- हेमंत पाल
मुगले आजम, शोले, दीवार और जंजीर को हिंदी सिनेमा की कालजयी फिल्मों में गिना जाता है! ये अलग-अलग दर्शक वर्ग की वे पसंदीदा फ़िल्में हैं, जिन्हें लोग आज भी देखना चाहते हैं! लेकिन, इन फिल्मों के रीमेक नहीं बनाए जा सकते! क्योंकि, जिस समय-काल में ये फ़िल्में बनी थी, वो आज नहीं है! न तो 'मुगले आजम' की तरह शहंशाहों की सल्तनत है और न 'शोले' की कहानी की तरह कहीं डाकुओं का आतंक है! 'दीवार' और 'जंजीर' कथानक की तरह के एंग्रीमैन किरदार को भी आज के दर्शक पसंद नहीं करेंगे! आशय यह कि फिल्मों की कहानियों का समय-काल के साथ गहरा रिश्ता होता है! दर्शक परदे पर उसी परिवेश की कहानियां देखना पसंद करते हैं, जिसमें वे रहते हैं! समाज में जो चरित्र नहीं है, उसे फिल्मों में उतारा जाना संभव नहीं है। समझा जाता है कि हर चार-पांच साल में फिल्मों कथानक बदल जाते हैं। आज का दौर ऐसी फिल्मों का है, जो सीधे जीवन से जुड़ी होती हैं।
इस वक़्त समाज की चिंताओं वाली ऐसी फ़िल्में बन रही है, जिससे लोग रोजाना रूबरू होते हैं! अब किसी भी फिल्म में सामाजिक क्रांति लाने की बात नहीं होती! लेकिन, फिल्म का अंत दर्शकों के मन को झकझोरकर एक सवाल छोड़ जाता है! आज नए विषयों वाली जो फ़िल्में दर्शकों के दिल में उतरी हैं उनका कथानक रोचक होने के साथ ही जीवन से भी जुड़ा होता है! टॉयलेट : एक प्रेम कथा, हिंदी मीडियम, विकी डोनर, पीकू, बधाई हो बधाई, न्यूटन, बरेली की बर्फी, शुभ मंगल सावधान, दम लगा के हइशा और लिपिस्टिक अंडर माइ बुर्का जैसी फिल्में हैं। कुछ साल पहले क्या कोई सोच सकता था कि कब्ज पर भी फिल्म बनाई जा सकती है? वो भी अमिताभ बच्चन, दीपिका पादुकोण और इरफ़ान जैसे कलाकारों को लेकर। लेकिन, फिल्म 'पीकू' बनी और हिट भी हुई! 80 और 90 के दशक में कमर्शियल सिनेमा में जमीन से जुड़े बुनियादी मसलों के लिए इतनी जगह कहाँ थी? जबकि, आज ऑस्कर के लिए विदेशी फिल्म श्रेणी में नामित भारत की तरफ से भेजी गई फिल्म 'न्यूटन' में राजकुमार राव संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करते हुए बिगड़ी सामाजिक और कानूनी व्यवस्था के खिलाफ खड़े होते हैं।
कोई सोच सकता है कि फ़िल्मकार को 'टॉयलेट : एक प्रेमकथा' बनाने का आईडिया बैतूल की एक सच्ची घटना से आया था! अखबार में छपी एक खबर के बारे में खंगालने के बाद लगा कि समाज में खुले में शौच बेहद गंभीर मुद्दा है। यदि इस मुद्दे को समाधान के साथ दर्शकों के सामने रखा जाए, तभी बात बनेगी! कुछ ऐसा ही मसला फिल्म 'पेडमैन' का है! समाज के इस अतिवर्जित विषय को मुख्यधारा की फिल्म का विषय बनाना आसान नहीं था! लेकिन, हल्के-फुल्के तरह से 'पेडमैन' में जो संदेश दिया गया, वो दर्शकों के गले उतर गया! ऐसे विषय पर फिल्म बनाने को दुस्साहस ही कहा जाएगा! लेकिन, फिल्मकार ने ये रिस्क ली और सफलता भी पाई! क्योंकि, विषय की गंभीरता के साथ उसकी मनोरंजन वैल्यू कम नहीं होना चाहिए। इस बात का ध्यान रखना भी जरूरी है, कि बात इस तरह से कही जाए कि वो लोगों के दिल में उतरे!
