Friday, March 26, 2021

होली एक बहाना है, फिल्म में ट्विस्ट का!

- हेमंत पाल

   सिनेमा की कहानी में ट्विस्ट लाने के लिए किसी मौके की जरूरत महसूस की जाती है! इनमें सबसे आसान होता है, किसी त्यौहार का प्रसंग लाकर कहानी का प्लॉट बदला जाए! होली और ईद दो ऐसे ही त्यौहार हैं, जिन्हें फिल्म बनाने वालों ने अपनी तरफ से जमकर भुनाया! दोनों खुशियों वाले त्यौहार हैं, जिनके बहाने दर्शकों को गाना-बजाना दिखाकर कहानी में ट्विस्ट लाया जाता रहा है। 'जख्मी' से लगाकर 'शोले' और 'सिलसिला' तक को याद किया जा सकता है, जिनमें होली गीत के बाद एकदम कहानी का ट्रेक बदला था। होली वैसे तो रंगों का त्यौहार है, पर सिनेमा के शुरूआती समय में जब फ़िल्में श्वेत-श्याम हुआ करती थीं, तब भी होली प्रसंग फिल्माए और पसंद किए गए। फिल्मों में होली फिल्माने की शुरुआत 1944 में दिलीप कुमार की पहली फिल्म ‘ज्वार भाटा’ में हुई। ये श्वेत-श्याम फिल्मों का दौर था। संयोग है कि जब फिल्मों में रंग भरे और होली फिल्माई गई, तब भी दिलीप कुमार 'आन' में निम्मी के साथ दिखाई दिए थे। फिल्मकारों को होली के बहाने एक मस्ती भरा गाना फिल्माने का मौका भी मिल जाता है। अभी तक 'होली' नाम से सिर्फ दो फिल्में और 'होली आई रे' नाम से एक फिल्म आई है। 'फागुन' शीर्षक से भी दो फिल्में बनी। 1967 में 'भक्त प्रहलाद' फिल्म बनी जिसमें होली का धार्मिक आधार बताया गया था।     
      कथानक को जटिल स्थिति से निकालने या ट्रेक बदलने के लिए होली दृश्यों का इतने बार इस्तेमाल किया गया, जिसकी गिनती नहीं है। यश चोपड़ा ने अपनी फिल्मों में बार-बार होली दृश्यों का उपयोग किया। 1981 में आई ‘सिलसिला’ के गीत 'रंग बरसे भीगे चुनर वाली' गीत को भी जटिल हालात को व्यक्त करने के लिए रखा गया था। होली ने अमिताभ और रेखा की घुटन से बाहर आने का मौका दिया। फिल्म के पात्र प्रेम, दाम्पत्य और अविश्वास की जिस गफलत में फँसे थे, इस होली गीत ने उन्हें उस भूल-भुलैया से निकलने का रास्ता भी दिया था। 1984 में 'मशाल' में 'होली आई होली आई देखो होली आई रे' में अनिल कपूर और रति अग्निहोत्री के प्रेम के रंग को निखारा गया। साथ ही दिलीप कुमार और वहीदा रहमान के बीच मौन संवाद पेश किया। ऐसा ही एक दृश्य यश चोपड़ा की ही फिल्म 'डर' में भी था। इसमें शाहरुख खान जूही चावला के प्रेम में जुनूनी खलनायक की भूमिका में रहते हैं। हैं। वे किसी भी कीमत पर उसे पाना चाहते हैं। तनाव के बीच होली प्रसंग शाहरुख को जूही चावला को स्पर्श करने का मौका देता है। साथ ही कहानी को अंजाम तक पहुंचाने का भी अवसर मिलता है। 'मोहब्बतें' में यश चोपड़ा ने 'सोहनी सोहनी अंखियों वाली' से जोड़ियों के बीच होली सीक्वंस फ़िल्माया। राजकुमार संतोषी ने भी 'दामिनी' में होली को कहानी का मुख्य आधार बनाकर दिखाया था। 
