Wednesday, November 27, 2024

उम्र के साथ बड़ा नहीं हुआ बच्चों का सिनेमा!

- हेमंत पाल

    फिल्मों की कहानियां अलग-अलग होती है, ये सब जानते हैं और यह होना जरूरी भी है। लेकिन, ये बात कम ही लोग जानते होंगे कि फिल्मों का अपना ट्रेंड भी होता है। जब कोई फिल्म दर्शकों की पसंद पर खरी उतरती है, तो आने वाली कई फिल्मों के कथानक भी उसी फिल्म के आसपास रचे जाते हैं। जब बदले की भावना वाली फ़िल्में हिट हुई, तो ऐसी फिल्मों की लाइन लग गई। यही स्थिति प्रेम कहानियों को लेकर भी देखी गई। लेकिन, बच्चों की फिल्मों को लेकर ये स्थिति कभी नहीं बनी। सौ साल से ज्यादा लंबे फिल्म इतिहास को टटोला जाए, तो बच्चों पर बनी फिल्मों की संख्या बहुत कम मिलेगी। अमूमन साल भर में एक फिल्म भी ऐसी नहीं बनती, जिसका कथानक बच्चों पर केंद्रित होता हो! इसका सीधा सा कारण है फिल्मों की कमाई। फ़िल्मकार निर्माण लागत से कई गुना ज्यादा कमाने की कोशिश करते हैं। पर, कमाई का ये फार्मूला बच्चों की फिल्मों पर सही नहीं बैठता।
     यही वजह है कि फिल्मों के कथानक में बच्चों से जुड़े प्रसंग तो होते हैं, पर पूरी फिल्म बच्चों के लिए नहीं होती। इस नजरिए से कहा जा सकता है कि हिंदी फिल्मों की उम्र सौ साल लांघ गई, पर बच्चों का सिनेमा अभी खुद ही बच्चा है। क्योंकि, बाल फिल्मों से आशय है, ऐसी फिल्में जो बच्चों का उनकी मानसिकता के स्तर पर मनोरंजन करें। साथ ही उनसे जुड़ी समस्याओं की तरफ भी दर्शकों का ध्यान आकर्षित करे! लेकिन, हिंदी फिल्मों में उपदेशात्मक बाल सिनेमा की बाढ़ है। अभी तक बनी ज्यादातर फिल्मों में बच्चों को उपदेश देते हुए कथानक रचा गया। निर्देशक की कोशिश रहती हैं, कि बच्चा वह उपदेश सुने। 
      सिनेमा के शुरुआती सालों में दादा साहब फाल्के ने शायद ही भागवत पुराण का कोई कैरेक्टर अपनी बनाई फिल्मों में छोड़ा हो। आज हमारे यहां बाल सिनेमा के साथ भी स्थिति वही है। गणेश, हनुमान, घटोत्कच्च और भीम जैसे मिथकीय चरित्रों से बच्चों को उपदेश देने का काम किया जा रहा है। कार्टून फ़िल्में भी इन्हीं कथानकों पर बन रही है। लेकिन, यह भी कहीं न कहीं बच्चों पर थोपा गया संदेश ही है। आज़ादी के बाद लगभग हर दशक में सिनेमा के जरिए ये कोशिश की जाती रही, कि समाज को कुछ नया दिया जाए। इस कोशिश में बच्चों पर केंद्रित सिनेमा की शुरुआत हुई। इसका मकसद था बच्चों से जुड़े मुद्दे, उनकी सामाजिक चुनौतियां और उनके अंतर्मन की स्थिति को परदे पर दिखाना। लेकिन, अभी तक इस दिशा में कारगर काम नहीं हुआ! बच्चों पर अभी तक जो भी फिल्में बनी, उनमें सिर्फ संदेश दिए जाते रहे! 
      हिंदी सिनेमा में ज्ञान देने वाली ऐसी फिल्मों की भरमार है। अधिकांश बाल फिल्मों की कहानी में उपदेश ही ज्यादा दिखाई दिए, बालमन को कुरेदने की कोशिश किसी ने कभी नहीं की! बच्चों के लिए सत्यजित राय ने कुछ अच्छी बंगाली फिल्में बनाने की कोशिश जरूर की थी। लेकिन, ताजा संदर्भों में देखा जाए तो किसी ने वास्तव में बालमन को खंगालकर फ़िल्में बनाने की कोशिश की है, तो वे हैं गुलजार! उनकी फिल्म 'परिचय' (1972) और 'किताब' (1977) में बच्चों का सकारात्मक चित्रण दिखाया गया। 'परिचय' ऐसे परिवार के बच्चों की कहानी है, जहां बच्चों की मनः स्थिति को जांचा-परखा नहीं गया था। क्योंकि, जब तक बच्चों से घुला-मिला नहीं जाए, उनके करीब नहीं जाया जा सकता। ऐसा न करने पर खुद परिवार के सदस्य उन्हें समझ पाने में असमर्थ होते हैं। फिल्म में दिखाया था कि बच्चों का मनोविज्ञान समझे बगैर उन्हें समझना मुश्किल है। ऐसी स्थिति में उनका टीचर रवि (जितेंद्र) बच्चों के हाव-भाव और उनकी जरूरतों को समझकर उन्हें पढ़ा पाने में सफल होता है। जबकि, इसके पूर्व कई शिक्षक बच्चे भगा देते हैं। 
     महबूब खान ने भी बच्चों के लिए 1962 में 'सन ऑफ इंडिया' बनाई थी। फिल्म तो नहीं चली, पर इसका एक गीत 'नन्हा मुन्ना राही हूं मैं देश का सिपाही हूँ' को लोग आज भी याद करते हैं। सत्येन बोस के निर्देशन में 1964 में बनी फिल्म 'दोस्ती' सिर्फ बच्चों की फिल्म तो नहीं कहा जा सकता, पर ये फिल्म बच्चों को प्रेरणा जरूर देती है। शेखर कपूर ने भी 1983 में 'मासूम' बनाई! वास्तव में तो ये विवाहेत्तर संबंधों से जन्मे बच्चे के कारण होने वाले पारिवारिक संघर्ष पर आधारित थी। 1992 में गोपी देसाई निर्देशित फिल्म 'मुझसे दोस्ती करोगे' का विषय भी एक बच्चे के सपनों की दुनिया का चित्रण था। इसी थीम पर 1994 में अन्नू कपूर ने 'अभय' बनाई थी। आशय यह कि बच्चों पर फ़िल्में तो बनी, पर उसमें भी बड़ी उम्र के दर्शकों को ध्यान में रखा गया! फिल्म 'नन्हें मुन्ने' भी याद करने लायक फिल्म है, जिसमें एक लड़की के अनाथ होने के बाद अपने तीन भाइयों के पालन पोषण के संघर्ष का चित्रण था! ऐसी ही एक फिल्म 'मुन्ना' थी, जो ऐसे बच्चे की कहानी है, जिसकी विधवा मां ख़ुदकुशी कर लेती है। बाद में चेतन आनंद ने इसी को आधार बनाकर 'आखिरी खत' फिल्म बनाई थी। 
     बच्चों पर केंद्रित एक फिल्म 'जागृति' (1954) भी आई, जिसका गीत 'हम लाए हैं तूफान से किश्ती निकाल के' आज भी सुनाई देता है। इसी साल बनी फिल्म 'बूट पॉलिश' भी बाल मनोविज्ञान को स्पष्ट करती है। एक सन्यासी और एक अनाथ बालिका के बीच स्नेह संबंध दर्शाने वाली वी शांताराम की फिल्म 'तूफ़ान और दीया' (1956) भी सराहनीय फिल्म थी! सत्येन बोस ने 1960 में बच्चों पर केंद्रित फिल्म 'मासूम' बनाई, जिसमें बच्चों से जुड़े कई सवाल उठाए थे। इस फिल्म का गीत 'नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए' अभी भी सुना जाता है। 1983 में शेखर कपूर ने इसी नाम से फिर फिल्म बनाई। यह फिल्म भी बच्चों को कहानी का आधार बनाकर बनी थी। अभी तक बच्चों पर कई फ़िल्में बनी, पर वास्तव में इन फिल्मों को बच्चों की फिल्म नहीं कहा जा सकता! बतौर बाल कलाकार नीतू सिंह की फिल्म 'दो कलियां' को बच्चों की फिल्म जरूर कहा गया, पर ये बच्चों के लिए नहीं थी! 2005 में विशाल भारद्वाज ने भी बच्चों के लिए 'ब्लू अम्ब्रेला' बनाई, पर वो चली नहीं! 
     बीआर चोपड़ा' ने संयुक्त परिवारों के टूटने पर भूतनाथ' और 'भूतनाथ रिटर्न' बनाई! लेकिन, विशाल भारद्वाज की 'मकड़ी' ने बाल फिल्मों को लेकर चली आ रही धारणा को तोड़ दिया! 2007 में आमिर खान ने बाल मानसिकता पर श्रेष्ठ फिल्म 'तारे जमीं पर' बनाकर दर्शकों को जरूर झकझोर दिया था। परिवार में उपेक्षित और मंदबुद्धि बच्चे की कहानी ने कई बड़ों-बड़ों को रुलाया था। अमोल गुप्ते की फिल्म 'स्टेनली का डब्बा' (2011) को भी बच्चों को बेहतरीन फिल्म कहा जा सकता है! गरीब राजस्थानी लड़के के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम से मिलने की कोशिश पर बनी 'आई एम कलाम' भी इस दिशा में अच्छा प्रयास था। लेकिन, 1956 में अल्बर्ट लैमोरीसे निर्देशित फ्रेंच फिल्म 'रेड बैलून' और 1995 में ईरानी फ़िल्मकार निर्देशित 'व्हाइट बैलून' आज भी सिनेमा के लिए मील का पत्थर है। लेकिन, क्या कारण है कि हम बच्चों के लिए अभी तक 'चिंड्रेन ऑफ हेवन' जैसी एक भी फिल्म नहीं बना पाए! आज फिल्में हमारी जरूरत का हिस्सा बन चुकी हैं। आज़ादी के बाद लगभग हर दशक में सिनेमा के जरिए कोशिश की जाती रही, कि समाज को कुछ नया दिया जा सके। इस क्रम में बच्चों पर केंद्रित सिनेमा की शुरुआत हुई। जिससे बच्चों के अपने मुद्दे, उनसे जुड़ी सामाजिक चुनौतियाँ और उनके अंतःमन स्थिति को परदे पर दिखाया जा सके।
     1955 में बच्चों के लिए उद्देश्यपूर्ण फिल्मों का निर्माण और उन्हे स्वस्थ मनोरंजन देने के लिए 'बाल चलचित्र समिति' की स्थापना की गई। इस समिति का काम बच्चों पर आधारित फिल्मों का निर्माण, वितरण और प्रदर्शन करना था। इस कोशिश में 1979 से यह समिति हर दो साल में 'बाल फिल्म महोत्सव' का आयोजन करती आ रही है। जिनमें देश और दुनिया के बच्चों पर केन्द्रित फिल्मों का प्रदर्शन होता है। लेकिन, आज तक बाल चित्र समिति एक भी ऐसी फिल्म नहीं बना पाया, जिससे बाल सिनेमा का इतिहास गौरवान्वित हो सके। आजादी के बाद से बच्चों पर जितनी फिल्में बनाई, उनमें बच्चों को साथ लेकर चलने के बजाए संदेश ज्यादा सुनाए गए।
--------------------------------------------------------------------------------------------

दिल उदास है, तो देखिए दिल खुश फ़िल्में

बीमारियों की फेहरिस्त में एक नाम मूड का भी शामिल है। लेकिन, मूड का इलाज किसी के पास नहीं होता। हर बीमारी का डॉक्टर मिल जाता है, पर मूड तो लाइलाज है। इसलिए कि हर व्यक्ति का मूड अलग-अलग तरीके से ठीक होता है। कोई लांग ड्राइव पर चला जाता है, कोई संगीत सुनता है तो कोई अपने प्रिय के साथ गुफ्तगू करके दिल बहला लेता है। कुछ लोग फिल्म देखकर अपना दिल खुश कर लेते हैं। लेकिन, हर फिल्म ऐसी नहीं होती जो दिल खुश करके मूड को मस्त कर दे। फिल्म इतिहास में ऐसी चुनिंदा फ़िल्में बनी जो कुछ अलग मानी जाती है।
   
