Sunday, December 15, 2024

एक तरफा नाकाम मोहब्बत का फलसफा

   मोहब्बत कई तरह की होती है। दो तरफ़ा हो, तो उसे सफल मोहब्बत कहा जाता है। लेकिन, एक तरफा मोहब्बत भी कम नहीं होती। ऐसी मोहब्बत हमेशा एक नई कहानी को जन्म देती है। इस विषय पर कई फ़िल्में बनी, जिनमें एकतरफा मोहब्बत पर पूरी कहानी गढ़ दी गई। ऐसी मोहब्बत को समझने के लिए कुछ साल पहले आई 'ऐ दिल है मुश्किल' का एक डायलॉग मौजूं है। यह था 'एकतरफा प्यार की ताकत ही कुछ और होती है, औरों के रिश्तों की तरह ये दो लोगों के बीच नहीं बंटती, सिर्फ मेरा हक है इस पर!' वास्तव में यह डायलॉग कई लोगों की जिंदगी का फलसफा है। किंतु, ऐसी मोहब्बत पर आई फिल्म 'डर' एकतरफा मोहब्बत का काला पक्ष दर्शाती है। 
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- हेमंत पाल

     जब से फ़िल्में बनना शुरू हुई, प्रेम कथाओं का कथानकों में सबसे ज्यादा उपयोग किया गया। विषय कोई भी हो, प्रेम उसमें स्थाई भाव की तरह समाहित रहा। यहां तक कि युद्ध कथाओं और डाकुओं की फिल्मों में भी प्रेम को किसी न किसी तरह जोड़ा गया। न सिर्फ जोड़ा गया, बल्कि उस कथा को अंत तक निभाया भी। प्रेम कहानी में प्रेमी और प्रेमिका दोनों की भूमिका होती है, इसलिए कथानक को विस्तार देना मुश्किल नहीं होता। लेकिन, कुछ फ़िल्में ऐसी भी बनी, जिनमें प्यार को सिर्फ एकतरफा दिखाया गया। यानी प्रेमी या प्रेमिका में से कोई एक ही आगे कदम बढ़ाता है, दूसरा या तो वहीं खड़ा रहता है या पीछे हट जाता है। देखा गया कि ऐसी फिल्मों का कथानक हमेशा ही उलझा हुआ रहा। क्योंकि, जरूरी नहीं, जिससे आप प्यार करो, वह भी आप से प्यार करे। ऐसी फिल्मों का लंबा हिस्सा प्रेम के बिखरे हिस्से को समेटने में ही निकल जाता है। लेकिन, प्यार अधूरा हो या एक तरफा, दर्द बहुत देता है। चंद फ़िल्में ऐसी भी बनी जिनमें एकतरफ़ा प्रेम हिंसा के अतिरेक तक पहुंचा। आशय यह कि अपनी मोहब्बत को पाने के लिए खून तक बहाया गया। फिर भी क्या उन्हें प्यार मिला हो, ये जरूरी नहीं है।  
       इस तरह की एकतरफा दर्द भरी प्रेम कथा पर बनी फिल्म 'देवदास' एक तरह से मील का पत्थर है। इस फिल्म की कहानी शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के बंगाली उपन्यास पर आधारित है। इस एकतरफा प्रेम कथा पर अलग-अलग भाषाओं में कई फ़िल्में बनी। पहली बार 'देवदास' 1928 में रिलीज़ हुई थी। सबसे पहले बंगाली में बनी, फिर हिंदी में ही ये तीन बार बन चुकी है। साउथ में भी 'देवदास' पर फिल्म बनाई जा चुकी है। इस कहानी में एक वैश्या के प्यार में देवदास खुद को बर्बाद कर लेता है। जबकि, देवदास के इश्क में चंद्रमुखी अपने देवबाबू को भगवान मानने लगती है! एकतरफा प्यार में खुद को तबाह कर देने की सबसे चर्चित दास्तां 'देवदास' ही है। इसी कथानक पर संजय लीला भंसाली ने भी 2002 में 'देवदास' बनाई। फिल्म में मुख्य किरदार देव बाबू (शाहरुख खान), पारो यानी ऐश्वर्या राय और चंद्रमुखी यानी माधुरी दीक्षित ने निभाई थी। फिल्म में देव बाबू पारो से बहुत प्यार करता है। लेकिन, उसकी शादी नहीं हो पाती। वह एकतरफा प्यार में जब कुछ नहीं कर पाता, तो खुद को तबाह करता है। फिल्म के अंत में देव पारो के दरवाजे पर जाकर दम तोड़ देता है। ये फिल्म एकतरफा प्यार की सबसे सशक्त फिल्म मानी जाती है। 
     1999 में संजय लीला भंसाली ने ही सलमान खान, ऐश्वर्या राय बच्चन और अजय देवगन लेकर 'हम दिल दे चुके सनम' बनाई। इसमें समीर (सलमान खान) और नंदिनी (ऐश्वर्या राय) एक-दूसरे से बेइंतहा मोहब्बत करते हैं। लेकिन, अचानक परिवार वाले नंदिनी की शादी वनराज (अजय देवगन) से कर देते हैं। इसके बाद नंदिनी का प्यार समीर उससे दूर हो जाता है। वनराज नंदिनी से पहली नजर से प्यार करता है, और शादी के बाद उसका प्यार और बढ़ता है। लेकिन, किसी भी एकतरफा प्यार का सबसे बड़ा इम्तिहान तब होता है, जब उसे पता चलता कि उसकी पत्नी किसी दूसरे से प्यार करती है। यह फिल्म एकतरफा प्यार की ताकत को बहुत आगे लेकर जाती है। वनराज दोनों प्रेमियों को मिलाने की कोशिश में करता है। वनराज अपनी पत्नी को उसके प्रेमी से मिलाने लेकर जाता है। उसकी आंखों में आंसू होते हैं, लेकिन फिर भी वो पीछे नहीं हटता। किंतु, नंदिनी यह स्वीकार नहीं करती और पति के साथ लौट आती है। ये अपनी तरह की अनोखी प्रेम कहानी थी। 
