Sunday, December 26, 2021

समझ या मुद्दों से दूर हैं, ये गुदगुदाती फिल्में

- हेमंत पाल

   हिंदी सिनेमा के हर दौर में कॉमेडी फिल्में बनती रही हैं। लेकिन, समय के साथ इनका स्टाइल और पैटर्न बदलता रहा। ऐसी फिल्मों की कामयाबी इस बात निर्भर होती है, कि उसे दर्शक अपनी जिंदगी और उसकी उलझनों के कितना करीब पाते हैं। जो फ़िल्में ऐसा कर पाती है, वही दर्शकों का दिल भी जीतती है। 1958 में बनी देश की पहली कॉमेडी फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' को माना जा सकता है। ये एक म्यूजिकल कॉमेडी  फिल्म थी, जिसके गीतों के बोल से भी खूबसूरत हास्य टपकता था। अशोक कुमार ने अपनी गंभीर अभिनेता की छवि को इसी फिल्म से तोड़ा था। इसके बाद समय-समय पर कॉमेडी फिल्में दर्शकों को गुदगुदाती रहीं। लेकिन, समय के साथ कॉमेडी का ट्रेंड बदला और दर्शकों की पसंद भी! 'चलती का नाम गाड़ी' में किशोर कुमार के साथ उनके दो भाई अशोक कुमार और अनूप कुमार ने भी काम किया था। यह फिल्‍म अपनी शैली की पहली ऐसी फिल्म थी, जिसके विषय में ही हास्य समाहित था। इस फिल्म के पहले भी फिल्मों में कॉमेडी होती थी, पर पूरी तरह कॉमेडी फिल्में नहीं बनी। यह अपनी तरह का पहला प्रयोग था, जो सफल रहा! इस फिल्म को कॉमेडी फिल्मों का ट्रेंड सेटर कहा जाता है। इसके बाद 1962 में आई फिल्म ‘हाफ टिकट’ में भी किशोर कुमार की एक्टिंग को लोग आज भी याद करते हैं।
    1968 में आई 'पड़ोसन' का कथानक भी हंसी-मजाक से भरा था। इस फिल्म के हर पात्र ने अपनी सहज कॉमेडी से दर्शकों को हंसने पर मजबूर किया था। इस फिल्म में नायक के पड़ौसी लड़की को प्रभावित करने और उससे प्रेम करने की कोशिश को बेहद चटपटे अंदाज में फिल्माया गया था। गाँव के गेटअप वाले भोले-भाले (सुनील दत्त) का दिल उनकी पड़ोसन बिंदू (सायरा बानो) पर आ जाता है। बिंदू को संगीत का शौक है, उसे संगीत सिखाने मास्टर बने थे महमूद, रोज आते हैं। 'पड़ोसन' का असली मजा किशोर कुमार और महमूद की संगीतमय जुगलबंदी था। किशोर और महमूद की खींचा-तानी 'एक चतुर नार ...' और किशोर के गाए 'मेरे सामने वाली खिड़की में...' की मिठास भुला पाना मुश्किल है। इस फिल्म के गाने ही इसकी सबसे बड़ी खासियत रहे। इसके संगीत में भी शरारत थी, जो आरडी बर्मन की देन था। 
    1972 में आई 'बॉम्बे टू गोवा' अमिताभ बच्चन के अभिनय वाली पहली फिल्म थी। ये फिल्म एक ऐसी लड़की की कहानी है, जो एक हत्या की गवाह होने के बाद कश्मकश में है। बस में उसकी मुलाकात कंडक्टर अमिताभ बच्चन से होती है। यह एक ऐसी मजेदार सवारी बस होती है, जो भारत के विभिन्न धर्मों और मान्यताओं के लोगों को एक साथ लेकर शुरू होती है। अमिताभ बच्चन के साथ एक रोमांचक सफर और शानदार गानों के साथ यह फिल्म काफी पसंद की गई! ऋषिकेश मुखर्जी की 1975 में आई 'चुपके-चुपके' को सिचुएशनल कॉमेडी की पहली फिल्म माना जा सकता है। इस फिल्म को देखते वक्त तो दर्शक हंसते ही हैं, बाद में भी फिल्म के दृश्य उन्हें गुदगुदाते हैं। फिल्म में धर्मेंद्र का एक नया रूप दिखाई दिया था। प्रो परिमल त्रिपाठी बने धर्मेंद्र अपनी स्टाईल से दर्शकों को हंसाते हैं। फिल्म का हास्य तब चरम पर पहुंचता है, जब अंग्रेजी के प्रो सुकुमार सिन्हा (अमिताभ बच्चन) परिमल त्रिपाठी बनकर जया बच्चन को बॉटनी पढ़ाते हैं। 
    ऋषिकेश मुखर्जी की 1979 की फिल्म 'गोलमाल' को भी बेस्ट कॉमेडी फिल्म माना जाता है। फिल्म की कॉमेडी उस पुरानी पीढ़ी पर है, जो रूढ़ियों और बासी परंपराओं की लकीर पीट रही है। इसमें अमोल पालेकर का ऐसा डबल रोल है, जिसने दर्शकों को हंसाता नहीं, गुदगुदाया भी है। इस फिल्म में अमोल पालेकर ने पहली बार अपनी संजीदा पहचान से बाहर निकलकर कॉमेडी की थी। उन्होंने इस फिल्म में दो किरदार निभाए थे। राम प्रसाद और लक्ष्मण प्रसाद की यह भूमिकाएं अलग ही ढंग से दर्शकों को हंसातीं। सई परांजपे की 1981 में आई 'चश्मे बद्दूर' भी ऐसी फिल्म थी, जिसे आज भी याद किया जाता है। ये फिल्म तीन बेरोजगार लड़कों की कहानी है, जो नौकरी और छोकरी की तलाश में हैं। नायक-नायिका की भूमिका में फारूक शेख और दीप्ति नवल की जोड़ी भी खूब जमी है। इसके साथ ही सई परांजपे की 'कथा' भी अलग तरह की कॉमेडी फिल्म थी। गुलजार जैसे गंभीर फिल्मकार ने भी 1982 में 'अंगूर' बनाकर अपनी नई पहचान से दर्शकों को अवगत कराया था। यह कॉमेडी अंग्रेजी प्ले 'कॉमेडी ऑफ इरर' पर आधारित थी। फिल्म का हास्य दो जुड़वां जोड़ियों के हमशक्ल होने की वजह से गढ़ा गया था। यहां एक जैसे चेहरे वाले दो आदमियों की दो जोड़ियां होती हैं। संजीव कुमार नौकर बने देवेन वर्मा के साथ उसी शहर में पहुंच जाते हैं, जहां पहले से ही संजीव कुमार और देवेन वर्मा की एक जोड़ी पहले से रह रही होती है। 
   1983 की फिल्म 'जाने भी दो यारों' राजनीति, मीडिया और नौकरशाही की बुराइयों पर एक सटीक व्यंग्य था। ये कॉमेडी सिनेमा की कालजयी फिल्म रही। इसका 'महाभारत' वाला क्लाइमैक्स हास्य का पिटारा था। फिल्म महज कॉमेडी नहीं थी, इसका हास्य का रंग अलग ही था। बासु चटर्जी को भी सहज हास्य फिल्मों के लिए पहचाना जाता है। उन्होंने छोटी सी बात, हमारी बहू अलका और 'खट्टा-मीठा' जैसी यादगार फ़िल्में बनाई। लेकिन, 'चमेली की शादी' की कहानी पक्के अखाड़े बाज पहलवान चरणदास (अनिल कपूर) और कल्लूमल की बेटी चमेली (अमृता सिंह) के बीच इश्कबाजी की थी। फिल्म के गाने और फिल्मांकन गुदगुदाने वाला था। बासु चटर्जी की 'छोटी-सी बात' को मासूम कॉमेडी फिल्म कहा जाता है। फिल्म की कहानी अमोल पालेकर की है, जो प्यार तो विद्या सिन्हा से करता है लेकिन कभी उसे बता नहीं पाता। फिर उसकी जिंदगी में अशोक कुमार आते हैं, जो उसे अपना प्यार पाने के नुस्खे सिखाते हैं।
    'हेराफेरी' प्रियदर्शन की ऐसी कॉमेड़ी फिल्म थी, जिसने 'बाबूराव आप्टे' की भूमिका से परेश रावल का कद इतना ऊंचा उठा कि कॉमिडी में वह ब्रांड बन गए। इसी फिल्म ने अक्षय कुमार की कॉमिक टाइमिंग से परिचित करवाया। 2000 में परदे पर आई प्रियदर्शन की फिल्म 'हेराफेरी' नए दौर की कॉमेडी को लेकर ट्रेंड सेटर फिल्म कही जा सकती है। इस फिल्म के बाद फिल्मकारों को जैसे कॉमेडी फिल्म बनाने का कोई नुस्खा मिल गया। प्रियदर्शन ने भी इसके बाद इस शैली की कई फिल्में बनाई। फिल्म में अक्षय कुमार, परेश रावल और सुनील शेट्टी मुख्य भूमिका में हैं। फिल्म का हास्य नौसिखए लोगों द्वारा किडनैपिंग का एक अधकचरा प्लान बनाकर पैसे कमाने की मानसिकता से उपजता है। एक क्लासिक 'हेराफेरी' के बाद यहां भी 'हंगामा', 'हलचल', 'गरम मसाला', 'भागमभाग', 'ढोल' और 'दे दना दन' जैसी औसत या खराब फिल्मों की लंबी कतार है। 
   निर्देशक दिबाकर बनर्जी की पहली फिल्म 'खोसला का घोंसला' हिंदी सिनेमा की मॉडर्न क्लासिक कही जाती है। इस फिल्म में सिचुएशनल कॉमेडी है। दर्शकों को लगता है कि फिल्म का कथानक उनकी जिंदगी से कतरनों से गढ़ा गया है। दिबाकर बैनर्जी की यह फिल्म सिनेमा में ऋषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी और सई परांजपे की परंपरा को आगे बढ़ाती है। 1994 में आई 'अंदाज अपना अपना' उस दौर में आई थी, जब कॉमेडी फिल्में लगभग बंद हो गई थीं। राजकुमार संतोषी की यह फिल्म अपने अंदाज और कॉमेडी की परफेक्ट टाइमिंग से दर्शकों को हंसाती है। 2003 में आई फिल्म ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ एक बेहतरीन कॉमेडी फिल्म थी। इस फिल्म में संजय दत्त और अरशद वारसी की एक्टिंग को लोग आज भी याद करते हैं। तीन साल बाद 2006 में इसका सीक्वल 'लगे रहो मुन्नाभाई' भी आया जो खूब चला!
   अनीस बज्मी की 2005 की फिल्म 'नो एंट्री' का हास्य शादी के बाद बनने वाले अफेयर की वजह से शुरू होता है। फिल्म के पात्र अफेयर तो कर लेते हैं, पर उसे सही तरीके से हैंडल न कर पाने की वजह से उनकी हालत बेचारों जैसी हो जाती हैं। 'क्या कूल हैं हम' एक सेक्स कॉमेडी फिल्म थी। इसे पहली सेक्स कॉमेडी फिल्म भी कहा जाता है। फिल्म का हास्य द्विअर्थी संवादों से रचा गया था। फिल्म में द्विअर्थी स्टाईल वाले जो संवाद छुपकर बोले जाते थे, इस फिल्‍म में उनका सरेआम प्रयोग हुआ। फिल्म के कई दृश्य वाकई हास्य पैदा करते हैं। युवाओं के बीच यह फिल्म खूब लोकप्रिय हुई। पंकज पाराशर की 'पीछा करो' एक बेहतरीन हास्य फिल्म थी, लेकिन, वो दर्शकों की कसौटी पर खरी नहीं उतरी। पंकज आडवाणी की रुकी फिल्म 'उर्फ प्रोफेसर' को कॉमेडी क्लासिक माना जाता है। कमल हासन की पुष्पक, मुम्बई एक्सप्रेस और 'चाची 420' भी पसंद की जाने वाली कॉमेडी   फ़िल्में हैं। 
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निगम-मंडलों में राजनीतिक पुनर्वास के पीछे तीन कारण!

