हिंदी सिनेमा का पर्दा दिवाली के उजास से अनछुआ नहीं रहा! कुछ फिल्मों के कथानक, गीतों व दृश्यों में दिवाली अहम जरूर रही! कभी कथानक के महत्वपूर्ण दृश्य दिवाली की पृष्ठभूमि पर फिल्माए गए, तो कभी गीतों में दिवाली का उजास, खुशियां और भव्यता स्पष्ट दिखाई दी। लेकिन, समय के साथ फिल्मों के कथानकों से दिवाली गायब होती गई। कुछ दृश्यों को छोड़ दिया जाए, तो होली और गणेश उत्सव की तरह दिवाली को महत्व नहीं मिला। 90 के दशक के बाद की फ़िल्मो में दिवाली को याद तो रखा गया, पर रोशनी के इस त्यौहार को केंद्र में रखकर फ़िल्में बनाना थम सा गया।
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- हेमंत पाल
दिवाली का त्यौहार रोशनी, उत्साह और भव्यता के सबसे जीवंत त्योहारों में से एक है। इस त्यौहार की चमक किसी न किसी रूप में हमेशा झलकती है। लेकिन, रोशनी के बिना दिवाली का कोई महत्व नहीं होता। यही वजह है कि दिवाली के बहाने फिल्मकार अपनी 'लाइट्स, कैमरा, एक्शन' के साथ इसे बहुत अच्छी तरह से समझाते हैं। तभी तो फिल्मों में भव्य दीयों, पीतल के लैंप, एलईडी लाइट्स और मोमबत्तियों के साथ ऐसे दृश्य रोशन होते हैं। ऐसे ही 'कभी ख़ुशी-कभी गम' में जया बच्चन का दिवाली गीत प्रस्तुत करने का ये सबसे बेहतर प्रसंग यादगार बना। इसमें वे देवी लक्ष्मी से समृद्धि और सफलता के लिए प्रार्थना करती हैं। लेकिन, यह खुशी वाला दिन भी सभी को आनंदित नहीं करता, जैसा कि 'तारे ज़मीन पर' दर्शील सफारी को दर्शाया गया। स्कूल की छुट्टियां खत्म होते ही उसे बोर्डिंग स्कूल भेज दिया जाता है, जहां उसकी उदासी दर्शकों को अंदर तक सालती है। 'राजू बन गया जेंटलमैन' में दिवाली के दिन पूरी बस्ती एक साथ सद्भाव का महत्व दिखाती है, जिसमें नायक शाहरुख़ और नायिका जूही चावला बस्ती वालों के साथ फुलझड़ी जलाते हुए अपने बंधन का अहसास कराते हैं।
ऐसे ही याद कीजिए तुषार कपूर की वो पहली फिल्म 'मुझे कुछ कहना है' जिसमें वे करीना कपूर को सड़क पर बच्चों के साथ मस्ती करते हुए अनार जलाते देखते हैं। तब उन्हें पहली नजर के प्यार का अनुभव होता है। इसके अलावा फिल्मों का दायित्व जागरूकता पैदा करना भी होता है। आशा पारेख को फिल्म 'चिराग' में यह समझाने के लिए अपनी आंखों की रोशनी खोनी पड़ती है कि कैसे पटाखे से भयानक दुर्घटना संभव हैं। इसी तरह 'जो जीता वही सिकंदर' में आमिर खान के शरारती तरीके तब काम आते हैं, जब वे दिवाली के दिन अपने भाई और उसके स्कूल की पहली मोहब्बत को एक-दूसरे की भावनाएं महसूस कराते हैं। बात यही ख़त्म नहीं होती दिवाली के दिन अपराधी हो या पुलिसवाला सभी अपनी खुशियां बांटने का मौका नहीं छोड़ते। फिल्मों की किताब में यह सब अपने परिवार से प्यार करने के बारे में है और इसलिए 'वास्तव' में संजय दत्त दिवाली उपहार और मिठाई बांटने अपनी पुरानी चॉल में जाते हैं।
