भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े फिल्ममेकर्स रहे राज कपूर ने सिर्फ हिंदी सिनेमा को ही समृद्ध नहीं किया, उन्होंने विश्व सिनेमा पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। 'द ग्रेटेस्ट शोमैन' के नाम से मशहूर इस स्वप्नीली नीली आंखों वाले बहुमुखी कलाकार ने फिल्म मेकिंग, एक्टिंग और डायरेक्शन में ऐसा जबरदस्त कमाल किया, जो आज भी प्रेरणा देता है। उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर आरके फिल्म्स, फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन और एनएफडीसी ने एक साथ मिलकर एक खास उत्सव मना रहे हैं। इसमें उनकी 10 चुनिंदा फ़िल्में प्रदर्शित की जाएगी। राज कपूर का जन्म 14 दिसंबर 1924 को हुआ और 1988 में उनका निधन हो गया था। आज वे होते तो 100 साल के होते।
- हेमंत पाल
सिनेमा के ग्रेटेस्ट शोमैन राज कपूर के बारे में जिन्हें लगता था कि उनके बाद हिंदी फिल्मों का शो थम जाएगा, वे कहीं न कहीं गलत थे। लेकिन, यदि वे आज जीवित होते, तो देखते कि फिल्म प्रशंसक उनकी सौंवी जयंती मना रहे हैं। 'मेरा नाम जोकर' में उन्होंने सच कहा था 'कल खेल में हम हो न हो गर्दिश में सितारे रहेंगे सदा' और जाइएगा नहीं शो अभी खत्म नहीं हुआ। अब लगने लगा कि राज कपूर ने खेल खेल ही में ही, लेकिन सच ही कहा था कि शो अभी खत्म नहीं हुआ! उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर आरके फिल्म्स, फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन और एनएफडीसी ने एक साथ मिलकर एक खास उत्सव मना रहे हैं। इसमें 40 शहरों के 135 सिनेमाघरों में राज कपूर की 10 फिल्में प्रदर्शित की जाएंगी। 'राज कपूर 100 : सेलिब्रेटिंग द सेंटेनरी ऑफ द ग्रेटेस्ट शोमैन' नाम का यह उत्सव 13 दिसंबर 15 दिसंबर तक चलेगा। इस दौरान राज कपूर की फिल्मों की स्क्रीनिंग पीवीआर-आईनॉक्स और सिनेपोलिस सिनेमाघरों में आग, बरसात, आवारा, श्री 420, जागते रहो, जिस देश में गंगा बहती है, संगम, मेरा नाम जोकर, बॉबी और 'राम तेरी गंगा मैली' का प्रदर्शन किया जाएगा।
राज कपूर के बेटे रणधीर कपूर ने कहा भी है कि राज कपूर सिर्फ फिल्ममेकर नहीं दूरदर्शी थे। उन्होंने भारतीय सिनेमा की भावनात्मक परंपरा को आकार दिया। उनकी कहानियां केवल फिल्में नहीं, बल्कि भावनात्मक यात्राएं हैं, जो पीढ़ियों को जोड़ती हैं। यह उत्सव उनके नजरिए को हमारी छोटी सी श्रृद्धांजलि है। उनके पोते रणबीर कपूर ने कहा कि हमें गर्व है, कि हम राज कपूर परिवार के सदस्य हैं। हमारी पीढ़ी एक ऐसे दिग्गज के कंधों पर खड़ी है, जिनकी फिल्मों ने अपने समय की भावनाओं को दर्शाया और दशकों तक आम आदमी को आवाज दी। उनकी टाइमलेस कहानियां प्रेरणा देती रहती हैं, और यह फेस्टिवल उस जादू का सम्मान करने और सभी को बड़े पर्दे पर उनकी विरासत का अनुभव करने के लिए आमंत्रित करने का हमारा एक तरीका है।
निर्देशक, निर्माता और कलाकार के रूप में, राज कपूर आजादी के बाद के पहले दो दशकों में भारतीय सिनेमा के 'स्वर्ण युग' के दौरान भारत के अग्रणी फिल्म निर्माताओं में से एक बने। राज कपूर यथार्थ में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। उनकी फिल्मों में सिक्के के दो पहलू दिखाए गए। जिसका एक पहलू आजादी के युग की आकांक्षाओं के दर्शन कराता है। दूसरा, हिंदी सिनेमा की वर्तमान स्थिति के सामने आईना रखने का काम करता है। सीधा सा सिद्धांत यही है 'दिल का हाल कहे दिलवाला सीधी सी बात न मिर्च मसाला।' उनका सिनेमा मांसल यौवन से लथपथ होने के बावजूद कथानक और घटनाक्रम के रूप में पूर्ण रूप से सात्विक था। यही था उनका बिना मिर्च मसाले वाला सिनेमा।
