Saturday, January 30, 2021

46 साल बाद भी खड़ी है 'दीवार!'


- हेमंत पाल

   फ़िल्मी दुनिया की यादगार फिल्मों की फेहरिस्त बनाई जाए, तो उसमें 'दीवार' को भूलाया नहीं सकता! ये एक ऐसी फिल्म थी, जिसने न सिर्फ अमिताभ बच्चन को एंग्री यंगमैन के किरदार में स्थापित किया, बल्कि उस छवि को आगे भी बढ़ाया। कई मामलों में ये एक ट्रेंड सेटर फिल्म भी थी। ये गुस्सैल, नास्तिक पर माँ के प्रति समर्पित ऐसे नायक की फिल्म थी, जिसमें हर कलाकार ने यादगार भूमिका निभाई थी। 'दीवार' सिनेमा की दुनिया की उन चुनिंदा फिल्मों में है, जो 46 साल बाद भी यादगार बनी हुई है। कहा जाता है कि अमिताभ के विजय वर्मा का किरदार उस समय के मुंबई माफिया सरगना हॉजी मस्तान के जीवन का नाटकीय रूपांतरण था। जबकि, इस फिल्म को 'गंगा जमुना' और 'मदर इंडिया' से प्रभावित भी बताया जाता है। यश चोपड़ा निर्देशित इस फिल्म ने 'शोले' के बाद सलीम-जावेद को पॉपुलर फिल्म लेखक बना दिया था। 'जंजीर' ने जिस अमिताभ को एंग्री यंगमैन की पहचान दी 'दीवार' उसकी अगली कड़ी थी। इसके बाद ये नायक की ऐसी पहचान बन गई, जिसे अमिताभ ने तीन दशक तक भुनाया। सलीम-जावेद की अधिकांश फिल्मों में नायक का पिता से विद्रोह नजर आता है ('त्रिशूल' की तरह) लेकिन 'दीवार' में नायक के साथ उन्होंने माँ से रिश्ते का एक मार्मिक पहलू भी जोड़ा था।  
   जिस दौर में 'दीवार' आई थी, तब भारतीय समाज बदलाव की स्थिति में था। रहन-सहन, सोच, सामाजिक परिवेश के साथ युवा महत्वाकांक्षा भी कुंचाल भर रही थी। आजादी के बाद की दूसरी पीढ़ी बड़ी हो गई थी और बदलाव के इस समय में युवाओं में एक आक्रोश पनप रहा था। इसका सबसे बड़ा चेहरा बनी अमिताभ की दो फ़िल्में। पहली थी 'जंजीर' जिसमें उसकी आँखों के सामने पिता की हत्या हो जाती है। यही गुस्सा उसके जहन में उबलता रहता है। फिल्म में अमिताभ एक पुलिस अधिकारी थे, जो सिस्टम का शिकार होता था। इसी श्रृंखला की दूसरी फिल्म बनी 'दीवार' जिसने पूरे सिस्टम ठेंगा बता दिया था। महानगरों में गुंडागर्दी और उसकी आड़ में तस्करी का धंधा पनप रहा था। इसी आक्रोश का चेहरा बने अमिताभ बच्चन। 
   फिल्म का बेहद सशक्त सीन था अमिताभ बच्चन की बाँह पर 'मेरा बाप चोर है' लिखना। एक मिल मजदूर यूनियन के नेता की ये भूमिका सत्येन कप्पू ने की थी, जिन्हें मालिकों ने षड्यंत्र से चोर साबित कर दिया जाता है। निरूपा रॉय ने दो बेटों को नैतिक मूल्यों के साथ संवारने वाली माँ जैसी सशक्त माँ का किरदार निभाया था। लेकिन, दोनों बेटे 'गंगा-जमुना' की तरह अलग-अलग रास्तों पर निकल पड़ते हैं। लेकिन, क्लाइमेक्स में निरूपा रॉय की छवि 'मदर इंडिया' की नरगिस जैसी माँ की भूमिका से मिलती-जुलती है! 
    'दीवार' में ऐसे कई ऐसे दृश्य थे, जो अपने समयकाल से काफी आगे थे। यही कारण है कि 46 साल बाद भी वे प्रासंगिकता लिए हैं। 