    ऐसी चंद कहानियों में एक फिल्म यश चोपड़ा की 'डर' (1993) भी है जिसमें एकतरफा प्यार का हिंसक रूप सामने आता है। 'डर' नाकाम प्रेमियों की उस कहानी को बयां करती है, जिन्हें प्रेमी को खोने का डर सबसे ज्यादा होता है। शाहरुख़ खान (राहुल) फिल्म में जूही चावला (किरण) से एकतरफा प्यार करता है। जब जूही उसके प्यार को स्वीकार नहीं करती तो शाहरुख का प्यार पागलपन की हद तक चला जाता है। लेकिन, किरण तो सुनील (सनी देओल) को चाहती थी। 'डर' में एकतरफा प्यार का जो रूप दिखाया, वो काफी भयानक है। अंत में राहुल को किरण का पति सुनील मार देता है। 
    शाहरुख खान की एक और फिल्म 'कभी हां कभी ना' (1994) शुरुआती फिल्म थी। फिल्म की कहानी में शाहरुख़ एक लड़की सुचित्रा कृष्णमूर्ति को चाहता हैं, पर वो किसी और को। लेकिन, इस फिल्म का अंत खुशनुमा होता है। अमिताभ बच्चन की हिट फिल्म 'मुकद्दर का सिकंदर' में भी एकतरफा प्यार के दो किस्से थे। कथानक में एक गरीब बच्चे की मदद एक अमीर लड़की करती है। वो बच्चा उसे प्यार करने लगता है। बड़े होने तक और मरने तक उसे यह प्यार रहता है। लेकिन, वो लड़की किसी और को चाहती है। 'मुकद्दर का सिकंदर' में वो गरीब बच्चा अमिताभ थे और अमीर लड़की जयाप्रदा जिससे वे एकतरफा प्यार करते हैं। वहीं रेखा अमिताभ को चाहती है। फिल्म में अमजद खान भी रेखा से एकतरफा प्यार करते थे।
   आमिर खान की फिल्म 'लगान' (2001) भी ऐसी ही फिल्म थी, जिसमें एकतरफा प्यार का बहुत हल्का सा इशारा था। इस फिल्म में एकतरफा प्यार पनपता है भुवन (आमिर खान) के लिए एलिजाबेथ में। जब एलिजाबेथ गांव वालों को क्रिकेट सिखाने में मदद करती है, उसी दौरान वह अपना दिल भुवन को दे देती है। लेकिन, भुवन को इस बात का पता नहीं होता। क्योंकि, वह तो गौरी से प्यार करता है। फिल्म के अंत में जरूर दर्शकों को इस एकतरफा मोहब्बत का अंदाजा मिलता है। 
      2001 में ही आई 'दिल चाहता है' की कहानी में भी एकतरफा प्यार था। इस फिल्म ने दोस्ती में नया अध्याय जरूर जोड़ा। फिल्म की कहानी में तीनों दोस्तों को प्यार होता है। सिड (अक्षय खन्ना) को तलाकशुदा महिला तारा (डिंपल कपाड़िया) से एकतरफा प्यार हो जाता है। लेकिन, तारा उसे दोस्त ही समझती रहती है। जबकि, सिड को तारा की दोस्ती प्यार लगती है। अंत में उसका दिल टूट जाता है। ऐसी ही एक फिल्म 'कॉकटेल' आई थी, जिसकी कहानी एकतरफा आशिकों के लिए थी। ऐसा नहीं कि लड़का ही एकतरफा आशिक होता है। लड़की को भी एकतरफा इश्क हो सकता है। फिल्म में वही दिखाया गया। गौतम (सैफ अली) वेरॉनिका (दीपिका पादुकोण) एक जोड़े की तरह साथ रहते हैं। लेकिन, दोनों के बीच प्यार पूरा नहीं होता। इनके साथ डायना पेंटी (मीरा) भी रहती है। जब गौतम को मीरा से इश्क हो जाता है, तो वेरोनिका भी उससे प्यार करने लगती है। तब मामला गंभीर हो जाता है। 1997 में आई फिल्म 'दिल तो पागल है' में निशा (करिश्मा कपूर) और राहुल (शाहरुख खान) अच्छे दोस्त होते हैं। लेकिन निशा के दिल में राहुल के लिए दोस्त से बढ़कर जगह होती है। पर, वह यह बात राहुल से नहीं कहती। लेकिन राहुल की जिंदगी में जब पूजा (माधुरी दीक्षित) की एंट्री होती है, तो निशा का प्यार दिल में ही रह जाता है और राहुल-पूजा प्रेमी जोड़ा बन जाते हैं।
     करण जौहर की फिल्म 'ऐ दिल है मुश्किल' (2016) में एकतरफा प्यार की ताकत को दिखाया गया। किस तरह लड़के को लड़की से प्यार होता है लेकिन लड़की किसी और को चाहती है। रणबीर कपूर ने फिल्म में अयान का किरदार निभाया था। फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर तो कोई कमाल नहीं किया। लेकिन, एकतरफा मोहब्बत करने वालों को सीख जरूर दी। दो अजनबी टकराते हैं, फिर रिश्ते की शुरुआत होती है। अयान इसे प्यार समझ लेता है। लेकिन अनुष्का शर्मा (अलिजेह) इस रिश्ते को दोस्ती का नाम देती है। कहानी में अयान को अविजेह से प्यार रहता है। जबकि अलिजेह के लिए अयान सिर्फ एक अच्छा दोस्त होता है। 2005 में आई आदित्य दत्त की फिल्म 'आश‌िक बनाया आपने' में सोनू सूद (करण) तनुश्री दत्ता (स्नेहा) से एकतरफ़ा प्यार करते हैं। लेकिन, वे कभी बताते नहीं। लेकिन, जब स्नेहा इमरान हाशमी (विकी) से प्यार करने लगती हैं, तो करण अपने दोस्त विकी के खिलाफ साजिश रचकर उससे सब छीन लेता है। 
