(हेमंत पाल)
प्रदेश में अब राजनीति की नई पौध फिर से पनप सकेगी। पिछले दो दशकों से राजनीति की जो नर्सरी मुरझाने लगी थी, अब उसके फिर पनपने का संकेत मिल गया है। दो दशक बाद अब कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में वह माहौल फिर दिखाई देगा, जिससे एक पूरी पीढ़ी अनजान रही है। छात्रसंघ चुनाव को रोकने की जरूरत क्यों पड़ी? इसके क्या दुष्परिणाम आँके गए और और फिर प्रत्यक्ष तरीके से छात्रसंघ चुनाव कराने की जरूरत क्यों महसूस हुई? इन सवालों पर चिंतन न भी किया जाए, तो यह सुखद संकेत है, कि प्रदेश सरकार ने इन चुनावों के लिए अपनी रजामंदी दे दी है।
अभी तक कॉलेजों में कक्षा के किसी पढ़ने वाले छात्र को मुखिया बना दिया जाता था। इसका नतीजा यह होता कि वह या तो वह अपनी पढ़ाई से पिछड़ जाता था, या अपने दायित्व का ठीक से निर्वाह नहीं कर पाता! सरकार और शिक्षक भी इस बात को समझ रहे थे, लेकिन इस दिशा में कुछ हो नहीं पा रहा था। जबकि, राजनीतिक नजरिए से देखा जाए तो राजनीति की जो नर्सरी कॉलेजों में पनप कर आगे जाकर प्रदेश में अपनी पहचान बनाती थी, वह पूरी तरह मुरझाकर सूख चुकी थी। लाख खामियों के बावजूद इस सच को नकारा नहीं जा सकता कि छात्र संघ चुनाव राजनीति समझने की पहली सीढ़ी हैं। आज लोकसभा और प्रदेश की विधानसभा में ऐसे नेताओं की संख्या ज्यादा है, जो कभी न कभी छात्र राजनीति से जुड़े रहे थे।
छात्रसंघ चुनाव की प्रत्यक्ष प्रणाली राजनीति की वह पाठशाला है, जहाँ छात्रों को वे सारी प्रक्रियाएं जानने और समझने का मौका मिलता है, जो राजनीति के रीयल मंच पर घटित होती हैं। इसका राजनीतिक दलों को यह लाभ होता है, कि उन्हें कुछ ऐसे तपे तपाए छात्र नेता मिल जाते हैं, जो उनके लिए आधार का काम करते हैं। उनकी राजनीतिक योग्यता और नेतृत्व क्षमता का आकलन भी यहीं हो जाता है और आगे बढ़ने का मौका मिलता है। जब से छात्रसंघ चुनाव की प्रत्यक्ष प्रणाली पर रोक लगी थी, तब से राजनीति में प्रवेश का यह रास्ता पूरी तरह बंद ही हो गया था। क्योंकि, अब तक चल रही प्रणाली में जो छात्र अपनी कक्षा, कॉलेज या विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व करते थे, उनका मकसद राजनीति में जाना कतई नहीं होता था। ... ओर जो छात्र प्रत्यक्ष प्रणाली के जरिए इस मैदान में उतरते हैं, उनके जहन में कहीं न कहीं राजनीतिक उत्कंठा रहती है। अब, जबकि सरकार ने प्रत्यक्ष प्रणाली से छात्रसंघ चुनाव का रास्ता खोल दिया है, यह उम्मीद की जाना चाहिए कि प्रदेश की राजनीति की उस सूख चुकी नर्सरी में फिर बहार आएगी और कुछ नए चेहरे अपनी आमद दर्ज कराएंगे।
(मप्र सरकार ने कॉलेजों में प्रत्यक्ष छात्रसंघ चुनाव को मंजूरी दी)
Tuesday, September 6, 2011
Friday, July 29, 2011
यह सेंध नहीं कब्जा करने तैयारी!
(हेमंत पाल)
राजनीति की चौपाल पर जब भी चुनावी रणनीति बनती है, सबसे पहले कमजोर कडी की तलाश की जाती है। पहले वहाँ चोट की जाती है, जहाँ प्रतिद्वंद्वी कमजोर लग रहा हो और इस चोट से उसका आत्मविश्वास डिगे! इस नजरिए से देखा जाए तो प्रदेश के आदिवासी इलाके में भारतीय जनता पार्टी की घुसपैठ पूरी तरह चुनावी तैयारियों का हिस्सा है। भाजपा को इस बात का अंदेशा हो गया है कि जो आदिवासी वोट अब तक काँग्रेस की सबसे बड़ी ताकत थी, वो उसके हाथ से दरक रही है। यही कारण है कि भाजपा ने अपने सारे रणनीतिक तीरों का मुँह प्रदेश के इस पश्चिमी इलाके के आदिवासी इलाकों की तरफ मोड़ दिया है। प्रभात झा के अध्यक्ष बनने के बाद इन गतिविधियों में कुछ ज्यादा तेजी आती दिखाई दी। अगले चुनाव में उनके 200 सीटों के दावे के पीछे इन्ही गतिविधियों का दम है। राजनीति कहती है कि आपमें सामने वाले को हतप्रभ करने की क्षमता होगी, तभी चमत्कार भी नजर आएंगे। भाजपा इसी रणनीति के तहत काम कर रही है।
मध्यप्रदेश के चुनावी इतिहास को टटोला जाए तो साफ नजर आता है कि आजादी के बाद से ही आदिवासी इलाके काँग्रेस का ऐसा वोट बैंक रहे हैं, जहाँ कोई भी पार्टी सेंध नहीं लगा पाई! क्योंकि, पहले पंडित जवारहरलाल नेहरू फिर इंदिरा गाँधी और इसके बाद राजीव गाँधी ने आदिवासियों को साधने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन, अब काँग्रेस में वह जमीनी सोच नहीं बची जो अपने परंपरागत वोट बैंक को बचाने की कोशिश कर सके। भाजपा भी बरसों से इस वोट बैंक को साधने की कोशिश करती रही, पर उसे पहली बार 2003 में बड़ी सफलता मिली, जब झाबुआ जिले (तब आलीराजपुर भी शामिल था) की सभी विधानसभा सीटें भाजपा ने जीत ली। भाजपा की इस तैयारी के पीछे संघ के आनुशांगिक संगठनों की बड़ी भूमिका थी, जो कई साल तक आदिवासी इलाके में गुपचुप तरीके से काम कर रही थीं। अब वही काम भाजपा खुलकर कर रही है और अपने मकसद को दर्शा भी रही है, ताकि 2003 की कहानी को दोहराया जा सके! कांग्रेस के लिए झाबुआ लिटमस टेस्ट है, यह सभी कांग्रेसी जानते है! क्योंकि, 2003 के विधानसभा चुनावों के नतीजों में जैसे ही झाबुआ का पहला परिणाम भाजपा के पक्ष में गया, तभी दिग्विजय सिंह ने हार स्वीकारते हुए कहा था कि अगर झाबुआ में हार गए तो मध्यप्रदेश में हार गए!
