Saturday, June 15, 2019

भक्ति संगीत, जीवन और जलोटा


- हेमंत पाल
  संगीत की दुनिया में भक्ति संगीत एक अनोखी विधा है! फ़िल्मी गीतों, गजलों, कव्वाली, पॉप और रेप की तरह भक्ति संगीत की भी अपनी अलग दुनिया है। इस संगीत को आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का एक जरिया माना जाता है! मान्यता है कि जब पूरी तरह डूबकर कोई भजन गाया जाता है, तो भक्ति का भाव सीधे ईश्वर तक पहुँचता है। हिंदी फिल्मों में हमेशा से ही भक्ति संगीत रहा है। करीब सवा सौ साल की फ़िल्मी दुनिया में ईश्वर आराधना के लिए भक्ति संगीत को कब जगह मिली, इसका तो कोई प्रमाण नहीं मिलता! लेकिन, जब भी फिल्म के किरदारों को परेशानी में देखा गया, वे भगवान के सामने या मंदिर में भजन गाते दिखाई देते रहे हैं! लेकिन, हिंदी का भक्ति संगीत अनूप जलोटा के जिक्र के बिना अधूरा है! आज जब भी इस विधा के संगीत की बात होती है, अनूप जलोटा सबसे पहले याद आते हैं। क्योंकि, ये वो गायक है, जो भजन ही नहीं गाते, आवाज इनकी रूह से निकलती हैं! वे सिर्फ गाते नहीं, बल्कि भजनों को जीते भी हैं! वे भक्ति संगीत में ईश्वर को महसूस करते हैं!  
    कहा जाता है कि व्यक्ति का कर्म उसके चेहरे और चरित्र में झलकता हैं! इस नजरिए से देखा जाए, तो अनूप जलोटा के जीवन और विचारों की सकारात्मकता उनके भजनों से उपजती लगती है। भक्ति गायन से उनका सोच सकारात्मक हो गया या उनके अंतर्मन की सकारात्मकता उन्हें भक्ति संगीत की तरफ ले आई, ये कहना मुश्किल है! उनके विचारों का प्रवाह भजनों की तरह बहता सा लगता है! उनका कहना  मैंने अपने जीवन का मकसद 'देना' बना लिया है! 'पाना' तो सब चाहते हैं, असल बात है 'देना' जो कोई नहीं चाहता! मेरी कोशिश है कि जहाँ तक संभव हो, कुछ देते रहना चाहिए फिर वो आपकी कला ही क्यों न हो! यही कारण है कि वे अपने शिष्यों को नियमित रूप से भक्ति गायन की शिक्षा देते हैं! वे इससे कोई अर्थ उपार्जन  भी नहीं करते! 
   गुरू और शिष्य के रिश्तों को लेकर भी अनूप जलोटा का एक अलग ही नजरिया है। उनका कहना है कि दोनों में समर्पण का भाव होना जरुरी है, तभी इस रिश्ते की सार्थकता नजर आती है! गुरू को अपने हुनर का गुरुर नहीं होना चाहिए और शिष्य का समर्पण अपने गुरू के लिए शीश कटाने तक होना चाहिए! उनका ये भी मानना है कि संगीत ही वो मुकाम है, जिसमें गुरू और शिष्य के बीच ज्यादा दूरी नहीं होती! शिष्य और गुरू साथ में गाते हैं और यदि शिष्य काबिल हो, तो उसकी लोकप्रियता गुरू से ज्यादा भी सकती है! 
  अनूप जलोटा को कभी क्रोध नहीं आता! ये बात असंभव जरूर लगती है, लेकिन सही है। वे इसे मनुष्य की कमजोरी मानते हैं! उनका सोच है कि व्यक्ति को क्रोध हमेशा दूसरे की गलती पर ही आता है, खुद की गलती तो वो कभी स्वीकारता नहीं! अनूप जलोटा का विचार है कि दूसरे की गलती पर हमारा क्रोधित होना कहाँ तक ठीक है? हमारे सामने यदि कोई गलती करता है, तो हम गुस्सा होते हैं! ऐसा क्यों किया जाए? बेहतर हो कि हम अपनी गलतियों को खोजें और उनपर पश्चाताप करें, न कि क्रोध! वे नहीं मानते कि उनके भजन गाने से उनके क्रोध पर काबू हुआ है! वे इसे सहज संस्कार से जोड़ते हैं। 
  वे अपने जीवन की उपलब्धियों से संतुष्ट हैं! लेकिन, उन्हें अफ़सोस है कि वे अपने पिता पद्मश्री पुरुषोत्तमदास जलोटा से संगीत की ज्यादा शिक्षा नहीं ले सके! वे भी शास्त्रीय और भक्ति संगीत के गायक थे। पाँच भाई-बहनों में उन्हें ही पिता की तरह संगीत से लगाव था! जब उनके पिता रियाज करते थे, तो वे अकेले ही उनके साथ बैठकर संगीत सीखते थे! लेकिन, 'ऐसी लागी लगन, मीरा हो गई मगन' भजन के लोकप्रिय होने के बाद वे बहुत व्यस्त हो गए और पिता से ज्यादा सीख नहीं सके! संगीत शिक्षा के बारे में अनूप जलोटा का मानना है कि देश के स्कूलों में संगीत की प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य की जाना चाहिए! कम से कम बच्चों को संगीत की 'सरगम' तो सिखाई ही जाए! संगीत के सही आनंद  भी संगीत  प्राथमिक ज्ञान होना जरुरी है। जरुरी इसलिए भी कि नई पीढ़ी बहुत जल्दबाजी में लगती है! उन्हें हर सफलता तुरंत चाहिए! जबकि, संगीत ठहराव मांगता है! जीवन में संगीत की जरूरत इसलिए भी है, क्योंकि संगीत वो विधा है जो विचारों को सकारात्मकता देकर लय में बांधता है। यही कारण है कि मेरे लिए संगीत ही जीवन है।               
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