जीवन में खुशियों की खास महत्ता है। जब यही खुशी राजनीतिक जीवन में आती है, तो खुशियां कुंचाले मारने लगती है। यह खुशी निजी नहीं होती, सार्वजनिक होती है और तय है कि निजी के गुणक में जब कोई खुशी सार्वजनिक होती है तो उसका आकार भी कई गुना बड़ा हो जाता है। मामला राजनीतिक होता है इसलिए आकार इतना विशाल हो जाता है कि उसे दोनों हाथ फैलाकर भी दर्शाया नहीं जा सकता। राजनीति में कोई भी खुशी सबके लिए खुशी नहीं होती, उसका पाया किसी को दर्द देता है और यही दर्द राजनीतिक खुन्नास का कारण भी बनता है।
अभी कुछ दिनों पहले की बात है,प्रदेश भाजपा ने इंदौर के एक युवा विधायक जीतू जिराती को भारतीय जनता युवा मोर्चा का प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने की घोषणा की। यह संगठन वैसा ही है, जैसा कांग्रेस में युवक कांग्रेस होता है। संगठन युवाओं का है तो तय है कि इसके सदस्य भी युवा ही होंगे,जिनके खून में जोश उबाले मारता रहता है और जिनका उत्साह हमेशा आसमान में छेद करने को तैयार दिखाई देता है। जीतू जिराती को अध्यक्ष बनाए जाने की खुशी को पार्टी के युवा अपने दिलों में समेटकर नहीं रख पाए और क रैलीनुमा रेला निकालने का एलान कर दिया। सत्ताधारी पार्टी होने का एक सबसे बड़ा सुख यह होता है कि अफसर देखकर भी अनदेखी करने का ढ़ोग करते हैं। इंदौर एक बड़ा शहर है तो रैली की अनुमति लेना भी जरूरी है, उत्साही युवाओं ने औपचारिक रूप से रैली की सूचना अफसरों को दे दी और रैली की तैयारियों में जुट गए। उन्होंने जरूरी नहीं समझा कि रैली का रास्ता भी बताया जाता है और इसकी इजाजत भी ली जाती है।
रैली निकली, पर बड़े रेले की शक्ल में। शहर के बीच से प्रतिबंधित रास्ते से निकली इस रैली में उत्साह से ज्यादा उत्पात नजर आ रहा था। जिसमें हजारों उत्साही युवा अपने अध्यक्ष के मनोनयन को अपने तरीके से 'सेलीब्रेट" कर रहे थे। सैकडों गाड़ियां भी इस रैले में शामिल थी और खुली जीप में अपने राजनीतिक आकाओं और गुर्गो के साथ वह नए नवेले अध्यक्ष भी हाथ जोड़े, नकली हंसी हंसते हुए गुलाल से रंगे पुते खड़े थे। उनके स्वागत में रास्तेभर में सैकडों मंच बने थे जिनपर फूलों की पखुड़ियों का अंबार लगा था और देश प्रेम के गीत बज रहे थे। ये एक अजीब विडंबना है कि जब भी कोई राजनीतिक रैली (यानी रेला) निकलता है तो मंचों से देश प्रेम के गीत इस तरह बजाए जाते हैं मानों देश को ये लोग ही अंगरेजों के चंगुल से छुड़ाकर लाए थे। देश मी आजादी में इन्हीं का योगदान सबसे ज्यादा रहा था।
करीब 8 से 10 घंटे तक पूरे शहर की ट्राफिक व्यवस्था को झकझोरने के बाद रैली गतंव्य तक तो पहुंच गई, पर बाद में शुरू हुई असल राजनीति! जब कुछ लोगों को लगा कि उत्साह दर्शाने के नाम पर उत्पात मचाने वाली यह रैलियां यदि इसी तरह निकलती रही, तो लोगों का सड़क पर चलना दूबर हो जाएगा। मामला कोर्ट तक पहुंच गया और अफसरों स सवाल-जवाब होने लगे! उनसे पूछा गया कि बगैर इजाजत रैली कैसे निकली? किसने निकाली? रोकी क्यों नहीं गई ... वगैरा ... वगैरा! इसके बाद सब मुंह छुपाने और दूसरे की तरफ अंगुली उठाने का मौका ढंूढ़ने लगे। यह हालात पहली और आखिरी बार नहीं बने! इंदौर में ही ऐसा हुआ, किसी और शहर में नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है! जब तक राजनीति में नकलीपन और दिखावा छाया रहेगा, ऐसे कई जीतू जिरातियों के अध्यक्ष बनने पर उत्साह के पैमाने छलकते रहेंगे। क्योंकि, देश का आने वाला कल इसी तरह के युवा नेताओं का है। इसलिए झेलना तो पड़ेगा ही ... !
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