1975 में जब ये फिल्म रिलीज हुई, तब ऐसा सोच भी नहीं गया था। अमिताभ बच्चन का घोर नास्तिक होना। माँ के साथ बचपन से मंदिर के अंदर नहीं जाना और बाहर खड़े रहना। छोटेपन में ही यह कहना कि वो भगवान को नहीं मानता, वो जो भी करेगा अपने दम पर करेगा। यह लड़का पॉलिश करके पैसा कमाता है, लेकिन पॉलिश कराने वाले एक सेठ के पैसे फैंककर देने पर उससे कहता है 'मैं फैंके हुए पैसे नहीं उठाता।' चार दशक पहले किसी फिल्म में ऐसे दृश्यों और नायक के इतने विद्रोही रुख के बारे में सोचा भी नहीं जाता था। क्योंकि, तब फिल्म का नायक एक सद्चरित्र और सामाजिक होता था। भगवान को मानता था और परिवार के प्रति अपने दायित्व समझता था। पर, 'दीवार' फिल्म का नायक उस दौर के सारे नायकीय गुणों से परे था। जबकि, फिल्म में नायक के नास्तिक होने के बावजूद उसका कुली के बिल्ला नंबर 786 के प्रति उसकी आस्था बनी रहती है। फिल्म के अंत में जब छोटा भाई उसे गोली मारता है, तो यही बिल्ला उसके हाथ से छिटक जाता है।     
   फिल्म में अमिताभ डॉकयार्ड के कुली की भूमिका में थे, जहां के मजदूरों से वहाँ के गुंडे हफ्ता वसूली करते थे। एक दिन ये गुस्सैल कुली उन बदमाशों से भिड़ जाता है। लेकिन, उससे पहले अमिताभ का एक डायलॉग उस भिड़ंत का संकेत देता है। वे साथ काम करने वाले रहीम चाचा से कहते भी हैं 'जो पच्चीस बरस में नहीं हुआ, वो अब होगा। अगले हफ्ते एक और कुली इन मवालियों को पैसे देने से इंकार करने वाला है।' जब ये हफ्ता वसूली करने वाले उसे ढूंढ़ रहे होते हैं, तब ये कुली उनके गोदाम में ही उनका इंतजार कर रहा होता है! ये वो दृश्य था, जिसे फिल्म में सबसे ज्यादा तालियाँ मिली थी। उस दृश्य में एक डायलॉग था 'पीटर तेरे आदमी मुझे बाहर ढूंढ रहे हैं और मैं तुम्हारा यहां इंतजार कर रहा हूं।' वे गोदाम का दरवाज़ा अंदर से बंद करके चाभी पीटर की तरफ फैंकते हुए कहते हैं 'ये चाभी अपनी जेब में रख ले, अब ये ताला मैं तेरी जेब से चाभी निकालकर ही खोलूंगा!' फिल्म के ये कुछ ऐसे दृश्य थे, जिन्होंने अमिताभ के नायकत्व को चिरस्थाई बना दिया था। 
     फिल्म का भाइयों के बीच का एक दृश्य भी यादगार है। इसमें स्मगलर बना बड़ा भाई आक्रोश में छोटे भाई से कहता है 'आज मेरे पास बंगला है, गाड़ी है, बैंक बैलेंस है, तुम्हारे पास क्या है? सामने खड़ा शशि कपूर धीमी आवाज़ में कहते हैं 'मेरे पास मां है।' छोटे भाई के इस जवाब से अमिताभ का सारा दंभ धराशाई हो जाता है। फिल्म के अंतिम दृश्य में नास्तिक नायक का मंदिर में माँ की गोद में दम तोड़ना भी दर्शक भूल नहीं पाए हैं। फिल्म के ये कुछ ऐसे दृश्य थे, जिन्होंने उसे कालजयी बनाया।  
  1975 के साल को हिंदी फिल्मों के कभी न भूलने वाले समयकाल के रूप में इसलिए भी गिना जाता है, कि इस साल में चार ऐसी फ़िल्में आई, जो कई मामलों में मील का पत्थर बनी! शोले, धर्मात्मा, जय संतोषी मां और 'दीवार' ने कमाई के मामले में भी रिकॉर्ड बनाया। उस साल तीन फिल्मों ने 'दीवार' से ज्यादा कमाई की। लेकिन, उससे भी 'दीवार' का जादू कम नहीं हुआ। सबसे कम लागत में बनी 'जय संतोषी माँ' ने ज्यादा ज्यादा कमाई की थी। जबकि, एक करोड़ रुपए 'दीवार' ने तब कमाए, जब टिकट दर डेढ़ से तीन रुपए हुआ करती थी। 'दीवार' ने 1976 में साल की 'बेस्ट मूवी' के ख़िताब के साथ छह फिल्मफेयर अवॉर्ड जीते थे। सर्वश्रेष्ठ सहअभिनेता व सहअभिनेत्री को छोड़कर सभी अवॉर्ड 'दीवार' के खाते में गए थे। आज 46 साल बाद इस फिल्म के 12 में से 10 बड़े किरदार दुनिया में नहीं हैं। अमिताभ बच्चन के अलावा नीतू सिंह ही हैं, जिन्होंने इस फिल्म में मुख्य भूमिकाएं निभाई थी।   
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Saturday, January 23, 2021