- हेमंत पाल
  
     आजकल मूड ख़राब होना भी एक बीमारी है। ये वो बीमारी है जिसका कोई एक कारण नहीं होता और न एक होता है। वही जानता है कि मूड कैसे ठीक होगा। इस बीमारी का सबसे बड़ा लक्षण है दिल उदास होना। ऐसे में कुछ भी अच्छा नहीं लगता। लेकिन, फिल्म ऐसी चीज है जो मूड ठीक करके दिल खुश करने में देर नहीं करती। लेकिन, हर फिल्म ख़राब मूड का इलाज नहीं होती। मूड ख़राब हो, तो ठीक करने के लिए भी कैसी फिल्म देखी जाए कि मूड फ्रेश हो। क्योंकि, सभी फ़िल्में इस स्तर की होती भी नहीं है कि उनसे मूड ठीक हो! इसके लिए कुछ अलग तरह की फ़िल्में देखी जाना चाहिए। जब फ़िल्म अलग होगी, तभी उस बीमार का ध्यान बंटेगा और मनोरंजन होगा। मारधाड़, बदले की कहानियां, प्रेम कहानियों वाली फिल्मों से चंद समय मन बहलाव होता है, पर ये फ़िल्में मूड दुरुस्त नहीं करती। वैसे आजकल ऐसी कई फिल्में बन रही हैं, जिनके कथानक काफी अलग होते हैं।
    फिल्मकार मनोरंजन के लिए बहुत से प्रयोग करते हैं। भागदौड़ भरी जिंदगी में आजकल स्ट्रेस किसे नहीं होता। लेकिन, महत्वपूर्ण यह है कि आप उसे किस तरह हैंडल करते हैं। फेहरिस्त में कुछ ऐसी कमाल की फ़िल्में हैं, जो न सिर्फ जीने का तरीका सिखाती हैं, बल्कि जिंदगी की समस्याओं को एक अलग नजरिए से देखने में भी मदद करती है। आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में तनाव किसे नहीं होता। किसी को नौकरी या कारोबार का तनाव है, तो कोई पारिवारिक समस्या से परेशान है। कोई पैसों की तंगी से दुखी है तो किसी को ऑफिस का स्ट्रेस मारता है। ऐसी स्थिति में कुछ फिल्में दिल को सुकून देती हैं। कई बार ऐसी फिल्मों से कोई ऐसा आइडिया मिल जाता है, जो दर्शकों की समस्या का निराकरण करता है। अलग तरह की फ़िल्में वे होती है, जो जिंदगी को नई राह दिखाती है। सब कुछ ठीक नहीं चल रहा, तो ऐसी फिल्में जरूर देखनी चाहिए, जो न सिर्फ तनाव कम करें, बल्कि जीने और खुश रहने की कला भी सिखाए। ऐसी ही एक फिल्म है 'डियर जिंदगी' जो एक बार जरूर देखनी चाहिए। शाहरुख खान और आलिया भट्ट की यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कोई खास जादू नहीं चला सकी। लेकिन, समीक्षकों ने इसे बेहतरीन फिल्मों में शामिल किया। कई बार अपने ऑफिस स्ट्रेस और निजी जिंदगी में चल रही नेगेटिविटी से लोग इतने परेशान हो जाते हैं कि उनके दिलो-दिमाग में उल्टे-सीधे ख्याल आने लगते हैं। फिल्म में शाहरुख़ का किरदार मनोचिकित्सक का है। इस नजरिए से फिल्म में शाहरुख खान का बोला हर डायलॉग यादगार है। 
    आमिर खान अभिनीत '3 इडियट्स' भी ऐसी ही फिल्म है, जो जीवन को नई दिशा दिखाती है। क्योंकि, जिंदगी में किसी ऊंचाई पर पहुंचने और धन कमाने का दबाव दुनिया का सबसे बड़ा तनाव में से एक है। फिल्म के कथानक के मुताबिक, रचनात्मकता और जिज्ञासा से भरे सवाल जिंदगी की पढ़ाई बर्बाद कर देती है। उन्हें असली शिक्षा जिंदगी और करियर के नजरिए से मिलना चाहिए। यह बात आमिर खान की फिल्म '3 इडियट्स' यही बात बताती है। ऐसी ही एक फिल्म है 'जिंदगी न मिलेगी दोबारा' जिसके मुख्य कलाकार रितिक रोशन, फरहान अख्तर और अभय देयोल हैं। यह फिल्म असल में उन लोगों के लिए है, जो पढ़ लिखकर कामयाब तो हो गए, पर हमेशा चूहा दौड़ में लगे रहते हैं। यह फिल्म कुछ ऐसे दोस्तों की कहानी है जिनमें से एक अपने बाकी दोस्तों की जिंदगी और एक मजेदार सफर के दौरान लाइफ का असली मतलब सीखता है। एक दिल खुश पर अंत में शिक्षा देने वाली फिल्मों में एक 1971 में आई 'आनंद' भी है। अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना की यह फिल्म ऐसे व्यक्ति पर केंद्रित है, जिसकी जिंदगी में अब बस चंद दिन शेष हैं। वे एक लाइलाज बीमारी से पीड़ित हैं, लेकिन फिर भी वो अपने आखिरी वक्त को खुलकर जीता है और निराशा में आशा के रंग भरते हुए दुनिया को जीने की कला सिखाता है।  कंगना रनौत की फिल्म 'क्वीन' 2013 में आई थी। यह फिल्म ऐसी लड़की की कहानी है, जिसे उसका मंगेतर शादी के चंद दिन पहले धोखा दे देता है। लेकिन, हनीमून की टिकट बुक हो चुकी होती है, तो कंगना (रानी) इन पैसों को बर्बाद करने के बजाए अकेले ही हनीमून पर जाने का फैसला करती है। अकेले हनीमून का उसका तजुर्बा उसे एक नया नजरिया देता हैं। ऐसी ही खुशनुमा फिल्म 'उड़ान' भी है, जो ओटीटी प्लेटफॉर्म पर देखी जा सकती है। ये फिल्म बताती है कि कई बार जिंदगी में ऐसी चुनौतियां सामने आती है, जिनमें सख्त फैसले लेना मजबूरी हो जाता है। ये फिल्म एक फैमिली ड्रामा है।
     'लापता लेडीज' भी दो लड़कियों के इर्द-गिर्द घूमती है, जो शादी के बाद दुल्हन बनकर ससुराल जाती हैं, पर घूंघट में उनकी अदला-बदली हो जाती है। एक का नाम फूल होता है, दूसरी पुष्पा होती है। फूल अपने ससुराल का नाम तक नहीं जानती। जबकि, पुष्पा अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए भाग जाना चाहती है। अंत में दोनों ही अपने-अपने मकसद में कामयाब हो जाती हैं।
    सलमान खान, आमिर खान, रवीना टंडन और करिश्मा कपूर की फिल्म 'अंदाज अपना अपना' इतिहास में दर्ज फिल्म है। इस फिल्म की कॉमेडी ने अपने समय पर दर्शकों को लोटपोट कर दिया था। न सिर्फ कॉमेडी बल्कि फिल्म में क्यूट लव स्टोरी भी देखने को मिलती है। शक्ति कपूर और परेश रावल भी अहम किरदार में थे। इसके अलावा संजय दत्त की फिल्म 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' भी एक बेहतरीन कॉमेडी फिल्म है। इसमें संजय दत्त का एक अलग ही अंदाज देखने को मिला था। मुन्ना भाई यानी संजय दत्त के साथ अरशद वारसी सर्किट की जोड़ी दर्शकों को खूब पसंद आई। फिल्म जहां हंसाती है, वहीं कई जगहों पर भावुक भी कर देती हैं। 2005 में आई 'गरम मसाला' में अक्षय कुमार और जॉन अब्राहम की जोड़ी थी। परेश रावल और राजपाल यादव का भी अहम किरदार था। फिल्म में अक्षय और जॉन अब्राहम तीन एयर होस्टेस के चक्कर में पड़ जाते हैं और फिर जोरदार कॉमेडी होती है। सलमान खान, अनिल कपूर, फरदीन खान, बिपाशा बसु और लारा दत्ता की फिल्म 'नो एंट्री' को देखकर दर्शकों का हंसी रोकना मुश्किल हो जाता है। फिल्म का एक डायलॉग 'रिलायंस की कसम' तो आज भी कई बार लोग बातों बातों में कह देते हैं।
    डरावनी फिल्मों को मनोरंजन की गिनती में कम ही लोग लेते हैं। लेकिन, अब ऐसी फ़िल्में बनाने का अंदाज बदल गया। जब से हॉरर के साथ कॉमेडी को जोड़ा गया, इन फिल्मों के कथानक बदल गए। पहले इन फिल्मों में बड़े नामचीन कलाकार काम नहीं करते थे, पर अब  राजकुमार राव, श्रद्धा कपूर और कार्तिक आर्यन से लगाकर अक्षय कुमार भी दिखाई देने लगे। सिनेमा की दुनिया में हॉरर फिल्मों को दोयम दर्जे का माना जाता रहा है। मगर, कुछ सालों में सस्ते सिनेमा के रूप में जाना जाना वाला ये जॉनर लोकप्रिय होने लगा। मूड फ्रेश करने के लिए ऐसे कथानकों की फ़िल्में देखे जाने जरूरत इसलिए महसूस की जाने लगी, कि ये दर्शकों को ये अलग दुनिया में ले जाती है। स्त्री, मुंज्या और 'स्त्री 2' के बाद 'भूल भुलैया' सीरीज के बॉक्स ऑफिस आंकड़ों के बाद अब हॉरर कॉमेडी को भी मूड बदलने वाली फिल्मों के रूप में जगह मिलने लगी।
      कुछ दशक पहले तक हॉरर फिल्मों का एक लंबा दौर रहा। दो गज जमीन के नीचे, वीराना, पुराना मंदिर, बंद दरवाजा जैसी डरावनी फिल्मों का अलग ही दर्शक वर्ग था। इस तरह की हॉरर फिल्मों में कुछ ऐसे दृश्य पिरोए जाते थे जो दर्शकों को बांधकर रखते थे। मगर कोई भी इन इन फिल्मों को परिवार के साथ देखना पसंद नहीं करता। मगर कुछ सालों में हॉरर कॉमेडी में आए नए कथानक ने इन्हें मनोरंजक फिल्मों का दर्जा दे दिया। हॉरर और कॉमिक फिल्मों को हमेशा ही पसंद किया जाता रहा है। जब दर्शकों को हॉरर और कॉमेडी का कॉम्बिनेशन मिला, तो उसे दर्शकों ने हाथों-हाथ हाथ लिया। फिल्मकार अमर कौशिक की 'स्त्री' से इसकी शुरुआत हुई। फिल्म ने आज से पांच साल पहले 180 करोड़ से ज्यादा का बिजनेस किया था और उसके बाद तो हॉरर कॉमेडी का सिलसिला चल निकला। अब दिल खुश करने वाली फिल्मों की श्रेणी में ऐसी फ़िल्में भी शामिल की जाने लगी। यदि दिल उदास है और मूड बदलना चाहते हैं, तो देखिए कुछ ऐसी फ़िल्में तो रूटीन से अलग हों!
-------------------------------------------------------------------------------------------

Friday, November 22, 2024

अभी ख़त्म नहीं हुआ ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों का जादू!