यही कारण है कि पिछले करीब छ: महीने से आलीराजपुर, झाबुआ और बड़वानी भाजपा की प्राथमिकताओं में पहले नंबर पर हैं। भाजपा बार-बार अपनी सक्रियता से आदिवासियों को इस बात का अहसास कराने की कोशिश कर रही है, कि अब काँग्रेस उनकी तारणहार नहीं रही। भाजपा के इस संदेश में दम भी है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल के बहाने जिस तरह प्रदेश के आदिवासी इलाके की अवहेलना की गई, उससे यह बात स्पष्ट भी हो जाती है। झाबुआ के सांसद काँतिलाल भूरिया को मंत्रिमंडल से हटाया जाना और उनकी जगह किसी और को मौका न देना, इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि काँग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का आदिवासियों के प्रति सोच क्या है! जब इस आदिवासी इलाके में काँग्रेस का नेतृत्व कमजोर पड़ेगा, तो तय है कि उसकी जगह लेने के लिए नया नेतृत्व पनपेगा। भाजपा उसी मौके की तलाश में थी, जो खुद काँग्रेस ने आगे बढ़कर उसकी झोली में डाल दिया।
कांग्रेस ऊपरी तौर पर विरोध जरूर कर रही है, लेकिन इसमें भी उसे केंद्रीय नेतृत्व का सहारा लेना पड़ रहा है। ऐसे में कांग्रेस के आम कार्यकर्ता को चिंता में डालने के लिए प्रभात झा का यह बयान काफी है कि कई कांग्रेसी नेता भाजपा में आने के लिए लाईन लगाए है। कांग्रेस के लिए यह आत्ममंथन करने का समय है और कुछ नई सोच और नए विचार के साथ कार्यकर्ताओं के बीच जाने का भी। वहीं भाबरा में शहीद चंद्रशेखर आजाद को याद करने के बहाने भाजपा ने जिस तरह के पांसे चले हैं, वह काँग्रेस के लिए एक चुनौती भी है! लेकिन, लगता नहीं कि काँग्रेस में इस बात को लेकर कोई गंभीर चिंतन होगा।
राजनीति की चौपाल पर जब भी चुनावी रणनीति बनती है, सबसे पहले कमजोर कडी की तलाश की जाती है। पहले वहाँ चोट की जाती है, जहाँ प्रतिद्वंद्वी कमजोर लग रहा हो और इस चोट से उसका आत्मविश्वास डिगे! इस नजरिए से देखा जाए तो प्रदेश के आदिवासी इलाके में भारतीय जनता पार्टी की घुसपैठ पूरी तरह चुनावी तैयारियों का हिस्सा है। भाजपा को इस बात का अंदेशा हो गया है कि जो आदिवासी वोट अब तक काँग्रेस की सबसे बड़ी ताकत थी, वो उसके हाथ से दरक रही है। यही कारण है कि भाजपा ने अपने सारे रणनीतिक तीरों का मुँह प्रदेश के इस पश्चिमी इलाके के आदिवासी इलाकों की तरफ मोड़ दिया है। प्रभात झा के अध्यक्ष बनने के बाद इन गतिविधियों में कुछ ज्यादा तेजी आती दिखाई दी। अगले चुनाव में उनके 200 सीटों के दावे के पीछे इन्ही गतिविधियों का दम है। राजनीति कहती है कि आपमें सामने वाले को हतप्रभ करने की क्षमता होगी, तभी चमत्कार भी नजर आएंगे। भाजपा इसी रणनीति के तहत काम कर रही है।
मध्यप्रदेश के चुनावी इतिहास को टटोला जाए तो साफ नजर आता है कि आजादी के बाद से ही आदिवासी इलाके काँग्रेस का ऐसा वोट बैंक रहे हैं, जहाँ कोई भी पार्टी सेंध नहीं लगा पाई! क्योंकि, पहले पंडित जवारहरलाल नेहरू फिर इंदिरा गाँधी और इसके बाद राजीव गाँधी ने आदिवासियों को साधने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन, अब काँग्रेस में वह जमीनी सोच नहीं बची जो अपने परंपरागत वोट बैंक को बचाने की कोशिश कर सके। भाजपा भी बरसों से इस वोट बैंक को साधने की कोशिश करती रही, पर उसे पहली बार 2003 में बड़ी सफलता मिली, जब झाबुआ जिले (तब आलीराजपुर भी शामिल था) की सभी विधानसभा सीटें भाजपा ने जीत ली। भाजपा की इस तैयारी के पीछे संघ के आनुशांगिक संगठनों की बड़ी भूमिका थी, जो कई साल तक आदिवासी इलाके में गुपचुप तरीके से काम कर रही थीं। अब वही काम भाजपा खुलकर कर रही है और अपने मकसद को दर्शा भी रही है, ताकि 2003 की कहानी को दोहराया जा सके! कांग्रेस के लिए झाबुआ लिटमस टेस्ट है, यह सभी कांग्रेसी जानते है! क्योंकि, 2003 के विधानसभा चुनावों के नतीजों में जैसे ही झाबुआ का पहला परिणाम भाजपा के पक्ष में गया, तभी दिग्विजय सिंह ने हार स्वीकारते हुए कहा था कि अगर झाबुआ में हार गए तो मध्यप्रदेश में हार गए!
यही कारण है कि पिछले करीब छ: महीने से आलीराजपुर, झाबुआ और बड़वानी भाजपा की प्राथमिकताओं में पहले नंबर पर हैं। भाजपा बार-बार अपनी सक्रियता से आदिवासियों को इस बात का अहसास कराने की कोशिश कर रही है, कि अब काँग्रेस उनकी तारणहार नहीं रही। भाजपा के इस संदेश में दम भी है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल के बहाने जिस तरह प्रदेश के आदिवासी इलाके की अवहेलना की गई, उससे यह बात स्पष्ट भी हो जाती है। झाबुआ के सांसद काँतिलाल भूरिया को मंत्रिमंडल से हटाया जाना और उनकी जगह किसी और को मौका न देना, इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि काँग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का आदिवासियों के प्रति सोच क्या है! जब इस आदिवासी इलाके में काँग्रेस का नेतृत्व कमजोर पड़ेगा, तो तय है कि उसकी जगह लेने के लिए नया नेतृत्व पनपेगा। भाजपा उसी मौके की तलाश में थी, जो खुद काँग्रेस ने आगे बढ़कर उसकी झोली में डाल दिया।
कांग्रेस ऊपरी तौर पर विरोध जरूर कर रही है, लेकिन इसमें भी उसे केंद्रीय नेतृत्व का सहारा लेना पड़ रहा है। ऐसे में कांग्रेस के आम कार्यकर्ता को चिंता में डालने के लिए प्रभात झा का यह बयान काफी है कि कई कांग्रेसी नेता भाजपा में आने के लिए लाईन लगाए है। कांग्रेस के लिए यह आत्ममंथन करने का समय है और कुछ नई सोच और नए विचार के साथ कार्यकर्ताओं के बीच जाने का भी। वहीं भाबरा में शहीद चंद्रशेखर आजाद को याद करने के बहाने भाजपा ने जिस तरह के पांसे चले हैं, वह काँग्रेस के लिए एक चुनौती भी है! लेकिन, लगता नहीं कि काँग्रेस में इस बात को लेकर कोई गंभीर चिंतन होगा।
Friday, July 15, 2011
काँग्रेस ने मध्यप्रदेश को क्या 'मंदप्रदेश" समझा?
(हेमंत पाल)
कांग्रेस पार्टी के एजेंडे में मध्यप्रदेश लगता है, कहीं नहीं है! या वह प्रदेश को लेकर किसी भी तरह की आशा ही नहीं पालनी। मंत्रिमंडल विस्तार में मध्यप्रदेश की जिस तरह से अनदेखी की गई, वहाँ तक तो ठीक था। परंतु, काँतिलाल भूरिया की जगह किसी और को शामिल न करना और अरुण यादव को निकालना प्रदेश के लिए ऐसा संदेश है, जिससे आम कार्यकर्ता हताश होगा। इससे प्रदेश काँग्रेस अध्यक्ष काँतिलाल भूरिया की मुश्किलें भी बढ़ेगी! क्योंकि, खानापूरी के लिए अरुण यादव को संगठन में लेने से प्रदेश में किसी खास परिवर्तन की उम्मीद नहीं की जा सकती। यह कहना हास्यास्पद होगा कि उत्तरप्रदेश को ध्यान में रखकर मंत्रिमंडल में बदलाव किया गया है। दरअसल, इस बार दबाव भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण इतना ज्यादा था कि कांग्रेस फूँक-फूँककर कदम रख रही थी। नए चेहरों का चुनाव करते वक्त भी इसी बात का ध्यान रखा गया। परंतु जरुरत से ज्यादा ध्यान देना भी कभी मुश्किल में डाल देता है, जैसा लगता है इस बार हुआ है!
