- हेमंत पाल
दुनियाभर में फिल्मों को मनोरंजन और जनचेतना जगाने का सबसे आसान और सटीक माध्यम माना जाता है। देश की आजादी के पहले बनी फिल्मों और आज की फिल्मों में समयकाल का अंतर है! लेकिन, तब से आज तक जो नहीं बदला वो है फिल्मों में गीत! कभी कहानी साथ देने के लिए तो कभी कहानी को आगे बढ़ाने के लिए बरसों से फिल्मों में गीतों का इस्तेमाल किया जाता रहा है। दुनिया में हिंदी फ़िल्में ही हैं, जिनमें गीतों के बगैर काम नहीं चलता। कहानी में सिचुएशनल के मुताबिक गाने पिरोकर दर्शकों के सामने ऐसा माहौल बनाया जाता है कि वो बंधा रहता है। फ़िल्मी कारोबार में भी गीत-संगीत कमाई का बड़ा जरिया है! ये भी एक कारण है कि फिल्मों में गीत भी अहम् किरदार निभाते हैं। ऐसी बहुत सी फिल्मों के नाम गिनाए जा सकते हैं, जिन्होंने अपने गीतों की वजह से सफलता हांसिल की! लेकिन, कुछ ऐसी फ़िल्में भी आई, जिन्होंने इस प्रथा को तोड़ा! इन फिल्मों के कथानक में गीतों के लिए कोई जगह नहीं थी! इसके बाद भी इन फिल्मों ने सफलता पाई! ये चमत्कार इसलिए हुआ कि इनकी कहानी बहुत प्रभावशाली थी, जिसने दर्शकों को सोचने तक का मौका नहीं दिया।
बॉलीवुड के इतिहास में बिना गीतों वाली पहली फिल्म 'कानून' को माना जाता है, जो 1960 आई थी। इसे बीआर चोपड़ा ने निर्देशित किया था। ये फिल्म कानूनी पैचीदगियों के बीच से एक वकील के दांव-पेंच की कहानी थी, जो हत्यारे को बचा लेता है। इसमें सवाल उठाया गया था कि क्या एक ही अपराध में किसी व्यक्ति को दो बार सजा दी जा सकती है? ये फिल्म इसी सवाल का जवाब ढूंढती है। इस फिल्म में अशोक कुमार ने एक वकील का किरदार निभाया था। बगैर गीतों वाली दूसरी फिल्म थी 'इत्तेफ़ाक़' जिसे 1969 में यश चोपड़ा ने निर्देशित किया था। राजेश खन्ना और नंदा ने इसमें मुख्य भूमिकाएं निभाई थी। यह फिल्म एक रात की कहानी है, जिसमें दर्शक बंधा रहता है। गीतों के बिना भी ये फिल्म पसंद की गई थी। यह फिल्म हत्या से जुड़े एक रहस्य पर आधारित थी, यही कारण था कि दर्शको को फिल्म में गीत न होना खला नहीं।
बरसों बाद श्याम बेनेगल ने 1981 में 'कलयुग' बनाकर इस परम्परा की याद दिलाई थी। इसमें शशि कपूर, राज बब्बर और रेखा मुख्य भूमिकाओं में थे। महाभारत से प्रेरित इस फिल्म में दो व्यावसायिक घरानों की दुश्मनी को नए संदर्भों में फिल्माया गया था। बदले की कहानी पर बनी इस फिल्म में कोई गाना न होने के बावजूद इसे पसंद किया गया था। इसे 'फिल्म फेयर' का सर्वश्रेष्ठ फिल्म (1982) का पुरस्कार भी मिला। इसके अगले साल 1983 में आई कुंदन शाह की कॉमेडी फिल्म 'जाने भी दो यारो' आई जिसमें नसीरुद्दीन शाह, रवि वासवानी, ओमपुरी और सतीश थे। ये एक मर्डर मिस्ट्री थी, जिसने व्यवस्था पर भी करारा व्यंग्य किया था।
बिना गीतों की फिल्म की सबसे बड़ी खासियत होती है पटकथा का कसा होना। यदि फिल्म की कहानी इतनी रोचक है कि वो दर्शकों को बांधकर रख सकती है, तो फिर गीतों का न होना कोई मायने नहीं रखता! इस तरह की अगली फिल्म 1999 में रामगोपाल वर्मा की आई। ये रोमांचक कहानी वाली फिल्म थी 'कौन है!' इसमें मनोज बाजपेयी, सुशांत सिंह और उर्मिला मांतोडकर ने काम किया था। इस फिल्म की पटकथा इतनी रोचक थी, कि दर्शकों को हिलने तक का मौका नहीं मिला था। 2005 में आई संजय लीला भंसाली की फिल्म 'ब्लैक' जिसने भी देखी, उसे पता भी नहीं चला होगा कि फिल्म में कोई गीत नहीं था। अमिताभ बच्चन और रानी मुखर्जी की ये फिल्म एक अंधी और बहरी लड़की और उसके टीचर की कहानी थी। इस फिल्म को कई अवॉर्ड्स भी मिले थे।
इसके अलावा बिना गीतों वाली कुछ और उल्लेखनीय फिल्मों में 2003 में रिलीज हुई 'भूत' थी, जिसका निर्देशन राम गोपाल वर्मा ने किया था। इस फ़िल्म में अजय देवगन, फरदीन खान, उर्मिला मातोंडकर और रेखा थे। ये डरावनी फ़िल्म थी और इसमें एक भी गीत नहीं था। इसी साल आई फिल्म 'डरना मना है' में सैफअली खान, शिल्पा शेट्टी, नाना पाटेकर और सोहेल खान थे। इस फ़िल्म में भी कोई गीत नहीं था, फिर भी यह हिट हुई। 2008 में आई 'ए वेडनेसडे' अपनी कहानी के नयेपन की वजह से सुर्खियों रही थी। फ़िल्म में एक आम आदमी की कहानी थी, जो व्यवस्था से परेशान होकर खुद उससे टक्कर लेता है। 2013 की फिल्म 'द लंचबॉक्स' दो अंजान अधेड़ प्रेमियों की कहानी थी, जो लंच बॉक्स जरिए प्रेम पत्रों का आदान-प्रदान करते हैं। इस फ़िल्म में इरफान खान ने बहुत अच्छी एक्टिंग की थी। ऐसी ही कॉमेडी फिल्म 'भेजा फ्राई' 2007 में आई थी। लेकिन, कमजोर कहानी वाली इस फिल्म को पसंद नहीं किया गया। इसमें विनय पाठक, रजत कपूर और मिलिंद सोमन थे।
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