परदे की दुनिया में आस्था का मज़ाक

- हेमंत पाल

    लॉकडाउन के दौरान जब सिनेमाघर बंद हो गए और फिल्म के शौकीनों के पास कोई विकल्प नहीं बचा, तब ओटीटी प्लेटफॉर्म की डिमांड बढ़ी! लोगों ने वेब सीरीज देखना शुरू किया और इसके साथ ही इसकी खामियों पर भी नजर पड़ी। खुलेआम गालियों और अश्लील दृश्यों के अलावा वेब सीरीज की एक सबसे बड़ी खामी हिंदू देवी-देवताओं के प्रति निरर्थक टिप्पणियाँ और उनका मजाक उड़ाना भी है! 'तांडव' ऐसी ही एक वेब सीरीज है, जिसे लेकर लोगों का विरोध सामने आया। इस वेब सीरिज़ का नाम नृत्य के एक रूप 'तांडव' पर रखा, जो भगवान शिव समेत हिंदू देवताओं से जुड़ा है। आरोप है कि इस वेब सीरीज में भगवान शिव के बारे में कुछ आपत्तिजनक बातें भी कही गई! इस तरह का ये पहला मामला नहीं है। कुछ दिन पहले एक अन्य वेब सीरीज 'ए सूटेबल बॉय' पर भी मंदिर की पवित्रता भंग करने का आरोप लगा था। एक ही एपिसोड में कई बार मंदिर परिसर में चुंबन दृश्य फ़िल्माए गए। पटकथा के अनुसार मुस्लिम युवक को हिंदू महिला प्रेम करती है! लेकिन, सवाल उठता है कि सभी चुंबन दृश्य मंदिर परिसर में ही क्यों फिल्माए गए!  
    पहले फिल्मों में और अब वेब कंटेंट में हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को आहत करना एक शगल बन चुका है। फिल्मकारों को लगता है कि ऐसे विवाद उठेंगें तो दर्शक आकर्षित होंगे और फिल्म या वेब सीरीज चलेगी। सैफ अली खान ने चर्चित वेब सीरीज 'सेक्रेड गेम्स' में सरदार की भूमिका निभाई है। इसमें  सैफ का किरदार सरताज नाम का सरदार था, जो एक दृश्य में हाथ में पहनने वाला कड़ा निकालकर फेंक देते हैं, जिसे लेकर विवाद खड़ा हुआ था। अपहरण, गंगाजल और 'आरक्षण' जैसी हिट फिल्म बनाने वाले प्रकाश झा की वेब सीरीज 'आश्रम' को लेकर भी विवाद हुआ था। सीरीज में बॉबी देओल ने बाबा निरालापुर काशीपुर वाले का किरदार निभाया है। इस पर भी रोक लगाने की मांग उठी थी। 
   लॉकडाउन के बाद ओटीटी पर रिलीज हुई अक्षय कुमार की फिल्म 'लक्ष्मी' (जिसका नाम पहले 'लक्ष्मी बॉम्ब' था) को लेकर भी विरोध पनपा था। निर्माता ने सोचा होगा कि फिल्म के नाम के साथ 'बॉम्ब' लगाने से फिल्म हिट हो जाएगी। लेकिन, विरोध के कारण फ़िल्म का टाइटल बदलना पड़ा। यह तमिल में बनी फिल्म 'कांचना' का हिंदी रीमेक था। तमिल फिल्म में बुराई पर अच्छाई की जीत होने पर पार्श्व में गीता के श्लोक सुनाई देते हैं। जबकि, 'लक्ष्मी' में ऐसा कुछ नहीं है। देखा जाए तो रीमेक में 'कांचना' के वे सारे दृश्य नहीं फिल्माए गए, जहां हिंदू धर्म की अच्छाइयों को दर्शाया गया था। यही कारण रहा कि 'लक्ष्मी' एक हिंदू विरोधी फिल्म बनकर रह गई! इससे पहले विरोध होने पर संजय लीला भंसाली की फिल्म 'राम लीला' का नाम बदलकर 'गोलियों की रासलीला-रामलीला' रखा गया था। फिल्म में दीपिका पादुकोण और रणवीर सिंह मुख्य भूमिकाओं में थे। फिल्म का नाम सामने आने के बाद इतना विवाद हुआ कि निर्माता को फिल्म का नाम बदलना पड़ा। कई हिंदूवादी संगठनों ने इसके खिलाफ प्रदर्शन किए और सिनेमाघरों को नुकसान पहुँचाने की धमकी दी थी, इसके बाद ही फिल्म का नाम बदला गया। 