'बधाई हो बधाई' को भी वर्जित विषय वाली फिल्म कहा जा सकता है! लेकिन, इसे भी दर्शकों ने हाथों-हाथ लिया! दो जवान बेटों की माँ के फिर माँ बनने की तैयारी आखिर किसके गले उतरेगी? ऐसी स्थिति में परिवार की जिस तरह की सामाजिक उलाहना होती है, वही इस फिल्म का क्लाइमेक्स था! दरअसल, आजकल ऐसे विषय ही पसंद किए जा रहे हैं, जो हमारे आसपास की कहानियां लगे! फिल्म देखकर महसूस हो, कि ऐसा होना असंभव नहीं है। लेकिन, दर्शकों की रूचि बड़ी अजीब होती है! हिंदी में वे जीवन से जुडी फ़िल्में देखना पसंद करते हैं, तो उन्हें हॉलीवुड की ऐसी फ़िल्में अच्छी लगती है, जिसमें एक्शन कूट-कूटकर भरा हो! वे हिंदी फिल्मों में दर्द को मनोरंजन की देखना चाहते हैं! लेकिन, हॉलीवुड की फिल्मों में उन्हें फंतासी पसंद है! यदि ऐसा नहीं होता तो इनफिनिटी वार, ब्लैक पेंथर, एवेंजर्स : एंडगेम और मिशन इम्पॉसिबल जैसी फ़िल्में करोड़ों रुपए का कारोबार नहीं करती! लेकिन, दर्शक जुगाड़ने के लिए हिंदी फिल्मों को हॉलीवुड से मुकाबला करने की जरुरत नहीं! क्योंकि, हिंदी फिल्मों की फंतासी दुनिया कभी हॉलीवुड के स्तर की नहीं हो सकती और हिंदी फिल्मों की संवेदना सीधे दर्शक के दिल तक जाती है!
---------------------------------------------------------------------------
मुगले आजम, शोले, दीवार और जंजीर को हिंदी सिनेमा की कालजयी फिल्मों में गिना जाता है! ये अलग-अलग दर्शक वर्ग की वे पसंदीदा फ़िल्में हैं, जिन्हें लोग आज भी देखना चाहते हैं! लेकिन, इन फिल्मों के रीमेक नहीं बनाए जा सकते! क्योंकि, जिस समय-काल में ये फ़िल्में बनी थी, वो आज नहीं है! न तो 'मुगले आजम' की तरह शहंशाहों की सल्तनत है और न 'शोले' की कहानी की तरह कहीं डाकुओं का आतंक है! 'दीवार' और 'जंजीर' कथानक की तरह के एंग्रीमैन किरदार को भी आज के दर्शक पसंद नहीं करेंगे! आशय यह कि फिल्मों की कहानियों का समय-काल के साथ गहरा रिश्ता होता है! दर्शक परदे पर उसी परिवेश की कहानियां देखना पसंद करते हैं, जिसमें वे रहते हैं! समाज में जो चरित्र नहीं है, उसे फिल्मों में उतारा जाना संभव नहीं है। समझा जाता है कि हर चार-पांच साल में फिल्मों कथानक बदल जाते हैं। आज का दौर ऐसी फिल्मों का है, जो सीधे जीवन से जुड़ी होती हैं।
इस वक़्त समाज की चिंताओं वाली ऐसी फ़िल्में बन रही है, जिससे लोग रोजाना रूबरू होते हैं! अब किसी भी फिल्म में सामाजिक क्रांति लाने की बात नहीं होती! लेकिन, फिल्म का अंत दर्शकों के मन को झकझोरकर एक सवाल छोड़ जाता है! आज नए विषयों वाली जो फ़िल्में दर्शकों के दिल में उतरी हैं उनका कथानक रोचक होने के साथ ही जीवन से भी जुड़ा होता है! टॉयलेट : एक प्रेम कथा, हिंदी मीडियम, विकी डोनर, पीकू, बधाई हो बधाई, न्यूटन, बरेली की बर्फी, शुभ मंगल सावधान, दम लगा के हइशा और लिपिस्टिक अंडर माइ बुर्का