मंत्रिमंडल के बदलाव में ऐसा कम ही होता है कि किसी इलाके को प्रतिनिधित्वहीन कर दिया जाए! यह अनुमान लगाए बगैर कि इस फैसले के क्या राजनीतिक नतीजे होंगे! चार में से दो मंत्रियों को हटा दिया गया। अब कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया ही केंद्र सरकार में प्रदेश के प्रतिनिधि के रूप में बचे हैं। काँतिलाल भूरिया और अरूण यादव को जिस तरह बाहर कर दिया गया, उसके पीछे कोई ठोस कारण रहा होगा, यह कहीं नजर नहीं आता। मंत्रिमंडल में जब भी बदलाव की कवायद होती है, राजनीतिक और जातीय समीकरणों का गठजोड़ बैठाया जाता है। फायदे और नुकसान का आकलन किया जाता है। राजनीतिक असंतोष न पनपे इसका भी अंदाजा लगाया जाता है, पर लगता है ताजा फेरबदल में इस मुद्दे पर गंभीरता नहीं बरती गई। कांग्रेस ने मध्यप्रदेश के साथ 'मंदप्रदेश" जैसा व्यवहार किया। राजनीतिक संतुलन के सी-सॉ में कांग्रेस ने मध्यप्रदेश से गुटों के आकाओं से ही राय ली है, संगठन से राय लेने की बात किसी के मन में शायद नहीं आई। यही कारण रहा कि आकाओं ने अपना खेल दिखा दिया! उन्होंने प्रदेश में ऐसे समीकरणों को जन्म दिया, जिसे चाहे जैसा हल करें उत्तर शून्य ही आएगा।
काँतिलाल भूरिया को हटाए जाने के बारे में तर्क दिया जा रहा है, कि मध्यप्रदेश के काँग्रेस संगठन को नए सिरे से गढ़ने के लिए के लिए उन्हें मंत्रिमंडल की जिम्मेदारियों से मुक्त किया जा रहा है। इस बात को कुछ हद तक सही भी मान लिया जाए, तो इसका आशय यह कतई नहीं होता कि उनकी जगह किसी और को शामिल नहीं किया जाए? वह भी ऐसी स्थिति में जब मध्यप्रदेश में काँग्रेस ने लोकसभा और विधानसभा दोनों ही चुनावों में अच्छे प्रदर्शन किया था। पश्चिम मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाके से काँतिलाल भूरिया की जगह गजेंद्रसिंह राजूखेड़ी को जगह दी जाती तो जातीय समीकरण भी बैलेंस होता और इलाका में काँग्रेस की पकड भी बनी रहती। वे तीन बार के सांसद हैं, और उनका दावा भी पुख्ता है। यहाँ यह बात भी ध्यान देने लायक है कि प्रदेश की सत्ता में लगातार दो बार से काबिज भारतीय जनता पार्टी का पूरा जोर पश्चिम मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाकों पर ही है और कुक्षी में काँग्रेस की हार इसीका नतीजा है। काँतिलाल भूरिया के प्रदेश काँग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद से ही भाजपा ने संगठनात्मक रूप से अपनी गतिविधियाँ आदिवासी इलाके में केंद्रित की है। ऐसे में भूरिया को हटाकर मैदान को खाली छोड़ देना किसी भी कोण से राजनीतिक समझदारी का तकाजा नहीं है।
अरूण यादव को मंत्रिमंडल से हटाना चौंकाने वाली घटना है। यह ठीक वैसी ही है, जैसा कि उन्हें मत्रिमंडल में शमिल किया जाना था! उनके हटाए जाने के पीछे फिलहाल कोई तार्किक कारण नजर नहीं आता! उन्हें जब मनमोहनसिंह ने अपनी कैबिनेट में शामिल किया था, तब यह बात कही जा रही थी कि वे देश में यादव समाज से जीतने वाले अकेले सांसद हैं, इसलिए उन्हें जगह दी गई! काँग्रेस उनका राजनीतिक लाभ लेना चाहती है, इसलिए मंत्रिमंडल में शामिल किया गया। पार्टी ने बिहार के चुनाव में उनका उपयोग भी किया, पर चुनाव के बाद उन्हें उठाकर हाशिए पर रख दिया! खानापूरी के लिए उन्हें संगठन में जगह जरूर दी गई, पर उसका कोई नतीजा नहीं निकलने वाला। कुल मिलाकर अगर बारीकी से देखा जाए तब यही तथ्य उभरता है कि यहाँ भी दिग्विजय फैक्टर ने अपना असर दिखाया है। जिस तरह से राहुल गाँधी से उनकी नजदीकी है, इस बात से कोई इंकार नहीं किया जा सकता कि अगले कुछ समय में प्रदेश के संगठन में भी यहीं फैक्टर काम करेगा!
कांग्रेस पार्टी के एजेंडे में मध्यप्रदेश लगता है, कहीं नहीं है! या वह प्रदेश को लेकर किसी भी तरह की आशा ही नहीं पालनी। मंत्रिमंडल विस्तार में मध्यप्रदेश की जिस तरह से अनदेखी की गई, वहाँ तक तो ठीक था। परंतु, काँतिलाल भूरिया की जगह किसी और को शामिल न करना और अरुण यादव को निकालना प्रदेश के लिए ऐसा संदेश है, जिससे आम कार्यकर्ता हताश होगा। इससे प्रदेश काँग्रेस अध्यक्ष काँतिलाल भूरिया की मुश्किलें भी बढ़ेगी! क्योंकि, खानापूरी के लिए अरुण यादव को संगठन में लेने से प्रदेश में किसी खास परिवर्तन की उम्मीद नहीं की जा सकती। यह कहना हास्यास्पद होगा कि उत्तरप्रदेश को ध्यान में रखकर मंत्रिमंडल में बदलाव किया गया है। दरअसल, इस बार दबाव भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण इतना ज्यादा था कि कांग्रेस फूँक-फूँककर कदम रख रही थी। नए चेहरों का चुनाव करते वक्त भी इसी बात का ध्यान रखा गया। परंतु जरुरत से ज्यादा ध्यान देना भी कभी मुश्किल में डाल देता है, जैसा लगता है इस बार हुआ है!
