मध्यप्रदेश की दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों कांग्रेस और भाजपा ने उपचुनाव के लिए कमर कस ली है। जहाँ ये चुनाव होना है, वहां के माहौल में राजनीतिक गरमाहट को महसूस भी किया जाने लगा! एक-दूसरे के पाले में घुसकर तोड़फोड़ किए जाने की भी ख़बरें हैं। लेकिन, उपचुनाव की तैयारियों के मामले में अभी भाजपा का पलड़ा भारी है। क्योंकि, उसके लगभग सारे उम्मीदवार पहले से तय हैं। उसे तो अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं के संभावित असंतोष को दूर करके उन्हें मुकाबले के लिए तैयार करना है। उसके लिए ये चुनौती बहुत बड़ी है! जबकि, कांग्रेस के सामने उम्मीदवारों का चयन बड़ा सवाल है। इसके साथ ही उसे ऐसी रणनीति बनाने की भी जरुरत है, जो भाजपा उम्मीदवारों को कमजोर करे! इस नजरिए से देखा जाए तो मुश्किल दोनों के सामने है। भाजपा का संगठन मजबूत है, पर उम्मीदवारों पर दलबदल का दाग है। जबकि, कांग्रेस विपक्ष में है और उसका संगठन बिखरा सा है!
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- हेमंत पाल
इस बार मध्यप्रदेश में होने वाले ये चुनाव सिर्फ राजनीतिक ताकत दिखाने का दंगल नहीं होगा, बल्कि ये चुनाव प्रदेश में भविष्य की राजनीति भी तय करेंगे! वास्तव में तो सबसे बड़ी चुनौती ज्योतिरादित्य सिंधिया और भाजपा के लिए है! इन उपचुनावों के जरिए सिंधिया को ये भी साबित करना है कि ग्वालियर-चंबल इलाके में उनकी तूती बोलती है और कांग्रेस के बगैर भी उस ताकत को कोई मात नहीं दे सकता! इस इलाके में भाजपा जो सीटें जीतेगी, वो भाजपा के नहीं, बल्कि सिंधिया के खाते में जाएंगी। भाजपा भी इससे अनजान नहीं है, पर यदि भाजपा ने इसे आसानी से स्वीकार लिया, तो उसके लिए ये हमेशा की मुसीबत बन सकती है। फिलहाल तो ये भाजपा की मज़बूरी है कि वो उस 'महाराज' को सर-माथे पर बैठाए जो हर चुनाव में उसके निशाने पर रहे हैं! लेकिन, यदि ग्वालियर-चंबल इलाके की 16 सीटों में से सिंधिया के बागियों ने ज्यादा सीटें जीत ली, तो राजनीति के शेयर बाजार में इस इलाके के भाजपा नेताओं के बाजार भाव जमीन पर आ जाएंगे। पर, वे कुछ कर भी नहीं सकते, सिवाए पार्टी हाईकमान का आदेश मानने के। ग्वालियर अंचल की जिन 16 विधानसभा सीटों पर चुनाव होना है, उनमें 15 सीटों पर तो बागी ही चुनाव लड़ेंगे! पर, जौरा विधानसभा का भाजपा उम्मीदवार अभी तय नहीं है। इस सीट पर विधायक रहे कांग्रेस विधायक स्व बनवारीलाल शर्मा भी सिंधिया खेमे के थे, इसलिए भाजपा को इस सीट के उम्मीदवार के लिए भी सिंधिया की बात मानना पड़ सकती है।
