Saturday, January 30, 2021

46 साल बाद भी खड़ी है 'दीवार!'


- हेमंत पाल

   फ़िल्मी दुनिया की यादगार फिल्मों की फेहरिस्त बनाई जाए, तो उसमें 'दीवार' को भूलाया नहीं सकता! ये एक ऐसी फिल्म थी, जिसने न सिर्फ अमिताभ बच्चन को एंग्री यंगमैन के किरदार में स्थापित किया, बल्कि उस छवि को आगे भी बढ़ाया। कई मामलों में ये एक ट्रेंड सेटर फिल्म भी थी। ये गुस्सैल, नास्तिक पर माँ के प्रति समर्पित ऐसे नायक की फिल्म थी, जिसमें हर कलाकार ने यादगार भूमिका निभाई थी। 'दीवार' सिनेमा की दुनिया की उन चुनिंदा फिल्मों में है, जो 46 साल बाद भी यादगार बनी हुई है। कहा जाता है कि अमिताभ के विजय वर्मा का किरदार उस समय के मुंबई माफिया सरगना हॉजी मस्तान के जीवन का नाटकीय रूपांतरण था। जबकि, इस फिल्म को 'गंगा जमुना' और 'मदर इंडिया' से प्रभावित भी बताया जाता है। यश चोपड़ा निर्देशित इस फिल्म ने 'शोले' के बाद सलीम-जावेद को पॉपुलर फिल्म लेखक बना दिया था। 'जंजीर' ने जिस अमिताभ को एंग्री यंगमैन की पहचान दी 'दीवार' उसकी अगली कड़ी थी। इसके बाद ये नायक की ऐसी पहचान बन गई, जिसे अमिताभ ने तीन दशक तक भुनाया। सलीम-जावेद की अधिकांश फिल्मों में नायक का पिता से विद्रोह नजर आता है ('त्रिशूल' की तरह) लेकिन 'दीवार' में नायक के साथ उन्होंने माँ से रिश्ते का एक मार्मिक पहलू भी जोड़ा था।  
   जिस दौर में 'दीवार' आई थी, तब भारतीय समाज बदलाव की स्थिति में था। रहन-सहन, सोच, सामाजिक परिवेश के साथ युवा महत्वाकांक्षा भी कुंचाल भर रही थी। आजादी के बाद की दूसरी पीढ़ी बड़ी हो गई थी और बदलाव के इस समय में युवाओं में एक आक्रोश पनप रहा था। इसका सबसे बड़ा चेहरा बनी अमिताभ की दो फ़िल्में। पहली थी 'जंजीर' जिसमें उसकी आँखों के सामने पिता की हत्या हो जाती है। यही गुस्सा उसके जहन में उबलता रहता है। फिल्म में अमिताभ एक पुलिस अधिकारी थे, जो सिस्टम का शिकार होता था। इसी श्रृंखला की दूसरी फिल्म बनी 'दीवार' जिसने पूरे सिस्टम ठेंगा बता दिया था। महानगरों में गुंडागर्दी और उसकी आड़ में तस्करी का धंधा पनप रहा था। इसी आक्रोश का चेहरा बने अमिताभ बच्चन। 
   फिल्म का बेहद सशक्त सीन था अमिताभ बच्चन की बाँह पर 'मेरा बाप चोर है' लिखना। एक मिल मजदूर यूनियन के नेता की ये भूमिका सत्येन कप्पू ने की थी, जिन्हें मालिकों ने षड्यंत्र से चोर साबित कर दिया जाता है। निरूपा रॉय ने दो बेटों को नैतिक मूल्यों के साथ संवारने वाली माँ जैसी सशक्त माँ का किरदार निभाया था। लेकिन, दोनों बेटे 'गंगा-जमुना' की तरह अलग-अलग रास्तों पर निकल पड़ते हैं। लेकिन, क्लाइमेक्स में निरूपा रॉय की छवि 'मदर इंडिया' की नरगिस जैसी माँ की भूमिका से मिलती-जुलती है! 
    'दीवार' में ऐसे कई ऐसे दृश्य थे, जो अपने समयकाल से काफी आगे थे। यही कारण है कि 46 साल बाद भी वे प्रासंगिकता लिए हैं। 