राज कपूर की शुरुआती फिल्में लोकप्रिय संगीत और मेलोड्रामा के मिश्रण में गरीबी और जाति के बारे में जनजागरण लाने का प्रयास करती रही। श्री 420, जागते रहो, बूट पालिश से लेकर 'आवारा' और 'जिस देश में गंगा बहती है' इसके बेहतरीन उदाहरण है। जिनमें राज कपूर ने चार्ली चैपलिन का भारतीयकरण कर फिर भी दिल भी दिल है हिन्दुस्तानी की तर्ज में सफलतापूर्वक पेश किया। इन सबके चलते राज कपूर एक करिश्माई कलाकार और निर्माता-निर्देशक बन गए, जिन्होंने दुनियाभर में भारतीय फिल्मों का झंडा फहराने में कामयाबी पायी। उनके बाद की फिल्मों की चकाचौंध ने उन्हें हिन्दी फिल्मों के ग्रेटेस्ट शोमेन का दर्जा दिया, जो आज भी उनके नाम पर अखंडित ओहदा है। मदभरे गीत संगीत और दिल को छूने वाली कहानियों के साथ अल्हड़ प्रेम प्रसंगों के चलते राज कपूर बेहद लोकप्रिय हो गए।
इस दौरान भारतीय फिल्म इतिहास की सबसे बड़ी स्टार और सबसे प्रशंसित अभिनेत्रियों में से एक नरगिस के साथ उनकी अक्सर ऑन-स्क्रीन जोड़ी भी बनी। 1950 के दशक के मध्य में अपनी प्रसिद्धि के चरम पर आवारा और 'श्री 420' की रिलीज़ के बाद राज कपूर न केवल भारत में बल्कि पूरे दक्षिण एशिया, अरब दुनिया, ईरान, तुर्की, अफ्रीका और सोवियत संघ में भी एक मशहूर हस्ती थे। साथ ही, उन्होंने अभिव्यक्तिवादी छाया और गहरे फ़ोकस के अपने उपयोग से हिंदी सिनेमा की शैलीगत शब्दावली का विस्तार करने में मदद की। बाद के सालों में रंग में काम करते हुए वे उन लोगों में से थे, जिन्होंने हिंदी फ़िल्मों में तेज़ी से लंबे, विस्तृत और शानदार गीत अनुक्रमों को शामिल करना शुरू किया।
उनकी सबसे बड़ी सफलता और खासियत थी उनके काम करने की स्टाइल। वह ऐसे काम करते थे, जिसकी कोई कल्पना नहीं कर सकता। मसलन 'जिस देश में गंगा बहती है' की कहानी सुनने के बाद शंकर जयकिशन ने यह कहा था कि बेहतर होगा वह इसका संगीत किसी दूसरे संगीतकार को दें, क्योंकि इसमें गानों की सिचुएशन ही नहीं है। इसी कथानक में राज कपूर ने सात दिन में ग्यारह गानों की सिचुएशन निकालकर सभी को अचंभित कर दिया। कहा जाता है कि वह अपनी फिल्मों के संगीत को दर्शकों से पास करवाकर कथानक का हिस्सा बनाते थे। इसी तारतम्य में एक बात यह भी चर्चित है कि वे अपनी फिल्मों के गानों को पहले किन्नरों को बुलाकर सुनाते थे और उनकी सहमति के बाद उसे फिल्म में जोड़ते थे। उनकी फिल्मों में आजादी के बाद के भारत के आम आदमी के सपने, गांव और शहर के बीच का संघर्ष और भावनात्मक कहानियां जीवंत हो उठती थीं। आवारा, श्री 420, संगम, और 'मेरा नाम जोकर' जैसी फिल्में आज भी सिनेमा प्रेमियों के दिलों में बसी हुई हैं।