मंत्रिमंडल के बदलाव में ऐसा कम ही होता है कि किसी इलाके को प्रतिनिधित्वहीन कर दिया जाए! यह अनुमान लगाए बगैर कि इस फैसले के क्या राजनीतिक नतीजे होंगे! चार में से दो मंत्रियों को हटा दिया गया। अब कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया ही केंद्र सरकार में प्रदेश के प्रतिनिधि के रूप में बचे हैं। काँतिलाल भूरिया और अरूण यादव को जिस तरह बाहर कर दिया गया, उसके पीछे कोई ठोस कारण रहा होगा, यह कहीं नजर नहीं आता। मंत्रिमंडल में जब भी बदलाव की कवायद होती है, राजनीतिक और जातीय समीकरणों का गठजोड़ बैठाया जाता है। फायदे और नुकसान का आकलन किया जाता है। राजनीतिक असंतोष न पनपे इसका भी अंदाजा लगाया जाता है, पर लगता है ताजा फेरबदल में इस मुद्दे पर गंभीरता नहीं बरती गई। कांग्रेस ने मध्यप्रदेश के साथ 'मंदप्रदेश" जैसा व्यवहार किया। राजनीतिक संतुलन के सी-सॉ में कांग्रेस ने मध्यप्रदेश से गुटों के आकाओं से ही राय ली है, संगठन से राय लेने की बात किसी के मन में शायद नहीं आई। यही कारण रहा कि आकाओं ने अपना खेल दिखा दिया! उन्होंने प्रदेश में ऐसे समीकरणों को जन्म दिया, जिसे चाहे जैसा हल करें उत्तर शून्य ही आएगा।
काँतिलाल भूरिया को हटाए जाने के बारे में तर्क दिया जा रहा है, कि मध्यप्रदेश के काँग्रेस संगठन को नए सिरे से गढ़ने के लिए के लिए उन्हें मंत्रिमंडल की जिम्मेदारियों से मुक्त किया जा रहा है। इस बात को कुछ हद तक सही भी मान लिया जाए, तो इसका आशय यह कतई नहीं होता कि उनकी जगह किसी और को शामिल नहीं किया जाए? वह भी ऐसी स्थिति में जब मध्यप्रदेश में काँग्रेस ने लोकसभा और विधानसभा दोनों ही चुनावों में अच्छे प्रदर्शन किया था। पश्चिम मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाके से काँतिलाल भूरिया की जगह गजेंद्रसिंह राजूखेड़ी को जगह दी जाती तो जातीय समीकरण भी बैलेंस होता और इलाका में काँग्रेस की पकड भी बनी रहती। वे तीन बार के सांसद हैं, और उनका दावा भी पुख्ता है। यहाँ यह बात भी ध्यान देने लायक है कि प्रदेश की सत्ता में लगातार दो बार से काबिज भारतीय जनता पार्टी का पूरा जोर पश्चिम मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाकों पर ही है और कुक्षी में काँग्रेस की हार इसीका नतीजा है। काँतिलाल भूरिया के प्रदेश काँग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद से ही भाजपा ने संगठनात्मक रूप से अपनी गतिविधियाँ आदिवासी इलाके में केंद्रित की है। ऐसे में भूरिया को हटाकर मैदान को खाली छोड़ देना किसी भी कोण से राजनीतिक समझदारी का तकाजा नहीं है।
अरूण यादव को मंत्रिमंडल से हटाना चौंकाने वाली घटना है। यह ठीक वैसी ही है, जैसा कि उन्हें मत्रिमंडल में शमिल किया जाना था! उनके हटाए जाने के पीछे फिलहाल कोई तार्किक कारण नजर नहीं आता! उन्हें जब मनमोहनसिंह ने अपनी कैबिनेट में शामिल किया था, तब यह बात कही जा रही थी कि वे देश में यादव समाज से जीतने वाले अकेले सांसद हैं, इसलिए उन्हें जगह दी गई! काँग्रेस उनका राजनीतिक लाभ लेना चाहती है, इसलिए मंत्रिमंडल में शामिल किया गया। पार्टी ने बिहार के चुनाव में उनका उपयोग भी किया, पर चुनाव के बाद उन्हें उठाकर हाशिए पर रख दिया! खानापूरी के लिए उन्हें संगठन में जगह जरूर दी गई, पर उसका कोई नतीजा नहीं निकलने वाला। कुल मिलाकर अगर बारीकी से देखा जाए तब यही तथ्य उभरता है कि यहाँ भी दिग्विजय फैक्टर ने अपना असर दिखाया है। जिस तरह से राहुल गाँधी से उनकी नजदीकी है, इस बात से कोई इंकार नहीं किया जा सकता कि अगले कुछ समय में प्रदेश के संगठन में भी यहीं फैक्टर काम करेगा!
Tuesday, July 5, 2011
प्रसंग : जबेरा उपचुनाव
राजनीति से सहानुभूति की लहर नदारद!
(हेमंत पाल)
मध्यप्रदेश में काँग्रेस ने नई टीम बनाकर भारतीय जनता पार्टी को मात देने का जो सपना देखा था, वह जबेरा में टूट गया! काँग्रेस की इस हार के पीछे संगठनात्मक खामी थी या भाजपा का पलड़ा भारी था, इस निष्कर्ष पर पहुँचना आसान नहीं है। लेकिन, एक बात तो स्पष्ट हो गई कि राजनीति में सिर्फ सहानुभूति की लहर पर सवार होकर चुनाव जीतने का फार्मूला अब पुराना पड़ गया। किसी नेता के आकस्मिक निधन से खाली हुई सीट पर उसके परिवार का कोई सदस्य चुनाव जीत ही जाएगा, इस बात का दावा नहीं किया जा सकता! इस जीत के लिए पार्टी को एड़ी-चोटी का जोर भी लगाना पड़ता है। सहानुभूति अकेली अपना कमाल नहीं दिखाती! कम से कम हाल के उपचुनावों के नतीजों का संकेत तो यही बताता है। जबेरा में हुई काँग्रेस की हार ने जहाँ पार्टी को भाजपा के खिलाफ और ज्यादा मेहनत करने का संदेश दिया, वहीं यह भी जता दिया कि अब मतदाताओं को सहानुभूति के आँसुओं से भरमाना आसान नहीं है।
प्रदेश विधानसभा के पिछले चुनाव में जबेरा से काँग्रेस के रत्नेश सोलोमन जीते थे। वे पहले भी विधायक रह चुके हैं, और मंत्री भी रहे। उनके निधन के बाद खाली हुई सीट के लिए हुए उपचुनाव में काँग्रेस ने उनकी बेटी डॉ तान्या सोलोमन को उम्मीदवार बनाया। काँग्रेस को उम्मीद थी, कि रत्नेश सोलोमन के प्रति क्षेत्र के लोगों की सहानुभूति और पार्टी का परंपरागत वोट बैंक तान्या की जीत सुनिश्चित कर देगा। लेकिन, काँग्रेस की यह रणनीति सफल नहीं हुई और पार्टी को बुरी तरह मात खाना पड़ी। यह पुश्तैनी-राजनीति का सोच रखने वाली पार्टियों के लिए भी एक संदेश है। अब उन्हें सोचना होगा कि राजनीति को परिवार की बपौती नहीं माना जा सकता। जहाँ तक सहानुभूति की बात है, तो राजनीति में भी इतना पेशेवर अंदाज आ गया है, कि मतदाता अब सहानुभूति जैसे फैक्टर को खास तवज्जो नहीं देते। यह बात सिर्फ जबेरा तक ही सीमित नहीं है, हाल ही में ऐसे कई राजनीतिक संकेत मिले जो पुश्तैनी नेतागिरी को हाशिए पर धकेलते दिखाई दिए। इसलिए कि अब राजनीति महज सहानुभूति से नहीं, समीकरणों के जोड़-घटाव से चलती है।
भाजपा के दिलीप भटेले के 2007 में निधन के बाद पार्टी ने भटेले की पत्नी धारेश्वरी भटेले को यह सोचकर लाँजी से चुनाव मैदान में उतारा था, कि मतदाताओं की सहानुभूति अपना असर दिखाएगी, पर पांसा उल्टा पड़ गया। लाँजी से समाजवादी पार्टी के किशोर समरीते ने चुनाव जीता। सांवेर से भाजपा के टिकट पर जीतने वाले प्रकाश सोनकर के निधन के बाद दिसंबर 2007 में हुए उपचुनाव में तो पार्टी ने सोनकर परिवार के किसी सदस्य को टिकट न देकर अन्य उम्मीदवार को उतारा, पर वो चुनाव हार गया। पार्टी को लगा कि शायद उसने गलत उम्मीदवार का फैसला किया था। यही कारण था कि 2009 में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी ने गलती सुधारकर प्रकाश सोनकर की पत्नी निशा सोनकर को टिकट दिया। यह सोचकर कि शायद उनके परंपरागत वोट बैंक और मतदाताओं की सहानुभूति कोई कमाल कर जाए, पर पार्टी की यह रणनीति भी पलट गई और भाजपा को हार का मुँह देखना पड़ा।