    आज के दौर में ऐसी फिल्मों में यादगार फिल्म 'रांझणा' (2013) है। आनंद एल राय ने सोनम कपूर, अभय देओल और धनुष को लेकर यह फिल्म बनाई। वाराणसी शहर की पृष्ठभूमि और हिंदू-मुस्लिम धर्मों के दो किरदारों की कहानी है। कुंदन (धनुष) बचपन से ही जोया (सोनम कपूर) से एकतरफा प्यार करता है। लेकिन, जोया जसजीत सिंह (अभय देओल) नाम के छात्र व यूनियन में चुनाव में सक्रिय लड़के से प्यार करती है। कहानी कुछ ऐसा मोड़ लेती है कि कुंदन की एक गलती की वजह से जसजीत सिंह की मौत हो जाती है। इसके बाद एक तरफा मुहब्बत एक नए मुकाम पर पहुंच जाती है। कुंदन अपना सब कुछ पहले ही जोया पर हार चुका होता है। अंत में जोया के कहने पर सब जानते हुए अपनी जान तक दे देता है। रणबीर कपूर की फिल्म 'ये जवानी है दीवानी' में भी दीपिका पादुकोण को एकतरफा प्यार करते दिखाया गया। 'बर्फी' फिल्म में रणबीर कपूर को इलियाना डिक्रूज के एकतरफा प्यार में दीवाना दिखाया था। इसके अलावा मेरी प्यारी बिंदु, रॉकस्टार, मोहब्बतें और 'जब तक है जान' भी वे फ़िल्में हैं जिनका कथानक एकतरफा प्यार पर केंद्रित था।  
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स्वप्नीली नीली आंखों का वो रंगीन जादू

   भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े फिल्ममेकर्स रहे राज कपूर ने सिर्फ हिंदी सिनेमा को ही समृद्ध नहीं किया, उन्होंने विश्व सिनेमा पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। 'द ग्रेटेस्ट शोमैन' के नाम से मशहूर इस स्वप्नीली नीली आंखों वाले बहुमुखी कलाकार ने फिल्म मेकिंग, एक्टिंग और डायरेक्शन में ऐसा जबरदस्त कमाल किया, जो आज भी प्रेरणा देता है। उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर आरके फिल्म्स, फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन और एनएफडीसी ने एक साथ मिलकर एक खास उत्सव मना रहे हैं। इसमें उनकी 10 चुनिंदा फ़िल्में प्रदर्शित की जाएगी। राज कपूर का जन्म 14 दिसंबर 1924 को हुआ और 1988 में उनका निधन हो गया था। आज वे होते तो 100 साल के होते।  

- हेमंत पाल
  
     सिनेमा के ग्रेटेस्ट शोमैन राज कपूर के बारे में जिन्हें लगता था कि उनके बाद हिंदी फिल्मों का शो थम जाएगा, वे कहीं न कहीं गलत थे। लेकिन, यदि वे आज जीवित होते, तो देखते कि फिल्म प्रशंसक उनकी सौंवी जयंती मना रहे हैं। 'मेरा नाम जोकर' में उन्होंने सच कहा था 'कल खेल में हम हो न हो गर्दिश में सितारे रहेंगे सदा' और जाइएगा नहीं शो अभी खत्म नहीं हुआ। अब लगने लगा कि राज कपूर ने खेल खेल ही में ही, लेकिन सच ही कहा था कि शो अभी खत्म नहीं हुआ! उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर आरके फिल्म्स, फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन और एनएफडीसी ने एक साथ मिलकर एक खास उत्सव मना रहे हैं। इसमें 40 शहरों के 135 सिनेमाघरों में राज कपूर की 10 फिल्में प्रदर्शित की जाएंगी। 'राज कपूर 100 : सेलिब्रेटिंग द सेंटेनरी ऑफ द ग्रेटेस्ट शोमैन' नाम का यह उत्सव 13 दिसंबर 15 दिसंबर तक चलेगा। इस दौरान राज कपूर की फिल्मों की स्क्रीनिंग पीवीआर-आईनॉक्स और सिनेपोलिस सिनेमाघरों में आग, बरसात, आवारा, श्री 420, जागते रहो, जिस देश में गंगा बहती है, संगम, मेरा नाम जोकर, बॉबी और 'राम तेरी गंगा मैली' का प्रदर्शन किया जाएगा। 
     राज कपूर के बेटे रणधीर कपूर ने कहा भी है कि राज कपूर सिर्फ फिल्ममेकर नहीं दूरदर्शी थे। उन्होंने भारतीय सिनेमा की भावनात्मक परंपरा को आकार दिया। उनकी कहानियां केवल फिल्में नहीं, बल्कि भावनात्मक यात्राएं हैं, जो पीढ़ियों को जोड़ती हैं। यह उत्सव उनके नजरिए को हमारी छोटी सी श्रृद्धांजलि है। उनके पोते रणबीर कपूर ने कहा कि हमें गर्व है, कि हम राज कपूर परिवार के सदस्य हैं। हमारी पीढ़ी एक ऐसे दिग्गज के कंधों पर खड़ी है, जिनकी फिल्मों ने अपने समय की भावनाओं को दर्शाया और दशकों तक आम आदमी को आवाज दी। उनकी टाइमलेस कहानियां प्रेरणा देती रहती हैं, और यह फेस्टिवल उस जादू का सम्मान करने और सभी को बड़े पर्दे पर उनकी विरासत का अनुभव करने के लिए आमंत्रित करने का हमारा एक तरीका है।