- हेमंत पाल

      हिंदी सिनेमा ने अपने सौ साल से ज्यादा लंबे इतिहास में कई उतार-चढाव देखे। इनमें कुछ संघर्ष भरे, कुछ अच्छे थे, कुछ बहुत अच्छे और यादगार पड़ाव रहे। शुरुआती समय में फ़िल्में बनाना बेहद दुष्कर काम था! पर, जैसे-जैसे तकनीक समृद्ध हुई, फिल्मकारों के काम में भी रचनात्मकता आती गई। तकनीकी सुधार से फिल्मांकन, संगीत और डायरेक्शन में बहुत बदलाव आया। शुरू के दौर में जो फ़िल्में ब्लैक एंड व्हाइट बनती थीं, वे धीरे-धीरे रंगीन होने के साथ बेहतर होती गई। जब फिल्मों ने जीवन की वास्तविकता रंग लिए, तो लोगों ने ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों को लगभग भुला दिया। लेकिन, आज भी उस दौर की कुछ फ़िल्में ऐसी हैं, जो अपनी कहानी, डायरेक्शन, फिल्मांकन और अभिनय के मामले में आज की फिल्मों पर भारी हैं। 70 के दशक के बाद तो ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्में बनना बंद ही हो गई! लेकिन, ब्लैक एंड व्हाइट काल की कुछ यादगार फ़िल्में ऐसी हैं, जिन्हें आज भी पसंद किया जाता है।    
      ये फ़िल्में उन पुरानी विंटेज कार की तरह हैं, जिनमें बैठने वाला अपने आपमें कुछ अलग ही महसूस करता है। क्योंकि, ये फ़िल्में भी किसी विंटेज से कम नहीं! सभी तो नहीं, पर कुछ कालजयी फ़िल्में जरूर हैं, जो आज भी देखी जाती हैं। ये वे फिल्में हैं, जो जीवन की सच्चाइयों से रूबरू कराने के साथ कई सामाजिक मुद्दों की तरफ इंगित करती हैं। इन फिल्मों के कलाकार भी अपने दौर के वे लोग हैं, जिनके अभिनय का आज भी लोहा माना जाता है। पसंद की जाने वाली फिल्मों में 1949 की फिल्म 'महल' को रखा जा सकता है। कमाल अमरोही के निर्देशन में बनी इस फिल्म में अशोक कुमार और मधुबाला ने काम किया था। ये पुनर्जन्म से जुड़ी अलौकिक सस्पेंस थ्रिलर फिल्म थी। ये दो प्रेमियों के मिलन और बिछड़ने की कहानी है। एक महल में दो प्रेमी आधी रात को मिलते हैं। एक दिन प्रेमी एक हादसे का शिकार हो जाता है और प्रेमिका से मिलने नहीं आ पाता। कई सालों के बाद नया मालिक अशोक कुमार वहां रहने आता है, तब रहस्य सामने आता है। इसमें मधुबाला ने दोहरी भूमिका निभाई थी।  
      ऐसी ही एक फिल्म है 1951 में आई 'आवारा' है, जिसका निर्देशन करने के साथ राज कपूर ने इसमें काम भी किया था। इस फिल्म ने देश-विदेश में कामयाबी के कई झंडे गाड़े थे। फिल्म में पृथ्वीराज कपूर ने जज की भूमिका निभाई थी। इसी साल (1951) में आई फिल्म 'अलबेला' का निर्देशन मास्टर भगवान ने किया और इसके कलाकार थे गीता बाली और मास्टर भगवान। फिल्म की कहानी एक गरीब पर केंद्रित थी, जो अपनी बहन की शादी के लिए पैसे नहीं जुटा पाता है। घर से निकलते समय अमीर के रूप में लौटने की कसम खाता है। जब वो वापस लौटता है, तो उसे पता चलता है कि उसकी माँ अब जीवित नहीं है। उसने सालों तक जो पैसे घर भेजे, वे भी गायब थे। निर्देशक बिमल रॉय की फिल्म 'दो बीघा ज़मीन' (1953) में बलराज साहनी, मुराद, निरूपा रॉय ने काम किया था। रवींद्रनाथ टैगोर की बंगाली कविता 'दुई बीघा जोमी' इस फिल्म की नींव थी। इस फिल्म में गरीब किसान ठाकुर हरनाम सिंह (मुराद) के हाथों गरीब किसान शंभू महतो (बलराज साहनी) के संघर्ष और जबरन वसूली का दर्द भरा चित्रण था। किसान और उसका परिवार दो एकड़ जमीन बचाने के लिए अपना जीवन ख़त्म कर देते हैं, जो उनकी जीविका का एकमात्र साधन होता है।  
      1954 में आई फिल्म 'बूट पॉलिश' को प्रकाश अरोड़ा ने निर्देशित किया था। इसके कलाकार कुमारी नाज़, रतन कुमार, चंदा बुर्के और डेविड थे। यह फिल्म भाई-बहन भोला (रतन कुमार) और बेलू (कुमारी नाज़) की कहानी थी। मां की मौत के बाद, क्रूर चाची कमला देवी (चंदा बुर्के) भाई और बहन को सड़क भिखारी बनने के लिए मजबूर करती है। जॉन अंकल (डेविड अब्राहम) की मदद से भोला और बेलू अपनी चाची के खिलाफ जाने और जीवन जीने का फैसला करते हैं। 1955 में आई फिल्म 'बाप रे बाप' को अब्दुल रशीद कारदार ने निर्देशित किया था। किशोर कुमार, चाँद उस्मानी, स्मृति बिस्वास  की ये फिल्म एक सुपर-हिट कॉमेडी थी।  ब्लैक एंड व्हाइट दौर की राज कपूर निर्देशित क्लासिक फिल्मों में 'श्री 420' (1955) को भी गिना जाता है। इसमें राज कपूर के साथ नरगिस और नादिरा थे। फिल्म एक गांव के लड़के रणबीर राज की कहानी है, जो अपनी किस्मत आजमाने शहर जाता है। वहां उसे विद्या (नरगिस) से प्यार हो जाता है। राज शहर में कई चालाक लोगों से मिलता है, जो उसे धोखाधड़ी का जीवन जीने के लिए सिखाते हैं। यह फिल्म रूस में बहुत लोकप्रिय हुई थी। 
      1956 में आई 'जागते रहो' निर्देशक अमित मित्रा की फिल्म थी, जिसमें राज कपूर, प्रदीप कुमार, स्मृति बिस्वास और नरगिस थे। फिल्म की कहानी में एक गरीब व्यक्ति के बेहतर जीवन जीने की उम्मीद की कहानी थी। लेकिन, यह भोला किसान लालच और भ्रष्टाचार के जाल में फंस जाता है। 'जागते रहो' भारतीय सिनेमा की क्लासिक फिल्मों में एक है। इसे रूसी बॉक्स ऑफिस पर भी ब्लॉक बस्टर घोषित किया गया था। इसी तरह 1957 में आई 'प्यासा' निर्देशक गुरुदत्त की फिल्म थी, जिसमें गुरुदत्त के साथ वहीदा रहमान, माला सिन्हा ने काम किया था। इसकी कहानी है एक कवि का संघर्ष था जो अपनी कविताओं को प्रकाशित करने के लिए संघर्ष करता है। वह उस वेश्या गुलाबो (वहीदा रहमान) से मिलता है, जो उसकी कविता से प्यार करती है। अबरार अल्वी फिल्म के लेखक थे। 
      1957 में आई फिल्म 'नया दौर' बीआर चोपड़ा ने बनाई थी। इसमें दिलीप कुमार, वैजयंती माला और अजीत थे। इसकी कहानी में शंकर (दिलीप कुमार) घोड़ा गाड़ी खींचकर आजीविका कमाता है। लेकिन, मकान मालिक सेठ जी (नजीर हुसैन) के बेटे कुंदन (जीवन) को शंकर और साथी धमकाते हैं। क्योंकि, वह उसी मार्ग पर बस की सवारी शुरू करता है। ब्लैक एंड व्हाइट काल की 'मधुमती' (1958) भी आज पसंद की जाने वाली फिल्मों में एक है। इसके निर्देशक बिमल रॉय थे और इसमें दिलीप कुमार, वैजयंती माला, प्राण और जॉनी वॉकर ने काम किया था। 'मधुमती' एक सदाबहार रोमांटिक फिल्म है, जिसमें दो जन्मों की कहानी थी। 1958 की फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' निर्देशक सत्येन बोस ने निर्देशित की थी। इसमें किशोर कुमार, अशोक कुमार और अनूप कुमार के साथ मधुबाला थी। 1959 में आई गुरुदत्त की फिल्म 'कागज़ के फूल' में गुरुदत्त के साथ वहीदा रहमान और वीणा सप्रू थे। अबरार अल्वी की कहानी पर बनी 'काग़ज़ के फूल' गुरुदत्त के जीवन की कहानी थी, जो बेहद दुखद थी।
       हिंदी सिनेमा की सबसे क्लासिक कही जाने वाली फिल्मों में एक 'मुगल-ए-आज़म' (1960) को के आसिफ ने निर्देशित किया था। इसमें पृथ्वीराज कपूर, मधुबाला, दिलीप कुमार और दुर्गा खोटे ने काम किया था। फिल्म की कहानी प्रेम और पिता के जिद्दी स्वभाव और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर गढ़ी गई थी। फिल्म में मुगल राजकुमार सलीम (दिलीप कुमार) और दरबारी अनारकली (मधुबाला) की प्रेम कहानी पर प्रकाश डाला गया है। बाद में इस फिल्म को नई तकनीक से रंगीन बनाया गया था। कहा जा सकता है कि इस फिल्म को दोहराया नहीं जा सकता। निर्देशक विजय आनंद की 'काला बाज़ार' (1960) में देव आनंद, वहीदा रहमान और नंदा थे। ये विजय आनंद की सफल ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म थी। फिल्म में रघुवीर (देव आनंद) एक यात्री के साथ बहस से बस कंडक्टर की नौकरी गंवाने के बाद कालाबाजारी करने लगता है। बाद में वो महसूस करता है कि वो गलत रास्ते पर है। 1961 में आई 'काबुलीवाला' निर्देशक हेमेन गुप्ता की फिल्म थी। इसमें बलराज साहनी, बेबी सोनू, बेबी फरीदा ने अभिनय किया था। इसकी कहानी ड्राई फ्रूट बेचने अब्दुल रहमान खान (बलराज साहनी) की थी। 
      'साहिब बीबी और गुलाम (1962) को गुरुदत्त की फिल्मों के लेखक अबरार अल्वी ने निर्देशित किया था। इसके कलाकार मीना कुमारी, गुरुदत्त, रहमान थे। फिल्म में कई फ्लैशबैक हैं। इस फिल्म में कई डायलॉग भी क्लासिक थे। फिल्म 'बंदिनी' (1963) को निर्देशक बिमल रॉय की क्लासिक फिल्मों में गिना जाता है। इसमें अशोक कुमार, नूतन, धर्मेंद्र थे। इसकी कहानी एक महिला कैदी नूतन और डॉ देवेंद्र (धर्मेंद्र) पर केंद्रित है। 'बंदिनी' एक एक महिला कैदी की दुखद और भावनात्मक कहानी है। 1963 में राष्ट्रीय पुरस्कार के अलावा, इस फिल्म ने 1964 के फिल्मफेयर पुरस्कारों में कई श्रेणियां जीतीं। 1967 की फिल्म 'रात और दिन' निर्देशक सत्येन बोस की फिल्म थी, जिसमें नरगिस, प्रदीप कुमार और फिरोज खान ने काम किया था। यह फिल्म एक महिला केंद्रित ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म थी। इसके अलावा और भी कई ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों हैं, जिन्होंने हिंदी सिनेमा में अपनी पहचान बनाई। इनमें अनमोल घड़ी (1946), आर पार (1954), देवदास (1955), चोरी चोरी (1956) और हावड़ा ब्रिज (1958) भी हैं।
--------------------------------------------------------------------------------------


Sunday, November 3, 2024

'बिग बॉस' जैसे टीवी शो को कोई क्यों देखे!

     टीवी पर आने वाले रियलिटी शो को लेकर कुछ सामाजिक मापदंड हैं, जिन्हें किनारे नहीं किया जा सकता! लेकिन, विवादित रहे 'बिग बॉस' शो के कुछ सीजन ने ज्यादा ही सीमा लांघी! इस शो में क्रिएटिव टास्क रखे जाते, जो प्रतियोगियों में स्पर्धा बढ़ाते और कुछ अलग तरह का मनोरंजन परोसते! लेकिन, वो सब छोड़कर अब शो में फूहड़ता से लोकप्रियता बटोरने की कोशिश की जाने लगी! 'बिग बॉस' ने अश्लीलता की लक्ष्मण रेखा पार कर ली। इस वजह से शो की लोकप्रियता गिरी। क्योंकि, दर्शक मनोरंजन के नाम पर कुछ भी झेलने को मजबूर नहीं हैं!
000 