 - हेमंत पाल
    
     ई महीने के लम्बे इंतजार के बाद मुख्यमंत्री ने प्रदेश के निगम, मंडलों और प्राधिकरणों के अध्यक्षों, उपाध्यक्षों और कुछ विकास प्राधिकरणों की घोषणा कर दी। इसमें 25 अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और प्राधिकरण में तैनाती की गई है। नियुक्तियों की पूरी सूची में सिंधिया समर्थकों की भरमार है, जो स्वाभाविक भी है। क्योंकि, जब ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस से विद्रोह किया था, तब उनके साथ भाजपा में आने वालों को सम्मानजनक पद देने का वादा लिया गया था। जो जीते, उन्हें मंत्री बना दिया गया और जो हार गए, उनका राजनीतिक पुनर्वास अब निगम, मंडल के जरिए किया गया है। सिंधिया इसके लिए लम्बे समय से सक्रिय थे और अंततः उन्होंने अपने लोगों को कुर्सियां दिला ही दी। लेकिन, आज घोषित निगम, मंडलों के अध्यक्षों और उपाध्यक्षों और प्राधिकरण अध्यक्ष के नाम में कुछ नाम चौंकाने वाले हैं। इन नाम की घोषणा से कई भाजपा नेताओं के हाथ के तोते उड़ गए।   
    घोषित की गई इस सूची का एक स्पष्ट संकेत है, कि इसमें तीन तरह के लोगों का ही ध्यान रखा गया। एक तो सिंधिया समर्थकों का, दूसरे नंबर पर वे संगठन मंत्री रहे, जिन्हें पद से हटाया गया था। राजनीतिक पुनर्वास में तीसरे नंबर पर वे लोग रहे, जिन्हें पार्टी के संगठन में जगह नहीं मिल सकी थी। संगठन मंत्रियों के बारे में कहा गया था कि राष्ट्रीय सह संगठन महामंत्री शिव प्रकाश ने शिकायतों के बाद संगठन मंत्रियों को हटाया था। आजकल उनका ठिकाना भोपाल में ही है। इस घटना के बाद इनके पुनर्वास का अंदाजा नहीं था, पर मुख्यमंत्री ने इन्हें निगम, मंडलों और प्राधिकरणों की सूची में शामिल करके सबको चौंका दिया। भाजपा के अंदरखाने की ख़बरें बताती है कि ये सिर्फ मुख्यमंत्री के चाहने से ही हुआ है।  
    निगम-मंडलों में ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ भाजपा में आए लोगों को प्राथमिकता दी गई। शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने निगम-मंडलों में बहुप्रतीक्षित नियुक्तियों की घोषणा तो कर दी, पर इसने कई मूल भाजपा नेताओं को निराश कर दिया। विधानसभा उपचुनाव में जनता से नकारे गए इमरती देवी, रघुराज कंसाना, गिर्राज दंडोतिया और एंदल सिंह कंसाना को यहाँ उपकृत किया गया है। पिछले साल राज्यसभा चुनावों में हार का सामना करने वाले विनोद गोटिया को भी कुर्सी सौंपी गई। पिछले साल मार्च में सत्ता विद्रोह हुआ था। उसके बाद कोरोनाकाल शुरू हो गया। लेकिन, इस बीच भाजपा की सरकार बनाने के मददगार नेताओं को हाशिए पर रख दिया गया था। लेकिन, ज्योतिरादित्य सिंधिया लगातार अपने समर्थकों के पुनर्वास में लगे रहे। कई बार लगा कि आज या कल में ही घोषणा होगी, पर मसला लगातार टलता रहा। अब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सरकार ने इन पर ध्यान दिया और कुछ को खुश और कुछ को दुखी कर दिया है। 
     पूर्व मंत्री और ज्योतिरादित्य सिंधिया की घनघोर समर्थक इमरती देवी को मध्यप्रदेश लघु उद्योग निगम के अध्यक्ष जैसा बड़ा पद दिया गया। एंदल सिंह कंसाना स्टेट एग्रो इंडस्ट्रीज डेवलपमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड के अध्यक्ष नियुक्त किए गए। रघुराज कंसाना मध्य प्रदेश पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक वित्त विकास निगम के अध्यक्ष होंगे और अजय यादव को उपाध्यक्ष बनाया गया। राज्यसभा चुनाव में हारे विनोद गोटिया को पर्यटन विकास निगम का अध्यक्ष और नरेंद्र सिंह तोमर को उपाध्यक्ष पद दिया गया। कांग्रेस सरकार में मंत्री रहे गिर्राज दंडोतिया को मध्य प्रदेश ऊर्जा विकास निगम का अध्यक्ष बनाया गया। जबकि, जसवंत जाटव को राज्य पशुधन एवं कुक्कुट विकास निगम का अध्यक्ष का पद दिया गया। 
     जयपाल चावड़ा को इंदौर विकास प्राधिकरण का अध्यक्ष बनाया गया है। ध्यान देने वाली बात यह कि जयपाल सिंह चावड़ा इंदौर के नहीं, बल्कि देवास के निवासी हैं! पर, उन्हें इंदौर विकास प्राधिकरण की कुर्सी सौंपी गई। ये नियुक्ति इसलिए भी चौंकाने वाली है कि इंदौर के नेताओं को हाशिए पर रखकर ये नियुक्ति हुई। रणवीर जाटव को संत रविदास मध्यप्रदेश हस्तशिल्प एवं हथकरघा विकास निगम का अध्यक्ष बनाया गया है। पूर्व संगठन मंत्री शैलेंद्र बरुआ अब पाठ्य पुस्तक निगम के अध्यक्ष होंगे और प्रहलाद भारती उपाध्यक्ष। मुन्नालाल गोयल राज्य बीज एवं फार्म विकास निगम के अध्यक्ष और राजकुमार कुशवाहा को उपाध्यक्ष बनाया गया है। 
    सावन सोनकर को अध्यक्ष राज्य सहकारी अनुसूचित जाति वित्त विकास निगम और रमेश खटीक को इसी निगम में उपाध्यक्ष बनाया है। जबकि, नागरिक आपूर्ति निगम में उपाध्यक्ष राजेश अग्रवाल को बनाया गया। राजेश अग्रवाल बदनावर के नेता हैं और ये कई बार विधायक का टिकट मांग चुके हैं। लेकिन, इन्हें कभी नहीं मिला। एक बार इन्होंने पार्टी से विद्रोह करके निर्दलीय चुनाव भी लड़ा था। राजवर्धन दत्तीगांव के उपचुनाव के समय उन्हें मुख्यमंत्री समेत कई भाजपा नेताओं ने आश्वस्त किया था कि उन्हें कोई बड़ा पद दिया जाएगा। उसी का नतीजा है कि उन्हें निगम में उपाध्यक्ष बनाया गया।
    सावन सोनकर के नाम का अनुमान किसी को अनुमान नहीं था। वास्तव में उन्हें भी सिंधिया समर्थकों की सूची में शामिल माना जा सकता है। बताते हैं कि सांवेर में तुलसी सिलावट के उपचुनाव में सावन सोनकर और राजेश सोनकर ने उनकी मदद की थी। राजेश सोनकर को तो जिला भाजपा अध्यक्ष बना दिया गया, अब सावन सोनकर को उसी प्रतिबद्धता का इनाम मिला है। इससे स्पष्ट संदेश जाता है, कि भाजपा में पार्टी के प्रति प्रतिबद्धता से ज्यादा बड़े नेताओं से निकटता फायदा देती है। उपचुनाव हारे सिंधिया जिन समर्थकों को इस सूची में जगह दी गई उनमें राज्य बीज और फार्म विकास निगम में अध्यक्ष बनाए गए मुन्नालाल गोयल भी हैं। राजकुमार कुशवाहा को इसी निगम में उपाध्यक्ष बनाया गया। पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक वित्त विकास निगम में रघुराज कंसाना को अध्यक्ष और अजय यादव को उपाध्यक्ष बनाया गया। 
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Friday, December 17, 2021

तांगे के पहियों पर सवार फिल्मों का वो जमाना

- हेमंत पाल

   सिनेमा का स्वरूप सवा सौ साल में पूरी तरह बदल गया। यह बदलाव केवल फिल्मों के प्रदर्शन तक सीमित नहीं रहा। बल्कि, फिल्मों की पृष्ठभूमि और फिल्मों में दिखाए जाने वाले दृश्यों में भी दिखाई देने लगा है। आने-ने के जो साधन पहले की फिल्मों में दिखाई देते थे, वे भी बदल गए। इतने बदले कि दृश्य से ही गायब हो गए। ऐसा ही एक साधन तांगा, जो लम्बे समय तक फिल्मों में कहानी का हिस्सा बना रहा, पर आज कहीं दिखाई नहीं देता। ब्लैक एंड व्हाइट से लगाकर कई हिट रंगीन फिल्मों तक में दर्शकों ने फ़िल्म के कई दृश्यों और गीतों में तांगा देखा होगा! पर, कई सालों से ये अनोखा साधन गायब हो गया। तांगे पर फिल्मों के कई रोमांटिक दृश्य और गाने फिल्माए गए थे। यहाँ तक कि लड़ाई के दृश्यों में भी फिल्मकारों ने तांगे का उपयोग किया, पर आज इसकी जगह कार रेस ने ले ली। कभी फिल्मों की शान रहने वाला तांगा अब परदे के साथ ही सड़कों से भी नदारद हो गया। पहले जब फ़िल्में पेटियों में बंद होकर सिनेमाघर आती थी, तब भी तांगा ही इन्हें लेकर आता रहा, पर आज ये सब नहीं होता!      
      सिनेमा का दौर कोई भी रहा हो, इक्का या तांगा दिखाई दे ही जाता था। ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने में तो तांगा ही आने-जाने का साधन हुआ करता था। फिल्म के परदे के अलावा रियल लाइफ में फिल्मी कलाकारों की दिलचस्पी इक्के की सवारी में देखने को मिलती रही। ज्यादा दिन नहीं हुए जब देश के विभिन्न हिस्सों में इक्को और तांगों का बोलबाला था। उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में अगर इक्के खूब चलते थे, तो पश्चिमी क्षेत्र में सवारी के नाम पर तांगे देखे जा सकते थे। लखनऊ में तांगे और इक्के दोनों का प्रचलन था और मुंबई की विक्टोरिया भी तांगे का ही एक आलीशान रूप था। असल जिंदगी मे भी कभी लखनवी तांगे फिल्म अभिनेताओं को इतने पसंद थे कि जब कभी उनको लखनऊ आने का मौका मिलता, वे उन पर सफर करने का मौका नहीं चूकते। मोतीलाल, कुंदनलाल सहगल, किशोर साहू और प्रेम अदीब जैसे दिग्गज कलाकार लखनऊ आने पर आने-जाने के लिए हमेशा इन इक्कों-तांगों का ही इस्तेमाल करते थे। 
      उस जमाने के प्रसिद्ध कथाकार अमृतलाल नागर इस दिशा में उनके मार्गदर्शक हुआ करते थे। मुंबई प्रवास के दौरान उन्होंने इतने लोगों को अपना प्रियजन बना रखा था, कि जब भी किसी को मौका मिलता, वह नागर जी का सानिध्य पाने लखनऊ पहुंच जाता था। नागरजी भी उसे भांग के गोलों के साथ लखनऊ की गली-कूचों की परिक्रमा कराने में पीछे नहीं रहते! ऐसे मौकों पर नागरजी के सहायक होते थे, संवाद लेखक ब्रजेंद्र गौड़ के बड़े भाई धर्मेंद्र गौड। नागर जी के साथ ही धर्मेंद्र गौड ने भी अपना काफी समय मुंबई में बिताया था और उस जमाने के करीब सभी कलाकारों के साथ व्यक्तिगत दोस्ती थी। उनका फोटो-अल्बम इस बात की गवाही देता था, कि उन्होंने कितनी फिल्मी हस्तियों को तांगे की सवारी कराई। सुनील दत्त ने भी इस परंपरा को दमखम के साथ जारी रखा। वे उत्तर प्रदेश के समारोहों में भाग लेने जाने के पहले आयोजकों को सूचित कर देते थे, कि उनके लिए एक तांगे का इंतजाम किया जाए ताकि वे खाली समय में तांगे की सवारी का लुत्फ उठा सके। तांगे की सवारी का लुत्फ उठाने वालों में पृथ्वीराज कपूर से लेकर चेतन आनंद, देव आनंद, सुचित्रा सेन, माला सिन्हा, संजीव कुमार और शशि कपूर जैसे कलाकार भी शामिल है।

     तांगों ने न केवल कलाकारों को ही नहीं घुमाया, बल्कि फि की कहानियों में भी हिस्सेदारी निभाई। बीआर चोपड़ा की कालजयी फिल्म 'नया दौर' इस विषय पर बनी सबसे सशक्त फिल्म थी। इसमें मशीन और इंसान के बीच के मुकाबले में तांगे का ख़ास तौर पर इस्तेमाल किया गया था। इंसान और उसका तांगा मशीनी मोटर गाड़ी को कैसे हराता है, इसका दिलचस्प वाकया ही फिल्म की थीम थी। इसमें दिलीप कुमार ने तांगे वाले की भूमिका को इतने सशक्त तरीके से निभाया था, कि उनके बाद कई कलाकार तांगे वाला बनकर फिल्मों में आने लगे। इनमें राजेन्द्र कुमार से लेकर महमूद तक शामिल रहे। 1972 में आई फिल्म 'तांगे वाला' में राजेन्द्र कुमार ने मुमताज के साथ तांगे पर बैठकर फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाया था। अमिताभ ने 'मर्द' में तांगा क्या चलाया बाद में 'मर्द तांगे वाला' नाम से भी फिल्म बन गई थी। लेकिन, 1975 में आई 'शोले' में बसंती का तांगा खूब चला। फिल्म में हेमा मालिनी तांगा चलाती है और धर्मेन्द्र साइकिल चलाते हुए गीत गाते हैं 'कोई हसीना जब रूठ जाती है तो है, तो और भी हसीन हो जाती है' के जरिए प्रेमिका को मनाने का प्रयास कर रहे हैं। हेमा मालिनी इस रोल में इतनी लोकप्रिय हुई कि उन्हें बसंती नाम से पहचाना जाने लगा। 
      एक जमाना था, जब तांगों पर फिल्माए जाने वाले गीतों ने बहुत लोकप्रियता अर्जित की थी। ओपी नैयर ऐसे संगीतकार थे, जो तांगे और घोड़ों की टॉप पर बने गीतों के कारण अपनी विशिष्ट पहचान बनाने में कामयाब हो गए थे। उनके गीतों में 'तुमसा नहीं देखा' और 'फिर वही दिल लाया हूं' के टाइटल गीत आज भी याद किए जाते हैं। इन गीतों को बाद में सलमान खान और आमिर खान की फिल्म 'अंदाज' में ऐ लो जी सनम हम आ गए में दोहराया गया। इसके अलावा ओ पी नैयर ने पिया पिया बोले, ये क्या कर डाला तूने में तांगा गीतों की परम्परा को कायम रखा था। तांगे और बग्घी पर फिल्माए गीतों में वैजयंती माला की 'नया दौर' का जिक्र न हो, तो बात अधूरी लगती है। इस फिल्म में तांगा चलाते हुए दिलीप कुमार को उनके पास बैठी वैजयंती माला 'मांग के साथ तुम्हारा मैंने मांग लिया संसार' गाते हुए अपनी जिंदगी की मनोकामना पूरे होने का अहसास दिलाती हैं। ऐसा ही एक गीत मनोज कुमार व शर्मिला टैगोर पर 'सावन की घटा' में फिल्माया गया था। इस गीत में शर्मिला मनोज कुमार से प्रेम की गाड़ी को हौले हौले चलाने की गुजारिश करती हैं। गीत के बोल थे 'जरा हौले-हौले चलो मोरे साजना हम भी पीछे हैं तुम्हारे' था।
    इसके अलावा 1963 में आई फिल्म 'प्यार का बंधन' में राजकुमार पर फिल्माया गया गीत 'मैं हूं अलबेला तांगेवाला' भी खूब लोकप्रिय हुआ था। 'जीत' में तांगे वाले रणधीर कपूर से मुमताज कहती है 'चल प्रेम नगर जाएगा बतलाओ तांगे वाले।' इसके बाद तांगे की सवारी करते हुए गुलजार ने फिल्म 'परिचय' में बेहतरीन गीत फिल्माया था। इस गीत के बोल भी गुलजार ने ही लिखे थे। इस गीत के बोल नायक की जिंदगी के फलसफे को बयां करते हैं, जिसमें नायक कहता है 'मुसाफिर हूँ यारों ना घर है ना ठिकाना मुझे चलते जाना है।' यह पूरा गीत गुलजार ने तांगे पर ही फिल्माया था। आज फिल्मों से भले ही तांगे गायब हो गए है लेकिन दर्शकों की यादों में यह हमेशा बने रहेंगे।
    फिल्मों में जान फूंकने के लिए कई बार स्टंट्स सीन डाले जाते हैं, ये सीन रोमांचक भी बन जाते हैं। लेकिन, इस वजह से कई बार कलाकारों की जान पर भी बन आती है। ऐसा ही कुछ 'नया दौर' की शूटिंग के दौरान दिलीप कुमार के साथ हुआ। वे एक सीन में बड़े हादसे का शिकार होने से बचे थे। जब 'नया दौर' की शूटिंग हो रही थी और उसमें तांगे पर सवार होकर मोटरगाड़ी से रेस लगानी थी। इस दौरान दिलीप कुमार के हाथ से घोड़े की लगाम छूट गई! तांगे की रफ्तार भी तेज थी। डायरेक्टर की नजर पड़ी, तो वे चौंक गए। सब दिलीप कुमार की मदद के लिए आगे आए, मगर वे हड़बड़ाए नहीं। उन्होंने सूझबूझ से काम लिया और घोड़े की और झुके और धीरे से मौका पाकर लगाम को पकड़ा लिया, अब तांगा उनके कंट्रोल में था। लेकिन, अब न तांगा बचा और न दिलीप कुमार जैसे जांबाज एक्टर जो विपरीत परिस्थितियों को भांपकर दृश्य को जीवंत बना सकें।  
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Friday, December 10, 2021