राज कपूर का जन्म पठानी हिन्दू परिवार में हुआ था। पांच भाइयों और एक बहन में सबसे बड़े राज कपूर ने अपनी शिक्षा सेंट जेवियर्स कॉलेजिएट स्कूल, कोलकाता और कर्नल ब्राउन कैंब्रिज स्कूल देहरादून से ली। बाद में 1930 के दशक में उन्होनें बॉम्बे टॉकीज़ में क्लैपर-बॉय और पृथ्वी थिएटर में एक अभिनेता के रूप में काम किया, ये दोनों कंपनियाँ उनके पिता पृथ्वीराज कपूर की थीं। राज कपूर बाल कलाकार के रूप में इंकलाब (1935) और हमारी बात (1943), गौरी (1943) में छोटी भूमिकाओं में कैमरे के सामने आ चुके थे। राज कपूर ने फ़िल्म वाल्मीकि (1946), नारद और अमरप्रेम (1948) में कृष्ण की भूमिका निभाई थी। इन तमाम गतिविधियों के बावज़ूद उनके दिल में एक आग सुलग रही थी कि वे स्वयं निर्माता-निर्देशक बनकर अपनी स्वतंत्र फ़िल्म का निर्माण करें। उनका सपना 24 साल की उम्र में फ़िल्म आग (1948) के साथ पूरा हुआ। उन्होंने प्रमुख भूमिका भी 'आग' में ही निभाई, जिसका निर्माण और निर्देशन भी उन्होंने स्वयं किया था।
इसके बाद राज कपूर के मन में अपना स्टूडियो बनाने का विचार आया और चेम्बूर में चार एकड़ ज़मीन लेकर 1950 में उन्होंने अपने आरके स्टूडियो की स्थापना की और 1951 में ‘आवारा’ में रूमानी नायक के रूप में ख्याति पाई। राज कपूर ने ‘बरसात’ (1949), ‘श्री 420’ (1955), ‘जागते रहो’ (1956) व ‘मेरा नाम जोकर’ (1970) जैसी सफल फ़िल्मों का निर्देशन व लेखन किया और उनमें अभिनय भी किया। उन्होंने ऐसी कई फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें उनके दो भाई शम्मी कपूर व शशि कपूर और तीन बेटे रणधीर, ऋषि व राजीव अभिनय कर रहे थे। यद्यपि उन्होंने अपनी आरंभिक फ़िल्मों में रूमानी भूमिकाएँ निभाईं, लेकिन उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध चरित्र ‘चार्ली चैपलिन’ का ग़रीब, लेकिन ईमानदार ‘आवारा’ का प्रतिरूप है। उनका यौन बिंबों का प्रयोग अक्सर परंपरागत रूप से सख्त भारतीय फ़िल्म मानकों को चुनौती देता था।
राज कपूर ने बरसात (1949), श्री 420 (1955), जागते रहो (1956) व मेरा नाम जोकर (1970) जैसी सफल फ़िल्मों का निर्देशन व लेखन किया और उनमें अभिनय भी किया। उन्होंने ऐसी कई फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें उनके दो भाई शम्मी कपूर व शशि कपूर और तीन बेटे रणधीर, ऋषि व राजीव अभिनय कर रहे थे। उन्होंने अपनी आरंभिक फ़िल्मों में रूमानी भूमिकाएँ निभाईं, लेकिन उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध चरित्र ‘चार्ली चैपलिन‘ का ग़रीब, लेकिन ईमानदार ‘आवारा’ का प्रतिरूप है। उनका यौन बिंबों का प्रयोग अक्सर परंपरागत रूप से सख्त भारतीय फ़िल्म मानकों को चुनौती देता था। मेरा नाम जोकर, संगम, अनाड़ी, जिस देश में गंगा बहती है, उनकी कुछ बेहतरीन फिल्में रही। बॉबी, राम तेरी गंगा मैली, प्रेम रोग जैसी हिट फिल्मों का निर्देशन भी किया।
राज कपूर फिल्मों में जितने गैर-रोमांटिक नजर आते थे, वास्तविक जीवन में उतने ही रोमांटिक थे। उनकी रूमानी तबीयत के कारण उनकी पत्नी कृष्णा राज कपूर के साथ नर्गिस, पद्मिनी और वैजयंती माला जैसी भारतीय नायिकाओं के संबंधों से काफी परेशान रहती थीं। इसके चलते वह कई बार उनका घर भी छोड़ देती थीं। विवादों से भी उनका नाता कम नहीं रहा है। 1978 में, उन्होंने लता मंगेशकर से वादा किया कि वह उनके भाई हृदयनाथ मंगेशकर को फिल्म ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में संगीत निर्देशक के रूप में नियुक्त करेंगे। लेकिन, जब लता मंगेशकर एक संगीत दौरे पर संयुक्त राज्य अमेरिका गई थी, तब उन्होंने इस फिल्म के लिए हृदयनाथ मंगेशकर की जगह लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को संगीत निर्देशक बना दिया। इसके बाद लता मंगेशकर उनसे नाराज हो गईं। लेकिन, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के निवेदन के बाद उन्होंने इस फिल्म के लिए भी गीत गाए।
