हिंदी फिल्मों के इतिहास को उलट-पलट कर देखा जाए, तो हर दौर में चंद ऐसी फिल्में जरूर बनी, जिन्हें लीक से हटकर कहा जा सकता है। इन फिल्मों में तयशुदा ढर्रे से हटकर कुछ कहने और करने की कोशिश की गई। इनमें मनोरंजन नहीं था, बल्कि एक वैचारिक संदेश था, जो देखने वालों को झकझोरता था कि उनके आसपास जो चल रहा है, वो उससे वाकिफ हैं या नहीं! ऐसी फ़िल्में हर दौर में बनी, जिन्होंने कभी सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ आवाज उठाई, कभी ऐसी बेड़ियों को तोड़ा जो बंधन की तरह पैरों में पड़ी हैं। लेकिन, इनकी संख्या बहुत कम है। अछूत कन्या, बूट पॉलिश, जूली, गाइड, दो आंखे बारह हाथ और 'प्रेम रोग' वे फ़िल्में थी, जिनके कथानक में नई सोच थी। पर, अब कोई ऐसी फ़िल्में बनाने का साहस नहीं करता!
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- हेमंत पाल
फिल्मों के कथानक किस प्रेरणा से गढ़े जाते हैं, यदि इस सवाल का जवाब खोजा जाए तो हर जवाब में जीवन के अनुभव, प्रेम कथाएं, सामाजिक परम्पराएं, अनोखी घटनाएं, सामाजिक रूढ़ियां और पारिवारिक रिश्ते ही शामिल होंगी। अभी तक बनी फिल्मों के कथानकों पर सरसरी नजर दौड़ाई जाए, यही पांच-छह विषय ही सामने आएंगे। लेकिन, जिस विषय पर सबसे कम कथानक रचे गए, वो है सामाजिक रूढ़ियां या यूं कहिए कि मान्यताओं को खंडित करने वाली फ़िल्में।
यानी ऐसे रीति-रिवाज जो बरसों से समाज में हैं और उन्हें न चाहते हुए भी ढोया जा रहा है। कुछ लोग उन्हें तोड़ना भी चाहते हैं, पर आगे बढ़कर कोई साहस नहीं करता! जब भी इन विषयों पर फिल्मों के कथानक बने, उनकी संख्या उंगलियों पर गिनने लायक है। इसके पीछे कारण यह भी कहा जा सकता है, कि फिल्मकार ऐसे मामलों में उलझना नहीं चाहते! उन्हें पता है कि यदि सामाजिक स्तर पर फिल्म का विरोध हुआ, तो इसका खामियाजा सिर्फ निर्माता-निर्देशक को ही भुगतना पड़ता है। लेकिन, फिर भी कुछ फिल्मकारों ने ऐसी फ़िल्में बनाई, जो दर्शकों ने पसंद की।
गुलामी के दौर में बनी फ्रांज़ ऑस्टेन की फिल्म 'अछूत कन्या' (1936) का निष्कर्ष था कि फिल्मों के जरिए सुधारवाद की बात कैसे की जाए! ज्वलंत मुद्दों पर आधारित कहानियों को तब सामने लाना आसान नहीं था। वह भी ऐसे समय में, जब फ़िल्मों के विषय समाज और राजनीति के हिसाब से तय होते हों। फिल्म में एक ब्राह्मण लड़के अशोक कुमार और एक अछूत कन्या देविका रानी के बीच प्रेम कहानी को दिखाकर, ऐसे समाज में जीने की बात की गई थी, जो वर्गों में बंटा हो। इस प्रकार के विचारशील मुद्दे पर बनी इस फिल्म को महात्मा गांधी द्वारा भी सराहा था। लेकिन, बाद में किसी ने ऐसा साहस नहीं किया। आजादी के बाद 1954 में पहली ऐसी फिल्म 'बूट पॉलिश' बनी, जिसमें मानवीय मूल्यों को उजागर करने की कोशिश की गई थी। क्योंकि, देश तो आजाद था, पर दिलों से गुलामी के बंधन नहीं टूटे थे।
ऐसे समय में 'बूट पॉलिश' जैसी फिल्म एक अलग तरह का अहसास थी। यह फिल्म दो बच्चों भोला और बेलू की कहानी थी। 'बूट पॉलिश' को अन्य फिल्मों के मुकाबले अलग दर्जा मिला। क्योंकि, इस फ़िल्म में सहजता से बताया गया था कि कोई भी काम छोटा या बड़ा हो, वह आत्मनिर्भर जरूर बनाता है। भोला और बेलू भी मेहनत करके कमाई का रास्ता नहीं छोड़ते। एक दिन अपनी कमाई से वे बूट पॉलिश और ब्रश खरीदते हैं और चिल्ला कर कहते हैं 'आज से हमारा हिंदुस्तान आजाद होता है!' राज कपूर ने अपने दम से इस फ़िल्म को अलग बनाया। राज कपूर हमेशा प्रेम पर आधारित फिल्में बनाते रहे थे। 'बूट पॉलिश' उनकी इस फिल्म से उलट थी।