    निर्देशक, निर्माता और कलाकार के रूप में, राज कपूर आजादी के बाद के पहले दो दशकों में भारतीय सिनेमा के 'स्वर्ण युग' के दौरान भारत के अग्रणी फिल्म निर्माताओं में से एक बने। राज कपूर यथार्थ में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। उनकी फिल्मों में सिक्के के दो पहलू दिखाए गए। जिसका एक पहलू आजादी के युग की आकांक्षाओं के दर्शन कराता है। दूसरा, हिंदी सिनेमा की वर्तमान स्थिति के सामने आईना रखने का काम करता है। सीधा सा सिद्धांत यही है 'दिल का हाल कहे दिलवाला सीधी सी बात न मिर्च मसाला।' उनका सिनेमा मांसल यौवन से लथपथ होने के बावजूद कथानक और घटनाक्रम के रूप में पूर्ण रूप से सात्विक था। यही था उनका बिना मिर्च मसाले वाला सिनेमा।
    राज कपूर की शुरुआती फिल्में लोकप्रिय संगीत और मेलोड्रामा के मिश्रण में गरीबी और जाति के बारे में जनजागरण लाने का प्रयास करती रही। श्री 420, जागते रहो,  बूट पालिश से लेकर 'आवारा' और 'जिस देश में गंगा बहती है' इसके बेहतरीन उदाहरण है। जिनमें राज कपूर ने चार्ली चैपलिन का भारतीयकरण कर फिर भी दिल भी दिल है हिन्दुस्तानी की तर्ज में सफलतापूर्वक पेश किया। इन सबके चलते राज कपूर एक करिश्माई कलाकार और निर्माता-निर्देशक  बन गए, जिन्होंने दुनियाभर में भारतीय फिल्मों का झंडा फहराने में कामयाबी पायी। उनके बाद की फिल्मों की चकाचौंध ने उन्हें हिन्दी फिल्मों के ग्रेटेस्ट शोमेन का दर्जा दिया, जो आज भी उनके नाम पर अखंडित ओहदा है। मदभरे गीत संगीत और दिल को छूने वाली कहानियों के साथ अल्हड़ प्रेम प्रसंगों के चलते राज कपूर बेहद लोकप्रिय हो गए। 
     इस दौरान भारतीय फिल्म इतिहास की सबसे बड़ी स्टार और सबसे प्रशंसित अभिनेत्रियों में से एक नरगिस के साथ उनकी अक्सर ऑन-स्क्रीन जोड़ी भी बनी। 1950 के दशक के मध्य में अपनी प्रसिद्धि के चरम पर आवारा और 'श्री 420' की रिलीज़ के बाद राज कपूर न केवल भारत में बल्कि पूरे दक्षिण एशिया, अरब दुनिया, ईरान, तुर्की, अफ्रीका और सोवियत संघ में भी एक मशहूर हस्ती थे। साथ ही, उन्होंने अभिव्यक्तिवादी छाया और गहरे फ़ोकस के अपने उपयोग से हिंदी सिनेमा की शैलीगत शब्दावली का विस्तार करने में मदद की। बाद के सालों में रंग में काम करते हुए वे उन लोगों में से थे, जिन्होंने हिंदी फ़िल्मों में तेज़ी से लंबे, विस्तृत और शानदार गीत अनुक्रमों को शामिल करना शुरू किया।
     उनकी सबसे बड़ी सफलता और खासियत थी उनके काम करने की स्टाइल। वह ऐसे काम करते थे, जिसकी कोई कल्पना नहीं कर सकता। मसलन 'जिस देश में गंगा बहती है' की कहानी सुनने के बाद शंकर जयकिशन ने यह कहा था कि बेहतर होगा वह इसका संगीत किसी दूसरे संगीतकार को दें, क्योंकि इसमें गानों की सिचुएशन ही नहीं है। इसी कथानक में राज कपूर ने सात दिन में ग्यारह गानों की सिचुएशन निकालकर सभी को अचंभित कर दिया। कहा जाता है कि वह अपनी फिल्मों के संगीत को दर्शकों से पास करवाकर कथानक का हिस्सा बनाते थे। इसी तारतम्य में एक बात यह भी चर्चित है कि वे अपनी फिल्मों के गानों को पहले किन्नरों को बुलाकर सुनाते थे और उनकी सहमति के बाद उसे फिल्म में जोड़ते थे। उनकी फिल्मों में आजादी के बाद के भारत के आम आदमी के सपने, गांव और शहर के बीच का संघर्ष और भावनात्मक कहानियां जीवंत हो उठती थीं। आवारा, श्री 420, संगम, और 'मेरा नाम जोकर' जैसी फिल्में आज भी सिनेमा प्रेमियों के दिलों में बसी हुई हैं।