- हेमंत पाल

    कुछ दशक पहले तक टीवी पर मनोरंजन के नाम पर खास कुछ नहीं था। जो था, दर्शक उसी में मन बहलाव की सामग्री ढूंढ लेते थे। पारिवारिक या पौराणिक सीरियल, समाचार, फ़िल्मी गीतों का साप्ताहिक कार्यक्रम और हर रविवार को एक फिल्म ही मनोरंजन हुआ करता था। फिर भी लोग मनोरंजन की खुराक से संतुष्ट थे। आज चौबीस घंटे टीवी मनोरंजन परोसता है, पर दर्शक तृप्त नहीं होते। एक दौर रियलिटी शो का आया, जिसने मनोरंजन की अलग खुराक परोसी। अमिताभ बच्चन के शो 'कौन बनेगा करोड़पति' ने सन 2000 में दर्शकों को मनोरंजन के साथ ज्ञान से परिचित कराया। इसी समय 'बिग बॉस' नाम का रियलिटी शो भी टीवी के परदे पर आया। मूलतः नीदरलैंड के इस शो का नाम 'बिग ब्रदर' है। इस रियलिटी शो में सेलिब्रिटी को कंटेस्टेंट बनाया जाता है। इंडिया में सेलिब्रिटी का मतलब फिल्म और टीवी के कलाकार होते हैं, इसलिए यहाँ वे ही इस शो के प्रतियोगी बनते रहे। पिछले 17 सीजन में इस शो को 6 एंकर्स ने संचालित किया। इनमें सलमान खान का लम्बे समय से कब्ज़ा बना है। 
    अभी तक माना जाता था कि जब 'बिग बॉस' सीजन शुरू होता है, वह हमेशा टीवी पर लोकप्रियता में नंबर वन पर रहता है! लेकिन, लगता है इस बार दर्शकों को शो पसंद नहीं आ रहा। ये सिर्फ अनुमान नहीं, सच्चाई है, जिसका सबूत टीवी कार्यक्रमों को उनकी लोकप्रियता के आधार पर नंबर देने वाली 'टीआरपी' ने भी दिया। 'टीआरपी' में अव्वल रहने के लिए सभी टीवी शो में मुकाबला चलता रहता है। क्योंकि, ये सिर्फ लोकप्रियता का प्रमाण नहीं, बल्कि प्रायोजक भी चाहते हैं कि उनका शो सबसे आगे रहे! यदि ऐसा नहीं होता, तो प्रायोजकों के दरकने का खतरा बढ़ जाता है। इस कोशिश में सलमान खान का शो 'बिग बॉस' कम से कम इस बार तो बुरी तरह असफल साबित हुआ। शो को अभी दो महीने भी नहीं हुए हुए, पर इसकी 'टीआरपी' बेहद कम है। जानकारी के मुताबिक, यह 18वां सीजन 18वें नंबर पर है। दर्शकों के नजरिए से भी इस बार शो का हाल बहुत बुरा है।  शुरुआती लोकप्रियता के बाद 'बिग बॉस' जैसे शो दर्शकों के दिमाग से उतरता गया। इसका कारण है शो की छद्म सच्चाई! भले ही शो को रियलिटी का नाम दिया गया हो, पर कई घटनाएं ऐसी होती है, जिनसे इसके रियल होने पर संदेह होता है। प्रतियोगियों की नजर आती कुंठा, रोज के झगड़े और विवाद, एक-दूसरे को मात देने की कोशिश और गुटबाजी ये सब अपने आप होता नहीं लगता। इसके पीछे कहीं न कहीं स्क्रिप्ट होने का संदेह होता है। वो लिखित में भले न हो, पर दर्शकों को मनोरंजन परोसने के लिए उसे तैयार तो किया ही जाता होगा।
      शो से जुड़े ऐसे कई सवाल हैं, जो इसके रियल होने पर संदेह जताते हैं। क्या सेलिब्रिटी छोटी-छोटी बातों पर ऐसे झगड़ते है? क्या 'बिग बॉस' में दिखाई जानी वाली प्रेम कहानियां सच्ची होती हैं? प्रतियोगी बनकर आए सेलिब्रिटी 'बिग बॉस' की आवाज़ सुनकर डर क्यों जाते हैं? दरअसल, इस शो का कॉन्सेप्ट शो में शामिल सेलिब्रिटी की रियल-लाइफ को दर्शकों के सामने लाना है! क्योंकि, तीन महीने तक कोई भी अपने मूल चरित्र को छुपाकर नहीं रख सकता और न एक्टिंग कर सकता है! इस आधार पर कहा जाता है कि 'बिग बॉस' में दर्शक वही देखते हैं, जो वास्तव में कैमरों के सामने घटता है! अभी तक यही समझा भी जा रहा था। लेकिन, क्या वास्तव में यही सच है? अनजान चेहरों को सेलिब्रिटी भी तो नहीं माना जा सकता।   
     इस शो का जादू दर्शकों के दिमाग से इसलिए भी उतरता गया कि घर के 15 लोगों को आदेश देने वाली आवाज 'बिग बॉस' ने अपना खुद ही अपना दबदबा ख़त्म कर लिया। पिछले 3-4 सीजन से तो 'बिग बॉस' के निर्देशों का कोई मतलब ही नहीं रह गया। जबकि, पहले प्रतियोगी यह आवाज सुनते ही सहम जाते थे। दिन में कोई सोता नहीं था, यदि सोता पाया जाता तो उसे सजा मिलती थी। घर में अंग्रेजी बोलने पर पाबंदी थी। यदि कोई झगड़ता तो 'बिग बॉस' की एक आवाज पर बोलती बंद हो जाती थी। पर, अब ऐसा कुछ दिखाई नहीं दे रहा। 'बिग बॉस' के 18वें सीजन तक आते-आते 'बिग बॉस' का दबदबा नहीं बचा और उसका मसखरापन सामने आने लगा। महिला प्रतियोगियों से रंगीली बातें करना, बेवजह की मजाक और विवाद होने पर भी कुछ नहीं बोलना दर्शकों के गले नहीं उतर रहा। 
     घर में मौजूद प्रतियोगियों ने 'बिग बॉस' को गंभीरता से लेना लगता है बंद ही कर दिया। 18वें सीजन की टीआरपी का लगातार गिरना सबूत है। घर में लाए गए प्रतियोगी अनजान चेहरे हैं, सीरियल के दोयम दर्जे कलाकार हैं या जेल काटकर आए आपराधिक प्रवृत्ति के लोग हैं, जो झगड़ों में बाहर देख लेने की धमकी देने से भी बाज नहीं आते! जब किसी शो का स्तर इतना दोयम दर्जे का हो तो कोई उसे क्यों देखे! 'बिग बॉस' पिछले कुछ सालों में बेहद कमजोर नजर आने लगा। इस बार का शो (बिग बॉस-18) सबसे ज्यादा अपरिपक्व और बिखरा नजर आ रहा। इस शो की लोकप्रियता भी तेजी से घटी। इसका कारण शो के कंटेस्टेंट्स को माना जा रहा है, जो ज्यादातर अनजाने चेहरे हैं। दर्शकों के लिए इस शो का आकर्षण होता है, अपने पसंदीदा चेहरों को नजदीक से जानना और उनकी दिनचर्या और उनकी आदतों से वाकिफ होना! लेकिन, जिन चेहरों को कंटेस्टेंट बनाकर घर में लाया गया, वे दर्शकों के बीच पहचाने हुए नहीं है! 
   'बिग बॉस' कई बार अपने विवादास्पद फॉर्मेट के कारण आलोचना का शिकार बना! एक सीजन में आलोचना का कारण था, पुरुष और महिला प्रतियोगियों को एक बिस्तर पर साथ सोने की अनिवार्यता! लेकिन, दर्शकों की नाराजगी के बाद इसे दो दिन बाद ही बदलना पड़ा। इस बहाने 'बिग बॉस' लोगों के निशाने पर आ गया! सोशल मीडिया पर दर्शकों का गुस्सा फट पड़ा! उन्होंने अपनी नाराजी जताते हुए सूचना प्रसारण मंत्रालय से 'बिग बॉस' को बंद करने तक की मांग कर दी थी! मेकर्स पर यह भी आरोप लगाया गया कि वे भारतीय संस्कृति का अपमान कर रहे हैं। कई समाजसेवी संगठनों ने 'बिग बॉस' के फॉर्मेट को गलत बताते हुए सूचना प्रसारण मंत्रालय को पत्र लिखा! जिसे गंभीरता से लिया और जांच के आदेश भी दिए गए थे! विवाद बढ़ने के बाद शो के मेकर्स ने इस नियम को बदल तो दिया था। 
   पिछले 18 सीजन के दौरान कई प्रतियोगियों को एक-दूसरे से प्यार हो जाता है। शो की रोचकता के लिए 'बिग बॉस' उन प्रेमियों की शादी करवा देते हैं। ऐसे दो प्रसंग अभी तक हुए हैं। लेकिन, वास्तव में ये दिखावा ही था। शो में सारा खान और अली मर्चेंट की शादी हुई थी। 'बिग बॉस' सीजन-4 में आने से पहले दोनों एक-दूसरे को डेट कर रहे थे। जब शो में अली मर्चेंट ने सारा खान को प्रपोज किया, तो दोनों ने शादी करने का फैसला किया और इसके बाद शो में ही दोनों की शादी करवाई गई। इस शादी में उनके माता-पिता को भी बुलाया गया था। इस शादी के बाद बिग बॉस की टीआरपी काफी बढ़ी, पर शादी आगे नहीं चली। शादी के दो महीने बाद यह जोड़ी अलग हो गई। दरअसल, ये सब शो की टीआरपी के लिए किया गया था। इसके बाद सीजन-10 में भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री की एक्ट्रेस मोनालिसा ने शो की कंटेस्टेंट रहते हुए भोजपुरी एक्टर के मशहूर स्टार विक्रांत सिंह राजपूत से शादी की। शादी में मोनालिसा की मां और विक्रांत की बहन भी शामिल हुईं। 
----------------------------------------------------------------------------------------------

रुपहले परदे के पीछे से झांकता काला धंधा

   फिल्मों में अंडरवर्ल्ड के दखल की शुरुआत फ़िल्म निर्माण में पैसा लगाने से हुई, जब निर्माताओं को फिल्म निर्माण के लिए बैंकों और वित्तीय संस्थाओं से पैसा नहीं मिलता था। लेकिन, समय बदला और फिल्मों को उद्योग का दर्जा मिल गया। बैंक और निजी संस्थानों से उन्हें पैसा मिलने लगा। इसके बाद फिल्म निर्माताओं ने अंडरवर्ल्ड की काली कमाई से पल्ला झाड़ लिया। लेकिन, वे इस काली दुनिया से पूरी तरह पीछा नहीं छुड़ा सके। अंडरवर्ल्ड के सरगनाओं ने फिल्म इंडस्ट्री पर किसी न किसी रूप में अपना दबदबा बनाए रखा, जो आज भी कायम है। लेकिन, 90 के दशक में ऐसा दौर भी आया जब कई फिल्म अभिनेत्रियां इन काले कारोबारियों के चंगुल में आकर अपना करियर गंवा बैठी।
000      

- हेमंत पाल

    फिल्म इंडस्ट्री से अंडरवर्ल्ड का रिश्ता बहुत पुराना और गहरा रहा है। क्योंकि, जहां पैसा और ग्लैमर है वहां इस काले धंधे का दखल है। अपराध की इस दुनिया का दखल सिर्फ फिल्मों में काले पैसे लगाने और कमाने तक सीमित नहीं है। फिल्म की कास्टिंग से लेकर उसके गीत-संगीत और ओवरसीज राइट्स तक में इनका सीधा दखल रहता था। इसलिए कई कलाकार और संगीतकार भी इनसे नजदीकी बढ़ाते हैं। फिल्म की कहानियों को लेकर भी प्रोड्यूसर और डायरेक्टर इनसे सलाह मशवरा किया करते रहे हैं। क्योंकि, बात पैसे लगाने तक की नहीं, बल्कि एक भय भी व्याप्त रहता था, जो सीधे जान पर आता है। अब वहीं भय इतना बढ़ गया कि सलमान खान जैसे बड़े कलाकार भी कड़ी सुरक्षा के साये में रहने को मजबूर हो गए। 1993 में पहली बार मुंबई ने दाऊद और उसके गुर्गों के आतंक का चेहरा नजदीक से देखा था। 
       मुंबई ब्लास्ट से पहले दाऊद इब्राहिम दुबई में रहकर मुंबई में काले कारोबार पर नजर रखी। इसके बाद फिल्मी दुनिया में भी दाऊद का दबदबा हो गया। अगस्त 1997 में संगीत इंडस्ट्री के कैसेट किंग गुलशन कुमार की हत्या हुई और पहली बार एहसास हुआ कि अंडर वर्ल्ड क्या होता है! गुलशन कुमार को मंदिर में पूजा के बाद गोलियों से भून दिया गया। बाद में खुलासा हुआ कि उनसे फिरौती मांगी गई थी और नहीं देने पर उनकी हत्या कर दी गई। फिल्म इंडस्ट्री और अंडरवर्ल्ड की नजदीकी की शुरुआत हाजी मस्तान, करीम लाला और सटोरिए रतन खत्री जैसे सरगनाओं से हुई थी। इसमें बाद दाऊद इब्राहिम और छोटा राजन जैसे कई लोग इससे जुड़ते चले गए। लेकिन, तब ये जुड़ाव फिल्मों में अपना काला पैसा लगाने और फिल्म बनाने तक सीमित था। 90 के दशक की कई फिल्मों में अंडरवर्ल्ड का तो सीधा दखल रहा। जब पुलिस को सबूत मिले, तो कार्रवाई हुई! जिससे पूरी इंडस्ट्री में हलचल मच गई थी। 
      जब फिल्म इंडस्ट्री से दाऊद इब्राहिम का नाम जुड़ा तो उसके साथ काले धंधे में की बुराइयां भी आ गई। लेकिन, 1993 में हुए मुंबई बम कांड के बाद अंडरवर्ल्ड का खौफ कम हो गया। दाऊद दुबई भाग गया, पर उसकी पार्टियों में फ़िल्मी हस्तियों की मौजूदगी बनी रही। कई बड़े कलाकारों के फोटो दाऊद के साथ सुर्ख़ियों में रहे। अंडरवर्ल्ड के दबाव का एक असर अभिनेत्रियों पर कुछ अलग तरह से पड़ा। इस वजह से उनका करियर ही ख़त्म हो गया। क्योंकि, खौफ या आकर्षण के कारण कई अभिनेत्रियां गैंगस्टर्स के चंगुल में आ गई और उनका फ़िल्मी करियर तबाह हो गया।
     फिल्म इंडस्ट्री पर कुछ साल पहले भी अंडरवर्ल्ड का खौफ दिखाई दिया था। 90 के दशक में इंडस्ट्री अंडरवर्ल्ड की जकड़ में थी। धमकाने, गोली चलाने और हत्या करके दाऊद इब्राहिम और छोटा राजन फिल्म इंडस्ट्री पर अपना दबाव बनाने की कोशिश में थे। प्रोड्यूसर करीम मोरानी के घर पर गोली चलाई गई और शाहरुख खान के दफ्तर में फोन करके धमकाया गया। इन वारदातों के पीछे अंडरवर्ल्ड डॉन रवि पुजारी का नाम आया था। शाहरुख़ को धमकी देने के पीछे उनकी एक फिल्म के ओवरसीज राइट्स का मामला सामने आया था। इस वारदात से इंडस्ट्री पर फिर खतरे की घंटी बजने लगी। इससे पहले प्रोड्यूसर राकेश रोशन पर भी जानलेवा हमला हुआ।
     फरहान अख्तर, सोनू निगम, राम गोपाल वर्मा, प्रोड्यूसर फरहान आजमी और रितेश सिधवानी को भी अलग-अलग समय पर अंडरवर्ल्ड से धमकियां मिलती रही। मुंबई पुलिस कोई जोखिम नहीं लेना चाहती थी, लिहाजा शाहरुख समेत 14 फिल्मी हस्तियों को सुरक्षा देने का फैसला किया गया था। इनमें शामिल रहे सलमान खान, आमिर खान, रितिक रोशन, अक्षय कुमार, सैफ अली खान और करीना कपूर, इमरान हाशमी और विवेक ओबरॉय। फिल्म निर्माता करण जौहर, आदित्य चोपड़ा, बोनी कपूर, फरहान आजमी और रितेश सिधवानी। जबकि, फिल्म डायरेक्टर और एक्टर फरहान अख्तर, गायक सोनू निगम को भी सुरक्षा मिली थी।
    अब वही सब सलमान खान के साथ हो रहा है, जिसने 90 के दशक की याद दिला दी। एक नए अंडरवर्ल्ड डॉन लॉरेंस बिश्नोई ने पहले तो सलमान के घर के बाहर गोली चलवाई, फिर उनके जिगरी दोस्त बाबा सिद्दीकी की हत्या करवा दी। इसके बाद सीधे सलमान को धमकी देकर फिरौती मांगी गई। सलमान खान को दी गई धमकी ने सबके होश उड़ा दिए। आखिर सलमान एक्शन हीरो हैं और उनके प्रशंसक उन्हें इसी रूप में देखते हैं। लेकिन, फ़िल्मी बंदूक और असली बंदूक में फर्क होता है। किसी की जिंदगी लेने के लिए एक गोली ही काफी होती है। यही कारण है कि कई अभिनेता सुरक्षा गार्ड के घेरे में रहते हैं। 
 