हाल ही एक मामला जमुनादेवी का भी है जो प्रदेश की बड़ी काँग्रेस नेता थी और कुक्षी में उन्हें मात देना टेढ़ी खीर था। लेकिन, उनके निधन के बाद हुए उपचुनाव में काँग्रेस उनकी भतीजी निशा सिंघार को जीत नहीं दिला पाई! जबकि, देखा जाए तो जमुनादेवी के नाम पर तो सहानुभूति का बवंडर चलना था, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ! इन उदाहरणों के बीच लक्ष्मणसिंह गौड़ की पत्नी मालनी गौड़ की जीत मायने रखती है। सहानुभूति के जरिए चुनाव जीतने वाले मामले में मालिनी गौड़ के अलावा एक नाम काँग्रेस रणवीरसिंह जाटव का भी है जो गोहद क्षेत्र से अपने पिता माखनसिंह जाटव के निधन के बाद हुए उपचुनाव में जीते। गौर करने वाली बात यह, कि हादसे में हुई नेताओं की मौत के साथ सहानुभूति अब भी कायम है।
भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर भले ही कोई बड़ा कमाल नहीं कर पा रही हो, पर प्रदेश में तो भाजपा का ही सिक्का चल रहा है। जबेरा की जीत ने इस बात पर मुहर भी लगा दी! जबेरा से पहले सोनकच्छ और कुक्षी के उपचुनावों में भी भाजपा ने अपनी चुनावी रणनीति का असर दिखा दिया था। इस नजरिए से देखा जाए तो यह भाजपा की जीत की हैट्रिक है। वैसे राजनीति में अभी तक यह माना जाता था, कि जो भी पार्टी सत्ता में होती है, उसके लिए उपचुनाव में जीत हांसिल करना मुश्किल होता है। क्योंकि, एंटीइनकम्बेंसी फैक्टर मतदाताओं को सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ वोट देने के लिए प्रभावित करता है। लेकिन, सहानुभूति के नाम पर चुनाव की जंग जीत लेने का काँग्रेस का फार्मूला कुक्षी के बाद जबेरा में भी फेल हो गया। इसे उम्मीदवार के चयन की खामी तो कहा ही जा सकता है, चुनाव में पार्टी को झौंक देने की शिद्दत की भी कमी नजर आई! जबेरा और इससे पहले के उपचुनाव में काँग्रेस की हार को सिर्फ उम्मीदवार की हार नहीं कहा जा सकता, यह सीधे-सीधे पार्टी की रणनीतिक खामी है।
(हेमंत पाल)
मध्यप्रदेश में काँग्रेस ने नई टीम बनाकर भारतीय जनता पार्टी को मात देने का जो सपना देखा था, वह जबेरा में टूट गया! काँग्रेस की इस हार के पीछे संगठनात्मक खामी थी या भाजपा का पलड़ा भारी था, इस निष्कर्ष पर पहुँचना आसान नहीं है। लेकिन, एक बात तो स्पष्ट हो गई कि राजनीति में सिर्फ सहानुभूति की लहर पर सवार होकर चुनाव जीतने का फार्मूला अब पुराना पड़ गया। किसी नेता के आकस्मिक निधन से खाली हुई सीट पर उसके परिवार का कोई सदस्य चुनाव जीत ही जाएगा, इस बात का दावा नहीं किया जा सकता! इस जीत के लिए पार्टी को एड़ी-चोटी का जोर भी लगाना पड़ता है। सहानुभूति अकेली अपना कमाल नहीं दिखाती! कम से कम हाल के उपचुनावों के नतीजों का संकेत तो यही बताता है। जबेरा में हुई काँग्रेस की हार ने जहाँ पार्टी को भाजपा के खिलाफ और ज्यादा मेहनत करने का संदेश दिया, वहीं यह भी जता दिया कि अब मतदाताओं को सहानुभूति के आँसुओं से भरमाना आसान नहीं है।
प्रदेश विधानसभा के पिछले चुनाव में जबेरा से काँग्रेस के रत्नेश सोलोमन जीते थे। वे पहले भी विधायक रह चुके हैं, और मंत्री भी रहे। उनके निधन के बाद खाली हुई सीट के लिए हुए उपचुनाव में काँग्रेस ने उनकी बेटी डॉ तान्या सोलोमन को उम्मीदवार बनाया। काँग्रेस को उम्मीद थी, कि रत्नेश सोलोमन के प्रति क्षेत्र के लोगों की सहानुभूति और पार्टी का परंपरागत वोट बैंक तान्या की जीत सुनिश्चित कर देगा। लेकिन, काँग्रेस की यह रणनीति सफल नहीं हुई और पार्टी को बुरी तरह मात खाना पड़ी। यह पुश्तैनी-राजनीति का सोच रखने वाली पार्टियों के लिए भी एक संदेश है। अब उन्हें सोचना होगा कि राजनीति को परिवार की बपौती नहीं माना जा सकता। जहाँ तक सहानुभूति की बात है, तो राजनीति में भी इतना पेशेवर अंदाज आ गया है, कि मतदाता अब सहानुभूति जैसे फैक्टर को खास तवज्जो नहीं देते। यह बात सिर्फ जबेरा तक ही सीमित नहीं है, हाल ही में ऐसे कई राजनीतिक संकेत मिले जो पुश्तैनी नेतागिरी को हाशिए पर धकेलते दिखाई दिए। इसलिए कि अब राजनीति महज सहानुभूति से नहीं, समीकरणों के जोड़-घटाव से चलती है।
भाजपा के दिलीप भटेले के 2007 में निधन के बाद पार्टी ने भटेले की पत्नी धारेश्वरी भटेले को यह सोचकर लाँजी से चुनाव मैदान में उतारा था, कि मतदाताओं की सहानुभूति अपना असर दिखाएगी, पर पांसा उल्टा पड़ गया। लाँजी से समाजवादी पार्टी के किशोर समरीते ने चुनाव जीता। सांवेर से भाजपा के टिकट पर जीतने वाले प्रकाश सोनकर के निधन के बाद दिसंबर 2007 में हुए उपचुनाव में तो पार्टी ने सोनकर परिवार के किसी सदस्य को टिकट न देकर अन्य उम्मीदवार को उतारा, पर वो चुनाव हार गया। पार्टी को लगा कि शायद उसने गलत उम्मीदवार का फैसला किया था। यही कारण था कि 2009 में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी ने गलती सुधारकर प्रकाश सोनकर की पत्नी निशा सोनकर को टिकट दिया। यह सोचकर कि शायद उनके परंपरागत वोट बैंक और मतदाताओं की सहानुभूति कोई कमाल कर जाए, पर पार्टी की यह रणनीति भी पलट गई और भाजपा को हार का मुँह देखना पड़ा।
हाल ही एक मामला जमुनादेवी का भी है जो प्रदेश की बड़ी काँग्रेस नेता थी और कुक्षी में उन्हें मात देना टेढ़ी खीर था। लेकिन, उनके निधन के बाद हुए उपचुनाव में काँग्रेस उनकी भतीजी निशा सिंघार को जीत नहीं दिला पाई! जबकि, देखा जाए तो जमुनादेवी के नाम पर तो सहानुभूति का बवंडर चलना था, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ! इन उदाहरणों के बीच लक्ष्मणसिंह गौड़ की पत्नी मालनी गौड़ की जीत मायने रखती है। सहानुभूति के जरिए चुनाव जीतने वाले मामले में मालिनी गौड़ के अलावा एक नाम काँग्रेस रणवीरसिंह जाटव का भी है जो गोहद क्षेत्र से अपने पिता माखनसिंह जाटव के निधन के बाद हुए उपचुनाव में जीते। गौर करने वाली बात यह, कि हादसे में हुई नेताओं की मौत के साथ सहानुभूति अब भी कायम है।
भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर भले ही कोई बड़ा कमाल नहीं कर पा रही हो, पर प्रदेश में तो भाजपा का ही सिक्का चल रहा है। जबेरा की जीत ने इस बात पर मुहर भी लगा दी! जबेरा से पहले सोनकच्छ और कुक्षी के उपचुनावों में भी भाजपा ने अपनी चुनावी रणनीति का असर दिखा दिया था। इस नजरिए से देखा जाए तो यह भाजपा की जीत की हैट्रिक है। वैसे राजनीति में अभी तक यह माना जाता था, कि जो भी पार्टी सत्ता में होती है, उसके लिए उपचुनाव में जीत हांसिल करना मुश्किल होता है। क्योंकि, एंटीइनकम्बेंसी फैक्टर मतदाताओं को सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ वोट देने के लिए प्रभावित करता है। लेकिन, सहानुभूति के नाम पर चुनाव की जंग जीत लेने का काँग्रेस का फार्मूला कुक्षी के बाद जबेरा में भी फेल हो गया। इसे उम्मीदवार के चयन की खामी तो कहा ही जा सकता है, चुनाव में पार्टी को झौंक देने की शिद्दत की भी कमी नजर आई! जबेरा और इससे पहले के उपचुनाव में काँग्रेस की हार को सिर्फ उम्मीदवार की हार नहीं कहा जा सकता, यह सीधे-सीधे पार्टी की रणनीतिक खामी है।
Thursday, April 14, 2011
कहीं दिग्विजय युग की वापसी तो नहीं!