जैसी फिल्में हैं। कुछ साल पहले क्या कोई सोच सकता था कि कब्ज पर भी फिल्म बनाई जा सकती है? वो भी अमिताभ बच्चन, दीपिका पादुकोण और इरफ़ान जैसे कलाकारों को लेकर। लेकिन, फिल्म 'पीकू' बनी और हिट भी हुई! 80 और 90 के दशक में कमर्शियल सिनेमा में जमीन से जुड़े बुनियादी मसलों के लिए इतनी जगह कहाँ थी? जबकि, आज ऑस्कर के लिए विदेशी फिल्म श्रेणी में नामित भारत की तरफ से भेजी गई फिल्म 'न्यूटन' में राजकुमार राव संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करते हुए बिगड़ी सामाजिक और कानूनी व्यवस्था के खिलाफ खड़े होते हैं।
कोई सोच सकता है कि फ़िल्मकार को 'टॉयलेट : एक प्रेमकथा' बनाने का आईडिया बैतूल की एक सच्ची घटना से आया था! अखबार में छपी एक खबर के बारे में खंगालने के बाद लगा कि समाज में खुले में शौच बेहद गंभीर मुद्दा है। यदि इस मुद्दे को समाधान के साथ दर्शकों के सामने रखा जाए, तभी बात बनेगी! कुछ ऐसा ही मसला फिल्म 'पेडमैन' का है! समाज के इस अतिवर्जित विषय को मुख्यधारा की फिल्म का विषय बनाना आसान नहीं था! लेकिन, हल्के-फुल्के तरह से 'पेडमैन' में जो संदेश दिया गया, वो दर्शकों के गले उतर गया! ऐसे विषय पर फिल्म बनाने को दुस्साहस ही कहा जाएगा! लेकिन, फिल्मकार ने ये रिस्क ली और सफलता भी पाई! क्योंकि, विषय की गंभीरता के साथ उसकी मनोरंजन वैल्यू कम नहीं होना चाहिए। इस बात का ध्यान रखना भी जरूरी है, कि बात इस तरह से कही जाए कि वो लोगों के दिल में उतरे!
'बधाई हो बधाई' को भी वर्जित विषय वाली फिल्म कहा जा सकता है! लेकिन, इसे भी दर्शकों ने हाथों-हाथ लिया! दो जवान बेटों की माँ के फिर माँ बनने की तैयारी आखिर किसके गले उतरेगी? ऐसी स्थिति में परिवार की जिस तरह की सामाजिक उलाहना होती है, वही इस फिल्म का क्लाइमेक्स था! दरअसल, आजकल ऐसे विषय ही पसंद किए जा रहे हैं, जो हमारे आसपास की कहानियां लगे! फिल्म देखकर महसूस हो, कि ऐसा होना असंभव नहीं है। लेकिन, दर्शकों की रूचि बड़ी अजीब होती है! हिंदी में वे जीवन से जुडी फ़िल्में देखना पसंद करते हैं, तो उन्हें हॉलीवुड की ऐसी फ़िल्में अच्छी लगती है, जिसमें एक्शन कूट-कूटकर भरा हो! वे हिंदी फिल्मों में दर्द को मनोरंजन की देखना चाहते हैं! लेकिन, हॉलीवुड की फिल्मों में उन्हें फंतासी पसंद है! यदि ऐसा नहीं होता तो इनफिनिटी वार, ब्लैक पेंथर, एवेंजर्स : एंडगेम और मिशन इम्पॉसिबल जैसी फ़िल्में करोड़ों रुपए का कारोबार नहीं करती! लेकिन, दर्शक जुगाड़ने के लिए हिंदी फिल्मों को हॉलीवुड से मुकाबला करने की जरुरत नहीं! क्योंकि, हिंदी फिल्मों की फंतासी दुनिया कभी हॉलीवुड के स्तर की नहीं हो सकती और हिंदी फिल्मों की संवेदना सीधे दर्शक के दिल तक जाती है!
---------------------------------------------------------------------------
No comments:
Post a Comment