     सलमान खान के जीजा आयुष शर्मा की पहली फिल्म 'लवरात्रि' का नाम भी ‘लवयात्री’ किया गया था। इस फिल्म के नाम को लेकर भी आपत्ति आई थी। हिंदू संगठनों का आरोप था कि फिल्म के नाम से हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचती है। ओटीटी पर रिलीज हुई फिल्म 'लूडो' को लेकर भी सवाल उठे। इस फिल्म में चार कहानियों को एक में पिरोया गया! लेकिन, आरोप है कि निर्देशक अनुराग बासु ने यहाँ भी अपनी हिंदू विरोधी सोच का तड़का लगाने का मौका नहीं छोड़ा। हिंदू धर्म और संस्कृति को निशाना बनाने के लिए उन्होंने पांडवों को गलत और कौरवों को सही करार दिया, वहीं ब्रह्मा, विष्णु और महेश के रूपों का भी उपहास बनाया। 
    आमिर खान की फिल्म 'पीके' को लेकर हिंदू संगठनों ने बहुत विरोध किया था। उनका कहना था कि फिल्म में हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को आहत किया गया। फिल्म के ऐसे दृश्य हटाने की मांग भी उठी थी। इस फिल्म में एक पाखंडी संत को बहुत ज्यादा महिमा मंडित किया गया था! लेकिन, इतने विरोध और मामला अदालत तक जाने के बावजूद न तो फिल्म पर रोक लगी और न कोई दृश्य हटाया गया। उत्‍तराखंड में 2013 में आई प्राकृतिक आपदा की पृष्‍ठभूमि पर बनी फिल्‍म 'केदारनाथ' भी विवादों में रही। इस फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की मांग करते हुए आरोप लगाया कि इस फिल्म ने हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाया है। इस पर लव जिहाद को भी बढ़ावा देने का आरोप लगा था। फिल्म के टीजर में सुशांतसिंह राजपूत और सारा अली खान के बीच एक चुंबन दृश्य दिखाया गया। इसके पोस्टरों में टैगलाइन थी 'लव इज ए पिलग्रिमेज' जिस पर आपत्ति जताते हुए कहा गया था कि यह हिंदू धर्म पर हमला है। क्योंकि, केदारनाथ करोड़ों हिंदुओं की आस्था को व्यक्त करता है। 
    हिंदू आस्था के प्रति गंभीर विचार रखने वालों का कहना है, कि ऐसी फिल्में और वेब सीरीज दिखाकर हिंदुओं की धार्मिक आस्था को चोट पहुंचाई जाती है। 'गोलियों की रासलीला : राम लीला' में राम की भूमिका को गलत तरीके से दर्शाया गया था। जोधा-अकबर में भी तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया और अकबर को सकारात्मक ढंग से दिखाया था। 'बाजीराव मस्तानी' में भी मस्तानी को सीधा दिखाया गया, लेकिन वास्तव में मस्तानी बेहद सख्त और राजा के हर फैसले में दखलंदाजी करने वाली थी। प्रियंका चोपड़ा ने हॉलीवुड में जो 'क्वांटिको' शो किया, उसमें भी हिंदू आतंकवाद की कहानी दिखाई गई है। इसमें पाकिस्तान को पीड़ित पक्ष दिखाया है। अगर सिनेमा को देश और समाज का आईना माना जाता है, तो समाज के हर धर्म का ध्यान रखा जाना चाहिए। यदि वास्तव में फिल्मों में समाज का सही चेहरा दिखाया जाता है, तो परदे पर सभी धर्मो के बारे में दिखाना जाना जरुरी है। सिर्फ एक धर्म को निशाने पर रखकर दूसरे धर्मो को नज़रअंदाज़ किया जाता रहा, तो इससे देश में बदलाव नहीं होगा बल्कि विवाद ही पनपेंगे। 
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Sunday, January 10, 2021