राज कपूर को फिल्मों में जो सफलता मिली वह टीम वर्क का ही परिणाम था। उनके पास ख्वाजा अहमद अब्बास, जैनेन्द्र जैन और इंदर राज आनंद जैसे लेखक थे, जिन्होंने समय के साथ उनके लिए एक से बढ़कर एक फिल्म लिखी। उनकी फिल्मों से ज्यादा उसका संगीत लोकप्रिय हुआ, जिसमें शंकर जयकिशन के साथ हसरत और शैलेन्द्र की जोड़ी और मुकेश की आवाज के योगदान को खुद राजकपूर भी नहीं नकार सके। इसके अलावा उनके साथ नर्गिस दत्त की जोड़ी परदे पर जादू सा कमाल करती थी। यही कारण था कि एक बार जब फिल्मों के रिमेक का दौर चला, राज कपूर से 'आवारा' के रीमेक की बात की गई तो उन्होंने कहा आप मुझे नरगिस, शंकर जयकिशन, शैलेन्द्र हसरत और मुकेश ला दीजिए मैं आपको इससे भी बेहतर आवारा दे दूंगा।
नई दिल्ली के रीगल सिनेमा से राजकपूर को खासा लगाव था। उनकी हर फिल्म का प्रीमियर यहीं होता था। वे पहले शो में मौजूद रहकर हवन करवाते थे। राजकपूर और नर्गिस ने रीगल के फैमिली बॉक्स में बैठकर कई फिल्में देखी थी। 1978 में जब बोल्ड दृश्यों के कारण कई सिनेमाघरों ने 'सत्यम शिवम सुंदरम' को प्रदर्शित करने से इंकार कर दिया, तब रीगल ने इसे बिना किसी झिझक के प्रदर्शित किया। ऋषि कपूर की बतौर नायक पहली फिल्म 'बॉबी' का प्रीमियर भी यहीं हुआ था। 30 मार्च 2017 को जब रीगल सिनेमा बंद हुआ, तब भी उसके अंतिम शो में 'मेरा नाम जोकर' का ही प्रदर्शन किया गया था।
राज कपूर की फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर पैसा कमाया, बल्कि उनकी झोली में पुरस्कार भी बेशुमार गिरे। 1960 में फिल्म 'अनाड़ी' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार से सम्मानित किया। 1962 में फिल्म 'जिस देश में गंगा बहती है' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार से नवाजा गया। 1965 में उन्हे 'संगम' के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार दिया गया। राज कपूर को कला के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन् 1971 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।1972 में फिल्म 'मेरा नाम जोकर' सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार से सम्मानित किया।1983 में उन्हे फिल्म 'प्रेम रोग' के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार दिया गया। उन्हे जीवन का सबसे बडा और आखिरी दादा साहब फाल्के पुरस्कार 1987 में मिला। इस पुरस्कार को लेने वह दिल्ली गए। 2 जून को जब राष्ट्रपति भवन में यह पुरस्कार दिया जा रहा था। भावावेश में उन्हें दमे का इतना जोरदार अटैक आया कि वह मंच तक नहीं पहुंच सके। राष्ट्रपति ने शिष्टाचार तोड़कर उनके पास जाकर उन्हें पुरस्कार सौंपा। इसके बाद वह दिल्ली के अस्पताल में ही भर्ती रहे, यहीं फिल्मी दुनिया का 'एक तारा न जाने कहां खो गया!'
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