     सिनेमा की दुनिया भेड़ चाल पर ज्यादा विश्वास करती है। जब होली दृश्य दर्शकों को लुभाने लगे तो इन्हें कथानक में शामिल करने की होड़ सी लग गई। 'मदर इंडिया' में शमशाद बेगम का गाया 'होली आई रे कन्हाई' अभी भी सुना और पसंद किया जाता है। वी. शांताराम ने अपनी चर्चित फिल्म 'नवरंग' में भी होली गीत 'चल जा रे हट नटखट' रखा जो महिपाल और संध्या पर फिल्माया गया था। 70 के दशक की फिल्मों में होली के बहाने कुछ अच्छे दृश्य फिल्मों में देखने को मिले। राजेश खन्ना पर 'कटी पतंग' में फिल्माया गाना 'आज न छोड़ेंगे हम हमजोली' निर्देशक ने उस सामाजिक बंधन को तोड़ने के लिए रखा था, जिसमें एक विधवा को समाज सभी रंगों से बेदखल कर देता है। 
    होली को लेकर जिस गाने का सबसे पहले जिक्र आता है, वह है 1940 में आई 'औरत' का गाना। निर्देशक महबूब खान की इस फिल्म में अनिल बिस्वास के संगीतबद्ध गाने 'आज होली खेलेंगे साजन के संग' और 'जमुना तट श्याम खेले होरी' हिंदी सिनेमा के पहले होली गीत माने जाते हैं। बाद में महबूब खान ने इस फिल्म की कहानी को 'मदर इंडिया' नाम से बनाया। इसमें भी होली का सदाबहार गाना 'होली आई रे कन्हाई रंग छलके, बजा दे जरा बांसुरी' था। उसके बाद गीता दत्त के गाए 'जोगन' के गीत 'डारो रे रंग डारो रे रसिया' सुपरहिट होली गीत बना। श्वेत श्याम फिल्मों के दौर में भी होली के गाने दर्शकों को भाते थे। भले परदे पर रंग नजर न आते हो, लेकिन इन गीतों का जादू ऐसा होता था कि लोगों को परदे पर रंग बिरंगी होली का ही एहसास होता था। देश में बनी पहली टेक्नीकलर फिल्म 'आन' में दिलीप कुमार की अदाकारी के अलावा इस फिल्म के गाने 'खेलो रंग हमारे संग' ने लोगों पर खूब जादू किया। 
   फिर तो होली के गानों का सिलसिला ही चल निकला। रमेश सिप्पी की फिल्म 'शोले' में धर्मेंद्र और हेमा मालिनी की छेड़छाड़ वाला गाना 'होली के दिन दिल खिल जाते हैं' हर होली पर सुनाई देता है। 70 और 80 के दशक की फिल्मों में होली के गाने खूब बजे। इस दौरान बने सुपरहिट होली गीतों में 'षड्यंत्र' का गाना होली आई रे मस्तानों की टोली, फिल्म 'राजपूत' का गाना भागी रे भागी रे भागी बृज बाला, फिल्म 'नदिया के पार' का गाना 'जोगीजी वाह जोगीजी, फिल्म 'कामचोर' का गाना 'मल दे गुलाल मोहे' और फिल्म 'बागबान' का गाना 'होली खेलें रघुवीरा अवध में होली खेलें रघुवीरा' कालजयी गीत बने। लेकिन, जो गाना सबसे ज्यादा हिट हुआ वह था फिल्म 'सिलसिला' का अमिताभ की आवाज का गाना 'रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे!' ये गाना हिंदी सिनेमा का सबसे लोकप्रिय होली गीत माना जाता है।
   'कोहिनूर' का गीत 'तन रंग लो जी आज मन रंग लो' भी पसंद किया गया था। ‘गोदान’ में भी एक होली गीत फिल्माया गया था। 'आखिर क्यों' का गीत 'सात रंग में खेल रही है दिलवालों की टोली रे' और ‘कामचोर’ के गीत 'मल दे गुलाल मोहे' के जरिए कहानी को आगे बढ़ाया गया। फिल्मों में होली का क्रेज पिछले दशक तक रहा। दीपिका पादुकोण और रणबीर कपूर की फिल्म 'ये जवानी है दीवानी' का गाना 'बलम पिचकारी जो तूने मुझे मारी' खूब हिट हुआ। होली का अल्हड़ अंदाज इस गाने में बरसों बाद हिंदी सिनेमा के परदे पर दिखा। लेकिन, इसके बाद कोई होली का गाना अब तक नहीं बन सका।  
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Sunday, March 21, 2021

आजादी के बाद नए दौर का नया सिनेमा!