-हेमंत पाल
लंबे असमंजस और उहा-पोह के बाद काँग्रेस हाईकमान ने मध्यप्रदेश में अपनी कमान थामने के लिए नए नेता का चुनाव कर लिया। आदिवासी नेता कांतिलाल भूरिया के नाम पर पार्टी ने एक बड़ा दाँव खेला है। बड़ा दाँव इसलिए कि भूरिया को मंत्री पद से हटाकर ढेर सारी उम्मीदों के साथ मध्यप्रदेश में पार्टी में संजीवनी फूँकने के लिए भेजा गया है। यह दाँव किस हद तक सफल होगा, अभी इसके कयास ही लगाए जा सकते हैं। क्योंकि, फिलहाल न तो भूरिया के सामने चुनाव की कोई चुनौती है, न सत्ता में काबिज भारतीय जनता पार्टी से दो-दो हाथ करने के लिए मैदान में उतरने जैसा कोई हालात! भूरिया के सामने विपक्ष से बड़ी चुनौती तो खुद की पार्टी ही होगी जो बुरी तरह बिखरी हुई है। गुटों में बँटी पार्टी को समेटकर एक करना और उसमें नया जोश भरना राजनीतिक रूप से आसान नहीं होता! खासकर ऐसी स्थिति में जब उपचुनाव में हार के बाद पार्टी का आत्मविश्वास डोल गया हो और उस पर मातमी साया हो!
कांतिलाल भूरिया की राजनीति की शुरूआत तो प्रदेश की राजनीति से ही हुई थी, लेकिन लंबे समय से वे केंद्र की राजनीति में हैं। लाल बत्ती वाली राजनीति की आदत वाले भूरिया के लिए नई चुनौती की राह काफी मुश्किलों भरी है। उनके सामने प्रदेश में दूसरे कार्यकाल में सरपट दौड़ रही भाजपा सरकार है, तो दूसरी तरफ उन्हें ऐसी पार्टी की लगाम दी गई है जिसमें जुता हर घोड़ा अपनी दिशा में भाग रहा है। इन सभी घोड़ों को एक राह पर आने और साथ दौड़ने के लिए राजी करना और प्रतिद्वंद्वी को मात देना बेहद कठिन काम है। ऐसे में लगाम कसने के लिए चाबुक भी चलाना पड़ेंगे और घोड़ो की मालिश भी करना होगी। प्रदेश में कांग्रेस पार्टी की जो स्थिति है उसे देखकर यह बात साफ है कि कांतिलाल भूरिया को स्वयं की कांति से कांग्रेस में ओज भरना होगी और इसके लिए उन्हें ऑपरेशन भी करना पड़ेगें और मवाद लगे घावों को भी साफ करना होगा! हो सकता है कि पार्टी की सेहत को जल्द सुधारने के लिए बूस्टर इंजेक्शन भी लगाना पड़ें!
इस आदिवासी नेता के लिए एक चुनौती यह भी होगी कि वे खुद पर लगी दिग्विजय-मुहर को धोकर साफ कर दें! उनके नाम की घोषणा के साथ ही जिस तरह दिग्विजय-युग की वापसी का डंका पीटा जा रहा है, वह पार्टी की भविष्य की रणनीति के लिए घातक साबित हो सकता है। कारण यह है कि एक बड़ा वर्ग अभी भी दिग्विजय सिंह से खफा है। यदि उन्हें लगता है कि कांतिलाल भूरिया के बहाने उसी युग की वापसी हो रही है, तो वह बिदक सकता है! भूरिया के लिए अपनी पहचान वाले उस खोल से बाहर निकलना आसान तो नहीं है, पर उन्हें यह करना होगा, क्योंकि मुकाबला जीतने और लक्ष्य पाने के लिए कई बार कुछ मोह त्यागने भी पड़ते हैं।
नए मुखिया को संगठन वाली सड़क की राजनीति की आदत नहीं है। उनकी छवि भी आक्रामक और मुखर नहीं है। जबकि, आज पार्टी को मध्यप्रदेश में बतौर मुखिया ऐसे ही नेता की ज्यादा जरूरत है। यदि कांतिलाल भूरिया को अपने चयन को सही साबित करके भाजपा को मात देना है, तो उन्हें अपनी छवि के विपरीत आक्रामकता दिखाना होगी और प्रतिद्वंद्वी को उनके घर में घेरना होगा। यह इसलिए भी जरूरी है कि सुरेश पचौरी भी आक्रामकता और मुखरता दिखाने में चूक कर गए थे।
भूरिया को एक निर्धारित कार्य-योजना और रणनीतिक कुशलता के साथ काम की शुरूआत करना होगी! यह इसलिए भी जरूरी है कि दो साल बाद आने वाला समय चुनावी होंगा, जो भूरिया के चयन को सही या गलत साबित करेंगे! उन्हें सबसे बड़ा काम तो अपनी टीम को चुनने का करना होगा। इसलिए कि चुकी और थकी टीम के साथ वे ज्यादा लंबा रास्ता तय नहीं कर सकते! राजनीतिक रूप से बासी हो चुके चेहरे पार्टी में कोई जान फँूक सकेंगे, इस भरोसे को त्याग करके नई टीम चुनना होगी। ऐसे लोगों को चाँस देना होगा जिनकी छवि साफ हो और वे चुनौतियाँ झेलने के आदी हों! आज जमाना युवाओं का है और सबसे पहले कांतिलाल भूरिया को स्वयं की सोच और व्यक्तित्व में युवा जोश भरना होगा, उसके बाद ही वे विपक्ष को टक्कर देने के काबिल हो सकेंगें। इसके अलावा किसी भी राजनीतिक पार्टी का आधार संगठन होता है और भूरिया के सामने संगठन को फिर नए सिरे से खड़े करने की कवायद भी करना है। इसमें उन्हें मैेंद्र सिंह धोनी जैसा जोश और सचिन तेंडुलकर जैसा धैर्य बताना होगा।
अण्णा हजारे के आंदोलन के बाद देश की तासीर में जबरदस्त बदलाव के आसार देखे जा रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरे देश में चिंगारी सुलगने लगी है, ऐसे में कांतिलाल भूरिया के लिए राह और कांटो भरी है। उन्हें कांँग्रेस का ऐसा चेहरा समाज के सामने लाने की तैयारी करना होगी जो दागदार, चुका और थका हुआ न हो! अपने मुकाबले की पार्टी को वे तभी बचाव के लिए बाध्य कर सकते हैं, जब काँग्रेस के दाँव सही निशाने पर लगें! यदि ऐसा नहीं हुआ तो काँग्रेस को प्रदेश की राजनीति में फिर विपक्ष की कुर्सी खाली मिलेगी!