      इस पूरे खेल में अंडरवर्ल्ड का कुछ नहीं बिगड़ा। उनके सरगना आराम से किसी छोटे देश में बैठकर अपनी काली सत्ता चला रहे हैं। उनकी  बात नहीं मानी जाती तो उनके शूटर गुर्गे किसी को भी गोली मारने को तैयार होते हैं। वे फिल्मों की वीडियो पाइरेसी में शामिल होते हैं और अब ये काले कारोबारी फिल्म के व्यापार का हिस्सा बनना चाहता है। वे फिल्मों के ओवरसीज राइट चाहते थे और ऐसा न करने पर फिर धमकाने से बाज नहीं आते! आजकल चोरी-छुपे यही सब हो रहा।  इंडस्ट्री की कुछ अभिनेत्रियां जैसे ममता कुलकर्णी, मोनिका बेदी, मंदाकिनी, सोना और जैस्मिन धुन्ना अपने समय में चर्चित रहीं। पर, ऐशोआराम के लिए वे काले कारोबारियों के चंगुल में आकर हमेशा के लिए परदे से बेदखल हो गई। इस तरह की प्रेम कहानी सबसे पहले अंडरवर्ल्ड डॉन हाजी मस्तान और अभिनेत्री सोना से शुरू हुई, जो अपने समय काल में खासी चर्चा रही। सोना को उस समय मधुबाला की कॉपी भी माना जाता था। लेकिन, जितनी लोकप्रियता उन्हें फिल्मों से नहीं मिली, उससे ज्यादा वे हाजी मस्तान से जुड़कर चर्चा में आई। दोनों ने शादी कर ली थी। कहते हैं कि फिल्म 'वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई' में इनकी ही कहानी है। 80 और 90 के दशक की अभिनेत्रियां ममता कुलकर्णी, मंदाकिनी और मोनिका बेदी अपने करियर की ऊंचाइयां चढ़ रही थी, कि उनका नाम अंडरवर्ल्ड के सरगनाओं से जुड़ गया। बाद में इनमें से कुछ ने लौटने की कोशिश भी की, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। ममता कुलकर्णी को 90 के दशक की लोकप्रिय अभिनेत्री माना जाता था। लेकिन, ममता को ड्रग तस्कर विक्रम गोस्वामी के मोहब्बत हुई। इसके बाद ममता कुलकर्णी ने विक्रम गोस्वामी से शादी कर ली और दोनों दुबई चले गए। ड्रग्स तस्करी में विक्रम के साथ ममता जेल भी जा चुकी हैं।
    राज कपूर की फिल्म में काम करना किसी भी अभिनेत्री सपना होता है। मंदाकिनी भी उनमें से एक थी, जो 'राम तेरी गंगा मैली' में काम करके रातों-रात स्टार बन गई थी। लेकिन, वे अपने स्टारडम का मजा ले पाती, इससे पहले वे अपने अंडरवर्ल्ड कनेक्शन की वजह से सुर्ख़ियों में आ गई। मंदाकिनी और दाऊद इब्राहिम की नजदीकी की ख़बरों से हर कोई हैरान था। यहां तक कहा जाता था कि मंदाकिनी को हीरोइन बनाने के लिए निर्माता, निर्देशकों को दाऊद से धमकी तक मिलती थी। इसी तरह मोनिका बेदी अपनी एक्टिंग से ज्यादा अंडरवर्ल्ड डॉन अबू सलेम के साथ अफेयर को लेकर चर्चित रहीं। 'बिग बॉस' और 'झलक दिखला जा' टीवी शो की प्रतियोगी रही मोनिका को अबू सलेम से अफेयर इतना भारी पड़ा, कि उनको भी जेल जाना पड़ा। इससे मोनिका को निजी जिंदगी लाइफ में भी परेशानी उठाना पड़ी। भुतहा फिल्म 'वीराना' (1988) की अभिनेत्री जैस्मिन धुन्ना और दाऊद इब्राहिम के प्रेम की खबरें भी सामने आई थी। लेकिन, उन्होंने परेशान होकर भारत ही छोड़ दिया। दाऊद इब्राहिम का नाम अभिनेत्री अनीता अयूब के साथ भी जुड़ा था। कहा तो यहां तक जाता है कि डायरेक्टर जावेद सिद्दीकी की हत्या में दाऊद इब्राहिम का ही हाथ था। क्योंकि, उन्होंने अनीता को फिल्म में लेने से इंकार कर दिया था, जिसकी कीमत उन्हें जान देकर चुकाना पड़ी।
अंडरवर्ल्ड पर बनी फ़िल्में
    2002 में राम गोपाल वर्मा की फिल्म 'कंपनी' का कथानक दाऊद इब्राहिम के खतरनाक इरादों पर केंद्रित था। फिल्म ने अंडरवर्ल्ड वॉर को जीवंत तरीके से फिल्माया था। अजय देवगन की भूमिका वाली इस फिल्म ने खासी कमाई की और फिल्मकारों को एक नया आइडिया दे दिया था। अनुराग कश्यप ने 'ब्लैक फ्राइडे' (2004) में दाऊद के किरदार को बेहद खूबसूरती से फिल्माया था। यह फिल्म मुंबई में हुए बम धमाकों और दाऊद इब्राहिम की उसमें भूमिका पर आधारित थी। फिल्म में विजय मौर्या ने दाऊद इब्राहिम की भूमिका की थी। हाजी मस्तान के जीवन पर आधारित मिलन लथूरिया की फिल्म 'वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई' (2010) में अंडरवर्ल्ड की दुनिया को बेहद करीब से दिखाया गया है। इसमें एक अभिनेत्री और हाजी मस्तान के बीच प्रेम संबंध फिल्माए थे। फिल्म में अजय देवगन और कंगना रनौत की मुख्य भूमिका थी। अंडरवर्ल्ड की काली दुनिया पर राज करने वाले डॉन की अच्छाई और उसूलों को भी दिखाया गया। 2013 की फिल्म 'डी डे' में ऋषि कपूर ने अंडरवर्ल्ड डॉन का किरदार निभाया था। निखिल आडवाणी की यह फिल्म काफी पसंद की गई थी। इसमें मुंबई बम धमाकों की खतरनाक झलक देखने को मिलती है। साल 2013 में आई फिल्म 'वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई अगेन' फिल्म भी अंडरवर्ल्ड पर बनी फिल्मों में एक है। इसमें अक्षय कुमार ने दाऊद जैसा किरदार निभाया था। 2013 की फिल्म 'शूटआउट एट वडाला' भी अंडरवर्ल्ड की ही कहानी थी। फिल्म में जॉन अब्राहम, सोनू सूद और मनोज बाजपेयी थे।
-----------------------------------------------------------------------------------------------------
 

कथानक नहीं, दृश्यों में ही दिखती है दिवाली

    हिंदी सिनेमा का पर्दा दिवाली के उजास से अनछुआ नहीं रहा! कुछ फिल्मों के कथानक, गीतों व दृश्यों में दिवाली अहम जरूर रही! कभी कथानक के महत्वपूर्ण दृश्य दिवाली की पृष्ठभूमि पर फिल्माए गए, तो कभी गीतों में दिवाली का उजास, खुशियां और भव्यता स्पष्ट दिखाई दी। लेकिन, समय के साथ फिल्मों के कथानकों से दिवाली गायब होती गई। कुछ दृश्यों को छोड़ दिया जाए, तो होली और गणेश उत्सव की तरह दिवाली को महत्व नहीं मिला। 90 के दशक के बाद की फ़िल्मो में दिवाली को याद तो रखा गया, पर रोशनी के इस त्यौहार को केंद्र में रखकर फ़िल्में बनाना थम सा गया। 
000 