सच्चाई से अलग है फिल्मों में गढ़ा इतिहास!

- हेमंत पाल 

   एक इतिहास वो होता है, जो किताबों में दर्ज होता है। जिसकी तथ्यात्मकता पर किसी को कभी संदेह नहीं होता। क्योंकि, कहीं न कहीं उस इतिहास के प्रमाण मौजूद होते हैं। हर देश का अपना इतिहास होता है, उसी तरह हमारे देश का भी सदियों पुराना इतिहास है। हमारे इतिहास में रोचकता का पुट ज्यादा है, क्योंकि यहाँ कई पड़ौसी देशों के शासकों ने घुसपैठ की! हमारे राजाओं से उनकी लम्बी लड़ाइयां हुई और फिर अंग्रेजों के शासनकाल में भी ये इतिहास कुछ अलग तरह से नजर आया। लेकिन, वो इतिहास हमारे उस फ़िल्मी इतिहास से बहुत अलग है, जो परदे पर दिखाया जाता रहा है। इतिहास की एक छोटी सी घटना को फ़िल्मी कथानक बनाकर दर्शकों के सामने परोसा जाता रहा है। फ़िल्मी इतिहास में हमेशा की तरह नायक अजेय रहता है और प्रेम उसके चरित्र का हिस्सा होता है। अभी तक इतिहास को दर्शाने वाली जितनी भी फ़िल्में बनी, सभी वास्तविक इतिहास से बहुत परे रहीं! ऐसी फिल्मों में 'मुग़ले आजम' भी बनी, जिनका इतिहास से कोई वास्ता नहीं रहा! ये पूरी तरह काल्पनिक कथानक था, जिसे दर्शकों ने सच्ची कहानी समझा! दरअसल, इन फिल्मों के कथानकों को दर्शकों की पसंद के अनुसार ढाला जाता रहा है। यही कारण रहा कि कई ऐसी फिल्मों की कहानियों पर उंगली भी उठाई गई, जिनकी ऐतिहासिकता में सत्यता का दावा किया गया था।      
      आजादी से पहले और बाद में बनी ऐतिहासिक फ़िल्में वास्तविकता के कितने करीब होती हैं, इसका कोई दावा नहीं कर सकता। क्योंकि, इन फिल्मों को इतिहास के तथ्यात्मक साक्ष्य के रूप में कभी नहीं देखा गया। इतिहास के जानकारों का कहना है कि ऐतिहासिक फिल्में ज्यादातर किस्सों और किंवदंतियों के आधार पर गढ़ी जाती हैं। इनमें कभी इतिहास की प्रामाणिकता नहीं खोजा जा सकता। दर्शकों को बांधने के लिए लेखक कई स्रोतों से सामग्री जुटाते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि फिल्मों में दिखाया जाने वाला इतिहास कभी अधिकृत नहीं होता। फ़िल्मकार फ़िल्मी इतिहास को रोमांटिक बनाकर उसे नॉस्टेल्जिया की तरह पेश करते हैं। सामान्यतः ऐसी फिल्मों में प्रासंगिकता से ज्यादा दर्शकों का ध्यान रखा जाता है। रिश्तों और संबंधों के लिहाज से सबकुछ फिल्मी होता है। इन फिल्मों का सबसे बड़ा आकर्षण होता है भव्य फिल्मांकन, बड़े-बड़े आलिशान सेट और युद्ध के लम्बे दृश्य।  
   इतिहास के फिल्मीकरण के भी दो तरह के पहलू रहे हैं। एक आजादी से पहले वाला, दूसरा आजादी के बाद वाला! आजादी से पहले देश के इतिहास को देखने और दिखाने का नजरिया अलग था। दर्शकों में यह अहसास भरा जाता था, कि हमारा इतिहास गौरवपूर्ण था। फिल्मकारों की यह भावना भी रहती थी, कि ऐसी फ़िल्में अंग्रेजों शासकों के खिलाफ दर्शकों को प्रेरित करें। यही कारण रहा कि कई बार फिल्मकारों को सेंसर से जूझना पड़ता था। सेंसर के दबाव में कई फिल्मों के नाम और गीत बदले गए थे। उस समय राष्ट्रीय भावनाएं भी चरम पर थी। ऐसे में स्वाभाविक है, कि फ़िल्मकारों में भी वही भावनाएं होंगी। आज़ादी से पहले कई ऐसी फ़िल्में बनी जिनका वास्ता इतिहास से रहा। इनमें 'बाबर' के निर्देशक वजाहत मिर्ज़ा थे। कमल रॉय ने 'शहंशाह अकबर' बनाई थी।
    महबूब खान ने 'हुमायूं', एआर कारदार ने 'शहंशाह', जयंत देसाई ने 'तानसेन और 'चन्द्रगुप्त' बनाई थी। इस समय काल में ‘रामशास्त्री’ (1944) भी एक यादगार फिल्म थी। इसमें गजानन जागीरदार ने जज रामशास्त्री की भूमिका निभाई थी। रामशास्त्री ने एक पेशवा को उसके भतीजे की हत्या के जुर्म में  सजा दी थी। इस दौर में हिमांशु राय और देविका रानी की ‘कर्मा’, जेबीएच वाडिया की 'लाल-ए-यमन', देवकी बोस की 'पूरण भगत' और 'मीरा बाई' फ़िल्में भी 1933 में आईं। ये वे फ़िल्में थीं, जिनका कथानक देशी और विदेशी राज परिवारों से संबंधित था। पीसी बरुआ की 'रूप लेखा' में केएल सहगल ने सम्राट अशोक की भूमिका निभाई थी। पसंद की गई कुछ मूक ऐतिहासिक फिल्मों को बाद में बोलती फिल्मों के रूप में भी बनाया गया। 1930 में बनी 'आदिल-ए-जहांगीर' को 1934 में फिर बनाया गया। रोचक बात यह है कि 1955 में जीपी सिप्पी ने इसी कहानी पर प्रदीप कुमार और मीना कुमारी के साथ इस फिर को फिर से बनाया था। 
     देश की आज़ादी से पहले मुंबई, पुणे और कोल्हापुर फिल्म निर्माण के प्रमुख केंद्र थे। मराठी फिल्मकारों ने इन फिल्मों में मराठा इतिहास और समाज के चरित्रों को प्रमुखता दी। मराठी के साथ उन्होंने हिंदी में भी ऐसी फिल्मों का निर्माण किया था। इनमें वी शांताराम, दामले और जयंत देसाई जैसे नाम प्रमुख थे। उन्होंने पेशवाओं, सेनापतियों और राज साम्राज्यों से जुड़े कई व्यक्तियों पर फ़िल्में बनाई। ये वे फ़िल्में थीं, जिनमें अंग्रेजी साम्राज्य में देश की अस्मिता और गौरव के रूप में भी प्रकट होती थीं। इसी समय काल में एआर कारदार ने 'चन्द्रगुप्त' फिल्म बनाई। इस फिल्म में गुल हामिद, सबिता देवी और नज़ीर अहमद खान ने भूमिकाएं निभाई थीं। इसकी सफलता ने एआर कारदार को कोलकाता में स्थापित कर दिया था। केएल सहगल के साथ पहाड़ी सान्याल और प्रेमांकुर एटोर्थी ने 'यहूदी की लड़की' का निर्देशन किया। यह फिल्म एक कश्मीरी के नाटक पर बनी थी। 
    सोहराब मोदी की 1939 में आई फिल्म 'पुकार' की कहानी बादशाह जहांगीर के न्याय पर बनी थी। आजादी से पहले उन्होंने सिकंदर, पृथ्वी वल्लभ, झांसी की रानी, मिर्जा ग़ालिब और 'एक दिन का सुलतान' जैसी फ़िल्में बनाई। उन्होंने भव्य फिल्मों से ऐतिहासिक फिल्मों का ऐसा मानदंड स्थापित किया था, जो मिसाल बन गया। लेकिन, उनकी फिल्मों में भी इतिहास कम और ड्रामा ज्यादा होता था। 'सिकंदर' उनकी सबसे सफल फिल्मों में एक थी। 1953 में बनी 'झांसी की रानी' का निर्देशन भी सोहराब मोदी ने ही किया था। यह फिल्म अंग्रेजी भाषा में भी डब की गई थी, जिसे 1956 में रिलीज किया गया। 1960 में बनी 'मुगले आजम' इस कथानक की सबसे सफल फिल्मों में एक है। यह फिल्म रिलीज तो 1960 में हुई थी, लेकिन इस पर काम 1944 में ही शुरू हो गया था। 
     आज के संदर्भ में ऐतिहासिक फिल्मों को देखा जाए तो आशुतोष गोवारिकर की फिल्म 'पानीपत' में 17वीं शताब्दी में अफगान सेना और मराठों के बीच हुई पानीपत की जंग को दर्शाया गया था। 'तख्त' में भी ऐतिहासिकता का पुट था। जबकि, 'पृथ्वीराज चौहान' अभी आने वाली है। मणिकर्णिका, पद्मावत और 'बाजीराव मस्तानी' फिल्में रिलीज हो चुकी है। 1983 में बनी 'रजिया सुल्तान' का निर्देशन और लेखन कमाल अमरोही ने किया था। महिला सुल्तान के पर आधारित इस फिल्म में उसे एक दास से प्यार हो जाता है, जिसके चलते वह राजपाट खो देती है। इसके बाद 2001 में 'अशोका' बनी। इसमें शाहरुख खान ने सम्राट अशोक का किरदार निभाया था। 2005 में आई 'मंगल पांडे' का कथानक क्रांतिकारी मंगल पांडे की 1857 की क्रांति पर आधारित था। फिल्म में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया के भारतीय मूल के सिपाही मंगल पांडे का किरदार आमिर खान ने निभाया था। 
     2008 में आई 'जोधा अकबर' का निर्देशन आशुतोष गोवारिकर ने किया था। इसमें ऋतिक रोशन और ऐश्वर्या राय ने मुख्य किरदार निभाए थे। 2015 में बनी 'बाजीराव मस्तानी' की कहानी पेशवा बाजीराव और उसकी दूसरी पत्नी मस्तानी के पर बनी है। संजय लीला भंसाली की इस फिल्म में रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण ने मुख्य किरदार निभाए हैं। 2018 में आई संजय लीला भंसाली की ही 'पद्मावत' को लेकर काफी विवाद हुआ था। शुरू में फिल्म का नाम 'पद्मावती' रखा गया था। फिल्म में दीपिका पादुकोण, रणवीर सिंह और शाहिद कपूर मुख्य किरदार में थे। 2019 में आई 'मणिकर्णिका: द क्वीन ऑफ झांसी' में कंगना रनौत ने रानी लक्ष्मीबाई का किरदार निभाया है। यह फिल्म 1857 की क्रांति पर बनी थी। आज़ादी के पहले बनी ऐतिहासिक फिल्मों ने जरूर मनोरंजन के साथ इतिहास से परिचय कराया। लेकिन, ऐसी फ़िल्में महज दर्शकों की संतुष्टि के लिए होती है। वास्तव में तो ये ऐतिहासिक फिल्में सच्ची घटनाओं की काल्पनिक कहानियां कही जा सकती है, इससे ज्यादा कुछ नहीं! इसलिए फिल्मकारों की सोच और मानसिकता को ध्यान में रखें, तो इन ऐतिहासिक फिल्मों को लेकर होने वाले विवादों की सच्चाई आसानी से समझी जा सकती है। 
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नूरी खान के कांग्रेस छोड़ने और लौटने की अंतर्कथा