लंबे असमंजस और उहा-पोह के बाद काँग्रेस हाईकमान ने मध्यप्रदेश में अपनी कमान थामने के लिए नए नेता का चुनाव कर लिया। आदिवासी नेता कांतिलाल भूरिया के नाम पर पार्टी ने एक बड़ा दाँव खेला है। बड़ा दाँव इसलिए कि भूरिया को मंत्री पद से हटाकर ढेर सारी उम्मीदों के साथ मध्यप्रदेश में पार्टी में संजीवनी फूँकने के लिए भेजा गया है। यह दाँव किस हद तक सफल होगा, अभी इसके कयास ही लगाए जा सकते हैं। क्योंकि, फिलहाल न तो भूरिया के सामने चुनाव की कोई चुनौती है, न सत्ता में काबिज भारतीय जनता पार्टी से दो-दो हाथ करने के लिए मैदान में उतरने जैसा कोई हालात! भूरिया के सामने विपक्ष से बड़ी चुनौती तो खुद की पार्टी ही होगी जो बुरी तरह बिखरी हुई है। गुटों में बँटी पार्टी को समेटकर एक करना और उसमें नया जोश भरना राजनीतिक रूप से आसान नहीं होता! खासकर ऐसी स्थिति में जब उपचुनाव में हार के बाद पार्टी का आत्मविश्वास डोल गया हो और उस पर मातमी साया हो!
कांतिलाल भूरिया की राजनीति की शुरूआत तो प्रदेश की राजनीति से ही हुई थी, लेकिन लंबे समय से वे केंद्र की राजनीति में हैं। लाल बत्ती वाली राजनीति की आदत वाले भूरिया के लिए नई चुनौती की राह काफी मुश्किलों भरी है। उनके सामने प्रदेश में दूसरे कार्यकाल में सरपट दौड़ रही भाजपा सरकार है, तो दूसरी तरफ उन्हें ऐसी पार्टी की लगाम दी गई है जिसमें जुता हर घोड़ा अपनी दिशा में भाग रहा है। इन सभी घोड़ों को एक राह पर आने और साथ दौड़ने के लिए राजी करना और प्रतिद्वंद्वी को मात देना बेहद कठिन काम है। ऐसे में लगाम कसने के लिए चाबुक भी चलाना पड़ेंगे और घोड़ो की मालिश भी करना होगी। प्रदेश में कांग्रेस पार्टी की जो स्थिति है उसे देखकर यह बात साफ है कि कांतिलाल भूरिया को स्वयं की कांति से कांग्रेस में ओज भरना होगी और इसके लिए उन्हें ऑपरेशन भी करना पड़ेगें और मवाद लगे घावों को भी साफ करना होगा! हो सकता है कि पार्टी की सेहत को जल्द सुधारने के लिए बूस्टर इंजेक्शन भी लगाना पड़ें!
इस आदिवासी नेता के लिए एक चुनौती यह भी होगी कि वे खुद पर लगी दिग्विजय-मुहर को धोकर साफ कर दें! उनके नाम की घोषणा के साथ ही जिस तरह दिग्विजय-युग की वापसी का डंका पीटा जा रहा है, वह पार्टी की भविष्य की रणनीति के लिए घातक साबित हो सकता है। कारण यह है कि एक बड़ा वर्ग अभी भी दिग्विजय सिंह से खफा है। यदि उन्हें लगता है कि कांतिलाल भूरिया के बहाने उसी युग की वापसी हो रही है, तो वह बिदक सकता है! भूरिया के लिए अपनी पहचान वाले उस खोल से बाहर निकलना आसान तो नहीं है, पर उन्हें यह करना होगा, क्योंकि मुकाबला जीतने और लक्ष्य पाने के लिए कई बार कुछ मोह त्यागने भी पड़ते हैं।
नए मुखिया को संगठन वाली सड़क की राजनीति की आदत नहीं है। उनकी छवि भी आक्रामक और मुखर नहीं है। जबकि, आज पार्टी को मध्यप्रदेश में बतौर मुखिया ऐसे ही नेता की ज्यादा जरूरत है। यदि कांतिलाल भूरिया को अपने चयन को सही साबित करके भाजपा को मात देना है, तो उन्हें अपनी छवि के विपरीत आक्रामकता दिखाना होगी और प्रतिद्वंद्वी को उनके घर में घेरना होगा। यह इसलिए भी जरूरी है कि सुरेश पचौरी भी आक्रामकता और मुखरता दिखाने में चूक कर गए थे।
भूरिया को एक निर्धारित कार्य-योजना और रणनीतिक कुशलता के साथ काम की शुरूआत करना होगी! यह इसलिए भी जरूरी है कि दो साल बाद आने वाला समय चुनावी होंगा, जो भूरिया के चयन को सही या गलत साबित करेंगे! उन्हें सबसे बड़ा काम तो अपनी टीम को चुनने का करना होगा। इसलिए कि चुकी और थकी टीम के साथ वे ज्यादा लंबा रास्ता तय नहीं कर सकते! राजनीतिक रूप से बासी हो चुके चेहरे पार्टी में कोई जान फँूक सकेंगे, इस भरोसे को त्याग करके नई टीम चुनना होगी। ऐसे लोगों को चाँस देना होगा जिनकी छवि साफ हो और वे चुनौतियाँ झेलने के आदी हों! आज जमाना युवाओं का है और सबसे पहले कांतिलाल भूरिया को स्वयं की सोच और व्यक्तित्व में युवा जोश भरना होगा, उसके बाद ही वे विपक्ष को टक्कर देने के काबिल हो सकेंगें। इसके अलावा किसी भी राजनीतिक पार्टी का आधार संगठन होता है और भूरिया के सामने संगठन को फिर नए सिरे से खड़े करने की कवायद भी करना है। इसमें उन्हें मैेंद्र सिंह धोनी जैसा जोश और सचिन तेंडुलकर जैसा धैर्य बताना होगा।
अण्णा हजारे के आंदोलन के बाद देश की तासीर में जबरदस्त बदलाव के आसार देखे जा रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरे देश में चिंगारी सुलगने लगी है, ऐसे में कांतिलाल भूरिया के लिए राह और कांटो भरी है। उन्हें कांँग्रेस का ऐसा चेहरा समाज के सामने लाने की तैयारी करना होगी जो दागदार, चुका और थका हुआ न हो! अपने मुकाबले की पार्टी को वे तभी बचाव के लिए बाध्य कर सकते हैं, जब काँग्रेस के दाँव सही निशाने पर लगें! यदि ऐसा नहीं हुआ तो काँग्रेस को प्रदेश की राजनीति में फिर विपक्ष की कुर्सी खाली मिलेगी!