सिनेमा में जिन त्यौहारों को 'कभी खुशी कभी गम' व्यक्त करने का माध्यम बनाया जाता है, उनमें होली, राखी और करवा चौथ के अलावा दिवाली ही सबसे उल्लेखनीय है। त्यौहारों और फिल्मों के कथानकों का लम्बा साथ रहा है। ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने से परदे पर दिवाली का उजियारा रहा। लेकिन, पिछले दो दशकों से दिवाली की रौनक परदे से गायब होने लगी। इस त्यौहार का स्वरूप और दर्शकों का नजरिया बदलने से दिवाली के प्रसंगों को अब कम कर दिया गया। साल, दो साल में कभी कोई फिल्म आ ही जाती है, जिसमें दिवाली का प्रसंग गीत या सीन में दिखाई या सुनाई पड़ जाता हैं। जबकि, 60 और 70 के दशक में कई फिल्में दिवाली के आसपास ही घूमती रही। जयंत देसाई के निर्देशन में 1940 में आई 'दिवाली' इस परम्परा की फिल्म थी! इसके बाद 1955 में गजानन जागीरदार की 'घर घर में दिवाली' और इसके सालभर बाद 1956 आई में दीपक आशा की 'दिवाली की रात' में भी दिवाली को विषय वस्तु बनाकर फिल्म बनाई गई थी।
सिनेमा में जिन त्यौहारों को 'कभी खुशी कभी गम' व्यक्त करने का माध्यम बनाया जाता है, उनमें होली, राखी और करवा चौथ के अलावा दिवाली ही सबसे उल्लेखनीय है। त्यौहारों और फिल्मों के कथानकों का लम्बा साथ रहा है। ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने से परदे पर दिवाली का उजियारा रहा। लेकिन, पिछले दो दशकों से दिवाली की रौनक परदे से गायब होने लगी। इस त्यौहार का स्वरूप और दर्शकों का नजरिया बदलने से दिवाली के प्रसंगों को अब कम कर दिया गया। साल, दो साल में कभी कोई फिल्म आ ही जाती है, जिसमें दिवाली का प्रसंग गीत या सीन में दिखाई या सुनाई पड़ जाता हैं। जबकि, 60 और 70 के दशक में कई फिल्में दिवाली के आसपास ही घूमती रही। जयंत देसाई के निर्देशन में 1940 में आई 'दिवाली' इस परम्परा की फिल्म थी! इसके बाद 1955 में गजानन जागीरदार की 'घर घर में दिवाली' और इसके सालभर बाद 1956 आई में दीपक आशा की 'दिवाली की रात' में भी दिवाली को विषय वस्तु बनाकर फिल्म बनाई गई थी।
कुछ समय से परदे से यह रोशनी का त्यौहार जैसे गायब ही हो गया। अब कथानक की विषय वस्तु में बदलाव आने लगा। परदे पर त्यौहारों का मनाया जाना, बिकाऊ पटकथा की मांग पर निर्भर हो गया! फिल्मकार नई शैली के साथ प्रयोग करके कुछ नए प्रयोग करना चाहते हैं। वे वैश्विक पटल पर पहुंचने के साथ देश के साथ दुनियाभर के प्रशंसकों को लुभाने वाले विषयों पर फिल्म बनाने की कोशिश में रहते हैं। हर त्यौहार का बॉलीवुड कनेक्शन होता है। हमारी परंपराओं, व्रत-त्यौहारों को गीतों या फिल्मों के कथानक में पिरोकर दिखाया जाता रहा है। होली तो बॉलीवुड का सदाबहार त्यौहार है, लेकिन दीवाली कभी परदे का पसंदीदा त्योहार नहीं बन पाया। दिवाली पर प्रदर्शित फिल्मों की सफलता लगभग सुनिश्चित मानी जाती है! किंतु, हाल के सालों में फिल्मों में ये त्यौहार लगभग भुला दिया गया। अभी तो बड़े परदे पर कोरोना का कहर जारी है! इसे देखते हुए इस साल तो बॉलीवुड की दीवाली पर सिनेमाघर के अंदर का अंधियारा ही हावी रहेगा! जो फिल्में इस साल दीपावली को प्रदर्शित करने के लिए तैयार की गई थी, उन्हें आगे बढ़ाया जा रहा है। इस लिहाज से बॉलीवुड के लिए यह दीपावली सूनी और काली ही रहेगी।