- हेमंत पाल  

     ध्य प्रदेश में कांग्रेस की प्रवक्ता रही नूरी खान ने कांग्रेस के सभी पदों से पिछले दिनों इस्तीफ़ा दे दिया था। जिस दिन इस्तीफ़ा दिया उसके एक घंटे बाद उन्होंने इस्तीफा वापस लेने की भी घोषणा कर दी। उन्होंने इस्तीफ़ा देने और वापस लेने की बात खुद ही ट्विटर पर दी। इस्तीफ़ा क्यों दिया और वापस क्यों लिया! इसे लेकर सबके अलग-अलग कयास हैं! लेकिन, उन्होंने अपने इस्तीफे के साथ जिस राजनीतिक सनसनी की उम्मीद की थी, ऐसा कुछ नहीं हुआ। उन्होंने ट्विटर पर अपने इस्तीफे की सूचना देते हुए लिखा था 'कांग्रेस पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा। कांग्रेस पार्टी में रहकर अल्पसंख्यक कार्यकर्ताओं एवं अपने लोगों को राजनीतिक एवं सामाजिक न्याय दिलाने में असहज महसूस कर रही हूँ। भेदभाव की शिकार हो रही हूँ। अतः अपने सारे पदों से आज इस्तीफा दे रही हूँ।'
     एक घंटे बाद इस्तीफा वापस लेने की जानकारी देते हुए ट्विटर पर कहा 'प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ जी से चर्चा कर मैंने अपनी सारी बात पार्टी के समक्ष रखी है। 22 साल में पहली बार मैंने इस्तीफे की पेशकश की। कहीं न कहीं मेरे अंदर एक पीड़ा थी। लेकिन, कमलनाथ जी के नेतृत्व में विश्वास रखकर अपना इस्तीफा वापस ले रही हूँ! नूरी खान ने अपने इस्तीफे के साथ कांग्रेस पर आरोप भी लगाया कि अल्पसंख्यक होने की वजह से उन्हें पार्टी में महत्वपूर्ण पद नहीं मिल पाया! इस बात से खफा होकर वे कांग्रेस के सभी पदों को छोड़ रही है। दरअसल, उनकी नाराजी और आरोप उन्हें प्रदेश महिला कांग्रेस की अध्यक्ष न बनाए जाने को लेकर था। कुछ महीने पहले जब महिला कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर नियुक्ति की हलचल हुई थी, तब उन्हें उम्मीद थी कि ये पद उन्हें मिलेगा! लेकिन, ऐसा नहीं हुआ और इंदौर की अर्चना जायसवाल को अध्यक्ष बना दिया गया।
   मसला यह कि चार महीने बाद अचानक उन्हें क्यों याद आया कि पार्टी ने अल्पसंख्यक होने की वजह से उन्हें महत्वपूर्ण पद नहीं दिया। यदि वास्तव में ये उनकी नाराजी वाली बात थी, तो उन्होंने चार महीने तक इंतजार क्यों किया। नूरी खान कई महीनों से प्रदेश कांग्रेस के अल्पसंख्यक वर्ग की अध्यक्ष बनने की कोशिशों में भी जुटी थी, लेकिन सफल नहीं हो सकी। ये भी एक कारण हो सकता है कि उन्होंने इस्तीफे की राजनीति की और फिर पलटकर वहीं आ गई। इस्तीफे के बाद नूरी खान ने अपने फेसबुक पर बड़ी पोस्ट भी लिखी थी। इसमें उन्होंने पार्टी के ऊपर कई गंभीर आरोप लगाए थे। उन्होंने कांग्रेस पर मुस्लिमों की उपेक्षा का आरोप लगाया। इन आरोपों से पार्टी में कोई हलचल होती, उससे पहले ही एक घंटे में नूरी खान पलटकर फिर कांग्रेस के पाले में आ गई।
   नूरी खान ने फेसबुक पेज पर इस्तीफे वाले पोस्ट को डिलीट भी कर दिया। उन्होंने लिखा था कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस पार्टी की विचारधारा अल्पसंख्यक समाज के प्रति भेदभाव पूर्ण रवैया की है। पार्टी में सिर्फ इस वजह से प्रतिभाओं को मौका नहीं दिया जाता, क्योंकि अल्पसंख्यक वर्ग से है। यह मेरा कोई राजनीतिक आरोप नहीं है, आप खुद तथ्यात्मक रूप से आकलन करें, प्रदेश के जिलों में जिला कांग्रेस कमेटियों में कितने अध्यक्ष अल्पसंख्यक वर्ग से हैं।
     कांग्रेस नेत्री नूरी खान ने लिखा था कि अग्रिम संगठनों में कोई प्रदेश अध्यक्ष अल्पसंख्यक वर्ग से नहीं है। मैंने स्वयं यह महसूस किया है कि इतनी मेहनत और लगन से कार्य करने के बावजूद वर्ग विशेष से होने की वजह से पार्टी में जिम्मेदार पद पर नहीं बैठाया जाता। यह स्थिति मेरे जैसी कार्यकर्ता के साथ है तो प्रदेश के अन्य जिले के अल्पसंख्यक वर्ग के कार्यकर्ताओं में कितना उपेक्षा का व्यवहार होगा। सांप्रदायिक संगठनों से लड़ने की बात सिर्फ कागजों पर है यदि हम अपनी पार्टी में इसका पालन नहीं करा सकते तो शायद हम अपनी विचारधारा से विमुख हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में मेरे लिए कार्य कर पाना असंभव है।
    नूरी खान पिछले करीब 22 साल से कांग्रेस से जुड़ी हैं। उज्जैन की रहने वाली इस कांग्रेस नेत्री कई बार सुर्खियों में भी आई। लेकिन, कभी सकारात्मक राजनीति के कारण वे सुर्ख़ियों का हिस्सा नहीं बनी। एनएसयूआई से अपना राजनीतिक जीवन की शुरू करने वाली नूरी खान पार्टी के कई पदों पर रही। वे राष्ट्रीय स्तर की समन्वयक रहीं और पार्टी का प्रवक्ता पद भी संभाला! रविवार को जब नूरी खान ने कांग्रेस पर आरोप लगाते हुए सभी पदों से इस्तीफ़ा दिया, तो ये अनुमान लगाया गया कि वे भी कहीं दूसरे नेताओं की तरह भाजपा में तो नहीं जा रहीं! लेकिन, एक घंटे बाद उन्होंने खुद ही इस्तीफा वापस लेने की जानकारी ट्विटर पर दी। कांग्रेस पर उनका आरोप था कि अल्पसंख्यक होने के कारण उनकी राजनीतिक प्रतिभा और मेहनत शून्य हो गई। अल्पसंख्यक होने के कारण ही उन्हें पार्टी के महत्वपूर्ण पदों पर काम करने का मौका नहीं मिल सका। इस कारण वे पार्टी से इस्तीफा दे रही हैं।
  लेकिन, एक टीवी चैनल ने नूरी खान से भाजपा में जाने की संभावना टटोली तो, उन्होंने इससे इंकार नहीं किया। बल्कि, ये कहा कि जन सेवा के लिए हुए कोई भी कदम उठाने को तैयार हैं। जबकि, भाजपा के सूत्रों का कहना है कि नूरी खान को भाजपा में लिए जाने की कोई चर्चा नहीं है और न ऐसी किसी संभावना पर विचार ही किया गया। इस बात से इंकार नहीं कि कोरोनाकाल में नूरी खान ने सैकड़ों परिवारों की मदद भी की। इस दौरान उनके खिलाफ उज्जैन में मुकदमे भी दर्ज हुए। उस समय नूरी खान को कुछ दिनों तक जेल में भी रहना पड़ा था।
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Saturday, December 4, 2021

इस गोपनीय बैठक के पीछे जरूर कुछ गंभीर मसला!

- हेमंत पाल 

   मध्य प्रदेश की भाजपा राजनीति में कुछ ऐसा जरूर घट रहा है, जो अभी तक सामने नहीं आया! राजनीति का पारा अंदर ही अंदर खदबदा रहा है, जिसे बाहर आने से रोकने की कोशिशें जारी है। इस तरह की एक कोशिश सोमवार देर रात इंदौर में भी हुई। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और संगठन के नेताओं का अचानक इंदौर आकर भाजपा के संगठन महामंत्री बीएल संतोषी के साथ बैठक करके वापस लौटना, सहज बात नहीं है। ये बैठक इतनी गोपनीय रही, कि किसी स्थानीय नेता को भी इसमें शामिल नहीं किया गया। सह संगठन महामंत्री शिव प्रकाश के होते हुए राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बीएल संतोष का बैठक बुलाया जाना किसी बड़ी रणनीति का हिस्सा है। क्या ये माना जाए कि मामला शिवप्रकाश के हाथ से निकल चुका है! प्रदेश संगठन के किसी महामंत्री को भी इस बैठक से दूर रखा गया! 
     इस बैठक में कैलाश विजयवर्गीय को बुलाया जाना एक महत्वपूर्ण मसला है। इसे संगठन की तरफ से एक तरह इशारा भी समझा जाना चाहिए। इसी तरह नरोत्तम मिश्रा अकेले मंत्री थे, जो बैठक में शामिल थे। जबकि, वे संगठन के पदाधिकारी भी नहीं हैं। ध्यान देने वाली बात ये भी है कि क्या कैलाश विजयवर्गीय और नरोत्तम मिश्रा के लिए कोई संदेश देने के लिए बीएल संतोष ने इस बैठक को इंदौर में किया! संगठन के जो नेता सोमवार देर रात इंदौर में मिले और बैठक की, वे सभी भोपाल में मिल चुके थे। फिर क्या कारण था, कि बीएल संतोष ने सबको बैठक के लिए इंदौर बुलाया। बताते हैं कि संतोष भोपाल से ही इंदौर आए थे।    
    इंदौर में बिना किसी पूर्व सूचना के संगठन की बैठक का होना राजनीतिक रूप से मायने रखता है और इसे छुपाया नहीं जा सकता! बैठक की जानकारी को इतना गोपनीय रखा गया था कि मुख्यमंत्री प्रोटोकॉल के मुताबिक पुलिस का इंतजाम भी उनके भाजपा कार्यालय पहुंचने के बाद हुआ। बैठक का एजेंडा भी गोपनीय रहा और जो बताया गया वो किसी के गले नहीं उतर रहा। राजनीतिक नजरिए से अचानक बैठक का होना, कई नए संदेहों को जन्म देता है। इस बैठक में पार्टी के राष्ट्रीय महामंत्री बीएल संतोषी, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, प्रदेश अध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा, प्रदेश के प्रभारी मुरलीधर राव, प्रदेश संगठन महामंत्री सुहास भगत, गृहमंत्री डॉ नरोत्तम मिश्रा, प्रदेश संगठन सह महामंत्री हितानंद शर्मा शामिल हुए। रात करीब 9 बजे शुरू हुई ये बैठक 12 बजे तक चली। मुख्यमंत्री एयरपोर्ट से सीधे भाजपा कार्यालय पहुंचे, जो पहले से तय नहीं था और न किसी को सूचना थी। किसी विधायक को भी बैठक में नहीं आने दिया गया। बिना बुलाए मालिनी गौड़ भाजपा दफ्तर पहुंची उन्हें बाहर से ही लौटा दिया गया। यानी कुछ तो ऐसा था, जिसे गोपनीय रखा जाना जरुरी था।  
       बताया गया कि भोपाल में ऐसी कोई बैठक होना इसलिए संभव नहीं था कि राजधानी की मीडिया भाजपा संगठन के प्रभाव में नहीं है। ये बात कई बार सामने भी आ चुकी है। इस मुद्दे को लेकर बीएल संतोष ने भाजपा के मीडिया प्रभारी लोकेंद्र पाराशर के प्रति नाराजी भी जताई थी। उनसे पूछताछ भी की गई थी, जब वे बीएल संतोष के राजधानी में होते हुए चले गए थे। जानकार बताते हैं कि इस गोपनीय बैठक में कई राजनीतिक मुद्दों पर विस्तार से चर्चा हुई। लेकिन, बैठक के बाद बताया गया कि भाजपा के पितृ पुरुष कुशाभाऊ ठाकरे के जन्म शताब्दी वर्ष के तहत संगठन को मजबूत करने को लेकर चर्चा की गई। जबकि, कुशाभाऊ ठाकरे शताब्दी वर्ष कार्यक्रम की संयोजक सुमित्रा महाजन को बनाए जाने की बात चली थी, पर उन्हें भी इस बैठक में नहीं बुलाया गया। सोचने वाली बात है कि क्या ये इतना गोपनीय मामला है, कि विधायकों को भी इससे दूर रखा जाए और सारे दिग्गजों को भोपाल छोड़कर इंदौर में अचानक इकट्ठा होना पड़े। दरअसल, बैठक का एजेंडा इतना महत्वपूर्ण है कि उसे सबसे छुपाया गया। 
   प्रदेश भाजपा विष्णुदत्त शर्मा ने जानकारी दी कि भाजपा के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बीएल संतोष प्रदेश के तीन दिन के प्रवास पर हैंl उन्होंने बैठक ली और इसी सिलसिले में सभी लोग इंदौर आए हैं। संतोषी मंगलवार को उज्जैन जाएंगे और फिर इंदौर आकर प्रबुद्धजनों से चर्चा करेंगे। रात की बैठक का मुख्य एजेंडा तो कुशाभाऊ ठाकरे जन्म शताब्दी वर्ष को लेकर रहा। जन्म शताब्दी वर्ष के तहत संगठन के सुदृढ़ीकरण और विस्तार ही प्रमुख विषय रहे, जिन पर विस्तार से चर्चा की गई। यह साल संगठन का पर्व है, जिसके तहत ठाकरेजी की जन्म शताब्दी वर्ष के रूप में तैयारी की जा रही है। आने वाले समय में संगठन को ताकतवर बनाने पर और ज्यादा काम किया जाना है। 
    लंबे समय बाद यह पहला मौका है, जब मुख्यमंत्री और संगठन के दिग्गज पदाधिकारी इंदौर के भाजपा कार्यालय में इकट्ठा हुए और बैठक ली। शाम को विधायक रमेश मेंदोला और मालिनी गौड़ एयरपोर्ट पर मुख्यमंत्री की अगवानी करने जरूर पहुंचे थे, पर ये बैठक में नहीं थे। पार्टी के स्थानीय नेताओं के बीच भी ये बैठक चर्चा का विषय है, पर कोई खुलकर बोलने को तैयार नहीं। जानकारी के मुताबिक मंगलवार शाम को बीएल संतोषी फिर नेताओं से बातचीत करेंगे। वे इंदौर में अलग-अलग क्षेत्र के लोगों से भी अकेले में मुलाकात करेंगे। कुछ ऐसा ही संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी अपनी इंदौर यात्रा के दौरान किया था। 
  इस बैठक को महत्वपूर्ण इसलिए माना जा रहा है, कि प्रदेश भाजपा में आदिवासियों को लेकर अचानक सरगर्मी बढ़ गई है। भोपाल में आदिवासियों के लिए प्रधानमंत्री की मौजूदगी में बहुत बड़ा जनजातीय गौरव दिवस होना। फिर 4 दिसंबर को पातालपानी में टंट्या मामा को लेकर बड़े कार्यक्रम का आयोजन महज कार्यक्रम तक सीमित नहीं है। इसके पीछे के राजनीतिक मंतव्य को समझा जाना जरूरी है। क्या कारण है कि भाजपा संगठन और सरकार को अचानक टंट्या मामा की याद आई और सारा माहौल आदिवासियों को साधने में लग गया! सोमवार देर रात की बैठक और टंट्या मामा का 4 दिसंबर का आयोजन कई सारे संकेत देता है, बस उसे समझने के लिए अगले विधानसभा चुनाव को निशाने पर लेना होगा। प्रदेश में भाजपा को इस बात का अहसास भी हो गया, कि बिना आदिवासियों और आदिवासी नेताओं को साधे अगले चुनाव में झंडा गाड़ना आसान नहीं होगा! सारी कवायद इसी को लेकर है। 
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नाम में ही तो सब कुछ रखा!