इसके कुछ साल बाद 1957 में वी शांताराम की फिल्म 'दो आंखें बारह हाथ' आई, जो कुछ अलग थी। अपने अनोखे विषय और सभ्य समाज में रहन-सहन के कथित आदर्शों के उलट इस कहानी की वजह से यह फिल्म कसौटी पर खरी उतरी। तब कैदियों को जेल में पीड़ितों की तरह रखा जाता था। ज़िंदगी में किए अपराधों की वजह से उनकी जवानी खो जाती थी। इस फिल्म ने इस धारणा को बदला। फ़िल्म का मुख्य विषय था खूंखार अपराधियों को सुधारने के लिए अहिंसक तरीके अपनाना। यह कहानी जेल वार्डन के इर्द-गिर्द घूमती है, जो छह कैदियों को अच्छा इंसान बनने की राह पर लाता है।
इसी साल आई 'शारदा' (1957) एलवी प्रसाद की फिल्म थी। इसकी कहानी भी अन्य फिल्मों से अलग थी। इसका घटनाक्रम कहीं ज़्यादा जटिल था। जब एक प्रेमी युगल एक-दूसरे से जुदा हो जाता है, तो कई अजीब चीजें होती हैं। नायक को एक युवती से प्यार हो जाता है, लेकिन वह उससे शादी नहीं कर पाता। कुछ अनोखी घटनाओं की वजह से, उसके पिता की उसी महिला से शादी हो जाती है! इसके बाद, एक सौतेली मां और बेटे के बीच का रिश्ता देखने को मिलता है, जिसके मायने ही कुछ और होते हैं। ये अपनी तरह की बिल्कुल अलग फिल्म थी। इसके अलावा 1963 में आई बिमल रॉय की फिल्म 'बंदिनी' में पहली बार मुख्य कलाकारों को बिल्कुल अलग तरीके से दिखाया गया। मुख्य किरदार कल्याणी के व्यक्तित्व के कई पहलू थे। प्रेमी को पाने और अधूरे प्यार के बीच फंसने से उपजी जलन की वजह से वह खून तक कर देती है। उसे जेल हो जाती है। सजा काटने के बाद, वह उसी आदमी के पास लौटकर उसी की हो जाती है।
अलग तरह की फिल्मों के दौर में 1972 में आई कमाल अमरोही की 'पाकीजा' को भी गिना जाता है। यह मुगल दौर की नर्तकियों की जिंदगी की कहानी थी। फिल्म का कथानक तवायफ़ों को समाज में स्वीकार करने की राह में आने वाली अड़चनों को उजागर करना था। मीना कुमारी की इस यादगार फिल्म ने यह सवाल भी खड़े किए थे कि समाज के झूठ और ढोंग को मध्यम वर्ग कितनी सहजता से सह लेता है। आज भी फिल्म को दमदार और तीखे संवादों के लिए जाना जाता है। वैश्या विवाह पर बनी फिल्मों में देव आनंद और वहीदा रहमान की फिल्म कालजयी फिल्म 'गाइड' (1965) को भी गिना जाता है। इसकी कहानी अपने समय काल से काफी आगे की बोल्ड थी। ये फिल्म न सिर्फ वैश्या विवाह का समर्थन करती थी, बल्कि इसमें आज की तरह का लिवइन रिलेशन भी दिखाया था। 1966 में आई धर्मेंद्र, अशोक कुमार और सुचित्रा सेन की फिल्म 'ममता' भी वैश्या विवाह के समर्थन का संदेश देने वाली फिल्म थी।
रूढ़ियों को खंडित करने वाली एक फिल्म थी 1975 में आई 'जूली।' फिल्म में नए ज़माने की संवेदनशील लड़की बिना शादी के गर्भवती हो जाती है। इसके बाद उसे कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। धर्म और शादी के बीच की सदियों पुरानी रुकावटों के आधार पर होने वाले घटनाक्रम को इसमें अच्छी तरह से दिखाया था। एक बिन ब्याही मां का संघर्ष क्या होता है, यही इसका कथानक था। 'जूली' उन फिल्मों में थी, जिसमें एंग्लो इंडियन परिवार और उनके ईसाई मूल्यों का खास चित्रण था। लंबे विवाद के बाद 'जूली' की मां हिंदू से अपनी बेटी की शादी के लिए तब तक स्वीकृति नहीं देती, जब तक प्रेमी के पिता अपने पोते और एक खुशहाल परिवार को साथ बनाए रखने की हामी नहीं भरते। घिसी-पिटी रूढ़िवादी सोच के बजाए मानवीय मूल्यों को तरजीह देने की सीख इसी फिल्म ने दी थी।