देवर-भाभी के रिश्तों का लम्बा दौर!

- हेमंत पाल 

  भाभी ऐसा रिश्ता है, जिसे भारतीय समाज में उतना ही सम्मान मिला है जितना माँ को! पौराणिक काल में सीता जैसी भाभी हुई, तो स्वातंत्रय काल में दुर्गा भाभी ने अपने देवरों के साथ मातृवत व्यवहार कर इस रिश्ते की गरिमा को बढाया। वैसे तो देवर-भाभी के बीच बेटे और माँ की तरह संबंध रहता है। लेकिन, उत्तर और पूर्वी भारत में देवर-भाभी के रिश्तों में मीठी नोंकझोक भी देखी जाती है। देवर-भाभी के इसी खट्टे-मीठे रिश्तों को फिल्मों और टीवी सीरियल्स में भी जमकर भुनाया। कभी इस विषय पर दर्शकों को हंसाया, रूलाया और गुदगुदाया तो कभी साजिशों का भी दौर चला!
   जब मनोरंजन जगत में छोटे परदे का आगाज नहीं हुआ था, तब फिल्मों में भाभी का महिमा मंडन कुछ ज्यादा ही हुआ! 1957 में एवीएम ने 'भाभी' शीर्षक से फिल्म बनाई, जिसमें बलराज साहनी, नंदा, पंढरीबाई, ओमप्रकाश और जगदीप की प्रमुख भूमिका थी। फिल्म में भाइयों के बीच संपत्ति के बंटवारे और देवर-भाभी के बीच स्नेह की चाशनी का तड़का था। फिल्म को आंसुओं में भिगोकर 'चली चली रे पतंग मेरी चली रे' और 'चल उड़ जा रे पंछी' के अलावा 'टाई लगाके माना बन गए जनाब हीरो' जैसे चुहलबाजी वाले गीतों के साथ प्रस्तुत की गई थी। उसके बाद 1961 में आई 'भाभी की चूड़ियाँ' भी लगभग इसी फार्मूले का नया ट्रीटमेंट था। इसमें भी बलराज साहनी की मुख्य भूमिका थी। इस फिल्म में देवर-भाभी की भूमिका में शैलेष कुमार और मीनाकुमारी ने दर्शकों को आँसुओं में भिगोकर साथ बाॅक्स ऑफिस पर पैसा बटोरा था। इस फिल्म में सुधीर फडके और पंडित नरेन्द्र शर्मा की रचना 'ज्योति कलश छलके' आज भी उतना ही लोकप्रिय है।
   हिन्दी फिल्मों की भाभियों में निरूपा राय, श्यामा, जयश्री टी, इंद्राणी मुखर्जी ,शशिकला, रेणुका शहाणे ने बडे पर्दे को रोशन किया, तो मीना कुमारी , शर्मिला टैगोर, हेमा मालिनी और रेखा जैसी नायिकाओं ने भी समय-समय पर भाभी बनकर दर्शकों का मनोरंजन किया। छठे दशक से लेकर नौंवें दशक तक देवर-भाभी को लेकर कभी पूरी फिल्में बनी, तो कई फिल्मों में इस रिश्ते को उपकथा बनाकर कहानी को आगे बढाया गया। छठे और सातवें दशक में पारिवारिक फिल्मों में भाभियों का किरदार लम्बा चला। नायक के बड़े भाई की पत्नी जो नायक से पुत्रवत प्रेम करती है। जबकि, उनके पति किसी दूसरी महिला या कोठे वाली के चक्कर में पड़कर भाभी को आँसू बहाने पर मजबूर करते हैं। ऐसे में तो देवर अपनी भाभी को सुख दिलाने के चक्कर में खुद अपनी जिंदगी बरबाद कर लेता है। फिल्म की आखिरी रील में भाभी का त्याग और देवर की कोशिशें रंग लाती और फिल्म की शुरूआत से रुआंसे हुए दर्शक हंसते-हंसते घर रवाना होते थे। देवानंद की 'लव मैरिज' और शम्मी कपूर की 'जानवर' ऐसी ही फिल्में थी। राजश्री ने भी अपनी फिल्मों में देवर-भाभी के रिश्ते को गहराई तक भुनाया। 'नदिया के पार' और उनके नए संस्करण 'हम आपके हैं कौन' के अलावा राजश्री की कई फ़िल्में हैं, जिनमें भाभी की भूमिका को ऊंचाई दी गई।    
