Saturday, June 13, 2020

सात्विक प्रेम को अल्हड बनने में वक़्त लगा!

- हेमंत पाल

   जीवन में प्रेम का अपना अलग ही अस्तित्व है। प्रेम हर दौर और हालात में अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है। फिल्मों में तो प्रेम कहानी का जरुरी तत्व रहा है। हिंदी फिल्मों के शुरुआती दौर से ही प्रेम को आधार बनाकर फिल्माया गया है। पौराणिक फिल्मों तक में प्रेम का अलग ही पुट रहा है। कई फ़िल्मी कथानकों में सामाजिक कुरीतियों पर चोट करने और सामाजिक सद्भाव का संदेश देने वाली फिल्मों से भी प्रेम का सात्विक रूप उभरा। याद किया जाए तो इस समय-काल की फिल्मों में प्रेम को गीतों के जरिए भी दर्शाया गया। सामाजिक कारणों से तब प्रेम के खुले इज़हार को गलत समझा जाता था, तो नायक और नायिका दूर से ही आंखों से अपने मनोभावों को प्रकट करते थे! लेकिन, कहीं न कहीं जिंदा जरूर रहा! 
   हिंदी फिल्मों के ब्लैक एंड व्हाइट काल में दिलीप कुमार ने प्रेम को दुखांत रूप उभारा। एक असफल प्रेमी के रूप में दिलीप कुमार ने कई कालजयी फ़िल्में दी। ‘अंदाज’ में मेहबूब खान ने दिलीप कुमार के साथ राज कपूर और नरगिस को जोड़कर प्रेम का त्रिकोणीय फार्मूला बनाया, जो बाद में बरसों तक आजमाया जाता रहा! ये फार्मूला इतना हिट रहा कि बाद में इसपर कई फिल्में बनी। इन फिल्मों की ख़ासियत ये थी कि नायिका फिल्म के अंत तक संशय की स्थिति में बनी रहती है। कहानी को इस तरह गढ़ा जाता था कि नायिका की इच्छा को ख़ास तवज्जो नहीं दी जाती थी। इसे उस दौर की सामाजिक परिस्थितियों में औरत को लेकर बनी सोच के रूप में भी समझा जा सकता है। लम्बे समय तक दिलीप कुमार फिल्मों में दुखांत प्रेम के प्रतीक रहे। ये 50 के दशक का वो दौर था, जब देश आजाद हुआ था। आजादी के जश्न में जब परदे पर भी उल्लास का माहौल बनना था, लेकिन दुखांत प्रेम से गमगीन माहौल बनाया गया। दिलीप कुमार ने अपनी फिल्मों में विरह और तड़फ़ से प्रेम को शिद्दत से उभारा! 
   उधर, राज कपूर ने अपनी फिल्म ‘बरसात’ में प्रेम की अलग ही तड़प को दर्शाया। लेकिन, जल्दी ही ये अंदाज बदल दिया। उन्होंने ‘आवारा’ में प्रेम का अलग ही आवेग दिखाया। वायलिन लिए राज कपूर के हाथ में झूलती नरगिस दोनों के बीच उन्मुक्त प्रेम का प्रतीक बन गईं। दूर से प्रेम का इजहार करने के लिए मजबूर नायक-नायिका के आलिंगनबद्ध होने का सिलसिला इसी फिल्म से शुरू हुआ। राज कपूर ने अपनी अदाकारी और खुद की बनाई फिल्मों में उसे आम आदमी की पारिवारिक मज़बूरी और भावनाओं से जोड़कर परोसा। अपनी सबसे प्रयोगधर्मी फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ की असफलता से उबरने के लिए उन्होंने ‘बॉबी’ में अल्हड प्रेम की ऐसी धारा बहाई कि बंदिश, दुश्मनी और भेदभाव को किनारे करके प्रेम करने की नई धारा बह निकली। 
    राज कपूर के बाद देव आनंद ने प्रेम को रुमानियत के साथ उभारा! शुरु की फिल्मों में प्रेम में असफल नायक की भूमिका के बाद देव आनंद ने अपना अंदाज बदला और मस्तमौला अंदाज में प्रेम को पीड़ा से मुक्त करके उसे मस्ती का ऐसा रूप दिया, जो देव आनंद स्टाइल में चर्चित हो गया। एक ख़ास बात ये भी रही कि उनकी फिल्मों की नायिकाओं को भी अपनी भावनाएं व्यक्त करने का पूरा मौका मिला। वे पीड़ा, अवसाद, विरक्ति और उपेक्षा के बंधन से बाहर आकर खिलखिलाती दिखाई देती थीं। खूबसुरत मधुबाला का बिंदास अंदाज और नूतन के अभिनय का जो निष्णात रूप देव आनंद के साथ नजर आता था, वो और किसी के साथ नहीं दिखा। विमल राय ने ‘देवदास’ में प्रेम का अलग ही रूप दिखाया, जो फिल्म इतिहास में मील का पत्थर बन गया। लेकिन, इस सच्चाई को कोई नकार नहीं सकता कि फिल्मों में ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी और बड़े-छोटे के भेदभाव से नायक-नायिका का प्रेम सबसे ऊपर रहा। चंद फिल्मों को छोड़कर देखा जाए तो अधिकांश हिंदी फिल्मों में प्रेम ही जीता है। 
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