    राज कपूर का जन्म पठानी हिन्दू परिवार में हुआ था। पांच भाइयों और एक बहन में सबसे बड़े राज कपूर ने अपनी शिक्षा सेंट जेवियर्स कॉलेजिएट स्कूल, कोलकाता और कर्नल ब्राउन कैंब्रिज स्कूल देहरादून से ली। बाद में 1930 के दशक में उन्होनें बॉम्बे टॉकीज़ में क्लैपर-बॉय और पृथ्वी थिएटर में एक अभिनेता के रूप में काम किया, ये दोनों कंपनियाँ उनके पिता पृथ्वीराज कपूर की थीं। राज कपूर बाल कलाकार के रूप में इंकलाब (1935) और हमारी बात (1943), गौरी (1943) में छोटी भूमिकाओं में कैमरे के सामने आ चुके थे। राज कपूर ने फ़िल्म वाल्मीकि (1946), नारद और अमरप्रेम (1948) में कृष्ण की भूमिका निभाई थी। इन तमाम गतिविधियों के बावज़ूद उनके दिल में एक आग सुलग रही थी कि वे स्वयं निर्माता-निर्देशक बनकर अपनी स्वतंत्र फ़िल्म का निर्माण करें। उनका सपना 24 साल की उम्र में फ़िल्म आग (1948) के साथ पूरा हुआ। उन्होंने प्रमुख भूमिका भी 'आग' में ही निभाई, जिसका निर्माण और निर्देशन भी उन्होंने स्वयं किया था। 
    इसके बाद राज कपूर के मन में अपना स्टूडियो बनाने का विचार आया और चेम्बूर में चार एकड़ ज़मीन लेकर 1950 में उन्होंने अपने आरके स्टूडियो की स्थापना की और 1951 में ‘आवारा’ में रूमानी नायक के रूप में ख्याति पाई। राज कपूर ने ‘बरसात’ (1949), ‘श्री 420’ (1955), ‘जागते रहो’ (1956) व ‘मेरा नाम जोकर’ (1970) जैसी सफल फ़िल्मों का निर्देशन व लेखन किया और उनमें अभिनय भी किया। उन्होंने ऐसी कई फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें उनके दो भाई शम्मी कपूर व शशि कपूर और तीन बेटे रणधीर, ऋषि व राजीव अभिनय कर रहे थे। यद्यपि उन्होंने अपनी आरंभिक फ़िल्मों में रूमानी भूमिकाएँ निभाईं, लेकिन उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध चरित्र ‘चार्ली चैपलिन’ का ग़रीब, लेकिन ईमानदार ‘आवारा’ का प्रतिरूप है। उनका यौन बिंबों का प्रयोग अक्सर परंपरागत रूप से सख्त भारतीय फ़िल्म मानकों को चुनौती देता था। 
      राज कपूर ने बरसात (1949), श्री 420 (1955), जागते रहो (1956) व मेरा नाम जोकर (1970) जैसी सफल फ़िल्मों का निर्देशन व लेखन किया और उनमें अभिनय भी किया। उन्होंने ऐसी कई फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें उनके दो भाई शम्मी कपूर व शशि कपूर और तीन बेटे रणधीर, ऋषि व राजीव अभिनय कर रहे थे। उन्होंने अपनी आरंभिक फ़िल्मों में रूमानी भूमिकाएँ निभाईं, लेकिन उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध चरित्र ‘चार्ली चैपलिन‘ का ग़रीब, लेकिन ईमानदार ‘आवारा’ का प्रतिरूप है। उनका यौन बिंबों का प्रयोग अक्सर परंपरागत रूप से सख्त भारतीय फ़िल्म मानकों को चुनौती देता था। मेरा नाम जोकर, संगम, अनाड़ी, जिस देश में गंगा बहती है, उनकी कुछ बेहतरीन फिल्में रही। बॉबी, राम तेरी गंगा मैली, प्रेम रोग जैसी हिट फिल्मों का निर्देशन भी किया।
    राज कपूर फिल्मों में जितने गैर-रोमांटिक नजर आते थे, वास्तविक जीवन में उतने ही रोमांटिक थे। उनकी रूमानी तबीयत के कारण उनकी पत्नी कृष्णा राज कपूर के साथ नर्गिस, पद्मिनी और वैजयंती माला जैसी भारतीय नायिकाओं के संबंधों से काफी परेशान रहती थीं। इसके चलते वह कई बार उनका घर भी छोड़ देती थीं। विवादों से भी उनका नाता कम नहीं रहा है। 1978 में, उन्होंने लता मंगेशकर से वादा किया कि वह उनके भाई हृदयनाथ मंगेशकर को फिल्म ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में संगीत निर्देशक के रूप में नियुक्त करेंगे। लेकिन, जब लता मंगेशकर एक संगीत दौरे पर संयुक्त राज्य अमेरिका गई थी, तब उन्होंने इस फिल्म के लिए हृदयनाथ मंगेशकर की जगह लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को संगीत निर्देशक बना दिया। इसके बाद लता मंगेशकर उनसे नाराज हो गईं। लेकिन, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के निवेदन के बाद उन्होंने इस फिल्म के लिए भी गीत गाए।  
      राज कपूर को फिल्मों में जो सफलता मिली वह टीम वर्क का ही परिणाम था। उनके पास ख्वाजा अहमद अब्बास, जैनेन्द्र जैन और इंदर राज आनंद जैसे लेखक थे, जिन्होंने समय के साथ उनके लिए एक से बढ़कर एक फिल्म लिखी। उनकी फिल्मों से ज्यादा उसका संगीत लोकप्रिय हुआ, जिसमें शंकर जयकिशन के साथ हसरत और शैलेन्द्र की जोड़ी और मुकेश की आवाज के योगदान को खुद राजकपूर भी नहीं नकार सके। इसके अलावा उनके साथ नर्गिस दत्त की जोड़ी परदे पर जादू सा कमाल करती थी। यही कारण था कि एक बार जब फिल्मों के रिमेक का दौर चला, राज कपूर से 'आवारा' के रीमेक की बात की गई तो उन्होंने कहा आप मुझे नरगिस, शंकर जयकिशन, शैलेन्द्र हसरत और मुकेश ला दीजिए मैं आपको इससे भी बेहतर आवारा दे दूंगा। 