   इस विषय पर दूसरे तरह की फिल्मों में देवर-भाभी के निश्च्छल प्रेम को अवैध संबंध बताकर कभी नायक के भाई तो कभी नायिका को नाराज करने का प्रयोग किया जाता रहा। 'शरारत' में मीना कुमारी और किशोर कुमार के पवित्र रिश्ते में दरार पैदा करके राजकुमार के दिल में गलत फहमी पैदा की गई थी। 'घराना' और 'घूँघट' में राजेन्द्र कुमार अपनी भाभी से स्नेह कर अपनी प्रेमिका के दिल में गलतफहमी पैदा करवा देते है। लेकिन, इन फिल्मों का अंत अकसर सुखांत ही होता था। हिन्दी फिल्मों ने भाभियों को जितना सम्मान दिया, छोटे पर्दे पर एकता कपूर जैसी निर्माताओं ने 'भाभी' का उतना ही सत्यानाश किया! उनके सीरियलों की भाभियां तितलियों की तरह होती हैं, जो हर समय दांत पीसते हुए ही डायलाॅग बोलती है। कॉमेडी सीरियल 'भाभीजी घर पर हैं' की भाभियां तो पड़ौसी देवरों को सेड्यूस कर छिछोरी हरकतें किया करती हैे। 
   ऐसा नहीं कि सभी हिन्दी फिल्मों की भाभियां अपने देवरों पर प्यार उंडेलती ही दिखाई देती है। जयश्री टी, श्यामा, बिंदु और शशिकला जैसी भाभियों ने भाईयों के बीच दीवार खड़ी करके नायक को घर से बाहर का रास्ता दिखाने का भी काम किया है। लेकिन, पति या बेटे-बेटी के बीमार होने पर या 'दो रास्ते' की तरह पति से थप्पड खाकर ये भाभियाँ भी फिल्म के अंत तक सुधर जाती है। भाभी से इस तरह प्रताड़ित होने वाले देवरों में जितेन्द्र, ऋषि कपूर, गोविंदा और राजेश खन्ना को महारथ हांसिल थी ,ये रील दर रील भाभी मां का राग अलाप कर दर्शकों की आंखें नम कर फिल्मों को सफल बना देते थे।
   देवर -भाभी के पवित्र रिश्तों पर बनी अब तक की फिल्मों में राजेन्द्रसिंह बेदी के उपन्यास 'एक चादर मैली सी' सबसे ज्यादा उल्लेखनीय है। यह पंजाब की ऐसी रूढ़ीवादी परंपरा को दिखाती है, जिसमें बड़े भाई की मौत के बाद भाभी को उसके देवर से शादी करने के लिए मजबूर किया जाता था। 'एक चादर मैली सी' में बड़े भाई के मरने के बाद रानो को उसके देवर मंगल से चादर ओढ़ाने के लिए कहा जाता है, जिसे भाभी ने अपने बेटे की तरह पाला था। पहली बार गीताबाली ने 'रानो' नाम से इस फिल्म को बनाया गया, जिसमें राजेश खन्ना को प्रमुख भूमिका दी गई थी। लेकिन, बाद में धर्मेन्द्र को लेकर यह फिल्म बनाई गई। फिल्म लगभग पूरी भी हो गई थी। इसी बीच गीताबाली का निधन हो गया। फिल्म ने राजेन्द्रसिंह बेदी और शम्मी कपूर को इतना दुखी कर दिया कि बेदी ने गीताबाली की चिता पर ही फिल्म की पटकथा को जला दिया और शम्मीकपूर ने फिल्म की सारी निगेटिव को भी आग के हवाले कर दिया था। बाद में 1986 में सुखवंत ढड्डा ने हेमामालिनी, ऋषिकपूर और पूनम ढिल्लो को लेकर 'एक चादर मैली सी' का निर्माण किया था। लेकिन, फ़िल्मी दुनिया में अनिल कपूर और श्री देवी की वास्तविक देवर-भाभी की जोड़ी भी थी, जिसने कई फिल्मों में नायक-नायिका के किरदार निभाए! लेकिन, परदे से इतर अनिल कपूर अपनी भाभी को पूरा सम्मान देते थे। 
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Saturday, January 9, 2021