- हेमंत पाल

   इन दिनों देश में नाम बदलने का दौर चल रहा है। शहरों, रेल्वे स्टेशनों और चौराहों नाम बदले जा रहे हैं। इसके पीछे अपने-अपने तर्क है कि नाम क्यों बदले गए। लेकिन, ये सारे उपक्रम शेक्सपियर की उस उक्ति को झुठलाने के लिए पर्याप्त है, जिसमें उन्होंने कहा था कि नाम में क्या रखा है! जबकि, यह नहीं भूलना चाहिए यह कलयुग है, जिसके बारे में संत तुलसीदास ने रामचरित मानस में कहा है 'कलयुग केवल नाम अधारा!' नाम की महिमा समाज में ही नहीं फिल्मों में भी दिखाई देती है। किसी भी फिल्म के आरंभ में हमें जो सेंसर सर्टिफिकेट दिखाई देता है, उसमें फिल्म का नाम सबसे ऊपर होता है। लेकिन, यह सिलसिला केवल फिल्म के शीर्षक तक ही सीमित नहीं होता, फिल्मों में नाम की महिमा इससे भी आगे चलती रहती है।
     हिन्दी सिनेमा के शैशवकाल में जितने भी अभिनेता या अभिनेत्री ने फिल्मों में अभिनय किया, सभी को अपने वास्तविक नाम का मोह छोड़कर फिल्मी नाम अपनाना पड़ा! इसमें अशोक कुमार से लेकर दिलीप कुमार और मीना कुमारी से लेकर मधुबाला तक शामिल हैं। राज कपूर और देव आनंद जरूर ऐसे कलाकार थे, जिन्होंने अपने असली नाम में थोड़ी बहुत हेराफेरी कर अपना फिल्मी नाम पर्दे पर उतारा। इस दौर में प्राण अकेले ऐसे कलाकार थे, जिनका असली नाम भी वही था, जो परदे पर आया। जो परदे पर इतना बदनाम हो चुका था कि उस दौर में लोग अपने बच्चों का नाम प्राण रखने से हिचकिचाने लगे थे। 70 से 80 के दशक में आए फिल्मी कलाकार भी छद्म नाम से फिल्मों में काम करते रहे। इनमें जतीन खन्ना राजेश खन्ना कहलाए तो रवि कपूर को जितेंद्र नाम से पहचान मिली। मिथुन चक्रवर्ती, अक्षय कुमार, अजय देवगन, सनी देओल भी फिल्मी नाम के साथ ही परदे पर उतरे। हरी जरीवाला की पहचान संजीव कुमार के रूप में ही तो हरी गोस्वामी की लोकप्रियता मनोज कुमार के रूप में।
      अमेरिकी फिल्मों की गोल्डन एज (1930-60) में अधिकतर स्टार्स ने हिट होने के लिए अपने असली नाम बदल लिए थे। मर्लिन मुनरो ने अपना पुराना नाम नोर्मा जीन मोर्टेंसन छोड़ दिया था। हिंदी फिल्मों में ये रिवाज कुछ ज्यादा ही चला। अक्षय कुमार का वास्तविक नाम राजीव भाटिया है। राज कपूर की खोज मंदाकिनी का नाम पहले यास्मीन जोसेफ था। जबकि, फिल्मों में आने से पहले मीना कुमारी का नाम महजबीन बानो था। नरगिस को पहले फातिमा रशीद कहा जाता था। राजकुमार राव पहले राजकुमार यादव हुआ करते थे। सलमान ख़ान को फिल्मों में आने से पहले अब्दुल रशीद सलीम सलमान ख़ान पुकारते थे। कमल हासन का मूल नाम उनके परिवार ने पार्थसारथी रखा था। परदे के जैकी श्रॉफ असल में जयकिशन काकूभाई थे। रितु चौधरी को महिमा चौधरी नाम डायरेक्टर सुभाष घई ने दिया। आज के लोकप्रिय अभिनेता रणवीर सिंह का असल नाम रणवीर भवनानी है। कॉमेडी के लिए पहचाने जाने वाले जॉनी लीवर का असल नाम जॉन राव प्रकाश राव जानुमला है। रेखा को पहले भानुरेखा गणेशन कहा जाता था। जबकि, नरगिस का जन्म का नाम फातिमा राशिद था। ऋतिक रोशन में रोशन उनका सरनेम नहीं, बल्कि नागरथ है। मिथुन चक्रवर्ती का वास्तविक नाम गौरांग चक्रवर्ती था। 
      फिल्मी कलाकारों के साथ ही उनके फिल्मी नामों का भी अपना जादू छाया रहा। 'दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे' के बाद राहुल और सिमरन जैसे नाम इतने लोकप्रिय हुए कि दूध मुहें बच्चों के नाम भी राहुल और सिमरन रखने का सिलसिला चल पड़ा। फिल्मी कलाकारों के लिए परदे के नाम इतने चर्चित हुए, कि फिल्म दर फिल्म उनके यही नाम चलते रहे। सलीम जावेद की फिल्म में अमिताभ का नाम विजय इतना चर्चित हुआ कि हर दूसरी फिल्म में  अमिताभ इसी नाम के साथ फिल्मों में दिखाई दिए। उनके सह कलाकारों के नाम रवि और शीतल भी कई फिल्मों में दर्शकों ने देखे। पुराने फिल्मकारों में प्रमोद चक्रवर्ती का किस्सा तो और भी दिलचस्प है। उनकी हर फिल्म में नायक, नायिका, खलनायक और हास्य कलाकारों के नाम एक ही रहे। जिद्दी, जुगनू, वारंट से लेकर 'लव इन टोक्यो' में प्रमोद चक्रवर्ती ने नायक का नाम अशोक, नायिका का नाम आशा, विलेन का नाम प्राण, हास्य कलाकार का नाम महेश और उसकी प्रेमिका का नाम शोभा रखकर अपनी परम्परा को जीवित रखा।
    फिल्मी कलाकारों और उनके फिल्मी नाम के साथ ही कुछ कलाकार ऐसे हैं जिनकी फिल्मों के शीर्षक भी उनकी शख्सियत का परिचायक रहे है। मसलन यदि नायक शम्मी कपूर है, तो उनकी फिल्मों के नाम जंगली, जानवर, बदतमीज से लेकर राजकुमार, प्रिंस, लाट साहब और 'छोटे सरकार' जैसे रखे गए। देव आनंद की फिल्मों के नाम अपराधियों की तर्ज पर बाजी, सीआईडी, टैक्सी ड्राइवर, फंटूश, बनारसी बाबू, बंबई का बाबू जैसे तय थे। गोविंदा जैसे कलाकारों ने एक-नंबर को अपनाकर कुली नंबर-वन, हीरो नंबर-वन, आंटी नंबर-वन जैसी फिल्में दी तो अक्षय कुमार के लिए खिलाड़ी शीर्षक की फिल्मों में काम करके खिलाड़ी कुमार बन गए। ऐसी ही पदवी मनोज कुमार को 'भारत' नाम रखकर भारत कुमार बनने में काम आई थी। हास्य अभिनेता आईएस जौहर और महमूद ने 'जौहर महमूद इन गोवा' बनाई, जो बहुत सफल हुई। इसके बाद उन्होंने थोड़े से फेरबदल के साथ जौहर महमूद इन हांगकांग, जौहर इन बाम्बे जैसी कई फिल्में बनाई। आजकल जब फिल्मकारों के सामने नाम का टोटा पड़ने लगा, तो उन्होंने अपनी पुरानी फिल्मों के आगे गिनती जोड़कर अगली फिल्मों के नाम बना दिए। डॉन के बाद डॉन 2, गोलमाल तो गोलमाल 4 तक बन गई और गोलमाल 5 की तैयारी चल रही है।
       सिनेमा में नाम की महिमा इतनी लोकप्रिय हुई कि कुछ फिल्मों के टाइटल में ही नाम समा गया। राज कपूर ने 'मेरा नाम जोकर' बनाई और फिल्मों के वितरक गुलशन राय को निर्माता बनने की चुनौती दी। उन्होंने राज कपूर की फिल्म की तर्ज पर सुपर हिट फिल्म 'जॉनी मेरा नाम बनाई।' यह शीर्षक इतना लोकप्रिय हुआ कि इसकी नकल करके गीता मेरा नाम, रीटा मेरा नाम और 'तेरे नाम' जैसी फिल्में बनी। सलीम खान ने भी नाम की महिमा से प्रभावित होकर संजय दत्त और कुमार गौरव के लिए 'नाम' शीर्षक से फिल्म लिखी। इसकी खासियत थी, कि आनंद बक्षी ने 'नाम' फिल्म के जितने भी गीत लिखे, उनमें नाम शब्द किसी न किसी पंक्ति में जरूर आता था। 
   फिल्मों का नाम बदलना भी एक अजीब सा शगल है। कभी लोकप्रियता पाने के लिए, कभी कहानी से मेल न खाने कारण तो कभी विवादों की वजह से फिल्मों के नाम बदले गए। फिल्म 'पद्मावत' का नाम पहले पद्मावती था, लेकिन विवाद के बाद निर्देशक संजय लीला भंसाली ने इसका नाम बदलकर 'पद्मावत' किया। फिल्म 'मेंटल है क्या' नाम पर भारतीय मानसिक रोग संस्था ने आपत्ति उठाई थी। इसके बाद फिल्म का नाम बदलकर 'जजमेंटल है क्या' किया गया। सलमान खान के जीजा आयुष शर्मा की पहली फिल्म 'लवरात्रि' का नाम भी आपत्ति के बाद बदलकर 'लवयात्री' किया गया था। दीपिका पादुकोण और रणवीर सिंह की फिल्म 'रामलीला' के नाम को लेकर बहुत से लोगों ने विरोध जताया था। इसके बाद फिल्म का नाम बदलकर 'गोलियों की रासलीला-रामलीला' किया गया। सनल कुमार ससिधरन की मलयालम फिल्म 'एस दुर्गा' का नाम पहले 'सेक्सी दुर्गा' था। इस फिल्म के नाम पर आम लोगों की धार्मिक भावनाएं भड़काने का आरोप लगा। इसके बाद सेंसर बोर्ड ने इसका नाम 'सेक्सी दुर्गा' से बदलकर 'एस दुर्गा' कर दिया था। अक्षय कुमार की फिल्म 'लक्ष्मी बम' को भी 'लक्ष्मी' नाम से प्रदर्शित किया गया।   
       रणबीर कपूर और दीपिका पादुकोण की ये फिल्म पहले 'विंडो सीट' के नाम से रिलीज होने वाली थी लेकिन फिल्म के डायरेक्टर इम्तियाज अली ने अंत में नाम बदल कर 'तमाशा' रख दिया था। शाहिद कपूर और सोनाक्षी सिन्हा की एक्शन थ्रिलर फिल्म नाम पहले 'रेम्बो राजकुमार' था। लेकिन, रेम्बो नाम से हॉलीवुड में सीरीज बन चुकी थी, तो निर्माताओं की आपत्ति के बाद फिल्म का नाम 'आर राजकुमार' किया गया। इम्तियाज अली की फिल्म 'लव आज कल' पहले 'इलास्टिक' नाम से रिलीज होने वाली थी। कंगना रनौत और इमरान खान की फिल्म 'कट्टी बट्टी' को निखिल आडवाणी पहले 'साली कुतिया' नाम से रिलीज करने वाले थे। भट्ट कैंप की फिल्म 'हमारी अधूरी कहानी' का नाम पहले 'तुम ही हो' था। यश चोपड़ा साहब की फिल्म 'वीर जारा' पहले 'ये कहाँ आ गए हम' नाम से रिलीज होने वाली थी। अली जफर और यामी गौतम की फिल्म पहले 'अमन की आशा' के नाम से रिलीज होने वाली थी। लेकिन, बाद में इसका नाम 'टोटल सियापा' कर दिया गया। 'जब वी मेट' करीना कपूर की बेहतरीन फिल्मों में से एक गिनी जाती है। पहले ये फिल्म 'पंजाब एक्सप्रेस' के नाम से रिलीज होने वाली थी। यानी ये नहीं कहा जा सकता कि 'नाम में क्या रखा है!' दरअसल जो कुछ है सब नाम में ही तो है!
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Friday, November 26, 2021

