Sunday, January 10, 2021

देवर-भाभी के रिश्तों का लम्बा दौर!

- हेमंत पाल 

  भाभी ऐसा रिश्ता है, जिसे भारतीय समाज में उतना ही सम्मान मिला है जितना माँ को! पौराणिक काल में सीता जैसी भाभी हुई, तो स्वातंत्रय काल में दुर्गा भाभी ने अपने देवरों के साथ मातृवत व्यवहार कर इस रिश्ते की गरिमा को बढाया। वैसे तो देवर-भाभी के बीच बेटे और माँ की तरह संबंध रहता है। लेकिन, उत्तर और पूर्वी भारत में देवर-भाभी के रिश्तों में मीठी नोंकझोक भी देखी जाती है। देवर-भाभी के इसी खट्टे-मीठे रिश्तों को फिल्मों और टीवी सीरियल्स में भी जमकर भुनाया। कभी इस विषय पर दर्शकों को हंसाया, रूलाया और गुदगुदाया तो कभी साजिशों का भी दौर चला!
   जब मनोरंजन जगत में छोटे परदे का आगाज नहीं हुआ था, तब फिल्मों में भाभी का महिमा मंडन कुछ ज्यादा ही हुआ! 1957 में एवीएम ने 'भाभी' शीर्षक से फिल्म बनाई, जिसमें बलराज साहनी, नंदा, पंढरीबाई, ओमप्रकाश और जगदीप की प्रमुख भूमिका थी। फिल्म में भाइयों के बीच संपत्ति के बंटवारे और देवर-भाभी के बीच स्नेह की चाशनी का तड़का था। फिल्म को आंसुओं में भिगोकर 'चली चली रे पतंग मेरी चली रे' और 'चल उड़ जा रे पंछी' के अलावा 'टाई लगाके माना बन गए जनाब हीरो' जैसे चुहलबाजी वाले गीतों के साथ प्रस्तुत की गई थी। उसके बाद 1961 में आई 'भाभी की चूड़ियाँ' भी लगभग इसी फार्मूले का नया ट्रीटमेंट था। इसमें भी बलराज साहनी की मुख्य भूमिका थी। इस फिल्म में देवर-भाभी की भूमिका में शैलेष कुमार और मीनाकुमारी ने दर्शकों को आँसुओं में भिगोकर साथ बाॅक्स ऑफिस पर पैसा बटोरा था। इस फिल्म में सुधीर फडके और पंडित नरेन्द्र शर्मा की रचना 'ज्योति कलश छलके' आज भी उतना ही लोकप्रिय है।
   हिन्दी फिल्मों की भाभियों में निरूपा राय, श्यामा, जयश्री टी, इंद्राणी मुखर्जी ,शशिकला, रेणुका शहाणे ने बडे पर्दे को रोशन किया, तो मीना कुमारी , शर्मिला टैगोर, हेमा मालिनी और रेखा जैसी नायिकाओं ने भी समय-समय पर भाभी बनकर दर्शकों का मनोरंजन किया। छठे दशक से लेकर नौंवें दशक तक देवर-भाभी को लेकर कभी पूरी फिल्में बनी, तो कई फिल्मों में इस रिश्ते को उपकथा बनाकर कहानी को आगे बढाया गया। छठे और सातवें दशक में पारिवारिक फिल्मों में भाभियों का किरदार लम्बा चला। नायक के बड़े भाई की पत्नी जो नायक से पुत्रवत प्रेम करती है। जबकि, उनके पति किसी दूसरी महिला या कोठे वाली के चक्कर में पड़कर भाभी को आँसू बहाने पर मजबूर करते हैं। ऐसे में तो देवर अपनी भाभी को सुख दिलाने के चक्कर में खुद अपनी जिंदगी बरबाद कर लेता है। फिल्म की आखिरी रील में भाभी का त्याग और देवर की कोशिशें रंग लाती और फिल्म की शुरूआत से रुआंसे हुए दर्शक हंसते-हंसते घर रवाना होते थे। देवानंद की 'लव मैरिज' और शम्मी कपूर की 'जानवर' ऐसी ही फिल्में थी। राजश्री ने भी अपनी फिल्मों में देवर-भाभी के रिश्ते को गहराई तक भुनाया। 'नदिया के पार' और उनके नए संस्करण 'हम आपके हैं कौन' के अलावा राजश्री की कई फ़िल्में हैं, जिनमें भाभी की भूमिका को ऊंचाई दी गई।    