हिंदी सिनेमा की करवट लेती नायिका!

हेमंत पाल 

    हिंदी सिनेमा मनोरंजन का सबसे सशक्त और सर्वसुलभ माध्यम रहा है। दशकों से लोक मनोरंजन का सिर्फ यही एक विकल्प है। पहले टीवी और अब ओटीटी ने मनोरंजन की इस दुनिया में सेंध जरूर लगाई, पर इसकी जड़ों पर इसका कोई असर नहीं हुआ! क्योंकि, सिनेमा सिर्फ मनोरंजन ही नहीं करता, सामाजिक बदलाव और उसके पीछे के सोच को दर्शाने का काम भी इसी का दायित्व है। सिनेमा के अलावा ऐसा कोई जरिया भी नहीं, जो ये दिखाए कि  समाज में कहाँ और क्या बदलाव आ रहा है! समाज में पुरुष वर्चस्व का ही प्रभाव सिनेमा में भी रहा है! दशकों से पुरुष प्रधान कथानक को फिल्मों में प्राथमिकता मिलती रही! कहानी का पूरा ताना-बाना किसी पुरुष पात्र के आस-पास ही घूमता रहा! ऐसी स्थिति में महिला पात्र की भूमिका को इतनी अहमियत नहीं मिली, कि वो कहानी की धारा को मोड़ दे! फिल्म की नायिका को गाहे-बगाहे विद्रोह का मौका भी मिला, तो प्रेम के वशीभूत होकर। अन्यथा श्रृंगारित नायिका का काम पुरुष पात्र को रिझाना, महिला दर्शकों को रुलाना और पुरुष दर्शकों की सहानुभूति बटोरने तक सीमित रहा है। 
    समय के गुजरने के साथ सिनेमा में महिला पात्र की भूमिका में बदलाव भी आया, पर इसमें काफी समय लगा! उसकी पतिव्रता वाली छवि, करवा चौथ पर पति के प्रति समर्पण का भाव और भारी साड़ियों से लदी इन नायिकाओं ने बगावत भी की, तो उसका भी एक दायरा रहा! फ़िल्मकारों ने उसे भी पारंपरिक और समर्पित ढांचे में ही दिखाया! क्योंकि, उन्हें समाज का डर इसलिए सताता रहा कि कहीं इसका असर फिल्म की सफलता पर न पड़े! किंतु, सिनेमा के इतिहास पर नज़र डालें तो ऐसी नायिकाओं को भी पाएंगे, जो इस मिथक को तोड़कर मुक्ति का मार्ग बनाया! लेकिन, ये कभी ट्रेंड नहीं बना!  
    ऐसा भी दौर आया जब हिंदी फिल्मों की नायिका ने अपनी चारित्रिक दृढ़ता को अपना हथियार बनाकर अपनी परंपरागत छवि को खंडित किया। नरगिस ने 'मदर इंडिया' में जो किया वो संभवतः नायिका के विद्रोह का पहला कदम था! उसके बाद दामिनी, लज्जा, मृत्युदंड, प्रतिघात, ज़ख्मी औरत, अंजाम, खून भरी मांग, और 'अस्तित्व' की नायिकाओं ने दयनीय और मासूम इमेज को किनारे कर पुरुष सत्ता को चुनौती दी और समाज के सामने कुछ सवाल खड़े किए। दरअसल, पचास के दशक के बाद की सिनेमा की नायिकांए मीना कुमारी, नूतन और नरगिस जैसी परम्परावादी रहीं! अमूमन साड़ी पहनने वाली इन नायिकाओं ने जो भी करना चाहा, वो अपनी आंखों से ज़ाहिर किया। क्योंकि, तब ये अपनी देह भाषा और रोमांटिक अंदाज के प्रति बेहद सचेत थी! समाज के साथ दर्शकों को भी यही भाता भी रहा! तब भी वैम्प जैसी भूमिकाएं निभाने वाली अभिनेत्रियां थी, पर उनकी भूमिकाएं अच्छे और बुरे का अंतर दिखाने के लिए ही ज्यादा होती थी।   
     ज्यादा दिन नहीं बीते जब सिनेमा पूरी तरह पुरुष केंद्रित था। महिला पात्र का काम नायक की सहचरी और त्याग करने वाली पत्नी से ज्यादा नहीं था! वो पति को आगे बढ़ने का मौका देती, उसके लिए अपनी काबलियत को हाशिए पर रख देती है! याद कीजिए 'अभिमान' फिल्म को जिसमें जया भादुड़ी पति अमिताभ बच्चन के लिए अपनी योग्यता को किनारे कर देती है। ‘दिलवाले दुलहनियाँ’ और ‘कुछ कुछ होता है’ की लंदन रिटर्न नायिका भजन गाने में भी गुरेज नहीं करती! कालजयी फिल्म 'साहब बीवी और गुलाम' की छोटी बहू अपने शराबी पति को तवायफ के यहाँ जाने से रोकने के लिए शराब पीने तक को राजी हो जाती है!  पैरों में गिरकर 'न जाओ सैंया, छुड़ा के बैयां' गाती है। लेकिन, फिर भी जमींदारी की ठसक से भरा पति नहीं पसीजता! इसी समय में ‘तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा, तुम्हीं देवता हो’ जैसा समर्पण से भरा गाना गाकर अपने असहाय होने का अहसास भी कराती है। मूक फिल्मों से 'अछूत कन्या' और 'मदर इंडिया' से होते हुए सुजाता, बंदिनी, दिल एक मंदिर, मैं चुप रहूंगी तक में नायिकाएं दशकों तक पति और परिवार के प्रति आराध्य बनी रहीं!
   अकसर यह सवाल उठता है, कि हिंदी फिल्मों में नायिका की दबी, कुचली और दोयम दर्जे की इमेज का दोषी कौन है! सिर्फ फ़िल्मकार को तो इसके लिए दोषी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि, फिल्मों में तो वही दिखाया जाता है, जो समाज की असलियत है। ये भी नहीं कहा जा सकता कि समाज में स्त्री स्वातंत्र्य का अध्याय पूरा हो गया और स्त्री अब पुरुष के समकक्ष खड़ी है! शहरों में रहने वाली चंद आधुनिक महिलाओं को स्त्री स्वातंत्र्य का प्रतीक नहीं कहा जा सकता! वास्तव में तो आज भी कुछ नहीं बदला! न तो ओहदा बदला है न समाज का सोच! ऐसे में फिल्मों पर तोहमत नहीं लगाई जा सकती! कुछ फिल्मों ने स्त्री जड़ता को तोड़ने का साहस जरूर किया। लेकिन, अभी बहुत कुछ बाकी है! सिनेमा में कई बार ये जद्दोजहद स्त्री के अस्तित्व को खोजने की अनवरत प्रक्रिया का हिस्सा दिखाई देता है। गॉडमदर, फायर ,मृत्युदंड और 'इश्किया' से ‘डर्टी पिक्चर’ तक में यही सब तो हुआ! क्या तीन दशक पहले किसी ने सोचा था कि 'अजीब दास्तां है ये कहाँ शुरू कहाँ ख़तम' और 'दिल एक मंदिर है, प्यार की जिसमें होती है पूजा' जैसे गाने गाती नायिका कभी क्वीन, हाइवे, गुलाबी गैंग और 'पिंक' जैसी फिल्मों में भी नजर आएगी! इसे सिनेमा में आया बड़ा बदलाव ही तो कहा जाना चाहिए!  
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Sunday, January 3, 2021