हमारे जीवन मूल्यों से कितना जुड़ा सिनेमा

- हेमंत पाल

      जीवन मूल्यों का अपना अलग ही इतिहास और परंपरा है। वास्तव में ये जीवन मूल्य हमारे पारिवारिक संस्कार हैं, जो बचपन में ही घुट्टी में पिलाए जाते हैं। लेकिन, बाद में इन्हें समय-समय पर पालना-पोसना पड़ता है, ताकि उनकी चमक जीवनभर बरक़रार रहे। कभी इन जीवन मूल्यों को परिवार चमकाता है, कभी परिवेश और कभी ये सिनेमा जैसे माध्यम के जरिए पोषित होते हैं। भारतीय समाज और सिनेमा में निरंतर बदलाव हुए, लेकिन कुछ जीवन मूल्य कभी नहीं बदले। सिनेमा के नायक को उन जीवन मूल्यों का सबसे बड़ा पोषक बताया जाता रहा है। पर, सिनेमा की ये परंपरा हमेशा एक सी नहीं रही। वक़्त के साथ-साथ इसमें उतार-चढाव आते रहे। फिल्मों के शुरूआती दौर में जीवन मूल्यों को संवारा गया, लेकिन बीच में इन्हें खंडित करने में भी कसर नहीं छोड़ी गई। कभी खलनायक के बहाने तो कभी भटके नायक ने जीवन मूल्यों की तिलांजलि दी। सरसरी नजर दौड़ाई जाए तो सामाजिक धरातल को मजबूती देने वाली कुछ यादगार फिल्में ऐसी है, जिसे इस नजरिए से कभी भुलाया नहीं गया। सामाजिक दायित्वों की दृष्टि से भी ये फ़िल्में महत्वपूर्ण बनी। उनमें बरसों पहले बनी फिल्म 'परिवार' को हमेशा याद रखा जाएगा। आदर्श छोटे परिवार के नजरिए से यह एक कालजयी फिल्म थी। लेकिन, उसके बाद इस कथानक पर दूसरी फिल्म शायद नहीं बनी।
     जीवन मूल्यों को लेकर अकसर समाज में उलझन बनी रहती है। इसका कोई सटीक जवाब नहीं मिलता कि जीवन मूल्यों को सिनेमा ने संभाला और संवारा या उसे दूषित ज्यादा किया! इसे लेकर हमेशा ही विवाद भी बना रहा। सामान्य तौर पर कहा जाता है, कि समाज के पतन के लिए सिनेमा ही ज़िम्मेदार है। लेकिन, ये कितना सच या झूठ है, इसका तार्किक रूप से किसी के पास कोई जवाब नहीं होता। क्योंकि, ऐसे कई प्रमाण है, जो इस तर्क को गलत साबित करते हैं। फिल्मों के आने के बरसों पहले भी समाज कई तरह की कुरीतियों और कुसंगतियों से घिरा था। सिनेमा ने समाज को आधुनिकता की राह जरूर दिखाई, पर सिनेमा के कारण समाज दूषित हुआ, ये बात गले नहीं उतरती। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि समाज में घटने वाली घटनाएं ही, परदे पर फिल्मों की कहानियों बनकर उतरती है। सिनेमा से समाज बनता है या समाज की सच्चाइयों से सिनेमा प्रभावित होता है, इसमें तर्क-वितर्क अरसे से चलता रहा है और अनंतकाल तक चलता रहेगा।
      बरसों से देखा जाता रहा है, कि सिनेमा में कथानक में बदलाव करके बात को नए सिरे से कहने की कोशिश होती। इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं है। क्योंकि, जीवन मूल्य वही है, पर उनकी अहमियत हर समयकाल में अलग-अलग संदर्भों में बदलती है। कई बार कहानियों में परिवेश के हिसाब से बदलाव करके अपनी बात कहने की कोशिश होती है। वी शांताराम ने 40 के दशक में 'जीवन प्रभात' बनाई थी। इसमें अपने पति से प्रताड़ित और आहत होने वाली पत्नी को केंद्रीय कथानक बनाया था। परेशान होकर पत्नी अदालत में अपनी पीड़ा की गुहार लगाती है। पर, फैसले के वक़्त न्यायाधीश कहते हैं कि पति को अपनी पत्नी के साथ ऐसी प्रताड़ना करने का अधिकार है। अदालत ने ये बात इसलिए कही थी, कि उस समय की सामाजिक परिस्थितियां ही कुछ ऐसी थी। इसके बाद वो महिला अपनी तरह प्रताड़ित पत्नियों का दल बनाती है और उन पतियों को पीटती है, जो अपनी पत्नियों पर अत्याचार करते थे।
     इसके सालों बाद माधुरी दीक्षित और जूही चावला की फिल्म 'गुलाबी गैंग' आई, जिसका कथानक भी इसी तरह का था। दरअसल, ये 'जीवन प्रभात' का ही वर्तमान संस्करण था। ये महिलाओं पर अत्याचार की ऐसी सामाजिक बुराई थी, जो इतने सालों में भी नहीं बदली! हमारे जीवन मूल्य स्त्री और पुरुष में भेद नहीं करते! पर, जहाँ भी इस तरह का भेद होता है, उसके खिलाफ आवाज भी उठती है। पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं पर हिंसा को लेकर अकसर फिल्में बनती रही है, जिसका अंत अत्याचारी को सजा मिलने पर होता है। अमिताभ बच्चन और तापसी पन्नू की फिल्म 'पिंक भी स्त्री पक्ष को मजबूती से प्रस्तुत करती है। वास्तव में यही जीवन मूल्य है, जिनकी समय-समय पर फ़िल्मी कथानकों में रक्षा की गई। 
     बीच में एक समय ऐसा भी आया, जब सामाजिक दुराचारों को परदे पर उतारा जाने लगा। तर्क ये दिया गया कि समाज में यही सब घट रहा है, तो उसे फ़िल्मी कथानकों का विषय क्यों न बनाया जाए! आततायियों और डाकुओं के अत्याचार की कहानियों से इतिहास भरा पड़ा है। यदि ये सब सच है और समाज में होता है, तो फिर इन पर फ़िल्में क्यों नहीं बन सकती! यदि जीवन मूल्यों को सकारात्मक नजरिए से देखा जाता है, तो इनके नकारात्मक पक्ष को क्यों दबाया जाए। कुछ साल पहले 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' की तरह बनी कई फिल्मों में लूट-खसोट, हत्या, बलात्कार, गुंडागर्दी, छल-कपट, ईर्ष्या-द्वेष ने ग्लैमरस तरीके से फिल्मों में एंट्री कर ली। यदि कोई फिल्म सामाजिक यथार्थ का आईना दिखाती है, तो ऐसी फिल्में बनने में बुराई क्या है! ऐसा सच जिसमें मानवीय मूल्यों का पतन होता है, तो ऐसी फ़िल्में भी स्वीकारी जानी चाहिए। ये बुराई है और इसका अंत कभी अच्छा नहीं होता, ये संदेश भी जीवन मूल्यों के लिए जरुरी है। आज मदर इंडिया, जागते रहो या 'सुनहरा संसार' जैसी फिल्म की तो कल्पना नहीं की जा सकती! लेकिन, फिर भी लगान, बागबान और 'जिंदगी न मिलेगी दोबारा' जैसी फ़िल्में भी जीवन मूल्यों को बचाने में समर्थ हैं।        
     देखा जाए, तो आज़ादी से काफी पहले से सिनेमा का चेहरा बदलने लगा था। पारसी थिएटर, नौटंकी, वीर गाथाओं पौराणिक और प्रेम कहानियों से बाहर निकलकर बेहतर समाज की परिकल्पना लिए सिनेमा के कथानकों में बदलाव आया। ये वो दौर था, जब आज़ादी के बयार में जीवन के मूल्य ज्यादा कठोर हो रहे थे। ऐसे में देश और समाज के लिए ईमानदारी, मेहनत और भाई-चारे की कहानियों वाली फ़िल्में आई। इप्टा के कलाकारों और साहित्यकारों ने हिंदी सिनेमा पर गहरा असर डाला। इससे परस्पर मानवीय सहयोग और समाज की सच्ची और ज़रूरी तस्वीर प्रस्तुत की जाने लगी। लेकिन, आजादी के बाद देश में बदलाव आया। सत्यजीत रे, विमल राय जैसे फिल्मकारों ने गरीबों की पीड़ा पर फिल्में बनाई। इसके बाद सामाजिक संदर्भों जैसे दहेज, वेश्यावृत्ति, बहुविवाह, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर भी फिल्में बनाई गई। ऋत्विक घटक, मृणाल सेन जैसे सामाजिक सोच वाले लोगों ने भी आम आदमी की परेशानियों पर नजर डाली और उसे सेलुलॉइड पर उतारा। कुछ नकारात्मक फ़िल्में बनी, पर ऐसी फिल्मों के लिए सिर्फ फिल्मकारों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता! क्योंकि, आज का युवा वर्ग और बच्चे इतने व्यस्त होते जा रहे हैं, कि उनके लिए पनपने वाले मानवीय रिश्तों को समझना और संभालना मुश्किल होता जा रहा है। जहां अभी मोहल्ले का सुख क़ायम है और पड़ोस की दुनिया के लिए सहिष्णुता और प्रेम का भाव है। ऐसे महौल से आने वाला नौजवान उम्मीद की लकीर की तरह सिनेमा के आकाश पर खड़ा है। सवाल यह कि, ऐसे कितने नौजवान हैं, जो सामाजिक मूल्यों के पक्षधर हैं और वे समाज के धरातल को समझ हैं। सिनेमा में सामाजिक मूल्यों का पोषण इन्हीं के लिए जरुरी है।   
    फिल्म इतिहास के पन्ने पलटे जाएं, तो सिनेमा में मानवीय और पारिवारिक मूल्यों को बढ़ावा देने में 'राजश्री' की फिल्मों का बड़ा योगदान है। 1962 में ताराचंद बडजात्या ने इस कंपनी को परिवारिक फिल्म बनाने के मकसद से ही बनाया था। शुरूआती फिल्मों आरती, दोस्ती, तकदीर, जीवन-मृत्यु और 'उपहार' से चर्चा में आई इस फिल्म कंपनी ने हमेशा अपने लक्ष्य का ध्यान रखा। 1972 में राजकुमार बडजात्या ने इसकी संभाली और पारिवारिक फिल्मों की परंपरा को पोषित करने के साथ आगे भी बढ़ाया। 70 के दशक में जब एक्शन फिल्मों का दौर था, तब भी इस बडजात्या-परिवार ने जीवन मूल्यों वाले सार्थक सिनेमा का दामन नहीं छोड़ा। पिया का घर, सौदागर, गीत गाता चल, तपस्या, चितचोर, पहेली, दुल्हन वही जो पिया मन भाए, अंखियों के झरोखे से, सुनयना, सावन को आने दो, नदिया के पार और 'अबोध' जैसी फिल्मों का निर्माण किया। लेकिन, फार्मूला सिनेमा ने ऐसे फिल्मों को आगे नहीं बढ़ने दिया। क्योंकि, उनका लक्ष्य सामाजिक चिंतन कम और बाॅक्स ऑफिस से कमाई करना ज्यादा रहा। सिनेमा हमारे जीवन से इतना जुड़ा है कि जीवन का हिस्सा बन गया। लेकिन, सौ करोड़ की दौड़ ने जीवन मूल्यों वाली फिल्मों को हाशिए पर रख दिया। 
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Monday, November 22, 2021

पुलिस कमिश्नरी प्रणाली : नई व्यवस्था में फैसले के सारे अधिकार पुलिस के पास

   मध्यप्रदेश में पुलिस कमिश्नर सिस्टम लागू करने की बातें कई बार हुई। कई बार घोषणाएं भी हुई, पर ये व्यवस्था लागू कभी नहीं हो सकी। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने प्रदेश के दो बड़े महानगरों इंदौर और भोपाल में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू किए जाने की घोषणा की है। इसे आईपीएस अधिकारियों की पुरानी मांग पूरी होना माना जा रहा है। इस मांग को लेकर मध्य प्रदेश की आईपीएस एसोसिएशन ने 2019 में तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ से भी मुलाकात की थी। तब भी आश्वासन मिला था, पर हुआ कुछ नहीं। 
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- हेमंत पाल 