   इस विषय पर दूसरे तरह की फिल्मों में देवर-भाभी के निश्च्छल प्रेम को अवैध संबंध बताकर कभी नायक के भाई तो कभी नायिका को नाराज करने का प्रयोग किया जाता रहा। 'शरारत' में मीना कुमारी और किशोर कुमार के पवित्र रिश्ते में दरार पैदा करके राजकुमार के दिल में गलत फहमी पैदा की गई थी। 'घराना' और 'घूँघट' में राजेन्द्र कुमार अपनी भाभी से स्नेह कर अपनी प्रेमिका के दिल में गलतफहमी पैदा करवा देते है। लेकिन, इन फिल्मों का अंत अकसर सुखांत ही होता था। हिन्दी फिल्मों ने भाभियों को जितना सम्मान दिया, छोटे पर्दे पर एकता कपूर जैसी निर्माताओं ने 'भाभी' का उतना ही सत्यानाश किया! उनके सीरियलों की भाभियां तितलियों की तरह होती हैं, जो हर समय दांत पीसते हुए ही डायलाॅग बोलती है। कॉमेडी सीरियल 'भाभीजी घर पर हैं' की भाभियां तो पड़ौसी देवरों को सेड्यूस कर छिछोरी हरकतें किया करती हैे। 
   ऐसा नहीं कि सभी हिन्दी फिल्मों की भाभियां अपने देवरों पर प्यार उंडेलती ही दिखाई देती है। जयश्री टी, श्यामा, बिंदु और शशिकला जैसी भाभियों ने भाईयों के बीच दीवार खड़ी करके नायक को घर से बाहर का रास्ता दिखाने का भी काम किया है। लेकिन, पति या बेटे-बेटी के बीमार होने पर या 'दो रास्ते' की तरह पति से थप्पड खाकर ये भाभियाँ भी फिल्म के अंत तक सुधर जाती है। भाभी से इस तरह प्रताड़ित होने वाले देवरों में जितेन्द्र, ऋषि कपूर, गोविंदा और राजेश खन्ना को महारथ हांसिल थी ,ये रील दर रील भाभी मां का राग अलाप कर दर्शकों की आंखें नम कर फिल्मों को सफल बना देते थे।
   देवर -भाभी के पवित्र रिश्तों पर बनी अब तक की फिल्मों में राजेन्द्रसिंह बेदी के उपन्यास 'एक चादर मैली सी' सबसे ज्यादा उल्लेखनीय है। यह पंजाब की ऐसी रूढ़ीवादी परंपरा को दिखाती है, जिसमें बड़े भाई की मौत के बाद भाभी को उसके देवर से शादी करने के लिए मजबूर किया जाता था। 'एक चादर मैली सी' में बड़े भाई के मरने के बाद रानो को उसके देवर मंगल से चादर ओढ़ाने के लिए कहा जाता है, जिसे भाभी ने अपने बेटे की तरह पाला था। पहली बार गीताबाली ने 'रानो' नाम से इस फिल्म को बनाया गया, जिसमें राजेश खन्ना को प्रमुख भूमिका दी गई थी। लेकिन, बाद में धर्मेन्द्र को लेकर यह फिल्म बनाई गई। फिल्म लगभग पूरी भी हो गई थी। इसी बीच गीताबाली का निधन हो गया। फिल्म ने राजेन्द्रसिंह बेदी और शम्मी कपूर को इतना दुखी कर दिया कि बेदी ने गीताबाली की चिता पर ही फिल्म की पटकथा को जला दिया और शम्मीकपूर ने फिल्म की सारी निगेटिव को भी आग के हवाले कर दिया था। बाद में 1986 में सुखवंत ढड्डा ने हेमामालिनी, ऋषिकपूर और पूनम ढिल्लो को लेकर 'एक चादर मैली सी' का निर्माण किया था। लेकिन, फ़िल्मी दुनिया में अनिल कपूर और श्री देवी की वास्तविक देवर-भाभी की जोड़ी भी थी, जिसने कई फिल्मों में नायक-नायिका के किरदार निभाए! लेकिन, परदे से इतर अनिल कपूर अपनी भाभी को पूरा सम्मान देते थे। 
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