 - हेमंत पाल

    ब भी सिनेमा की बात होती है, उसके शुरूआती काल से आजतक की ही बात होती है। जबकि, हिंदी सिनेमा की दुनिया दो भागों में बंटी है। पहली है आजादी से पहले की फ़िल्में, दूसरी है आजादी के बाद की! सामान्यतः दोनों समय काल में सिनेमा का मूल तत्व मनोरंजन ही था, पर दोनों में बहुत अंतर देखा गया। कई फिल्मकार विभाजित भारत के उस हिस्से से इधर आए और कुछ अपने यहाँ से उधर चले गए। इस अदला-बदली का भी फिल्म निर्माण में अंतर आया। क्योंकि, देश की सामाजिक व्यवस्था के साथ सिनेमा की दुनिया भी बदली। ये भी सच है कि सिनेमा ने हमेशा भी खुद को समाज के साथ बदला है। आजादी के बाद सोच, कथानक, विषय, गीत-संगीत के साथ निर्माण प्रक्रिया में भी नए प्रयोग किए गए। 1948 में राज कपूर की फिल्म 'आग' आई थी। मुकेश ने इसमें 'जिंदा हूं इस तरह के गमे जिंदगी नहीं' गीत गाया। शमशाद बेगम ने 'काहे कोयल शोर मचाए रे' गाया। इन गीतों में शायरी हावी थी। क्योंकि, फिल्मों में हिंदी के साथ उर्दू का प्रयोग होने लगा था।   
    आजादी के बाद सिनेमा के उस दौर में अंतर आया जो धार्मिक और पौराणिक किस्से-कहानियों के अलावा ऐतिहासिक प्रसंगों तक सीमित था। तलवारबाजी और अखाड़ों में कुश्तियों वाली फ़िल्में धीरे-धीरे नेपथ्य में चली गईं, उसकी जगह ली सामाजिक कहानियों, किसानों की पीड़ा, गाँव में साहूकारों के जुल्म और हल्की-फुल्की प्रेम कथाओं ने। शुरुआत की कई फिल्मों में सूदखोर के कर्ज से परेशान किसानों की बेबसी को संजीदगी के साथ फिल्माया गया। 50 के दशक के बाद ऐसी कई फ़िल्में आई जिनमें जमींदार के आतंक और सूदखोर के आतंक को ही खलनायक बनाकर दिखाया गया। ये किसानों की दुर्दशा दर्शाने वाला दौर था। परदे पर जिस भी किसान की कहानी गढ़ी गई, उसे गरीबी के चक्रव्यहू से जूझता हुआ ही दिखाया गया। इसके अलावा महिला किरदारों को भी जुल्मी जमींदार की नजरों से बचता हुआ दिखाया गया। आजादी के बाद करीब एक दशक तक फिल्मों में किसानों की इसी मजबूरी को फिल्माया गया। 
   बंटवारे के बाद का दौर ऐसा रहा, जिसने सिनेमा पर सीधा असर डाला। लोग सिनेमा के मनोरंजन से दूर हो गए! क्योंकि, जीवन की समस्याएं मनोरंजन से कहीं ज्यादा बड़ी थीं। इस दौर के गुजरने के बाद फिल्मों के कथानक बदलने लगे। देश के नवनिर्माण की बातें होने लगी। 50 के दशक के सिनेमा पर आजाद भारत की झलक दिखाई देने लगी। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के आर्थिक सुधारों और आधुनिकीकरण के सोच के साथ आजादी के बाद के आशावाद की झलक देखी जा सकती है। ये पं नेहरू के ही विचार थे, जब उन्होंने नए देश के निर्माण के समाजवादी मॉडल के साथ प्रयोग किए। पं नेहरू के विचारों का नजरिया आजादी के संघर्ष की वैचारिक विरासत का विस्तार करने के पक्ष में था। लेकिन, यह इतना अतिआदर्शवादी हो गया था, कि इसके सहारे कसी हुई फ़िल्मी कहानी कहना आसान नहीं था। 