   ध्यप्रदेश में पुलिस कमिश्नरी व्यवस्था लागू करने का मसला करीब साढ़े तीन दशक से अटका हुआ है। तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने पहली बार इसके लिए पहल की थी। लेकिन, केंद्र सरकार ने ये प्रस्ताव कुछ टिप्पणियों के साथ लौटा दिया था। बाद में दिग्विजय सिंह ने भी पहल की, पर बात नहीं बनी। कहा जाता कि आईपीएस और आईएएस एसोसिएशन की आपसी खींचतान और वर्चस्व की लड़ाई ने इसे लागू नहीं होने दिया। अंतिम बार तो पुलिस कमिश्नर सिस्टम 15 अगस्त 2020 को लागू किया जाना था। लेकिन, तब भी घोषणा पर अमल टल गया। पुलिस मुख्यालय भी कई बार पुलिस कमिश्नरी व्यवस्था लागू करने के लिए गृह विभाग को प्रस्ताव भेज चुका है।     प्रदेश में पुलिस कमिश्नरी प्रणाली लागू होने को लेकर अब नए सिरे से चर्चा चल पड़ी है। अभी तक तो इसे लेकर हां-ना ही ज्यादा होती रही। इसे लागू करने को लेकर हमेशा ही संशय बना रहा। मुख्यमंत्री की घोषणा पर कब अमल होता है, इस बारे में कोई दावा नहीं किया जा सकता।
   मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपनी घोषणा में कहा कि प्रदेश में कानून और व्यवस्था की स्थिति बेहतर है। पुलिस अच्छा काम कर रही है। पुलिस और प्रशासन ने मिलकर कई उपलब्धियां हासिल की हैं, लेकिन शहरी जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। भौगोलिक दृष्टि से भी महानगरों का विस्तार हो रहा है और जनसंख्या भी लगातार बढ़ रही है। इस वजह से कानून और व्यवस्था की कुछ नई समस्याएं पैदा हो रही हैं। उनके समाधान और अपराधियों पर नियंत्रण के लिए हमने फैसला किया है। प्रदेश के 2 बड़े महानगरों में राजधानी भोपाल और स्वच्छ शहर इंदौर में हम पुलिस कमिश्नर सिस्टम लागू कर रहे हैं, ताकि अपराधियों पर और बेहतर नियंत्रण कर सकें। प्रदेश के गृहमंत्री डॉ नरोत्तम मिश्रा ने भी कहा कि इन दोनों शहरों में बढ़ती आबादी और अपराध को देखते हुए पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू करने का फैसला किया है। इंदौर और भोपाल की जनता को प्रयोग के तौर पर नई प्रणाली का लाभ मिलेगा। नए जमाने के क्राइम, सोशल मीडिया, आईटी से जुड़े क्राइम को काबू करने में नया सिस्टम मददगार साबित होगा।
   कमिश्नर प्रणाली को आसान भाषा में समझें तो फिलहाल पुलिस अधिकारी कोई भी फैसला लेने के लिए स्वतंत्र नहीं होते! वे आकस्मिक परिस्थितियों में कलेक्टर, कमिश्नर या राज्य शासन के दिए निर्देश पर ही काम करते हैं। पुलिस कमिश्नरी प्रणाली लागू होने पर जिला कलेक्टर और एग्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट के अधिकार पुलिस अधिकारियों को मिल जाएंगे। इसमें होटल और बार के लाइसेंस, हथियार के लाइसेंस देने का अधिकार उन्हें मिल जाता है। इसके अलावा शहर में धरना प्रदर्शन की अनुमति देना, दंगे के दौरान लाठीचार्ज या कितना बल प्रयोग हो, ये निर्णय भी सीधे पुलिस ही करेगी। यानी उनके अधिकार और ताकत बढ़ जाएंगे। पुलिस खुद फैसला लेने की हकदार हो जाएगी।
    कमिश्नरी व्यवस्था में पुलिस तुरंत कार्रवाई कर सकती है, क्योंकि इस व्यवस्था में जिले की बागडोर संभालने वाले आईएएस अफसर डीएम की जगह पॉवर कमिश्नर के पास चली जाती है। यानी धारा-144 लगाने, कर्फ्यू लगाने, 151 में गिरफ्तार करने, 107/16 में चालान करने जैसे कई अधिकार सीधे पुलिस के पास रहेंगे। ऐसी चीजों के लिए पुलिस अफसरों को बार बार प्रशासनिक अधिकारियों का मुंह नहीं देखना होगा! माना जाता है कि कानून व्यवस्था के लिए कमिश्नर प्रणाली ज्यादा बेहतर है ऐसे में पुलिस कमिश्नर कोई भी निर्णय खुद ले सकते हैं। सामान्य पुलिसिंग व्यवस्था में ये अधिकार कलेक्टर के पास होते हैं। आजादी से पहले अंग्रेजों के दौर में कमिश्नर प्रणाली लागू थी। इसे आजादी के बाद भारतीय पुलिस ने अपनाया। कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस कमिश्नर का सर्वोच्च पद होता। अंग्रेजों के जमाने में ये सिस्टम कोलकाता, मुंबई और चेन्नई में हुआ करता था। इसमें ज्यूडिशियल पावर कमिश्नर के पास होता है। यह व्यवस्था पुलिस प्रणाली अधिनियम, 1861 पर आधारित है.
   पुलिस कमिश्नर सिस्टम में पुलिस महानिदेशक, अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक, एडीजी स्तर के अधिकारी को पुलिस कमिश्नर बनाया जा सकता है। उसके नीचे एडीजी या आईजी स्तर के दो ज्वाइंट पुलिस कमिश्नर होंगे। पिरामिड में एडिशनल पुलिस कमिश्नर होंगे। इसकी जिम्मेदारी आईजी या डीआईजी स्तर अफसरों को मिलेगी। डिप्टी पुलिस कमिश्नर डीआईजी या एसपी स्तर के होंगे। जूनियर आईपीएस या वरिष्ठ एसपीएस अधिकारियों को असिस्टेंट पुलिस कमिश्नर बनाया जा सकेगा।
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Sunday, November 21, 2021

टीवी पर दम तोड़ने लगा 'बिग बॉस' शो

हेमंत पाल

   पंद्रह साल पहले जब टीवी पर 'बिग बॉस' शो शुरू हुआ था, तब भारतीय दर्शकों में रियलिटी शो देखने का ज्यादा चलन नहीं था। 'सारेगामापा' और 'अंताक्षरी' जैसे संगीत के शो ही ज्यादा देखे जाते थे। ऐसे में 'बिग बॉस' जैसे लीक से हटकर बने रियलिटी शो को छोटे परदे पर परोसा गया। वास्तव में तो यह नीदरलैंड का शो है, जो 'बिग ब्रदर' के नाम से दुनियाभर में अलग-अलग भाषाओं में प्रसारित होता था। इंग्लैंड में भी यह शो 'बिग ब्रदर' के नाम से प्रसारित हुआ। वहां इस शो में शिल्पा शेट्टी ने बतौर कंटेस्टेंट इसमें भाग लिया और एक नस्लीय टिप्पणी विवाद का कारण बनी! उसी बाद ये शो भारत आया और तब से टीवी पर लगातार तीन महीने तक आता है। इसमें 13 से 15 तक कंटेस्टेंट होते हैं, जिन्हें बड़े से घर में दुनिया से पूरी तरह काटकर रखा जाता है। इन्हें समय, तारीख और दिन का भी इन्हें पता नहीं चलता। इन तीन महीनों में इन कंटेस्टेंट की दुनिया यही घर होता है। इनको एक आवाज संचालित करती है, जिसे 'बिग बॉस' नाम से पुकारा जाता है। सप्ताह भर इस घर में कई टास्क होते हैं, जिसे जीतने वाले को कुछ रियायतों का प्रलोभन मिलता है। सप्ताह के अंतिम दो दिन सूत्रधार इन प्रतियोगियों के काम और हरकतों की समीक्षा करता है। इस दौरान किसी एक प्रतियोगी को बाहर भी किया जाता है। इन 15 सालों में इस रियलिटी शो को 6 सूत्रधारों ने संचालित किया है। पहले शो को अरशद वारसी ने संचालित किया, बाद में शिल्पा शेट्टी, अमिताभ बच्चन, सलमान खान और पांचवा शो सलमान के साथ संजय दत्त ने किया था। छठे शो का एक हिस्सा 'हल्ला बोल फ़राह खान ने भी कुछ सप्ताह संचालित किया था। लेकिन, सलमान खान का लम्बे समय से 'बिग बॉस' पर कब्ज़ा बना हुआ है।   
     देखा गया है कि रियलिटी शो साल दर साल ज्यादा परिपक्व और बेहतर ढंग से संचालित हुए हैं। लेकिन, 'बिग बॉस' के पिछले कुछ सालों से बेहद कमजोर नजर आने लगा है। इस क्रम में इस बार का शो (बिग बॉस-15) सबसे ज्यादा अपरिपक्व और बिखरा हुआ नजर आया। इस रियलिटी शो की लोकप्रियता भी तेजी से घटी। जंगल वाली थीम के सेट के लिए पानी की तरह पैसा बहाया गया, पर दर्शक इससे  प्रभावित नहीं हुए। बेहिसाब खर्च और सेटअप से लेकर सलमान खान का जादू भी शो का आकर्षण नहीं बन पा रहा। इसका कारण शो के कंटेस्टेंट्स को माना जा रहा है, जो अनजाने से चेहरे हैं। वास्तव में दर्शकों के लिए इस शो का आकर्षण होता है, अपने पसंदीदा चेहरों को नजदीक से जानना और उनकी दिनचर्या और उनकी आदतों से वाकिफ होना! लेकिन, जिन चेहरों को कंटेस्टेंट बनाकर घर में लाया गया, वे दर्शकों के बीच पहचाने हुए नहीं है! इक्का-दुक्का चेहरों को छोड़ दिया जाए, तो अधिकांश कंटेस्टेंट अनजाने और पिटे हुए कलाकार हैं। इस पर भी इन कंटेस्टेंट्स को लग रहा है कि उन्हें लगातार कैमरे के सामने बने रहना है, तो रोज विवाद और झगड़े करना होंगे। इस वजह से घर में हर कोई लड़ता हुआ, विवाद करता ही नजर आ रहा है। इस बार की एक कंटेस्टेंट पंजाब की लोक गायिका अफसाना खान ने तो चिल्ला-चोट और झगड़े की इतनी हद पार कर दी, कि उन्हें धक्के देकर बाहर किया गया। शो को लोकप्रियता के पैमाने पर मापा जाए, तो ये बहुत पीछे है। सारी कोशिशें और प्रयोग इसे दर्शकों में लोकप्रिय नहीं बना पा रहे।    
   सबसे दिलचस्प बात ये कि शो के सूत्रधार सलमान खान भी इस शो में कोई कमाल नहीं दिखा पा रहे! पिछले कई सीजन में शनिवार और रविवार को आने वाले 'वीक-एंड का वार' को सबसे ज्यादा देखा जाता रहा है। सप्ताह भर शो देखने वाले दर्शक कंटेस्टेंट की जिन हरकतों से नाखुश होते, उन्हें उम्मीद होती थी कि सलमान आकर उनकी परेड लेंगे, डाटेंगे और हिदायत देंगे! लेकिन, बिग बॉस-15 में ऐसा कुछ नहीं हो रहा! सलमान खान भी इस बार पूरी तरह फेल हो गए। वीक-एंड के किसी भी एपिसोड को दर्शकों ने पसंद नहीं किया। जबकि, दर्शकों ने कंटेस्टेंट की गलतियों पर सलमान खान का रौद्र रूप देखा और पसंद किया है। इस बार वो सब नदारद दिखा। वीक-एंड के मंच पर अब फिल्मों के प्रमोशन ही ज्यादा दिखाई दे रहे हैं। 
     'बिग बॉस' के इतिहास में 13वां सीजन सबसे सफल रहा! जिसमें सिद्धार्थ शुक्ला और शहनाज गिल थे। खुद 'बिग बॉस' ने इस सीजन के सभी कंटेस्टेंट्स की तारीफ भी की थी। सिद्धार्थ और शहनाज ने मनोरंजन के स्तर को बहुत ऊंचाई पर पहुंचाया। यही कारण था कि यह सीजन बेहद लोकप्रिय रहा। इसमें कंटेस्टेंट के बीच तनाव भी था, झगड़े भी हुए और प्रेम भी नजर आया! सबसे बड़ी बात ये कि इसमें दर्शकों के लिए मनोरंजन का भरपूर मसाला था। इस सीजन की सफलता को पैमाने पर श्रेष्ठ माना जाता है। 13वें सीजन के सलमान वाले 'वीक-एंड का वार' एपिसोड को भी अच्छा पसंद किया गया था। इस बार वो सब नदारद है। वाइल्ड कार्ड एंट्री से भी बिग-बॉस-15 को कोई फायदा नहीं हुआ। क्योंकि, जिन्हें घर में भेजा गया, वो भी अनजाने से चेहरे हैं। समझा जा रहा है कि इस बार शो का पहला हिस्सा कुछ हफ़्तों तक ओटीटी प्लेटफॉर्म पर दिखाया गया, फिर इसके 3-4 कंटेस्टेंट को इस शो में शामिल कर टीवी पर शो शुरू किया गया। शमिता शेट्टी, निशांत भट्ट और प्रतीक सहजपाल समेत कुछ कंटेस्टेंट्स दोनों शो में दिखे। बाद में दो और कंटेस्टेंट्स राकेश बापट और नेहा भसीन को बिग बॉस-15 में वाइल्ड कार्ड से एंट्री दी गई। हालांकि, राकेश बापट को बीमारी के कारण बाहर भेज दिया गया। लेकिन, ओटीटी वाले शो के कंटेस्टेंट को इतनी तवज्जो देना दर्शकों को रास नहीं आया और शायद यही इस बार की खामी भी रही।    
    इस शो के मेकर्स को जाने क्यों ऐसा लगता है कि लव एंगल और झगड़े शो को लोकप्रिय बना सकते हैं! जबकि, वास्तव में ऐसा नहीं है। 14-15 में कोई एक कंटेस्टेंट झगड़ालू हो सकता है और अभी तक के हर सीजन में यह देखा भी गया! पर, सारे कंटेस्टेंट हर समय लड़ने पर उतारू हों, ये इसी सीजन में देखा जा रहा है। कोई भी कंटेस्टेंट सामान्य दिखाई नहीं दे रहा।  जहाँ तक शो में लव एंगल दिखाने की बात है, तो उसकी भी एक मर्यादा है। बिग बॉस-15 में ज्यादातर कंटेस्टेंट के बीच जोड़ियां बन गई। ईशान सहगल और माइशा अय्यर में रोमांस दिखाई दिया। फिर तेजस्वी प्रकाश और करन कुंद्रा के बीच लव एंगल दिखाया जाने लगा। शमिता शेट्टी भी राकेश बापट के आने पर रोमांस में डूबती दिखाई दी! लेकिन, राकेश के बीमार होने से वो घर से निकल गया।
     शो का ये वो फॉर्मेट था, जो इस बार पूरी तरह फ्लॉप हुआ। टीवी शो के पिटे हुए कलाकारों को अनावश्यक तवज्जो दी गई। शिल्पा शेट्टी की बहन होने की वजह से शमिता को कुछ ज्यादा ही ख़ास समझा गया। शो के मेकर्स ने शमिता की तरफदारी की और उसे हाईलाइट किया। सोशल मीडिया पर तो दशकों ने इस शो की धज्जियां उड़ा दी। शमिता को जिस तरह तवज्जो दी गई, उसे देखते हुए शो को 'शम्मो का ससुराल' तक कहा गया। क्योंकि, शो में पहले वे खुद आईं, फिर उनके राखी भाई राजीव अदातिया और बेस्ट फ्रेंड नेहा भसीन की वाइल्ड कार्ड एंट्री हुई। कुछ दिन बाद उनके बॉयफ्रेंड राकेश बापट भी आ गए। 
  अभी तक के शो में देखा गया कि 'बिग बॉस' के घर में नियम-कायदों के प्रति बहुत ज्यादा सख्ती बरती गई। घर की संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वालों, मारपीट करने वालों, अंग्रेजी बोलने वालों और टास्क को बिगाड़ने वालों को जेल में बंद करने तक की सजा दी जाती थी! लेकिन, पिछले तीन सीजन से जेल गायब ही हो गया। इस बार तो सारे नियम-कायदों की धज्जियां उड़ा दी गई। ज्यादातर कंटेस्टेंट्स घर के नियम तोड़ते नजर आते हैं। हिदायत के बावजूद सभी कंटेस्टेंट लगातार अंग्रेजी बोलते दिखाई दे रहे हैं। खासियत ये कि इसके लिए उन्हें कोई सजा भी नहीं दी जा रही। कई टास्क पूरे होने से पहले रद्द हुए। इस पर भी 'वीक-एंड का वार' में सलमान खान का नजरिया ढुल-मुल ही है। एक टास्क में सिंबा नागपाल ने उमर रियाज को तो पूल में धक्का दे दिया। फिर भी उन्हें न तो शो से निकाला गया और न सलमान ने उनकी खिंचाई की। जो सजा दी गई, वो वास्तव में कोई सजा ही नहीं है।  
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Monday, November 15, 2021