    नई दिल्ली के रीगल सिनेमा से राजकपूर को खासा लगाव था। उनकी हर फिल्म का प्रीमियर यहीं होता था। वे पहले शो में मौजूद रहकर हवन करवाते थे। राजकपूर और नर्गिस ने रीगल के फैमिली बॉक्स में बैठकर कई फिल्में देखी थी। 1978 में जब बोल्ड दृश्यों के कारण कई सिनेमाघरों ने 'सत्यम शिवम सुंदरम' को प्रदर्शित करने से इंकार कर दिया, तब रीगल ने इसे बिना किसी झिझक के प्रदर्शित किया। ऋषि कपूर की बतौर नायक पहली फिल्म 'बॉबी' का प्रीमियर भी यहीं हुआ था। 30 मार्च 2017 को जब रीगल सिनेमा बंद हुआ, तब भी उसके अंतिम शो में 'मेरा नाम जोकर' का ही प्रदर्शन किया गया था।
    राज कपूर की फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर पैसा कमाया, बल्कि उनकी झोली में पुरस्कार भी बेशुमार गिरे। 1960 में फिल्म 'अनाड़ी' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार से सम्मानित किया। 1962 में फिल्म 'जिस देश में गंगा बहती है' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार से नवाजा गया। 1965 में उन्हे 'संगम' के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार दिया गया। राज कपूर को कला के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन् 1971 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।1972 में फिल्म 'मेरा नाम जोकर' सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार से सम्मानित किया।1983 में उन्हे फिल्म 'प्रेम रोग' के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार दिया गया। उन्हे जीवन का सबसे बडा और आखिरी दादा साहब फाल्के पुरस्कार 1987 में मिला। इस पुरस्कार को लेने वह दिल्ली गए। 2 जून को जब राष्ट्रपति भवन में यह पुरस्कार दिया जा रहा था। भावावेश में उन्हें दमे का इतना जोरदार अटैक आया कि वह मंच तक नहीं पहुंच सके। राष्ट्रपति ने शिष्टाचार तोड़कर उनके पास जाकर उन्हें पुरस्कार सौंपा। इसके बाद वह दिल्ली के अस्पताल में ही भर्ती रहे, यहीं फिल्मी दुनिया का 'एक तारा न जाने कहां खो गया!'
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Wednesday, December 11, 2024

इन फिल्मों ने रूढ़ियों की बेड़ियां तोड़ी!

     हिंदी फिल्मों के इतिहास को उलट-पलट कर देखा जाए, तो हर दौर में चंद ऐसी फिल्में जरूर बनी, जिन्हें लीक से हटकर कहा जा सकता है। इन फिल्मों में तयशुदा ढर्रे से हटकर कुछ कहने और करने की कोशिश की गई। इनमें मनोरंजन नहीं था, बल्कि एक वैचारिक संदेश था, जो देखने वालों को झकझोरता था कि उनके आसपास जो चल रहा है, वो उससे वाकिफ हैं या नहीं! ऐसी फ़िल्में हर दौर में बनी, जिन्होंने कभी सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ आवाज उठाई, कभी ऐसी बेड़ियों को तोड़ा जो बंधन की तरह पैरों में पड़ी हैं। लेकिन, इनकी संख्या बहुत कम है। अछूत कन्या, बूट पॉलिश, जूली, गाइड, दो आंखे बारह हाथ और 'प्रेम रोग' वे फ़िल्में थी, जिनके कथानक में नई सोच थी। पर, अब कोई ऐसी फ़िल्में बनाने का साहस नहीं करता!
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- हेमंत पाल

     फिल्मों के कथानक किस प्रेरणा से गढ़े जाते हैं, यदि इस सवाल का जवाब खोजा जाए तो हर जवाब में जीवन के अनुभव, प्रेम कथाएं, सामाजिक परम्पराएं, अनोखी घटनाएं, सामाजिक रूढ़ियां और पारिवारिक रिश्ते ही शामिल होंगी। अभी तक बनी फिल्मों के कथानकों पर सरसरी नजर दौड़ाई जाए, यही पांच-छह विषय ही सामने आएंगे। लेकिन, जिस विषय पर सबसे कम कथानक रचे गए, वो है सामाजिक रूढ़ियां या यूं कहिए कि मान्यताओं को खंडित करने वाली फ़िल्में। 
   यानी ऐसे रीति-रिवाज जो बरसों से समाज में हैं और उन्हें न चाहते हुए भी ढोया जा रहा है। कुछ लोग उन्हें तोड़ना भी चाहते हैं, पर आगे बढ़कर कोई साहस नहीं करता! जब भी इन विषयों पर फिल्मों के कथानक बने, उनकी संख्या उंगलियों पर गिनने लायक है। इसके पीछे कारण यह भी कहा जा सकता है, कि फिल्मकार ऐसे मामलों में उलझना नहीं चाहते! उन्हें पता है कि यदि सामाजिक स्तर पर फिल्म का विरोध हुआ, तो इसका खामियाजा सिर्फ निर्माता-निर्देशक को ही भुगतना पड़ता है। लेकिन, फिर भी कुछ फिल्मकारों ने ऐसी फ़िल्में बनाई, जो दर्शकों ने पसंद की। 