- हेमंत पाल

     दिवाली का त्यौहार रोशनी, उत्साह और भव्यता के सबसे जीवंत त्योहारों में से एक है। इस त्यौहार की चमक किसी न किसी रूप में हमेशा झलकती है। लेकिन, रोशनी के बिना दिवाली का कोई महत्व नहीं होता। यही वजह है कि दिवाली के बहाने फिल्मकार अपनी 'लाइट्स, कैमरा, एक्शन' के साथ इसे बहुत अच्छी तरह से समझाते हैं। तभी तो फिल्मों में भव्य दीयों, पीतल के लैंप, एलईडी लाइट्स और मोमबत्तियों के साथ ऐसे दृश्य रोशन होते हैं। ऐसे ही 'कभी ख़ुशी-कभी गम' में जया बच्चन का दिवाली गीत प्रस्तुत करने का ये सबसे बेहतर प्रसंग यादगार बना। इसमें वे देवी लक्ष्मी से समृद्धि और सफलता के लिए प्रार्थना करती हैं। लेकिन, यह खुशी वाला दिन भी सभी को आनंदित नहीं करता, जैसा कि 'तारे ज़मीन पर' दर्शील सफारी को दर्शाया गया। स्कूल की छुट्टियां खत्म होते ही उसे बोर्डिंग स्कूल भेज दिया जाता है, जहां उसकी उदासी दर्शकों को अंदर तक सालती है। 'राजू बन गया जेंटलमैन' में दिवाली के दिन पूरी बस्ती एक साथ सद्भाव का महत्व दिखाती है, जिसमें नायक शाहरुख़ और नायिका जूही चावला बस्ती वालों के साथ फुलझड़ी जलाते हुए अपने बंधन का अहसास कराते हैं। 
     ऐसे ही याद कीजिए तुषार कपूर की वो पहली फिल्म 'मुझे कुछ कहना है' जिसमें वे करीना कपूर को सड़क पर बच्चों के साथ मस्ती करते हुए अनार जलाते देखते हैं। तब उन्हें पहली नजर के प्यार का अनुभव होता है। इसके अलावा फिल्मों का दायित्व जागरूकता पैदा करना भी होता है। आशा पारेख को फिल्म 'चिराग' में यह समझाने के लिए अपनी आंखों की रोशनी खोनी पड़ती है कि कैसे पटाखे से भयानक दुर्घटना संभव हैं। इसी तरह 'जो जीता वही सिकंदर' में आमिर खान के शरारती तरीके तब काम आते हैं, जब वे दिवाली के दिन अपने भाई और उसके स्कूल की पहली मोहब्बत को एक-दूसरे की भावनाएं महसूस कराते हैं। बात यही ख़त्म नहीं होती दिवाली के दिन अपराधी हो या पुलिसवाला सभी अपनी खुशियां बांटने का मौका नहीं छोड़ते। फिल्मों की किताब में यह सब अपने परिवार से प्यार करने के बारे में है और इसलिए 'वास्तव' में संजय दत्त दिवाली उपहार और मिठाई बांटने अपनी पुरानी चॉल में जाते हैं।
     सिनेमा में जिन त्यौहारों को 'कभी खुशी कभी गम' व्यक्त करने का माध्यम बनाया जाता है, उनमें होली, राखी और करवा चौथ के अलावा दिवाली ही सबसे उल्लेखनीय है। त्यौहारों और फिल्मों के कथानकों का लम्बा साथ रहा है। ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने से परदे पर दिवाली का उजियारा रहा। लेकिन, पिछले दो दशकों से दिवाली की रौनक परदे से गायब होने लगी। इस त्यौहार का स्वरूप और दर्शकों का नजरिया बदलने से दिवाली के प्रसंगों को अब कम कर दिया गया। साल, दो साल में कभी कोई फिल्म आ ही जाती है, जिसमें दिवाली का प्रसंग गीत या सीन में दिखाई या सुनाई पड़ जाता हैं। जबकि, 60 और 70 के दशक में कई फिल्में दिवाली के आसपास ही घूमती रही। जयंत देसाई के निर्देशन में 1940 में आई 'दिवाली' इस परम्परा की फिल्म थी! इसके बाद 1955 में गजानन जागीरदार की 'घर घर में दिवाली' और इसके सालभर बाद 1956 आई में दीपक आशा की 'दिवाली की रात' में भी दिवाली को विषय वस्तु बनाकर फिल्म बनाई गई थी। 
     कुछ समय से परदे से यह रोशनी का त्यौहार जैसे गायब ही हो गया। अब कथानक की विषय वस्तु में बदलाव आने लगा। परदे पर त्यौहारों का मनाया जाना, बिकाऊ पटकथा की मांग पर निर्भर हो गया! फिल्मकार नई शैली के साथ प्रयोग करके कुछ नए प्रयोग करना चाहते हैं। वे वैश्विक पटल पर पहुंचने के साथ देश के साथ दुनियाभर के प्रशंसकों को लुभाने वाले विषयों पर फिल्म बनाने की कोशिश में रहते हैं। हर त्यौहार का बॉलीवुड कनेक्शन होता है। हमारी परंपराओं, व्रत-त्यौहारों को गीतों या फिल्मों के कथानक में पिरोकर दिखाया जाता रहा है। होली तो बॉलीवुड का सदाबहार त्यौहार है, लेकिन दीवाली कभी परदे का पसंदीदा त्योहार नहीं बन पाया। दिवाली पर प्रदर्शित फिल्मों की सफलता लगभग सुनिश्चित मानी जाती है! किंतु, हाल के सालों में फिल्मों में ये त्यौहार लगभग भुला दिया गया। अभी तो बड़े परदे पर कोरोना का कहर जारी है! इसे देखते हुए इस साल तो बॉलीवुड की दीवाली पर सिनेमाघर के अंदर का अंधियारा ही हावी रहेगा! जो फिल्में इस साल दीपावली को प्रदर्शित करने के लिए तैयार की गई थी, उन्हें आगे बढ़ाया जा रहा है। इस लिहाज से बॉलीवुड के लिए यह दीपावली सूनी और काली ही रहेगी।
    दिवाली ने सिर्फ रंगीन फिल्मों के ज़माने में ही रंगीनियत नहीं दिखाई ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों में भी इस त्यौहार की महत्ता बरक़रार रही। जिन फिल्मों में दिवाली के दृश्यों को प्रमुखता दी गई, उनमें 1961 में आई राज कपूर, वैजयंती माला की 'नजराना' थी! इस फिल्म में 'मेले है चिरागों के रंगीन दिवाली है' गीत लता मंगेशकर ने गाया था। यह ब्लैक एंड व्हाइट दौर की खुशनुमा दीवाली का गीत है। इसकी खासियत है कि शुरू से अंत तक इसमें दिवाली की आतिशबाजी और भरपूर रोशनी नजर आती है। 1962 में आई 'हरियाली और रास्ता' में भी दिवाली के दृश्यों में नायक, नायिका का विरह दर्शाया गया था। वैजयंती माला दिलीप कुमार की 'पैगाम' और 'लीडर' में दिवाली के जरिए फिल्म के किरदारों को जोड़ने का प्रयास किया था। 1972 में 'अनुराग' में भी आपसी भरोसे और विश्वास को दिवाली से जोड़कर दर्शाया था। इसमें कैंसर से जूझ रहे बच्चे की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए पूरा मोहल्ला दिवाली मनाने में जुट जाता है। फिल्मों में दीवाली सिर्फ रोशनी और पटाखों तक सीमित नहीं रही। कथानक में ट्विस्ट लाने के लिए भी दिवाली के दृश्यों का इस्तेमाल किया गया। 
     धमाकों के बीच गोलियों की आवाज दबाकर पूरे परिवार के खत्म करने का दृश्य अमिताभ को सितारा बनाने वाली फिल्म 'जंजीर' में काफी प्रभावी ढंग से फिल्माया गया था। फिल्म का ये दृश्य नायक अमिताभ को सपने में हमेशा दिखाई देता है। इसके बाद धर्मेंद्र की फिल्म 'यादों की बारात' में भी तीन बेटों के सामने पिता की हत्या का दृश्य था। कमल हासन की 1998 में आयी फिल्म 'चाची 420' में बेटी के दिवाली के दिन पटाखों से घायल होने का प्रभावशाली दृश्य था। आदित्य चोपड़ा की 'मोहब्बतें' (2000) में दिवाली काफी अहम् थी। करण जौहर की 2001 में आई मल्टी स्टारर सुपरहिट फिल्म 'कभी खुशी कभी गम' का टाइटल सांग असल में एक दीवाली गीत ही है। इसमें जया बच्चन दीवाली की पूजा करते हुए यह गाती है! 
    दिवाली को पृष्ठभूमि में रखते हुए तैयार किए कुछ गानों को भी अपार लोकप्रियता हासिल हुई। इन गीतों में 'नजराना' का गीत 'एक वो भी दीवाली थी' 'शिर्डी के साईं बाबा' का गीत 'दीपावली मनाई सुहानी' के अलावा 'खजांची' का आई दीवाली आई, कैसी खुशहाली लाई, 'पैगाम' का दीवाली गीत 'कैसे मनाएं हम लाला दिवाली' और कुछ साल पहले गोविंदा अभिनीत फिल्म 'आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया' का गाना 'आई है दिवाली, सुनो जी घरवाली' दिवाली को केंद्र में ही रखकर रचे गए गीतों में थे। एसडी बर्मन के संगीत से सजी फिल्म 'जुगनू' फिल्म का  गीत 'छोटे नन्हे मुन्ने प्यारे प्यारे रे' अपने समय में बेहद लोकप्रिय हुआ था। इसके अलावा 'नमक हराम' का राजेश खन्ना और अमिताभ पर फिल्माया गीत 'दिये जलते हैं फूल खिलते हैं' अपने बेहतरीन फिल्मांकन के लिए दर्शकों को आज भी याद है। 
    फिल्म 'रतन’(1944) के गीत 'आई दीवाली दीपक संग नाचे पतंगा' में दीवाली के लाक्षणिक भाव की पृष्ठभूमि में नौशाद ने विरह-भाव की रचना की थी। मास्टर गुलाम हैदर ने फिल्म 'खजांची’(1941) के गीत 'दीवाली फिर आ गई सजनी’ में पंजाबी उल्लसित टप्पे का पृष्ठभूमि में आकर्षक प्रयोग किया था। फिल्म महाराणा प्रताप (1946) में 'आई दीवाली दीपों वाली’ की पारंपरिक धुन सुनने को मिली थी। 'आई दीवाली दीप जला जा' (पगड़ी) गीत में आग्रह का पुट था। वहीं 'शीश महल’(1950) के गीत 'आई है दीवाली सखी आई रे’को वसंत देसाई ने पारंपरिक ढंग से स्वरबद्ध किया था।
----------------------------------------------------------------------



सुनाई नहीं देते भक्ति गीत, आरती और भजन

     ईश्वर के प्रति सभी की अगाध श्रद्धा होती हैं। उन्हें विश्वास होता है कि भगवान हर उस व्यक्ति की सुनते हैं, जो उन्हें दिल से याद करता है। इसलिए मंदिर में प्रसाद चढ़ाने के अलावा भक्ति का सबसे आसान उपाय है भगवान की भक्ति में गीत, आरती या भजन गाना। फिल्मों में भी हमेशा यही दिखाया जाता रहा है कि किस तरह एक भजन सारे हालात बदल देता है। ख़ास बात यह भी कि धार्मिक फिल्मों में ही भक्ति हों, ये जरुरी नहीं! मल्टीस्टार फिल्मों में भी ऐसे कई भक्ति गीत फिल्माए गए, जो लोकप्रिय हुए और आज भी इन्हें सुना जाता है। लेकिन, नई फिल्मों में अब भक्ति गीत और भजन सुनाई देना बंद हो गए!
000 
- हेमंत पाल