  'जागृति' (1954) में मोहम्मद रफ़ी के गाए गीत 'हम लाए हैं तूफानों से कश्ती निकाल के इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के' में कैमरा पं नेहरू के फोटो पर फोकस होता है। इसी गीत की आगे पंक्तियां 'देखो कहीं बर्बाद न हो ये बगीचा' पं नेहरू की शांतिदूत वाली अंतरराष्ट्रीय छवि को स्थापित करने की कोशिश लगती थी। 'एटम बमों के जोर पर ऐंठी है ये दुनिया, बारूद के एक ढेर पर बैठी है ये दुनिया' जैसी पंक्तियां भी आने वाले कल का संकेत समझा जा सकता है। 60 और 70 के दशक में देश में औद्योगीकरण का माहौल बना। तब कारखाना मालिकों को फिल्मों में खलनायक के रूप में दिखाया जाने लगा। तब की फिल्मों में इन मालिकों के किरदार कभी अच्छे आदमी के नहीं दिखाई दिए। क्योंकि, फिल्मकारों के जहन में कहीं न कहीं वामपंथी सोच भी छुपा था जो मजदूरों के साथ खड़ा था।   
   आजादी के बाद सभी को अहसास था कि जो जहाँ है, उसे वहीं से देश को नवनिर्माण के रास्ते पर ले जाना है। सिनेमा की भी अपनी जिम्मेदारी थी और फिल्मकारों को नई सोच के साथ अपना योगदान देना था। आजादी के साल भर बाद महात्मा गांधी की हत्या हो गई। राजेंद्र कृष्ण ने गांधीजी की याद में 'सुनो सुनो ए दुनिया वालों बापू की ये अमर कहानी' गीत रचा! इसके बाद 1949 में राज कपूर की ‘बरसात’ और महबूब खान की ‘अंदाज’ जैसी फिल्में आईं। 'अंदाज' में नौशाद का संगीत था और 'बरसात' से आए शंकर-जयकिशन। जमींदारों की सामंती अकड़, सूदखोर और गरीब किसान जैसी स्थितियों के बीच 'मदर इंडिया' (1957) और 'गंगा जमुना' (1961) जैसी फिल्में बनी। इसके साथ 'बूट पॉलिश' (1954) और 'आवारा' (1951) ने नए भारत में उपजी आर्थिक असमानताओं पर प्रकाश डाला। 
    1957 का साल आजादी के बाद देशभक्ति का नया स्वरूप लेकर आया। गुरुदत्त की फिल्म 'प्यासा' के लिए लिखे साहिर लुधियानवी के गीत में उन्होंने कुलीन देशभक्ति पर कटाक्ष किया था। मोहम्मद रफ़ी के गाए इस गीत के बोल थे 'ये कूचे ये नीलामघर दिलकशी के, ये लुटते हुए कारवां जिंदगी के, कहां हैं मुहाफिज खुदी के, जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं!' 1958 में साहिर लुधियानवी ने राज कपूर की फिल्म 'फिर सुबह होगी' में इकबाल के गीत 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा' पर व्यंग्य किया। मुकेश का गाया यह गीत आजादी के दस साल बाद की स्थिति और खामियों पर टिप्पणी की तरह था। साहिर ने लिखा था 'चीन-ओ-अरब हमारा, हिन्दोस्तान हमारा, रहने को घर नहीं है, सारा जहां हमारा!' समाजवादी राजनीतिक व्यवस्था का मखौल उड़ाते हुए इसके आगे की पंक्तियां थीं 'जितनी भी बिल्डिंगें थीं, सेठों ने बांट ली हैं, फुटपाथ बम्बई के हैं आशियां हमारा!' कहा जा सकता है कि बंटवारे के बाद देश की दिशा और दशा क्या होगी, ये फिल्मकारों ने पहले ही भांप लिया था। 
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'दीदी' की सत्ता को इंदौर के 'भाई' की चुनौती!