कोरोना काल के बाद बॉक्स ऑफिस खिलखिलाया

हेमंत पाल

    नोरंजन की दुनिया से जुड़े लोगों के लिए इस बार की दिवाली कुछ ख़ास रही। महामारी के कारण बंद पड़े सिनेमाघरों के दरवाजे पूरे खुले और अंदर से अच्छी खबर भी बाहर आई। नवंबर के पहले हफ्ते में रिलीज हुई तीन फिल्मों सूर्यवंशी, अन्नाथे और इटरनल्स को दर्शकों ने पसंद किया और बॉक्स ऑफिस की तिजोरी भर गई। ये मुश्किल दौर के बाद आई ठंडी हवा के झोंके जैसा है। लम्बा संकट काल बीतने के बाद जिस मनोरंजन की उम्मीद की जा रही थी, लगता है दर्शकों को वो मिल गया। अन्यथा कोरोना के काले काल ने समाज के हर हिस्से को अपने-अपने तरीके से नुकसान पहुंचाया। किसी की नौकरी गई, किसी की दुकान बंद हुई, किसी का कारोबार ठंडा पड़कर हाशिए पर चला गया। साथ ही मनोरंजन की दुनिया भी टूटकर बिखर गई। बनती फ़िल्में रुक गई, स्टूडियो पर ताले पड़ गए, रिलीज होने वाली फ़िल्में रोक दी गई, सिनेमाघरों को बंद कर दिया गया। फिल्म निर्माण से जुड़े तकनीशियनों और छोटे कलाकारों के सामने परिवार का पेट भरने की नौबत आ गई। स्थिति ऐसी हो गई कि किसी के पास इस बात का जवाब नहीं था कि अब क्या होगा! मनोरंजन की दुनिया इतनी ज्यादा प्रभावित हुई कि टेलीविजन के सीरियलों की शूटिंग रुकने से उनका प्रसारण तक बंद हो गया। मज़बूरी में कुछ फिल्म निर्माताओं ने ओटीटी प्लेटफॉर्म पर अपनी बनी-बनाई तैयार फिल्मों को रिलीज किया, पर इक्का-दुक्का फिल्मों को छोड़कर कोई भी फिल्म दर्शकों को प्रभावित नहीं कर सकी। फिल्मों का बरसों से जमा जमाया कारोबार हाशिए पर चला गया।   
      सिनेमाघर बंद होने और सामने कोई विकल्प न देखकर कई निर्माताओं ने हिम्मत करके बेमन से ओटीटी प्लेटफार्म पर अपनी फिल्में रिलीज की। लेकिन, इसका प्रतिफल अच्छा नहीं निकला। अमिताभ बच्चन की गुलाबो-सिताबो, अक्षय कुमार की लक्ष्मी, विद्या बालन की शकुंतला देवी, वरुण धवन की कुली नंबर-1, जाह्नवी कपूर की गुंजन सक्सेना, सिद्धार्थ मल्होत्रा की शेरशाह जैसी बड़ी और छोटी फिल्में दर्शकों के सामने आई, जरूर पर बड़े परदे की तरह प्रभावित नहीं कर सकी। इनमें से चंद फिल्मों को दर्शकों का अच्छा प्रतिसाद मिला। लेकिन, अमिताभ बच्चन जैसे कलाकार की 'गुलाबो-सिताबो' और अक्षय कुमार की 'लक्ष्मी' ने तो पानी तक नहीं मांगा। अक्षय कुमार की 'बेल बॉटम' भी पसंद जरूर की गई, पर कोई कमाल नहीं कर सकी। अजय देवगन की 'भुज: द प्राइड ऑफ इंडिया' को भी ओटीटी के दर्शकों ने नकार दिया। सुशांत सिंह की अंतिम फिल्म 'दिल बेचारा' जरूर ओटीटी पर पसंद की गई, पर इसका कारण एक कलाकार की आखिरी फिल्म को देखकर श्रद्धांजलि देना भर था। 
     धीरे-धीरे हवा बदली, कोरोना का प्रकोप कम हुआ, जीवन सामान्य हुआ और लोग घरों से निकले, कामकाज शुरू हुआ और इसके साथ ही सिनेमाघरों में भी रौनक बढ़ने लगी। जहाँ सिर्फ आधी सीटों पर ही दर्शकों को बैठने की अनुमति थी, वहां कुछ राज्यों को छोड़कर दिवाली से सिनेमाघरों की सभी सीटों के लिए टिकट मिलने लगे। अक्षय कुमार की सूर्यवंशी, रजनीकांत की 'अन्नाथे' और हॉलीवुड फिल्म 'इटरनल्स' रिलीज हुई और चल पड़ी। ये स्थिति 19 महीने बाद आई। फ़िल्मी दुनिया को जिस दीवाली का इंतजार था, वह समय आ गया। इन तीन फिल्मों ने जो कारोबार किया, वह निर्माताओं की उम्मीद से बहुत ज्यादा अच्छा रहा। अच्छी कमाई होने से मायूस बॉक्स ऑफिस भी खिलखिलाने लगा। 'सूर्यवंशी' के निर्माता रोहित शेट्टी ने फिल्म की रिलीज के लिए करीब डेढ़ साल तक इंतजार किया। पहले यह फिल्म मार्च 2020 में रिलीज होने वाली थी। लेकिन, महामारी के कारण सिनेमाघर बंद होने से यह रिलीज नहीं हो सकी थी। अब बदले माहौल से शाहरुख खान की नई फिल्म 'पठान' और आमिर खान की 'लाल सिंह चड्ढा' और रणवीर सिंह की '83' को भी उम्मीद बंधी है कि दर्शक उन्हें देखने सिनेमाघर तक आएंगे। 
   दक्षिण के सितारे रजनीकांत की फिल्म 'अन्नाथे' के लिए एडवांस बुकिंग होना, वास्तव में अप्रत्याशित घटना ही मानी जाएगी। रिलीज हुई तीसरी फिल्म है 'इटरनल्स' जिसने अच्छा कारोबार किया। 'अन्नाथे' ने तो पहले सप्ताहांत करीब 73 करोड़ का कारोबार किया। इन तीनों फिल्मों ने महाराष्ट्र में भी अच्छा कारोबार किया। जबकि, वहां सिनेमाघरों को 50 प्रतिशत क्षमता के साथ शुरू किया गया है। फिल्मों का करीब 30% कारोबार मुंबई में होता है। बॉक्स ऑफिस पर इन फिल्मों की कमाई से साबित होता है कि आगे आने वाली फिल्मों के लिए रास्ता खुल गया है। फिल्म कारोबार के जानकारों का मानना है कि पिछले कोरोना कल के डेढ़ सालों में फिल्म इंडस्ट्री को 10 से 12 हजार करोड़ का नुकसान हुआ। इस नुकसान की जल्दी पूर्ति होना तो संभव नहीं है, पर शुरुआत में रिलीज हुई तीन फिल्मों को दर्शकों ने जिस तरह हाथों-हाथ लिया है, उससे संभावनाओं के नए दरवाजे जरूर खुले हैं।  
   कोरोना काल के बाद पहली बार इस साल रक्षाबंधन के मौके पर दर्शकों ने सिनेमाघरों का रुख किया था। अक्षय कुमार फिल्म 'बेल बॉटम' को दर्शकों  और समीक्षकों की तरफ से अच्छी प्रतिक्रिया भी मिली थी। लेकिन, फिल्म ने जितनी कमाई की, उस हिसाब से देखा जाए तो देशभर में सिनेमा से मनोरंजन का 40% बाजार बचा था। बेल बॉटम' की पहले दिन की कमाई 2.75 करोड़ थी, दूसरे दिन भी 2.75 करोड़ रुपए का बिजनेस रहा, जबकि तीसरे दिन फिल्म ने 3.25 करोड़ रुपए का बिजनेस किया था। पहले वीकेंड में फिल्म ने 13 करोड़ से थोड़ा ज्यादा कारोबार किया। ये उस समय की बात है, जब महाराष्ट्र के सभी सिनेमाघर बंद थे। लेकिन, फिर भी संकटकाल में फिल्म को रिलीज करना वास्तव में हिम्मत का ही काम था। जबकि, अजय देवगन की 'भुज: द प्राइड ऑफ इंडिया' जैसी फिल्म सिर्फ इसलिए नकार दी गई, कि उसे दर्शकों ने ओटीटी पर देखा था। इस फिल्म से जो उम्मीद गई थी, फिल्म उस कसौटी पर भी खरी नहीं उतरी। घर बैठे दर्शकों को फिल्म का स्क्रीनप्ले बेहद कमजोर लगा। फिल्म को डायरेक्शन के मामले में भी ठीक नहीं पाया गया। ये प्रतिक्रिया सही है या गलत, पर देखा गया है कि कोरोना काल में ओटीटी प्लेटफॉर्म पर प्रदर्शित फिल्मों को दर्शकों की प्रतिक्रिया ने ही हिट या फ्लॉप किया।माउथ पब्लिसिटी के कारण कई अच्छी फ़िल्में भी नहीं देखी गई।   
    कोरोना की पहली लहर के कमजोर पड़ने के बाद इस साल मार्च में जब कई राज्यों में आंशिक रूप सिनेमाघर खुले, तो कुछ फिल्म निर्माताओं ने हिम्मत की। रूही, मुंबई सागा और 'संदीप और पिंकी फरार' रिलीज हुई। लेकिन, तीनों ही फ़िल्में दर्शकों को पसंद नहीं आई। लेकिन, ये हिम्मत ज्यादा दिन नहीं चली और अप्रैल में महामारी की बढ़ती विकरालता के बाद नई फिल्मों के प्रदर्शन पर फिर रोक लग गई। मुंबई में सिनेमाघरों के बंद रहने के कारण कंगना रनौत की 'थलाईवी' जैसी फिल्म धराशाई हो गई। इसका कारण यह कि ओटीटी प्लेटफार्म और सिनेमाघरों के दर्शकों में काफी अंतर है। सबसे बड़ा फर्क माहौल का पड़ता है। दर्शक जब सिनेमाघर में बैठता है, तो उसके आसपास भी दर्शक होते हैं और एक फिल्म देखने का ख़ास तरह का माहौल बनता है, जो ओटीटी पर कभी नहीं बन सकता! सिनेमाघर में दर्शक को पूरी फिल्म एक बार में देखना पड़ती है, जबकि ओटीटी पर किस्तों में फिल्म देखी जाती है, जो दर्शक को बांधकर नहीं रख पाती।  
    दिवाली पर मनोरंजन का बाजार फिर खुलने के बाद दिसंबर भी फिल्म कारोबार के लिए संभावनाओं से भरा देखा जा रहा है। सलमान खान की 'अंतिम' और जॉन अब्राहम की 'सत्यमेव जयते-2' भी नवम्बर में रिलीज होना है। 'अंतिम' में सलमान के साथ आयुष शर्मा हैं। आयुष की पहली फिल्म 'लव यात्री' नहीं चल सकी थी। बहनोई आयुष के करियर की मदद के लिए सलमान खान पारस पत्थर साबित हो सकते हैं। लेकिन, 'अंतिम' के सामने जॉन अब्राहम की फिल्म अपना असर दिखा सकती है। नवंबर में ही सैफ अली और रानी मुखर्जी की 'बंटी और बबली-2' भी परदे पर उतरेगी। इसके बाद पृथ्वीराज, शमशेरा, जयेशभाई जोरदार जैसी फ़िल्में बनकर तैयार है। कोरोना काल के बाद 'यशराज फिल्म्स' के लिए आने वाला समय भी कुछ ख़ास है। आदित्य चोपड़ा अपनी सर्वकालीन हिट फिल्म 'दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे' को ‘कम फॉल इन लव’ के नाम से नए कलाकारों के साथ परदे पर उतारने जा रहे हैं। लेकिन, अब सिनेमाघरों के खुलने और लगातार तीन फिल्मों के हिट होने के बाद बॉक्स ऑफिस पर अच्छे परिणामों की उम्मीद बढ़ी जरूर है। लेकिन, फिर भी ये सवाल जिंदा है कि क्या फिल्म इंडस्ट्री में सब कुछ पहले जैसा हो सकेगा, जो महामारी से पहले था। 
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