    समय ने अपना असर जीवन के हर पक्ष पर दिखाया है। फिल्मों को जीवन का प्रतिबिंब कहा जाता है, इसलिए वहां भी बदलाव दिखाई दिया। धार्मिक आस्था भी जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है और ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने से आज तक कई फिल्मों में दिखाई दिया। फिल्मों का शुरूआती समय तो पूरी तरह धार्मिक रहा। फ़िल्मी कथानक और गीत भी देवी-देवताओं पर केंद्रित रहे। लेकिन, धीरे-धीरे फिल्मों से भजन और भक्ति गीत कम होते-होते लगभग गायब हो गए। अब यदि कोई धार्मिक गीत फिल्माया भी जाता है, तो उसका आशय श्रद्धा नहीं होता, बल्कि वो फिल्म की कहानी में मोड़ लाने के लिए जरुरी समझा जाता है। 'अग्निपथ' का गीत 'देवा श्री गणेशा देवा श्री गणेशा' को याद कीजिए। 'बजरंगी भाईजान' में सलमान का डांस तो भगवान के सामने था, पर गीत 'सेल्फी तू सेल्फी ले ले रे' है। जबकि, 1979 में अमिताभ बच्चन और शशि कपूर की फिल्म 'सुहाग' आई जिसमें मां दुर्गा की भक्ति पर गया गया भजन 'नाम रे सबसे बड़ा तेरा नाम रे' काफी लोकप्रिय है। आज भी नवरात्रि के दिनों में यह सुनाई देता है। अमिताभ और रेखा पर मंदिर में फिल्माए इस भजन पर दोनों ने गरबा भी किया था। जब भी कोई व्यक्ति या फिल्मों के नायक (या नायिका) परेशानी में होते हैं, उन्हें सबसे पहले भगवान ही याद आते हैं। वह भगवान से मुसीबत से मुक्ति की गुहार लगाता है। यह स्थिति फिल्मों में आती है, तो वह किरदार भगवान की मूर्ति के सामने धार्मिक गीत या भजन गाता है। ऐसी कई फ़िल्में हैं, जिनमें भजन गाते ही भगवान ने उसकी बात सुन ली! 
      फिल्म इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने यही होता आ रहा है, आज भी कुछ नहीं बदला। कुछ फिल्मों के गीत और भजन इतने लोकप्रिय हैं कि तीज-त्यौहार पर यही सुनाई देते हैं। ये गीत मानसिक शांति भी देते हैं। फिल्मों ने ऐसे कई भजन और भक्ति गीत दिए हैं, जिन्हें सुनकर कुछ पलों के लिए हम अपने दुःख भूल जाते हैं। ऐसी स्थिति में मन में विश्वास की एक ज्योति जल उठती है। भक्ति को शक्ति देने वाले कई भक्ति गीत और भजन है। लेकिन, मंदिरों में भक्ति गीत सुनाने वाली इन फिल्मों में मंदिर का एक दृश्य ऐसा भी था, जो आज भी दर्शक भूले नहीं होंगे! फिल्म 'दीवार' में अमिताभ बच्चन का मां की बीमारी पर बोला गया डायलॉग भक्ति से इतर था। 
       सफल धार्मिक फिल्मों के लोकप्रिय गीतों की बात की जाए तो 1975 में आई फिल्म 'जय संतोषी माँ' कम बजट की फिल्म थी। पर, कमाई के मामले ये आज तक की शीर्ष ब्लॉकबस्टर फिल्मों में गिनी जाती है। इस फिल्म के सभी गीतों को खूब सुना गया। उषा मंगेशकर, महेंद्र कपूर और मन्ना डे ने कवि प्रदीप के लिखे भक्ति गीत गाए थे। करती हूँ तुम्हारा व्रत मैं स्वीकार करो माँ, यहां वहां मत पूछो कहां कहां, मैं तो आरती उतारू रे, मदद करो संतोषी माता, जय संतोषी माँ, मत रो मत रो आज राधिके और यहां वहां जहां तहां मत पूछो कहां कहां ऐसे गीत हैं जिन्हें देवी आराधना वाले मंदिरों में अक्सर सुना जाता है। ऐसे कई गायक हैं जिन्होंने कालजयी धार्मिक गाने, भजन और आरतियां गाई। 
      ये गीत इसलिए लोकप्रिय हुए, क्योंकि इन्हें गायकों ने पूरी तन्मयता के साथ गाकर दर्शकों को भाव विभोर किया। इनमें सबसे ज्यादा लोकप्रियता मिली अनुराधा पौडवाल, नरेंद्र चंचल और अनूप जलोटा को, जो धार्मिक गीतों के गायक हैं। फिल्मों में धार्मिक गीत और भजन गाने वालों की भी अपनी अलग पहचान होती है। ऐसे गीत और भजन गाने वाले गायक भी लंबे समय तक तय रहे। चंचल, अनूप जलोटा का इसमें काफी योगदान रहा। ऐसी फिल्मों में काम करने वाले कलाकारों का भी सकारात्मक पक्ष यह रहा कि दर्शकों में इनके प्रति भक्ति भाव कुछ ज्यादा ही होता है। 'जय संतोषी मां' में माता संतोषी का किरदार निभाने वाली अनीता गुहा को लोग पूजने लगे थे।
      'रामायण' सीरियल में राम और सीता बने अरुण गोविल और दीपिका चिखलिया को आज भी लोग भक्ति भाव से देखते हैं। उसी का प्रताप था कि 'रामायण' के प्रसारण के इतने साल बाद अरुण गोविल लोकसभा की मेरठ सीट से चुनाव जीत गए। हिंदी फिल्मों में सबसे ज्यादा भगवान के रोल करने वाले कलाकार महिपाल को तो लोग भगवान ही मानने लगे थे। उन्होंने 35 से ज्यादा फिल्मों में भगवान या ऐसे किरदार निभाए। वे तुलसीदास भी बने और अभिमन्यु भी। महिपाल ने अपने जीवन काल में संपूर्ण रामायण, वीर भीमसेन, वीर हनुमान, हनुमान पाताल विजय, जय संतोषी माँ जैसी सफल धार्मिक फिल्मों में काम किया। उन्होंने अपने करियर में भगवान राम, कृष्ण, गणेश और विष्णु का किरदार इतनी बार निभाए कि असल जिंदगी में भी लोग इन्हें भगवान का प्रतिरूप समझने लगे थे। वे जहां जाते लोग इनके पैर छूते और आशीर्वाद की कामना करते थे।
     ऐसे कालजयी भक्ति गीतों में 1965 में आई फिल्म 'खानदान' के गीत 'बड़ी देर भई नंदलाला तेरी राह तके बृजबाला' को लोकप्रियता की श्रेणी में रखा जा सकता है। इस भजन को सुनील दत्त पर फिल्माया गया था। राजेंद्र कृष्ण के लिखे इस भजन को मोहम्मद रफी ने गाया। जन्माष्टमी के अवसर पर अभी भी ये गीत गूंजता है। यह गीत फिल्म की कहानी को देखते हुए भी सटीक था। उससे पहले 1952 में आई फिल्म 'बैजू बावरा' का गीत मोहम्मद रफी की हिंदू भजनों के प्रति लगाव का सबसे बेहतर प्रमाण कहा जा सकता है। 'ओ दुनिया के रखवाले, सुन दर्द भरे मेरे नाले' के बोल आज भी किसी दुखी व्यक्ति का चेहरा सामने ले आते हैं। शकील बदायूंनी के लिखे इस गीत में नौशाद ने संगीत दिया था। ख़ास बात ये कि इस भक्ति गीत के गायक, गीतकार और संगीतकार तीनों ही मुस्लिम थे। 1954 में आई फिल्म 'तुलसीदास' के गीत 'मुझे अपनी शरण में ले लो राम' को भी मोहम्मद रफी ने अपनी आवाज दी है और बीते जमाने के विख्यात संगीतकार चित्रगुप्त ने इसे संगीत से सजाया था। गीत में राम को आराध्य मानकर अपना सब कुछ अर्पण करने की बात कही गई है।
     1958 की फिल्म 'दो आंखें बारह हाथ' का गीत 'ऐ मालिक तेरे बंदे हम, ऐसे हो हमारे करम' बुराई पर अच्छाई की जीत का सबसे बेहतरीन प्रमाण कहा जा सकता है। इस गीत में नुकसान पहुंचाने वाले डाकुओं को इंसानियत के नाम पर मदद पहुंचाई जाती है। भरत व्यास ने इस गीत को लिखा और वसंत देसाई ने इसे संगीत दिया था। लता मंगेशकर ने अपनी मधुर आवाज ने मानो इस गीत को अमर कर दिया। 1965 की फिल्म 'सीमा' में बलराज साहनी पर फिल्माया भजन 'तू प्यार का सागर है, तेरी एक बूंद के प्यासे हम' में आतुर मन की व्यथा सुनाई देती है। शैलेंद्र के लिए इस गीत को मन्ना डे ने अपनी आवाज दी और संगीत शंकर जयकिशन ने दिया था। दिलीप कुमार की 1970 में आई फिल्म 'गोपी' का महेंद्र कपूर की आवाज में गाया गीत 'रामचंद्र कह गए सिया से ऐसा कलयुग आएगा' ऐसा भजन है जिसमें भविष्य का संकेत था। आशय यह कि सच्चा आदमी भटकेगा और झूठे के पास सबकुछ होगा। राजेंद्र कृष्‍ण के गीत को कल्याणजी-आनंदजी ने संगीत दिया था। भक्ति गीतों में सांई बाबा पर रचे गए गीत भी बड़ी संख्या में हैं। 1977 की फिल्म 'अमर अकबर एंथोनी' का गीत 'तारीफ तेरी निकली है दिल से, आई है लब पे बनके कव्वाली' साईं के भक्तों के लिए एक तरह से संजीवनी है। मोहम्मद रफी की आवाज का इस गीत में रफी की लंबी तान सुनने वाले को झंकृत कर देती है।
      'सरगम' (1979) एक संगीत पर केंद्रित फिल्म थी। पर, इसका एक गीत 'रामजी की निकली सवारी, रामजी की लीला है न्यारी' में भगवान राम की महिमा का बखूबी वर्णन है। दशहरे में जब रामजी की सवारी निकलती है, तो इस गीत के बिना माहौल नहीं बनता। इस गीत को सुनकर मनोभावों में राम का नाम समा जाता है। आनंद बक्षी के लिखे इस गीत को मोहम्मद रफी ने गाया था और इसका संगीत लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने दिया था। 'अंकुश' (1986) एक अलग तरह की फिल्म थी, लेकिन, इसका एक भक्ति गीत 'इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर हो ना' टूटे मन को दिलासा देता हुआ सा लगता है। गीतकार अभिलाष ने इसे लिखा और पुष्पा पागधरे और सुषमा श्रेष्ठ ने इसे गाया है। कुलदीप सिंह ने इसमें संगीत दिया।
      'भर दो झोली मेरी या मुहम्मद, लौटकर मैं ना जाऊंगा खाली' वास्तव में तो एक गैर फ़िल्मी गीत था, पर इसे 2015 में आई फिल्म 'बजरंगी भाईजान' में शामिल किया गया था। फिल्म का हीरो सलमान खान एक भटकी हुई बच्ची को उसके देश पाकिस्तान छोड़ने जाता है। इस दौरान उसे होने वाली परेशानियों को दूर करने के लिए इस अदनान सामी के गाए इस गीत को प्रार्थना के रूप में फ़िल्माया गया। कौसर मुनीर के लिखे इस गीत की धुन संगीतकार प्रीतम ने बनाई थी। लेकिन, लगता है फ़िल्मी कथानक में किरदारों को अब भगवान की कृपा की जरुरत नहीं है। शायद इसीलिए अब भगवान को फिल्मों से किनारे किया जा रहा है। लंबे समय से ऐसी कोई फिल्म नहीं आई, जिसमें धार्मिक गीत, भजन या आरती सुनाई दी हो।
----------------------------------------------------------------------------

'पानी' पर फिल्म बनाने से परहेज क्यों!

    फिल्मकारों को जनता से जुड़े मुद्दों पर फिल्म बनाने में महारथ हासिल है। लेकिन, 'पानी' ऐसा मसला है, जिस पर बने कथानक को फिल्माने से हमेशा परहेज किया जाता है। जबकि, सभी ने अपनी आँखों से इस समस्या को देखा और महसूस किया है! देव आनंद की बहुचर्चित फिल्म 'गाइड' और आमिर खान की 'लगान' में जब परदे पर पानी की बूंदे आसमान से बरसती है, तो खुशी से सिर्फ पात्र ही खुश नहीं होते, दर्शकों के मन में भी पानी की अहमियत का अहसास होता है। किंतु, जब परदे से गांव ही गायब हो गए, तो खेत और पानी की बूंदों की अहमियत ही कहां बची! लेकिन, यह सवाल फिर भी जिंदा है कि क्या हिंदी सिनेमा कभी 'पानी' की वास्तविक समस्या को दिखाएगा! 
000 

- हेमंत पाल

     सामाजिक मुद्दों को प्रभावी ढंग से लोगों तक पहुंचाने का सबसे सशक्त माध्यम सिनेमा ही है। परदे पर समस्या को देखकर लोग उससे सीधे जुड़ते हैं। फिल्म इंडस्ट्री भी बरसों से सामाजिक मुद्दों को लेकर सजग रही। फिल्मों के शुरुआती काल से 80 के दशक तक ज्वलंत मुद्दों पर कई गंभीर फिल्में बनी। राज कपूर, ख्वाजा अहमद अब्बास, रित्विक घटक और उसके बाद श्याम बेनेगल जैसे फिल्मकारों ने कई फिल्मों का ताना-बाना सामाजिक मुद्दों से ही खोजा! मगर 80 के दशक के बाद ऐसे कई सामाजिक मुद्दे हाशिए पर चले गए। ऐसी फिल्में बनना कम होते-होते बंद हो गई। यही कारण है कि पानी की समस्या पर कभी गंभीर फ़िल्म नहीं बनी, जो बनी भी तो उसका मूल कथानक किसी और विषय पर केंद्रित रहा। आज जब देश और दुनिया के सामने पानी की समस्या विकराल रूप लेती जा रही है, कोई भी फिल्मकार इस विषय पर फिल्म बनाने का जोखिम उठाने को तैयार नहीं!
     'रोटी, कपड़ा और मकान' पर तो मनोज कुमार ने फिल्म बनाई, पर 'पानी' को कभी विषय नहीं बनाया गया। शायद इसलिए कि इसे फ्लॉप आइडिया माना जाता है। किंतु, अब प्रियंका चोपड़ा और आमिर खान ने इस दिशा में कोशिश की है। प्रियंका ने मराठी में 'पाणी' बनाई, जिसका निर्देशन आदिनाथ एम कोठारे ने किया और हनुमंत केंद्रे ने मुख्य भूमिका निभाई है। फिल्म की बुनियाद मराठवाड़ा के जल संकट पर आधारित है। इस संकट के कारण युवाओं की शादी भी प्रभावित होती हैं। प्रियंका चोपड़ा की मां डॉ मधु चोपड़ा और कुछ अन्य लोग फिल्म के निर्माता हैं। उनके अलावा आमिर खान भी अब हिंदी में उस 'पानी' विषय पर फिल्म बनाने वाले हैं। इस प्रोजेक्ट को कई बार घोषणाओं के बाद रोक दिया गया। लेकिन, अब आमिर खान ने 'पानी' के लिए लगता है कमर कस ली।    
      इस विषय की अहमियत को सबसे पहले ख्वाजा अहमद अब्बास ने समझा और 1946 में 'धरती के लाल' फिल्म बनाई। यह बंगाल के अकाल की विभीषिका और उससे उभरे लालच और क्रूरता की कहानी थी। यह उनकी पहली फिल्म थी। इसके बाद 1963 में राजस्थान में एक महत्वाकांक्षी जल परियोजना की शुरुआत की गई थी, जो उस समय दुनिया की सबसे बड़ी सिंचाई परियोजना थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने ख्वाजा अहमद अब्बास से एक दिन ज़िक्र किया कि वे राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके में पानी की अहमियत और नहर के बनने पर फिल्म क्यों नहीं बनाते? अब्बास को इस मुद्दे में बहुत से आयाम नज़र आए। 
     उन्होंने ‘दो बूंद पानी' (1971) फिल्म बनाई। इस फिल्म की कहानी गंगा नाम के युवा किसान और उसकी नई नवेली और पढ़ी-लिखी दुल्हन गौरी पर केंद्रित थी। गंगा के पिता पानी की कमी से अपनी ज़मीन के सूखने से परेशान होते है। गंगा भी इस बांध बनने में योगदान देना चाहता है, उसकी पत्नी भी यही सलाह देती है। गंगा के उस काम पर जाने के बाद परिवार को कई दिक्कतों का सामना करना पड़ता हैं। गौरी बहादुरी से उनका सामना करती है। लेकिन, बांध के निर्माण के दौरान एक हादसे को बचाते हुए गंगा मारा जाता है। फिल्म का अंत उम्मीद जगाता है। क्योंकि, गौरी अपने नवजात बच्चे को 'जमुना' नाम देती है। .
     इसके बाद पानी की समस्या पर कभी कोई गंभीर फिल्म नहीं बनी! आमिर खान ने 2001 में 'लगान' जरूर बनाई! लेकिन, ये बारिश की कमी से किसानों को होने वाली परेशानी और अंग्रेज सरकार द्वारा वसूले जाने वाले लगान पर आधारित थी। सशक्त कथानक के कारण फिल्म हिट रही, पर इसमें जल संकट जैसा मुद्दा दब गया। 2013 में पानी के मुद्दे पर 'कौन कितने पानी में' और 'जल' (2014) जरूर आई थी। ‘जल’ को तो कच्छ के रण में फिल्माया था। ये बक्का नाम के एक ऐसे युवक की कहानी थी, जिसके पास दैवीय शक्ति है। इसके दम पर वो रेगिस्तान में भी पानी खोज सकता है। इस फिल्म को विदेशी भाषा की ऑस्कर अवॉर्ड फिल्मों में भारत की तरफ से भेजा भी गया था। इससे पहले 2005 में दीपा मेहता ने 'वाटर' जरूर बनाई, पर इसका पानी वास्ता नहीं था। 'वेन डन अब्बा' (2010) हैदराबाद के एक गांव की पृष्ठभूमि में बनी फिल्म है। यह ऐसे आदमी की कहानी है, जो दुनिया में बढ़ती पानी की समस्या के चलते अपने खेत में एक कुआं खुदवाना चाहता है। इसके लिए उसे कई मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। फिल्म का निर्देशन श्याम बेनेगल ने किया। 
      शेखर कपूर ने 2010 के कांस फिल्म समारोह में 'पानी' बनाने का ऐलान किया था। इस फिल्म की थीम काफी हटकर थी। इसमें भविष्य के ऐसे दौर की कल्पना की गई, जब पानी पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा होगा और आम लोग एक-एक बूंद के लिए संघर्ष करेंगे। लेकिन, ये फिल्म नहीं बनी। फिर 2013 में 'यशराज फिल्म्स' के बैनर तले इस फिल्म की चर्चा हुई। सुशांत सिंह का इसमें अहम किरदार बताया गया। बाद में फिल्म का ये आइडिया आता-जाता रहा। इसके बाद फिर शेखर कपूर ने इस प्रोजेक्ट पर काम शुरू किया और सुशांत सिंह को ली लीड रोल में लिया। लेकिन, फिल्म घोषणा से आगे नहीं बढ़ी। फिल्म का कथानक 2040 के कालखंड जोड़कर बुनी गई। जब मुंबई के एक क्षेत्र में पानी नहीं होता और दूसरे में पानी होता है। दोनों क्षेत्रों में जंग छिड़ती है और इसी जंग में प्रेम पनपता है। फिल्म में सुशांत सिंह राजपूत, आयशा कपूर और अनुष्का शर्मा को लिया गया था। फिल्म का पोस्टर भी जारी हुआ, जिसमें एक आदमी मुंह में घड़ा लगाए दिखाया गया, लेकिन घड़े में एक बूंद भी पानी नहीं होता! 
    पानी की समस्या पर बनी एक फिल्म है ‘कड़वी हवा’ जिसकी कहानी दो ज्वलंत मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमती है। एक है जलवायु में बदलाव के कारण बढ़ता जलस्तर और सूखे की समस्या! फिल्म में सूखाग्रस्त बुंदेलखंड दिखाया गया है। सूखे की समस्या के कारण यहां के किसान कर्ज में डूबे हैं। यह फिल्म किसानों की बेबसी और सूखी जमीन की हकीकत दिखाती है। ऐसी ही एक फिल्म 'कौन कितने पानी में' दो गांवों 'ऊपरी' और 'बैरी' की कहानी है। ऊपरी गाँव ऊंची जाति वालों का है और बैरी गाँव में पिछड़ी जाति के लोग रहते हैं। लेकिन, वे जागरूक हैं और पानी को सहेजते हैं। एक समय आता है, जब ऊंची जाति वालों के गाँव में पानी की किल्लत आती है। जबकि, पिछड़ी जाति वालों के गाँव में पानी बहुलता से रहता है। इस पानी के लिए ऊंची जाति वाले बैरी गाँव से छल करके पानी जुगाड़ लेते हैं। फिल्म का निष्कर्ष है कि यदि पानी को सहेजा नहीं गया तो इस किल्लत से हमें निपटना पड़ेगा।
     देखा गया है कि पानी की सबसे ज्यादा किल्लत गरीबों को ही चुकानी पड़ती है। अमीर तो पानी खरीदकर पी लेते हैं, लेकिन गरीब पानी खरीदकर किसे पिएं!  पानी की किल्लत पर कई डॉक्यूमेंट्री भी बन चुकी है। इनमें से एक है 'थर्स्टी सिटी।' 2013 में बनी इस फिल्म में दिल्ली में पानी की किल्लत और पानी के लिए श्रमिकों के संघर्ष को कैमरे में कैद किया गया है। 'पानी' विषय पर फ़िल्में भले ही गिनती बनी हो, गाने भी कम बने पर पसंद किए गए। फिल्म 'अनोखी रात' का गीत 'ओह रे ताल मिले नदी के जल में' हमारे जीवन दर्शन को अभिव्यक्त करता लगता है। इसके अलावा भी पानी पर कुछ गाने लोकप्रिय हुए। पानी को तरसते, पानी को सिसकते, आंखों में नींद नहीं है (वेल डन अब्बा), पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, जिसमें मिलाओ (शोर), मानो तो मैं गंगा मां हूं ना मानो तो बहता पानी (गंगा की सौगंध) और काले मेघा काले मेघा पानी तो बरसा जा (लगान) जब भी सुनाई देते हैं, दिल के अंदर तक उतर जाते हैं। 
--------------------------------------------------------------------------------------------------

