Sunday, January 3, 2021

सिनेमा की बदलती भाषा और संस्कार!

- हेमंत पाल

   सिनेमा की भाषा कैसी हो? इस सवाल का सबसे सटीक जवाब है, जो दर्शक को अपनी सी लगे! लेकिन, सिनेमा के शुरूआती काल में भाषा रचनात्मक होने के साथ लोक और देशकाल की दृष्टि से सारगर्भित होती थी। इस तरह की भाषा में साफगोई के साथ श्लीलता और चारित्रिकता का भी पूरा ध्यान रखा जाता था। जबकि, आजकल बहुत चलताऊ शब्दों का प्रयोग होने लगा, जिसे अंग्रेजी में 'स्लैंग' कहा जाता है। इस भाषा में शुरू के 80 सालों से ज्यादा बाद के 25 सालों में बदलाव आया! कहा जा सकता है कि समय के साथ सिनेमा की तस्वीर भी बदली है। सिनेमा की शुरुआत 1913 में मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ से हुई थी! ये फिल्म बोलती नहीं थी, इसलिए भाषा का कोई मतलब भी नहीं था। लेकिन, 1931 में अर्देशर ईरानी ने फिल्मों को जुबान दी और पहली फिल्म बनी ‘आलम आरा!’ इसी फिल्म से संवादों की भी शुरुआत हुई! लम्बे समय तक भाषा स्पष्ट और सरल थी! जबकि, आज की फिल्मों की भाषा कहानी के साथ बदलती है।
      सिनेमा पर समाज के प्रभाव का सबसे अच्छा उदाहरण यही है कि जिन्हें हिंदी नहीं आती, वे दर्शक भी फ़िल्मी संवादों को समझ लेते हैं। सिनेमा में प्रयुक्त शब्द और संवाद का अपना अलग ही असर होता है। याद कीजिए, फिल्म 'शोले' को जिसका हर संवाद इतना लोकप्रिय हुआ कि आज भी बोला जाता है। ऐसे अहिन्दी भाषी राज्य जहाँ हिंदी बिल्कुल नहीं बोली जाती, वहां भी हिंदी फ़िल्में देखी और समझी जाती है। दरअसल, सिनेमा भाषा के प्रचार-प्रसार का एक जबर्दस्त माध्यम है। पूर्वोत्तर भारत में हिन्दी को लेकर कई प्रयास किए गए, लेकिन असर पड़ा सिर्फ सिनेमा से! अब वहाँ के लोग आसानी से हिन्दी और उसके प्रयोग समझ रहे हैं। ये भाषा और सिनेमा के अंतर्संबंधों का ऐसा सकारात्मक पहलू है, जिसकी किसी और प्रयोग से तुलना नहीं की जा सकती! 
   भाषा को लेकर पहले सरकारी स्तर पर भी काफी ध्यान रखा जाता था! ऐसे संवाद और गीत समाज में नहीं आते थे, जिन्हें विकृत समझा जाता था। लेकिन, सेंसर बोर्ड में राजनीति की घुसपैठ के बाद ये सब ख़त्म हो गया! तब इस बात तक का भी ध्यान रखा जाता था, कि रेडियो पर भी ऐसे गाने नहीं बजें, जिनके शब्द समाज को प्रभावित करते हैं! कई गाने ऐसे भी हुए, जिनके ग्रामोफोन रिकॉर्ड तो बने, पर, वे फिल्म में दिखाई नहीं दिए! ऐसा भी हुआ कि कई गानों के कुछ अंश फिल्म या रेडियो पर प्रतिबंधित कर दिए गए। कहा जा सकता है कि आज सिर्फ फिल्म ही नहीं फ़िल्मी गीतों में भाषा भी दूषित हो गई! कल्पना कीजिए 'तुझको मिर्ची लगी मैं क्या करूँ' जैसे गीत कभी 70 के दशक से पहले कभी सुनाई दिए थे! 
   1960 में बनी फिल्म छलिया का शीर्षक गीत ‘छलिया मेरा नाम' पर सेंसर बोर्ड ने आपत्ति उठाई थी! क्योंकि, इससे फिल्म के नायक के पॉकेटमार होने का पता चलता था! इस कारण ग्रामोफोन रिकाॅर्ड पर इसे 'छलिया मेरा नाम, छलना मेरा काम' से बदलकर 'छलिया मेरा नाम, छलिया मेरा नाम‘ कर दिया गया था। राज कपूर की फिल्म 'आवारा’ के समय भी ऐसी बातें उठी, पर इस तर्क को स्वीकारा गया, कि ये काम से जी चुराने वाले बेकार आदमी के लिए गढ़ा गया शब्द है! इसमें न तो अशिष्टता है और ये ऐसे काम को प्रचारित करता है। 'छलिया' फिल्म के ही एक और गाने ‘डम डम डिगा डिगा’ में भी बदलाव हुआ था। 'अंखियाँ झुकीं-झुकीं, बातें रुकीं-रुकीं देखो लुटेरा आज लुट गया' को बदलकर ‘अंखियां झुकीं-झुकीं, बातें रुकीं-रुकीं, देखो कोई रे आज कोई लुट गया’ किया गया था। गाने के दूसरे अंतरे के बीच के शब्दों 'धंधा खोटा सही, बंदा छोटा सही' को 'नसीबा खोटा सही, बंदा छोटा सही' किया गया। गीत के तीसरे अंतरे 'तेरी कसम तू मेरी जान है, मुखड़ा भोला-भाला, छुपके डाका डाला' तो काट ही दिया गया था। आशय यह कि फिल्मीं गीतों में द्विअर्थी शब्दों को लेकर पहले बहुत गंभीरता बरती जाती थी, जो काम अब नहीं होता!  
     अब बनने वाली अपराधिक फिल्मों में तो द्विअर्थी संवाद आम हो गए। गैंग्स आफ वासेपुर, ग्रेंड मस्ती, रामलीला, बाॅस और 'वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई' जैसी फिल्मों में बहुत हुआ। पहले की फिल्मों में छलिया और आवारा जैसे शब्दों को अच्छा नहीं समझा जाता था, पर अब कमीने, लफंगे  और बदतमीज जैसे शब्द सामान्य हो गए! इसे सिर्फ फिल्मों में भाषा की गिरावट कहना सही नहीं होगा! वास्तव में ये सामाजिक बदलाव का नमूना है। जिन शब्दों को सुनकर पहले अपमानबोध होता था, अब नहीं होता! कहा जाता है कि जैसा बदलाव समाज में होगा, वही फिल्मों में दिखाई देगा! इस नजरिए से समझा जा सकता है कि सामाजिक परिवर्तन ही सिनेमा का आधार होता है! समाज में विकृति आएगी, तो सिनेमा भी उसी का अनुसरण करेगा! 
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