 इस बात को करीब तीन दशक हो गए जब लोग इंदौर की एलआईजी कॉलोनी के चौराहे पर केशरिया दुपट्टा डाले एक नेता को अकसर देखते थे! तब वे स्कूटर के पीछे बैठे नजर आते थे! ये थे कैलाश विजयवर्गीय! आज भी उनकी सहजता में फर्क नहीं आया! लेकिन, आज उनका राजनीतिक कद आसमान छूने लगा! इंदौर के बाद प्रदेश की भाजपा राजनीति में अपना दम दिखाने वाले कैलाश विजयवर्गीय ने मध्यप्रदेश के बाहर भी कारनामे किए हैं! हरियाणा में भाजपा की सरकार बनाने की जुगत लगाने के बाद उन्होंने पश्चिम बंगाल के ममता राज की जड़ें हिला दी! लोकसभा चुनाव में वहाँ की 42 में से 18 सीटों पर 'कमल' खिलाकर उन्होंने पार्टी के लिए नई संभावनाएं भी जगाई! मुद्दे की बात की बात ये कि इस नेता ने उस राज्य में भाजपा की जड़ें मजबूत की, वे जहाँ की भाषा भी नहीं जानते! लेकिन, कहा जाता है कि विश्वास और उम्मीद की कोई भाषा नहीं होती! बंगाली राज्य के लोगों को ये भरोसा हो गया कि उन्हें कोई ममता बैनर्जी के अराजक राज से मुक्त करवा सकता है तो वो है भाजपा और कैलाश विजयवर्गीय! इसी विश्वास ने तो वहाँ कमाल किया है!   


- हेमंत पाल

   भाजपा को जब लोकसभा चुनाव ने दो सीटें मिली थी, तब अटलबिहारी बाजपेयी ने दावा किया था कि एक दिन भाजपा देश पर राज करेगी! उस समय लोगों को ये बात कुछ असहज लगी थी! क्योंकि, सामने कांग्रेस जैसी पार्टी थी! लेकिन, अंततः अटलजी की बात सही निकली! आज लोकसभा में भाजपा की 303 सीटें हैं। कुछ ऐसी ही कहानी पश्चिम बंगाल की है! इस राज्य में भी पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को मात्र 2 सीटें मिली थी! इस बार यहाँ भी कमाल हुआ और भाजपा ने 42 में से 18 सीटों पर कब्ज़ा जमाया! अब पार्टी विधानसभा चुनाव में वही कहानी दोहराने के प्रयास में लगी है। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने सिर्फ 3 सीट जीती थी, आज उसी पार्टी ने इतनी बड़ी चुनौती खड़ी कर दी, कि उसे राज्य में सरकार बनाने वाली संभावित पार्टी माना जा रहा है। पश्चिम बंगाल के चुनाव प्रभारी और पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने राज्य में अपना ख़म ठोंक दिया। ममता बैनर्जी को जिस 'तृणमूल' पर भरोसा था, वह पार्टी तृण-तृण होकर बिखरने लगी। ममता की पार्टी के कई नेता पाला बदलकर भाजपा के साथ खड़े हो गए। विधानसभा चुनाव से पहले जिस तरह के हालात बदले, उससे लगता है कि भाजपा पश्चिम बंगाल में काफी मजबूत स्थिति में है। 
   भाजपा के विश्वास का सबसे बड़ा आधार है लोकसभा चुनाव में मिली सफलता। लेकिन, यह सब कर पाना आसान नहीं था! पश्चिम बंगाल में ममता बैनर्जी ने जिस तरह से अपनी सरकार चलाई, वहाँ किसी और पार्टी के लिए जगह बनाना बेहद मुश्किल काम था! हिंसा, अराजकता और हत्या जैसी घटनाएं यहाँ सामान्य बात है। हिंदू-मुस्लिम को बाँटकर ममता बैनर्जी ने जिस तरह वोट के लिए तुष्टिकरण की राजनीति की, उसमें सेंध लगाने की कोई सोच भी नहीं सकता था! लेकिन, लोकसभा चुनाव में सेंध भी लगी और चमत्कार भी हुआ! इस सबके पीछे एक व्यक्ति की मेहनत और रणनीति कारगर रही! ये