1982 में आई राज कपूर की फिल्म 'प्रेम रोग' में देश के ग्रामीण इलाकों में रहने वाली विधवाओं की जिंदगी में आने वाली मुश्किलों को बहुत करीब से दिखाया था। फिल्म में राज कपूर ने प्रेमियों के माता-पिता को अपनी 'शान' के लिए अपनी बेटियों और बेटों की जान को दांव पर लगाने के खिलाफ चेतावनी दी थी। नायक देवधर (ऋषि कपूर) शहर से गांव आता है। उसकी बचपन की दोस्त मनोरमा (पद्मिनी कोल्हापुरी) अमीर और रसूख रखने वाले परिवार की लड़की होती है। उसकी शादी एक अमीर खानदान में कर दी जाती है। लेकिन, शादी के बाद मनोरमा के पति की मौत हो जाती है। विधवा मनोरमा ससुराल में बलात्कार का शिकार भी होती है। जब देवधर उसे बचाने के लिए आगे आता है, तब मनोरमा का परिवार विधवा के पुनर्विवाह के नामुमकिन होने का हवाला देकर, उसके साथ मारपीट करता है। भले ही, 'प्रेम रोग' काफ़ी हद तक एक ऐसी कहानी है, जिसमें मौजूद अंतर्निहित मायने फ़िल्म के दौरान महसूस होते हैं, लेकिन राज कपूर के निर्देशन ने इसे एक सुधारवादी क्लासिक फ़िल्म के तौर पर स्थापित कर दिया था।
यश चोपड़ा की फिल्म 'लम्हे' (1991) भी ऐसी ही फिल्म थी, जिसके कथानक में प्रेमी-प्रेमिका, लड़का-लड़की और प्यार-मोहब्बत इन सबकी परिभाषा बदल दी थी। यह फिल्म दूसरी प्रेम कहानियों से बिल्कुल अलग थी। कथानक के मुताबिक, वीरेन एक लड़की पल्लवी से प्यार करता था। पल्लवी की शादी किसी और से शादी हो जाती है। लेकिन, कुछ समय बाद पति-पत्नी की मौत हो जाती है। पल्लवी और उसका पति अपने पीछे एक बेटी को छोड़ जाते हैं। जब यह बेटी बड़ी हुई, तो वो हूबहू अपनी मां पल्लवी (श्रीदेवी) की कॉपी होती है। उसे अपने पिता की उम्र के विरेन (अनिल कपूर) से प्यार हो जाता है। फिल्म का यह विषय देखने वालों के लिए असहनीय जरूर था, यह बहस का विषय भी बना। लेकिन, फिल्म में इस बेमेल प्यार को खूबसूरत अंदाज में दिखाया गया था।
लीक से हटकर बनी फिल्मों में मेघना गुलजार की 'फ़िलहाल' को भी गिना जा रखा सकता है। आज बच्चे को जन्म देने के लिए सरोगेसी आम तरीका है। लेकिन, साल 2002 में जब यह फिल्म रिलीज हुई थी, तब यह बड़ी बात हुआ करती थी। ये कहानी एक ऐसी औरत की है, जो प्राकृतिक रूप से मां नहीं बन सकती। इसलिए वह अपने दोस्त को अपने लिए सरोगेट करने के लिए मनाती है। तब्बू, सुष्मिता सेन, पलाश सेन और संजय सूरी की यह फिल्म बेहद इमोशनल अनुभव रहा। इसके साल भर बाद 2003 में आई 'मातृभूमि' ऐसी फिल्म थी, जिसे देखने लायक फिल्म थी।
यह ऐसे समाज की कल्पना थी, जहां औरतों की संख्या कम होकर ना के बराबर बची थी। ऐसे दौर में शादी और परिवार के लिए पुरुषों को लड़कियां नहीं मिलती। इस कारण होने वाले व्यसन फिल्म में दिखाए गए। लड़कियों को भ्रूण में ही मार देने की वजह से पैदा हुई ये स्थिति बहुत भयावह और रोंगटे खड़े करने वाली है। मनीष झा के निर्देशन में बनी इस फिल्म को देखना आसान नहीं है। क्योंकि, इसका ट्रीटमेंट मनोरंजक नहीं है। अब ऐसी फ़िल्में बनने का दौर करीब-करीब ख़त्म हो गया। इसका कारण यह भी है कि अब फिल्म महज मनोरंजन का साधन बनकर रह गईं, अब कोई फिल्मों से ऐसी उम्मीद नहीं करता कि रूढ़ियां खंडित हों!
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