरी का प्रभारी बनाया गया। ये दोनों भी सिंधिया के समर्थक हैं। दतिया और अशोकनगर का प्रभार देने में भी सिंधिया की पसंद का ख्याल रखा गया। इससे स्पष्ट है कि मंत्रियों को प्रभार दिए जाने में जितनी सिंधिया की चली, उतनी भाजपा के किसी दूसरे नेता की नहीं। प्रभार से यह भी साफ हो गया कि सिंधिया अब तक भाजपा पर पूरा भरोसा नहीं कर पाए। 
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