    गुलामी के दौर में बनी फ्रांज़ ऑस्टेन की फिल्म 'अछूत कन्या' (1936) का निष्कर्ष था कि फिल्मों के जरिए सुधारवाद की बात कैसे की जाए! ज्वलंत मुद्दों पर आधारित कहानियों को तब सामने लाना आसान नहीं था। वह भी ऐसे समय में, जब फ़िल्मों के विषय समाज और राजनीति के हिसाब से तय होते हों। फिल्म में एक ब्राह्मण लड़के अशोक कुमार और एक अछूत कन्या देविका रानी के बीच प्रेम कहानी को दिखाकर, ऐसे समाज में जीने की बात की गई थी, जो वर्गों में बंटा हो। इस प्रकार के विचारशील मुद्दे पर बनी इस फिल्म को महात्मा गांधी द्वारा भी सराहा था। लेकिन, बाद में किसी ने ऐसा साहस नहीं किया। आजादी के बाद 1954 में पहली ऐसी फिल्म 'बूट पॉलिश' बनी, जिसमें मानवीय मूल्यों को उजागर करने की कोशिश की गई थी। क्योंकि, देश तो आजाद था, पर दिलों से गुलामी के बंधन नहीं टूटे थे।
    ऐसे समय में 'बूट पॉलिश' जैसी फिल्म एक अलग तरह का अहसास थी। यह फिल्म दो बच्चों भोला और बेलू की कहानी थी। 'बूट पॉलिश' को अन्य फिल्मों के मुकाबले अलग दर्जा मिला। क्योंकि, इस फ़िल्म में सहजता से बताया गया था कि कोई भी काम छोटा या बड़ा हो, वह आत्मनिर्भर जरूर बनाता है। भोला और बेलू भी मेहनत करके कमाई का रास्ता नहीं छोड़ते। एक दिन अपनी कमाई से वे बूट पॉलिश और ब्रश खरीदते हैं और चिल्ला कर कहते हैं 'आज से हमारा हिंदुस्तान आजाद होता है!' राज कपूर ने अपने दम से इस फ़िल्म को अलग बनाया। राज कपूर हमेशा प्रेम पर आधारित फिल्में बनाते रहे थे। 'बूट पॉलिश' उनकी इस फिल्म से उलट थी।
     इसके कुछ साल बाद 1957 में वी शांताराम की फिल्म 'दो आंखें बारह हाथ' आई, जो कुछ अलग थी। अपने अनोखे विषय और सभ्य समाज में रहन-सहन के कथित आदर्शों के उलट इस कहानी की वजह से यह फिल्म कसौटी पर खरी उतरी। तब कैदियों को जेल में पीड़ितों की तरह रखा जाता था। ज़िंदगी में किए अपराधों की वजह से उनकी जवानी खो जाती थी। इस फिल्म ने इस धारणा को बदला। फ़िल्म का मुख्य विषय था खूंखार अपराधियों को सुधारने के लिए अहिंसक तरीके अपनाना। यह कहानी जेल वार्डन के इर्द-गिर्द घूमती है, जो छह कैदियों को अच्छा इंसान बनने की राह पर लाता है। 
    इसी साल आई 'शारदा' (1957) एलवी प्रसाद की फिल्म थी। इसकी कहानी भी अन्य फिल्मों से अलग थी। इसका घटनाक्रम कहीं ज़्यादा जटिल था। जब एक प्रेमी युगल एक-दूसरे से जुदा हो जाता है, तो कई अजीब चीजें होती हैं। नायक को एक युवती से प्यार हो जाता है, लेकिन वह उससे शादी नहीं कर पाता। कुछ अनोखी घटनाओं की वजह से, उसके पिता की उसी महिला से शादी हो जाती है! इसके बाद, एक सौतेली मां और बेटे के बीच का रिश्ता देखने को मिलता है, जिसके मायने ही कुछ और होते हैं। ये अपनी तरह की बिल्कुल अलग फिल्म थी। इसके अलावा 1963 में आई बिमल रॉय की फिल्म 'बंदिनी' में पहली बार मुख्य कलाकारों को बिल्कुल अलग तरीके से दिखाया गया। मुख्य किरदार कल्याणी के व्यक्तित्व के कई पहलू थे। प्रेमी को पाने और अधूरे प्यार के बीच फंसने से उपजी जलन की वजह से वह खून तक कर देती है। उसे जेल हो जाती है। सजा काटने के बाद, वह उसी आदमी के पास लौटकर उसी की हो जाती है।
    अलग तरह की फिल्मों के दौर में 1972 में आई कमाल अमरोही की 'पाकीजा' को भी गिना जाता है। यह मुगल दौर की नर्तकियों की जिंदगी की कहानी थी। फिल्म का कथानक तवायफ़ों को समाज में स्वीकार करने की राह में आने वाली अड़चनों को उजागर करना था। मीना कुमारी की इस यादगार फिल्म ने यह सवाल भी खड़े किए थे कि समाज के झूठ और ढोंग को मध्यम वर्ग कितनी सहजता से सह लेता है। आज भी फिल्म को दमदार और तीखे संवादों के लिए जाना जाता है। वैश्या विवाह पर बनी फिल्मों में देव आनंद और वहीदा रहमान की फिल्म कालजयी फिल्म 'गाइड' (1965) को भी गिना जाता है। इसकी कहानी अपने समय काल से काफी आगे की बोल्ड थी। ये फिल्म न सिर्फ वैश्या विवाह का समर्थन करती थी, बल्कि इसमें आज की तरह का लिवइन रिलेशन भी दिखाया था। 1966 में आई धर्मेंद्र, अशोक कुमार और सुचित्रा सेन की फिल्म 'ममता' भी वैश्या विवाह के समर्थन का संदेश देने वाली फिल्म थी।     