Monday, February 7, 2011
ये है राजनीति की नई 'फैमली"
ये है राजनीति की नई 'फैमली"
(हेमंत पाल)
इंदौर। राजनीति में परिवारवाद का नया अध्याय लिखा जाना शुरू हो गया! प्रदेश के कुक्षी और सोनकच्छ विधानसभा क्षेत्रों के उपचुनाव में भी कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों ने परिवारों को बढ़ावा दिया है। कहीं किसी नेता का बेटा मैदान में है, कहीं पति, कहीं भतीजी तो कहीं बचपन का भाई जैसा दोस्त! खास बात यह कि इनमें से कोई भी उम्मीदवार स्थानीय नहीं है।
कुक्षी से स्व. जमुनादेवी की भतीजी निशा सिंघार को कांग्रेस ने मैदान में उतारा है। वे राजनीति में नया चेहरा है, क्योंकि, 14 साल पहले उनकी शादी गुजरात में हो गई थी। जमुनादेवी के निधन के बाद उनकी राजनीतिक विरासत को संभालने के लिए पार्टी ने उन्हें उम्मीदवार बनाया है। उनके सामने हैं प्रदेश सरकार की राज्यमंत्री रंजना बघेल के पति मुकामसिंह किराड़े। प्रदेश की राजनीति में उनकी पहचान मंत्री पति के रूप में है और इसी योग्यता के चलते पार्टी ने उन्हें उम्मीदवारी सौंपी है। यदि वे रंजना बघेल के पति नहीं होते, तो शायद भाजपा को उनकी राजनीतिक क्षमताओं को अहसास नहीं होता और शायद उन्हें बतौर उम्मीदवार यह महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भी नहीं सौंपी जाती!
सोनकच्छ विधानसभा क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी ने फूलचंद वर्मा के बेटे राजेंद्र वर्मा को अपना उम्मीदवार बनाया है। फूलचंद वर्मा वरिष्ठ नेता हैं और पार्टी में कई महत्वपूर्ण पदों पर काम कर चुके हैं। तय है कि उनकी राजनीति क्षमता का कुछ अंश उनके बेटे में भी होगा, यही सोचकर पार्टी ने राजेंद्र वर्मा पर दांव लगाया है। उनके सामने कांग्रेस ने अर्जुन वर्मा को उम्मीदवार बनाया है। अर्जुन वर्मा का सज्जन वर्मा से कोई सीधा रिश्ता तो नहीं है, पर ये दोनों बचपन के दोस्त हैं। लोग उन्हें सज्जन का भाई ही मानते हैं।
कुक्षी और सोनकच्छ दोनों विधानसभाओं में कांग्रेस और भाजपा ने जिन पर दांव लगाया है, उनमें अर्जुन वर्मा को छोड़कर तीनों उम्मीदवारों का न तो पहले कोई गहरा राजनीतिक अनुभव है और न समाजसेवा का कोई इतिहास उनके साथ जुड़ा है। अर्जुन वर्मा जरूर इंदौर के एमवाय अस्पताल में समाजसेवी के रूप में बरसों से सक्रिय और चर्चित है।
इन दोनों विधानसभा क्षेत्रों की प्रमुख पार्टियों के चारों उम्मीदवार स्थानीय भी नहीं है। स्थानीय होने का तात्पर्य है, वहाँ का निवासी होना जहाँ चुनाव हो रहे हैं और जहाँ के मतदाता इन नेताओं को अपना प्रतिनिधि चुनेंगे! निशा सिंघार बरसों से कुक्षी से बाहर हैं, पर जमुनादेवी की भतीजी होने के नाते टिकट की दावेदार हो गईं। मुकामसिंह किराड़े झाबुआ जिले के सोंडवा के रहने वाले हैं। सोनकच्छ के दोनों उम्मीदवार राजेंद्र वर्मा और अर्जुन वर्मा इंदौर में रहते हैं।
(हेमंत पाल)
इंदौर। राजनीति में परिवारवाद का नया अध्याय लिखा जाना शुरू हो गया! प्रदेश के कुक्षी और सोनकच्छ विधानसभा क्षेत्रों के उपचुनाव में भी कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों ने परिवारों को बढ़ावा दिया है। कहीं किसी नेता का बेटा मैदान में है, कहीं पति, कहीं भतीजी तो कहीं बचपन का भाई जैसा दोस्त! खास बात यह कि इनमें से कोई भी उम्मीदवार स्थानीय नहीं है।
कुक्षी से स्व. जमुनादेवी की भतीजी निशा सिंघार को कांग्रेस ने मैदान में उतारा है। वे राजनीति में नया चेहरा है, क्योंकि, 14 साल पहले उनकी शादी गुजरात में हो गई थी। जमुनादेवी के निधन के बाद उनकी राजनीतिक विरासत को संभालने के लिए पार्टी ने उन्हें उम्मीदवार बनाया है। उनके सामने हैं प्रदेश सरकार की राज्यमंत्री रंजना बघेल के पति मुकामसिंह किराड़े। प्रदेश की राजनीति में उनकी पहचान मंत्री पति के रूप में है और इसी योग्यता के चलते पार्टी ने उन्हें उम्मीदवारी सौंपी है। यदि वे रंजना बघेल के पति नहीं होते, तो शायद भाजपा को उनकी राजनीतिक क्षमताओं को अहसास नहीं होता और शायद उन्हें बतौर उम्मीदवार यह महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भी नहीं सौंपी जाती!
सोनकच्छ विधानसभा क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी ने फूलचंद वर्मा के बेटे राजेंद्र वर्मा को अपना उम्मीदवार बनाया है। फूलचंद वर्मा वरिष्ठ नेता हैं और पार्टी में कई महत्वपूर्ण पदों पर काम कर चुके हैं। तय है कि उनकी राजनीति क्षमता का कुछ अंश उनके बेटे में भी होगा, यही सोचकर पार्टी ने राजेंद्र वर्मा पर दांव लगाया है। उनके सामने कांग्रेस ने अर्जुन वर्मा को उम्मीदवार बनाया है। अर्जुन वर्मा का सज्जन वर्मा से कोई सीधा रिश्ता तो नहीं है, पर ये दोनों बचपन के दोस्त हैं। लोग उन्हें सज्जन का भाई ही मानते हैं।
कुक्षी और सोनकच्छ दोनों विधानसभाओं में कांग्रेस और भाजपा ने जिन पर दांव लगाया है, उनमें अर्जुन वर्मा को छोड़कर तीनों उम्मीदवारों का न तो पहले कोई गहरा राजनीतिक अनुभव है और न समाजसेवा का कोई इतिहास उनके साथ जुड़ा है। अर्जुन वर्मा जरूर इंदौर के एमवाय अस्पताल में समाजसेवी के रूप में बरसों से सक्रिय और चर्चित है।
इन दोनों विधानसभा क्षेत्रों की प्रमुख पार्टियों के चारों उम्मीदवार स्थानीय भी नहीं है। स्थानीय होने का तात्पर्य है, वहाँ का निवासी होना जहाँ चुनाव हो रहे हैं और जहाँ के मतदाता इन नेताओं को अपना प्रतिनिधि चुनेंगे! निशा सिंघार बरसों से कुक्षी से बाहर हैं, पर जमुनादेवी की भतीजी होने के नाते टिकट की दावेदार हो गईं। मुकामसिंह किराड़े झाबुआ जिले के सोंडवा के रहने वाले हैं। सोनकच्छ के दोनों उम्मीदवार राजेंद्र वर्मा और अर्जुन वर्मा इंदौर में रहते हैं।
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