धमकी सलमान खान को, संकट में आई इंडस्ट्री!

- हेमंत पाल 

    मुंबई की छवि सपनों के शहर के रूप में रही है। इस महानगर का समुद्र का किनारा, ऊंची इमारतें और आलीशान जिंदगी। इसके अलावा सबसे बड़ा आकर्षण है फिल्म इंडस्ट्री। इस पर कालिख पोतने का काम किया है अंडरवर्ल्ड ने। यहां 70 के दशक से हाजी मस्तान, वरदराजन मुदलियार, दाऊद इब्राहिम का आतंक रहा। लेकिन, ये दहशत कभी खुलकर इतनी बाहर नहीं आई, जिससे आम लोग प्रभावित हों। धीरे-धीरे फिल्म इंडस्ट्री अंडर वर्ल्ड के चंगुल में आ गई। इसलिए कि कई फिल्मों के निर्माण में इसी अंडर वर्ल्ड का पैसा लगने लगा था। फ़िल्मी दुनिया ने भी अंडरवर्ल्ड का खौफनाक चेहरा देखा। लेकिन, लॉरेंस बिश्नोई ने जिस तरह के हालात निर्मित किए, वो इंडस्ट्री के लिए नई चिंता की बात है।
    मुंबई ने 1993 में पहली बार दाऊद और उसके गुर्गों के आतंक का सबसे चेहरा देखा था। मुंबई ब्लास्ट से पहले दाऊद इब्राहिम दुबई में रहकर मुंबई में काले कारोबार पर नजर रखी। फिल्मी दुनिया में भी दाऊद का दबदबा हो गया। इसके बाद अगस्त 1997 में संगीत इंडस्ट्री के गुलशन कुमार की हत्या हुई और पहली बार फ़िल्मी दुनिया को अहसास हुआ कि अंडर वर्ल्ड क्या होता है। कैसेट किंग कहे जाने वाले गुलशन कुमार को मंदिर में पूजा के बाद गोलियों से भून दिया गया। बाद में खुलासा हुआ कि उनसे फिरौती मांगी गई थी और नहीं देने पर उनकी हत्या कर दी गई। इसी तरह फिरौती मांगे जाने की बातें सलमान खान से भी की जा रही है। जबकि, बहाना काले हिरण को बनाया जा रहा है।  
    इन दिनों फिल्म इंडस्ट्री संकट में है और इसका कारण है सलमान खान को मिल रही धमकियां। उनके घर के बाहर खुलेआम गोलियां चलने की घटना से उन्हें इस संकट का अंदाजा तो हो गया था, पर उनके जिगरी दोस्त बाबा सिद्दीकी की हत्या से ये खतरा ज्यादा बढ़ गया है। हाल ही में उन्हें फिर खुली धमकी के साथ फिरौती भी मांगी गई। जिस भाषा में ये धमकी दी गई, उससे लगता है कि मामला संगीन है। धमकी में लिखा गया कि इसे हल्के में न लें। अगर सलमान खान जिंदा रहना चाहते हैं और लॉरेंस बिश्नोई से दुश्मनी खत्म करना चाहते हैं तो उन्हें 5 करोड़ देने होंगे। अगर ये पैसे नहीं दिए तो सलमान खान का भी वही हाल होगा, जो बाबा सिद्दीकी का हुआ। इससे पहले अप्रैल में सलमान खान के घर पर गोलीबारी हुई थी। इसमें कोई घायल तो नहीं हुआ, पर उनकी बालकनी को निशाना बनाकर चलाई गई गोलियां से इरादा स्पष्ट होता है। उस समय भी लॉरेंस बिश्नोई गैंग ने इस हमले की जिम्मेदारी ली और बताया था कि उनका निशाना सलमान खान थे, पर वे बच गए। इसके बाद उनके पिता पर भी हमला करने की कोशिश की गई थी। अब उनके दोस्त की हत्या से स्थिति को समझा जा सकता है।
     मुंबई पुलिस की अपराध शाखा ने भी इस बात की पुष्टि की है, कि बाबा सिद्दीकी की हत्या का कारण सलमान खान के साथ उनकी नजदीकी है, जो काले हिरण के शिकार मामले के बाद से लॉरेंस बिश्नोई गैंग की हिट लिस्ट में हैं। सिद्दीकी की हत्या को सलमान खान के करीबियों को बिश्नोई गैंग की ओर से संदेश के रूप में देखा जा रहा है, जिनका अभिनेता के साथ भावनात्मक एवं वित्तीय रिश्ता है। सितंबर में कनाडा में पंजाबी गायक एपी ढिल्लन के घर के बाहर फायरिंग भी इसी तरह की एक चेतावनी थी। इस फायरिंग की जिम्मेदारी भी बिश्नोई गैंग ने ली थी। इसलिए कि ढिल्लन ने एक म्यूजिक वीडियो के लिए मुफ्त में सलमान खान के साथ सहयोग किया था। सलमान के घर के बाहर फायरिंग मामला, बाबा सिद्दीकी की हत्या और एपी ढिल्लन के यहाँ गोली चलाया जाना इस बात का इशारा है कि विश्नोई गैंग हर उस व्यक्ति को निशाना बना रहा है, जो सलमान के नजदीक है।
    ऐसे में सबसे बड़ा सवाल उठता है कि सलमान खान की सुरक्षा के कारण फिल्मों, शो और इवेंट्स से दूर होते गए तो उन पर लगे करोड़ों रूपए का क्या होगा! सलमान की कई फिल्मों की शूटिंग चल रही है। कई की डबिंग बाकी है तो 'बिग बॉस' जैसा टीवी रियलिटी शो सलमान के कंधों पर टिका है। इसके पीछे निर्माताओं और कंपनियों के करोड़ों रूपए फंसे हैं, उसकी भरपाई कहां से होगी! सवाल बड़ा है, पर इसका जवाब आसान नहीं। क्योंकि, शो-बिजनेस में सारे दांव एक चेहरे पर लगे होते हैं और इसका कोई विकल्प नहीं होता। जब फ़िल्मी दुनिया किसी एक सितारे पर केंद्रित हो जाती है, तो सारे नफा-नुकसान भी उसी सितारे से तय होने लगते हैं।
   उस कलाकार की सेहत और निजी जिंदगी की उलझनें भी फिल्मों के कारोबार को प्रभावित करती है। यही स्थिति इन दिनों सलमान को लेकर है। ये चिंता तब भी जाहिर की गई थी, जब सलमान खान को काले हिरण के कथित शिकार का दोषी माने जाने और अदालत से 5 साल की सजा मिली थी। उस समय भी कयास लगाए जाने लगे थे कि यदि उन्हें ये सजा भुगतना पड़ी, तो फिल्म निर्माताओं के उस दांव का क्या होगा, जो उन्होंने सलमान की लोकप्रियता पर लगा रखा है! इसलिए कि, संजय दत्त को भी जब हथियार रखने के मामले में 5 साल की सजा हुई थी, तब भी निर्माताओं को काफी परेशानी का सामना करना पड़ा था। कई फिल्मों की शूटिंग जल्दबाजी में पूरी करना पड़ी थी और कई फिल्मों में उनका रोल काटना पड़ा था।
   दो दशक पहले सलमान खान ने शौक-शौक में जोधपुर नजदीक काले हिरण का शिकार तो कर लिया! लेकिन, वे नहीं जानते थे कि उनकी ये छोटी सी गलती उनके लिए इतनी बड़ी मुसीबत बन जाएगी। वे इस आरोप में जेल तक हो आए और अब लॉरेंस गैंग के निशाने पर हैं। जब जोधपुर सेशन कोर्ट ने सलमान को सजा सुनाई, तब भी कई निर्माता-निर्देशकों की नींद हराम हो गई थी! उनके करोड़ो रुपए ऐसे प्रोजेक्ट्स में लगे हैं, जिसमें सलमान खान मुख्य भूमिका में। वही स्थिति आज भी है। यदि सलमान को भी संजय दत्त की तरह लंबे समय तक जेल में रहना पड़ता तो उनके करोड़ों रुपए डूब सकते थे।
   करीब एक दशक से बॉलीवुड में सफलता की गारंटी समझे जाने वाले सलमान पर आया संकट कई निर्माताओं की परेशानी का कारण बन गया है। 1988 में 'बीवी हो तो ऐसी' से परदे पर कदम रखने वाले सलमान खान को सबसे ज्यादा कमाई करने वाले कलाकारों में गिना जाता है। उनकी जय हो, ट्यूबलाइट और भारत जैसी कुछ फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो पिछले दस सालों में बजरंगी भाईजान, दबंग और 'टाइगर' सिरीज की फिल्मों ने करोड़ों का कारोबार किया है। कलर्स टीवी का रियलिटी शो पूरी तरह सलमान पर केंद्रित है। बतौर एंकर वे भले ही सप्ताह में दो दिन आते हो, पर दर्शकों का सबसे बड़ा आकर्षण वही होता है।
--------------------------------------------------------------------------------------------------------