    रूढ़ियों को खंडित करने वाली एक फिल्म थी 1975 में आई 'जूली।' फिल्म में नए ज़माने की संवेदनशील लड़की बिना शादी के गर्भवती हो जाती है। इसके बाद उसे कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। धर्म और शादी के बीच की सदियों पुरानी रुकावटों के आधार पर होने वाले घटनाक्रम को इसमें अच्छी तरह से दिखाया था। एक बिन ब्याही मां का संघर्ष क्या होता है, यही इसका कथानक था। 'जूली' उन फिल्मों में थी, जिसमें एंग्लो इंडियन परिवार और उनके ईसाई मूल्यों का खास चित्रण था। लंबे विवाद के बाद 'जूली' की मां हिंदू से अपनी बेटी की शादी के लिए तब तक स्वीकृति नहीं देती, जब तक प्रेमी के पिता अपने पोते और एक खुशहाल परिवार को साथ बनाए रखने की हामी नहीं भरते। घिसी-पिटी रूढ़िवादी सोच के बजाए मानवीय मूल्यों को तरजीह देने की सीख इसी फिल्म ने दी थी। 
    1982 में आई राज कपूर की फिल्म 'प्रेम रोग' में देश के ग्रामीण इलाकों में रहने वाली विधवाओं की जिंदगी में आने वाली मुश्किलों को बहुत करीब से दिखाया था। फिल्म में राज कपूर ने प्रेमियों के माता-पिता को अपनी 'शान' के लिए अपनी बेटियों और बेटों की जान को दांव पर लगाने के खिलाफ चेतावनी दी थी। नायक देवधर (ऋषि कपूर) शहर से गांव आता है। उसकी बचपन की दोस्त मनोरमा (पद्मिनी कोल्हापुरी) अमीर और रसूख रखने वाले परिवार की लड़की होती है। उसकी शादी एक अमीर खानदान में कर दी जाती है। लेकिन, शादी के बाद मनोरमा के पति की मौत हो जाती है। विधवा मनोरमा ससुराल में बलात्कार का शिकार भी होती है। जब देवधर उसे बचाने के लिए आगे आता है, तब मनोरमा का परिवार विधवा के पुनर्विवाह के नामुमकिन होने का हवाला देकर, उसके साथ मारपीट करता है। भले ही, 'प्रेम रोग' काफ़ी हद तक एक ऐसी कहानी है, जिसमें मौजूद अंतर्निहित मायने फ़िल्म के दौरान महसूस होते हैं, लेकिन राज कपूर के निर्देशन ने इसे एक सुधारवादी क्लासिक फ़िल्म के तौर पर स्थापित कर दिया था।  
    यश चोपड़ा की फिल्म 'लम्हे' (1991) भी ऐसी ही फिल्म थी, जिसके कथानक में प्रेमी-प्रेमिका, लड़का-लड़की और प्यार-मोहब्बत इन सबकी परिभाषा बदल दी थी। यह फिल्म दूसरी प्रेम कहानियों से बिल्कुल अलग थी। कथानक के मुताबिक, वीरेन एक लड़की पल्लवी से प्यार करता था। पल्लवी की शादी किसी और से शादी हो जाती है। लेकिन, कुछ समय बाद पति-पत्नी की मौत हो जाती है। पल्लवी और उसका पति अपने पीछे एक बेटी को छोड़ जाते हैं। जब यह बेटी बड़ी हुई, तो वो हूबहू अपनी मां पल्लवी (श्रीदेवी) की कॉपी होती है। उसे अपने पिता की उम्र के विरेन (अनिल कपूर) से प्यार हो जाता है। फिल्म का यह विषय देखने वालों के लिए असहनीय जरूर था, यह बहस का विषय भी बना। लेकिन, फिल्म में इस बेमेल प्यार को खूबसूरत अंदाज में दिखाया गया था।
      लीक से हटकर बनी फिल्मों में मेघना गुलजार की 'फ़िलहाल' को भी गिना जा रखा सकता है। आज बच्चे को जन्म देने के लिए सरोगेसी आम तरीका है। लेकिन, साल 2002 में जब यह फिल्म रिलीज हुई थी, तब यह बड़ी बात हुआ करती थी। ये कहानी एक ऐसी औरत की है, जो प्राकृतिक रूप से मां नहीं बन सकती। इसलिए वह अपने दोस्त को अपने लिए सरोगेट करने के लिए मनाती है। तब्बू, सुष्मिता सेन, पलाश सेन और संजय सूरी की यह फिल्म बेहद इमोशनल अनुभव रहा। इसके साल भर बाद 2003 में आई 'मातृभूमि' ऐसी फिल्म थी, जिसे देखने लायक फिल्म थी। 
    यह ऐसे समाज की कल्पना थी, जहां औरतों की संख्या कम होकर ना के बराबर बची थी। ऐसे दौर में शादी और परिवार के लिए पुरुषों को लड़कियां नहीं मिलती। इस कारण होने वाले व्यसन फिल्म में दिखाए गए। लड़कियों को भ्रूण में ही मार देने की वजह से पैदा हुई ये स्थिति बहुत भयावह और रोंगटे खड़े करने वाली है। मनीष झा के निर्देशन में बनी इस फिल्म को देखना आसान नहीं है। क्योंकि, इसका ट्रीटमेंट मनोरंजक नहीं है। अब ऐसी फ़िल्में बनने का दौर करीब-करीब ख़त्म हो गया। इसका कारण यह भी है कि अब फिल्म महज मनोरंजन का साधन बनकर रह गईं, अब कोई फिल्मों से ऐसी उम्मीद नहीं करता कि रूढ़ियां खंडित हों!  
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