दिवाली ने सिर्फ रंगीन फिल्मों के ज़माने में ही रंगीनियत नहीं दिखाई ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों में भी इस त्यौहार की महत्ता बरक़रार रही। जिन फिल्मों में दिवाली के दृश्यों को प्रमुखता दी गई, उनमें 1961 में आई राज कपूर, वैजयंती माला की 'नजराना' थी! इस फिल्म में 'मेले है चिरागों के रंगीन दिवाली है' गीत लता मंगेशकर ने गाया था। यह ब्लैक एंड व्हाइट दौर की खुशनुमा दीवाली का गीत है। इसकी खासियत है कि शुरू से अंत तक इसमें दिवाली की आतिशबाजी और भरपूर रोशनी नजर आती है। 1962 में आई 'हरियाली और रास्ता' में भी दिवाली के दृश्यों में नायक, नायिका का विरह दर्शाया गया था। वैजयंती माला दिलीप कुमार की 'पैगाम' और 'लीडर' में दिवाली के जरिए फिल्म के किरदारों को जोड़ने का प्रयास किया था। 1972 में 'अनुराग' में भी आपसी भरोसे और विश्वास को दिवाली से जोड़कर दर्शाया था। इसमें कैंसर से जूझ रहे बच्चे की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए पूरा मोहल्ला दिवाली मनाने में जुट जाता है। फिल्मों में दीवाली सिर्फ रोशनी और पटाखों तक सीमित नहीं रही। कथानक में ट्विस्ट लाने के लिए भी दिवाली के दृश्यों का इस्तेमाल किया गया।
धमाकों के बीच गोलियों की आवाज दबाकर पूरे परिवार के खत्म करने का दृश्य अमिताभ को सितारा बनाने वाली फिल्म 'जंजीर' में काफी प्रभावी ढंग से फिल्माया गया था। फिल्म का ये दृश्य नायक अमिताभ को सपने में हमेशा दिखाई देता है। इसके बाद धर्मेंद्र की फिल्म 'यादों की बारात' में भी तीन बेटों के सामने पिता की हत्या का दृश्य था। कमल हासन की 1998 में आयी फिल्म 'चाची 420' में बेटी के दिवाली के दिन पटाखों से घायल होने का प्रभावशाली दृश्य था। आदित्य चोपड़ा की 'मोहब्बतें' (2000) में दिवाली काफी अहम् थी। करण जौहर की 2001 में आई मल्टी स्टारर सुपरहिट फिल्म 'कभी खुशी कभी गम' का टाइटल सांग असल में एक दीवाली गीत ही है। इसमें जया बच्चन दीवाली की पूजा करते हुए यह गाती है!
दिवाली को पृष्ठभूमि में रखते हुए तैयार किए कुछ गानों को भी अपार लोकप्रियता हासिल हुई। इन गीतों में 'नजराना' का गीत 'एक वो भी दीवाली थी' 'शिर्डी के साईं बाबा' का गीत 'दीपावली मनाई सुहानी' के अलावा 'खजांची' का आई दीवाली आई, कैसी खुशहाली लाई, 'पैगाम' का दीवाली गीत 'कैसे मनाएं हम लाला दिवाली' और कुछ साल पहले गोविंदा अभिनीत फिल्म 'आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया' का गाना 'आई है दिवाली, सुनो जी घरवाली' दिवाली को केंद्र में ही रखकर रचे गए गीतों में थे। एसडी बर्मन के संगीत से सजी फिल्म 'जुगनू' फिल्म का गीत 'छोटे नन्हे मुन्ने प्यारे प्यारे रे' अपने समय में बेहद लोकप्रिय हुआ था। इसके अलावा 'नमक हराम' का राजेश खन्ना और अमिताभ पर फिल्माया गीत 'दिये जलते हैं फूल खिलते हैं' अपने बेहतरीन फिल्मांकन के लिए दर्शकों को आज भी याद है।
फिल्म 'रतन’(1944) के गीत 'आई दीवाली दीपक संग नाचे पतंगा' में दीवाली के लाक्षणिक भाव की पृष्ठभूमि में नौशाद ने विरह-भाव की रचना की थी। मास्टर गुलाम हैदर ने फिल्म 'खजांची’(1941) के गीत 'दीवाली फिर आ गई सजनी’ में पंजाबी उल्लसित टप्पे का पृष्ठभूमि में आकर्षक प्रयोग किया था। फिल्म महाराणा प्रताप (1946) में 'आई दीवाली दीपों वाली’ की पारंपरिक धुन सुनने को मिली थी। 'आई दीवाली दीप जला जा' (पगड़ी) गीत में आग्रह का पुट था। वहीं 'शीश महल’(1950) के गीत 'आई है दीवाली सखी आई रे’को वसंत देसाई ने पारंपरिक ढंग से स्वरबद्ध किया था।
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