भाजपा हमेशा इलेक्शन मोड़ पर रहती है, इसलिए उसके लिए चुनाव की तैयारी मुश्किल नहीं है। लेकिन, उसके सामने 22 सीटों पर उम्मीदवारों और अपने कार्यकर्ताओं के बीच तालमेल बैठाना मुश्किल है। डेढ़ साल पहले जिन कार्यकर्ताओं ने जिस नेता के खिलाफ चुनाव लड़ा, अब उन्हें उसके साथ झंडा उठाकर चलना होगा, जो सहज बात नहीं है। इसके अलावा जो नेता कांग्रेस से बगावत करके भाजपा आए हैं, उनके साथ आए कार्यकर्ताओं का समन्वय भी कठिन काम है। उम्मीदवार के लिए वो लोग महत्वपूर्ण हो सकते हैं जो उसके कहने पर पार्टी बदलकर भाजपा में आ गए! किंतु, भाजपा अपने उन कार्यकर्ताओं और नेताओं को तवज्जो देगी, जो बरसों से उसके साथ खड़े हैं। ऐसी स्थिति में दोनों के बीच खींचतान न हो, ये भी ध्यान रखना होगा। क्योंकि, दोनों पार्टियों के चुनाव लड़ने का अपना अलग तरीका है, जो विवाद का कारण भी बन सकता है। भाजपा के लिए दोनों ही महत्वपूर्ण हैं। किसी को भी किनारे करना उसके लिए परेशानी खड़ी कर सकता है। भाजपा को उन बड़े नेताओं के अहम् का भी ध्यान रखना होगा जिनका इलाके में अपना वर्चस्व रहा है, पर कांग्रेस से आए लोगों के कारण वे हाशिए पर आ गए हैं।
जहाँ तक कांग्रेस की बात है, तो उसके पास दमदारी से चुनाव लड़ने के अलावा और कोई और विकल्प नहीं बचा। उसे हर सीट पर चुनाव जीतने वाले उम्मीदवार की खोज तो करना ही है, साथ ही चुनावी रणनीति भी ऐसी बनाना है, जो भाजपा उम्मीदवार को पटखनी दे सके। कांग्रेस के पास अब ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसा कोई जादुई चेहरा नहीं है, जिससे चमत्कार की उम्मीद की जा सके! पार्टी का सारा दारोमदार कमलनाथ और दिग्विजय सिंह पर है। ये दोनों कितने असरदार साबित होंगे, फिलहाल इस बारे में कोई दावा नहीं किया जा सकता। क्योंकि, कमलनाथ कभी जमीनी नेता नहीं रहे और न उन्होंने कभी ऐसी कोई कोशिश की है। दूसरे दमदार नेता दिग्विजय सिंह हैं, जिनका ग्वालियर-चंबल इलाके में अब ज्यादा प्रभाव नहीं रहा! कांग्रेस उम्मीदवार के चेहरे और अपनी चुनावी रणनीति से ही चमत्कार कर सकती है! पर कांग्रेस को एड़ी से चोटी तक का जोर लगाना होगा। उसे उन 22 विधायकों की बगावत को भी लोगों को लगातार याद दिलाना होगा! साथ ही उस आधार पर अपने लिए वोट का भी इंतजाम करना है। ये भी याद रखना है कि उनके पीछे पूरी तैयारी से भाजपा खड़ी है!
चुनावी तैयारी में कांग्रेस अभी तो भाजपा के मुकाबले पिछड़ती ही नजर आ रही है। इसका एक कारण ये भी है कि वो अभी तक सरकार गिरने और बगावत की हताशा से उबर नहीं सकी। कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा भी अभी कमजोर होने के साथ खेमों में बंटा है। आज भले ही सबसे बड़े खेमेबाज सिंधिया कांग्रेस में नहीं हैं, फिर भी कांग्रेस पार्टी में चुनावी तैयारी दम नहीं पकड़ रही! बात सिर्फ उम्मीदवार के चयन की नहीं है, चुनाव की बाकी तैयारी भी नजर नहीं आ रही! इससे पहले झाबुआ उपचुनाव के लिए कांग्रेस ने जो किया था, वो उस समय की बात है जब वह सरकार में थी! सत्ता में होते हुए उपचुनाव लड़ना और विपक्ष के पाले से चुनाव लड़ने में फर्क है। सामने 24 सीटों की चुनौती खड़ी है, तो इसके लिए कमजोर संगठन आड़े आ रहा है। शक नहीं कि कांग्रेस की इस हताशा ने भाजपा का हौसला बढ़ा दिया है। पर, इसका फ़ायदा वो कैसे उठाएगी, ये नहीं कहा जा सकता!
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