सिनेमा की बदलती भाषा और संस्कार!

- हेमंत पाल

   सिनेमा की भाषा कैसी हो? इस सवाल का सबसे सटीक जवाब है, जो दर्शक को अपनी सी लगे! लेकिन, सिनेमा के शुरूआती काल में भाषा रचनात्मक होने के साथ लोक और देशकाल की दृष्टि से सारगर्भित होती थी। इस तरह की भाषा में साफगोई के साथ श्लीलता और चारित्रिकता का भी पूरा ध्यान रखा जाता था। जबकि, आजकल बहुत चलताऊ शब्दों का प्रयोग होने लगा, जिसे अंग्रेजी में 'स्लैंग' कहा जाता है। इस भाषा में शुरू के 80 सालों से ज्यादा बाद के 25 सालों में बदलाव आया! कहा जा सकता है कि समय के साथ सिनेमा की तस्वीर भी बदली है। सिनेमा की शुरुआत 1913 में मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ से हुई थी! ये फिल्म बोलती नहीं थी, इसलिए भाषा का कोई मतलब भी नहीं था। लेकिन, 1931 में अर्देशर ईरानी ने फिल्मों को जुबान दी और पहली फिल्म बनी ‘आलम आरा!’ इसी फिल्म से संवादों की भी शुरुआत हुई! लम्बे समय तक भाषा स्पष्ट और सरल थी! जबकि, आज की फिल्मों की भाषा कहानी के साथ बदलती है।
      सिनेमा पर समाज के प्रभाव का सबसे अच्छा उदाहरण यही है कि जिन्हें हिंदी नहीं आती, वे दर्शक भी फ़िल्मी संवादों को समझ लेते हैं। सिनेमा में प्रयुक्त शब्द और संवाद का अपना अलग ही असर होता है। याद कीजिए, फिल्म 'शोले' को जिसका हर संवाद इतना लोकप्रिय हुआ कि आज भी बोला जाता है। ऐसे अहिन्दी भाषी राज्य जहाँ हिंदी बिल्कुल नहीं बोली जाती, वहां भी हिंदी फ़िल्में देखी और समझी जाती है। दरअसल, सिनेमा भाषा के प्रचार-प्रसार का एक जबर्दस्त माध्यम है। पूर्वोत्तर भारत में हिन्दी को लेकर कई प्रयास किए गए, लेकिन असर पड़ा सिर्फ सिनेमा से! अब वहाँ के लोग आसानी से हिन्दी और उसके प्रयोग समझ रहे हैं। ये भाषा और सिनेमा के अंतर्संबंधों का ऐसा सकारात्मक पहलू है, जिसकी किसी और प्रयोग से तुलना नहीं की जा सकती! 
   भाषा को लेकर पहले सरकारी स्तर पर भी काफी ध्यान रखा जाता था! ऐसे संवाद और गीत समाज में नहीं आते थे, जिन्हें विकृत समझा जाता था। लेकिन, सेंसर बोर्ड में राजनीति की घुसपैठ के बाद ये सब ख़त्म हो गया! तब इस बात तक का भी ध्यान रखा जाता था, कि रेडियो पर भी ऐसे गाने नहीं बजें, जिनके शब्द समाज को प्रभावित करते हैं! कई गाने ऐसे भी हुए, जिनके ग्रामोफोन रिकॉर्ड तो बने, पर, वे फिल्म में दिखाई नहीं दिए! ऐसा भी हुआ कि कई गानों के कुछ अंश फिल्म या रेडियो पर प्रतिबंधित कर दिए गए। कहा जा सकता है कि आज सिर्फ फिल्म ही नहीं फ़िल्मी गीतों में भाषा भी दूषित हो गई! कल्पना कीजिए 'तुझको मिर्ची लगी मैं क्या करूँ' जैसे गीत कभी 70 के दशक से पहले कभी सुनाई दिए थे! 
   1960 में बनी फिल्म छलिया का शीर्षक गीत ‘छलिया मेरा नाम' पर सेंसर बोर्ड ने आपत्ति उठाई थी! क्योंकि, इससे फिल्म के नायक के पॉकेटमार होने का पता चलता था! इस कारण ग्रामोफोन रिकाॅर्ड पर इसे 'छलिया मेरा नाम, छलना मेरा काम' से बदलकर 'छलिया मेरा नाम, छलिया मेरा नाम‘ कर दिया गया था। राज कपूर की फिल्म 'आवारा’ के समय भी ऐसी बातें उठी, पर इस तर्क को स्वीकारा गया, कि ये काम से जी चुराने वाले बेकार आदमी के लिए गढ़ा गया शब्द है! इसमें न तो अशिष्टता है और ये ऐसे काम को प्रचारित करता है। 'छलिया' फिल्म के ही एक और गाने ‘डम डम डिगा डिगा’ में भी बदलाव हुआ था। 'अंखियाँ झुकीं-झुकीं, बातें रुकीं-रुकीं देखो लुटेरा आज लुट गया' को बदलकर ‘अंखियां झुकीं-झुकीं, बातें रुकीं-रुकीं, देखो कोई रे आज कोई लुट गया’ किया गया था। गाने के दूसरे अंतरे के बीच के शब्दों 'धंधा खोटा सही, बंदा छोटा सही' को 'नसीबा खोटा सही, बंदा छोटा सही' किया गया। गीत के तीसरे अंतरे 'तेरी कसम तू मेरी जान है, मुखड़ा भोला-भाला, छुपके डाका डाला' तो काट ही दिया गया था। आशय यह कि फिल्मीं गीतों में द्विअर्थी शब्दों को लेकर पहले बहुत गंभीरता बरती जाती थी, जो काम अब नहीं होता!  
     अब बनने वाली अपराधिक फिल्मों में तो द्विअर्थी संवाद आम हो गए। गैंग्स आफ वासेपुर, ग्रेंड मस्ती, रामलीला, बाॅस और 'वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई' जैसी फिल्मों में बहुत हुआ। पहले की फिल्मों में छलिया और आवारा जैसे शब्दों को अच्छा नहीं समझा जाता था, पर अब कमीने, लफंगे  और बदतमीज जैसे शब्द सामान्य हो गए! इसे सिर्फ फिल्मों में भाषा की गिरावट कहना सही नहीं होगा! वास्तव में ये सामाजिक बदलाव का नमूना है। जिन शब्दों को सुनकर पहले अपमानबोध होता था, अब नहीं होता! कहा जाता है कि जैसा बदलाव समाज में होगा, वही फिल्मों में दिखाई देगा! इस नजरिए से समझा जा सकता है कि सामाजिक परिवर्तन ही सिनेमा का आधार होता है! समाज में विकृति आएगी, तो सिनेमा भी उसी का अनुसरण करेगा! 
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