1975 में जब ये फिल्म रिलीज हुई, तब ऐसा सोच भी नहीं गया था। अमिताभ बच्चन का घोर नास्तिक होना। माँ के साथ बचपन से मंदिर के अंदर नहीं जाना और बाहर खड़े रहना। छोटेपन में ही यह कहना कि वो भगवान को नहीं मानता, वो जो भी करेगा अपने दम पर करेगा। यह लड़का पॉलिश करके पैसा कमाता है, लेकिन पॉलिश कराने वाले एक सेठ के पैसे फैंककर देने पर उससे कहता है 'मैं फैंके हुए पैसे नहीं उठाता।' चार दशक पहले किसी फिल्म में ऐसे दृश्यों और नायक के इतने विद्रोही रुख के बारे में सोचा भी नहीं जाता था। क्योंकि, तब फिल्म का नायक एक सद्चरित्र और सामाजिक होता था। भगवान को मानता था और परिवार के प्रति अपने दायित्व समझता था। पर, 'दीवार' फिल्म का नायक उस दौर के सारे नायकीय गुणों से परे था। जबकि, फिल्म में नायक के नास्तिक होने के बावजूद उसका कुली के बिल्ला नंबर 786 के प्रति उसकी आस्था बनी रहती है। फिल्म के अंत में जब छोटा भाई उसे गोली मारता है, तो यही बिल्ला उसके हाथ से छिटक जाता है।     
   फिल्म में अमिताभ डॉकयार्ड के कुली की भूमिका में थे, जहां के मजदूरों से वहाँ के गुंडे हफ्ता वसूली करते थे। एक दिन ये गुस्सैल कुली उन बदमाशों से भिड़ जाता है। लेकिन, उससे पहले अमिताभ का एक डायलॉग उस भिड़ंत का संकेत देता है। वे साथ काम करने वाले रहीम चाचा से कहते भी हैं 'जो पच्चीस बरस में नहीं हुआ, वो अब होगा। अगले हफ्ते एक और कुली इन मवालियों को पैसे देने से इंकार करने वाला है।' जब ये हफ्ता वसूली करने वाले उसे ढूंढ़ रहे होते हैं, तब ये कुली उनके गोदाम में ही उनका इंतजार कर रहा होता है! ये वो दृश्य था, जिसे फिल्म में सबसे ज्यादा तालियाँ मिली थी। उस दृश्य में एक डायलॉग था 'पीटर तेरे आदमी मुझे बाहर ढूंढ रहे हैं और मैं तुम्हारा यहां इंतजार कर रहा हूं।' वे गोदाम का दरवाज़ा अंदर से बंद करके चाभी पीटर की तरफ फैंकते हुए कहते हैं 'ये चाभी अपनी जेब में रख ले, अब ये ताला मैं तेरी जेब से चाभी निकालकर ही खोलूंगा!' फिल्म के ये कुछ ऐसे दृश्य थे, जिन्होंने अमिताभ के नायकत्व को चिरस्थाई बना दिया था। 
     फिल्म का भाइयों के बीच का एक दृश्य भी यादगार है। इसमें स्मगलर बना बड़ा भाई आक्रोश में छोटे भाई से कहता है 'आज मेरे पास बंगला है, गाड़ी है, बैंक बैलेंस है, तुम्हारे पास क्या है? सामने खड़ा शशि कपूर धीमी आवाज़ में कहते हैं 'मेरे पास मां है।' छोटे भाई के इस जवाब से अमिताभ का सारा दंभ धराशाई हो जाता है। फिल्म के अंतिम दृश्य में नास्तिक नायक का मंदिर में माँ की गोद में दम तोड़ना भी दर्शक भूल नहीं पाए हैं। फिल्म के ये कुछ ऐसे दृश्य थे, जिन्होंने उसे कालजयी बनाया।  
  1975 के साल को हिंदी फिल्मों के कभी न भूलने वाले समयकाल के रूप में इसलिए भी गिना जाता है, कि इस साल में चार ऐसी फ़िल्में आई, जो कई मामलों में मील का पत्थर बनी! शोले, धर्मात्मा, जय संतोषी मां और 'दीवार' ने कमाई के मामले में भी रिकॉर्ड बनाया। उस साल तीन फिल्मों ने 'दीवार' से ज्यादा कमाई की। लेकिन, उससे भी 'दीवार' का जादू कम नहीं हुआ। सबसे कम लागत में बनी 'जय संतोषी माँ' ने ज्यादा ज्यादा कमाई की थी। जबकि, एक करोड़ रुपए 'दीवार' ने तब कमाए, जब टिकट दर डेढ़ से तीन रुपए हुआ करती थी। 'दीवार' ने 1976 में साल की 'बेस्ट मूवी' के ख़िताब के साथ छह फिल्मफेयर अवॉर्ड जीते थे। सर्वश्रेष्ठ सहअभिनेता व सहअभिनेत्री को छोड़कर सभी अवॉर्ड 'दीवार' के खाते में गए थे। आज 46 साल बाद इस फिल्म के 12 में से 10 बड़े किरदार दुनिया में नहीं हैं। अमिताभ बच्चन के अलावा नीतू सिंह ही हैं, जिन्होंने इस फिल्म में मुख्य भूमिकाएं निभाई थी।   
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