हैं इंदौर के 'भाई' उर्फ़ कैलाश विजयवर्गीय! उन्होंने जिस रणनीतिक कौशल से पश्चिम बंगाल में लोकसभा की 18 सीटों पर 'कमल' खिलाया, वो राजनीति के जानकारों के लिए चिंतन का विषय है! कैलाश विजयवर्गीय ने सिर्फ पाँच महीने में पार्टी का आधार मजबूत किया, जिसका सुखद नतीजा सामने आया! अब वे विधानसभा चुनाव में इसी कमाल को दोहराने में लगे हैं। उन्होंने जिस तरह बंगाली लोगों में अपनी पैठ बनाई और उन्हें घर से निकलकर ममता बैनर्जी के खिलाफ खड़ा किया, वो आसान नहीं था।       
      भारतीय जनता पार्टी ने बहुत सोच-समझकर ममता बैनर्जी के अभेद्य किले में सेंध लगाने के अभियान की कमान कैलाश विजयवर्गीय को सौंपी है! उन्हें पश्चिम बंगाल फतह के लिए प्रभारी बनाकर मोर्चे पर लगाया गया! वहाँ की गुंडा राजनीति को काबू करके जिस तरह भाजपा के लिए जमीन तैयार की, उसे वही समझ सकता है, जिसे वहाँ ममता बैनर्जी की राजनीतिक शैली का अंदाजा हो! भाजपा ने सबसे पहले ममता के उन किलों पर कब्ज़ा जमाया, जो 'तृणमूल' की ताकत थे। कैलाश विजयवर्गीय ने लोगों का भरोसा जीता, उन्हें तृणमूल पार्टी के खौफ से मुक्त किया, फिर उन्हें झंडा थमाकर सड़क पर निकाला। इसी का नतीजा रहा कि पश्चिम बंगाल में 'तृणमूल' के खिलाफ लोगों की आवाज निकली! जब कैलाश विजयवर्गीय को पश्चिम बंगाल का प्रभार सौंपा गया था, तब किसी चमत्कार की उम्मीद नहीं की थी! क्योंकि, पश्चिम बंगाल में 'तृणमूल' के विरोध का मतलब सिर्फ मौत था! ऐसे अराजक और अलोकतांत्रिक माहौल में कैलाश विजयवर्गीय ने अपना काम शुरू किया। लोकसभा चुनाव में ही 53 भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या हुई, जो अब बढ़कर सवा सौ से ज्यादा हो गई है! खुद कैलाश विजयवर्गीय को भी धमकियाँ मिली! लेकिन, उन्होंने कोई सुरक्षा नहीं ली! बाद में पार्टी अध्यक्ष के दबाव में कुछ दिन सुरक्षा जरूर ली, पर जल्दी ही वापस भी कर दी!   
   पश्चिम बंगाल का राजनीतिक इतिहास हिंसा से भरा रहा है! वामपंथियों के राज में वहां जमकर हिंसा हुई, फिर इसे 'तृणमूल' ने भी खाद-पानी दिया। ममता के दो कार्यकाल में हिंसा की राजनीति कुछ ज्यादा ही पनपी! राजनीतिक विरोध का जवाब मारपीट से दिया जाने लगा! असहमति के लिए यहाँ कोई जगह नहीं है! ममता राज में लोग कितने परेशान है, इस बात का पता भी कैलाश विजयवर्गीय को वहाँ जाकर लगा! इसी वजह से उन्हें लोगों का साथ मिला! जहाँ लोग 'तृणमूल' के झंडे और बैनर के अलावा कुछ सोच भी नहीं सकते थे! लेकिन, वहाँ विरोध और दबाव के बावजूद भाजपा के झंडे लगे! रैलियों में भीड़ बढ़ी! घरों, दुकानों पर भाजपा का चुनाव चिन्ह दिखाई देने लगा! लोग भी भाजपा को वोट देने की अपील करने लगे! जहाँ 'जय श्रीराम' बोलना अपराध था, आज वहां इसका उद्घोष होने लगा! इसे कैलाश विजयवर्गीय की उपलब्धि माना जाना चाहिए कि उन्होंने पश्चिम बंगाल के लोगों में ये विश्वास प्रबल किया कि भाजपा का साथ देने से उन्हें नुकसान नहीं होगा! 
   वास्तव में ये विश्वास जीतना बेहद मुश्किल काम था। क्योंकि, वहां के लोग ये भ्रम भी पाल सकते थे, कि चुनाव का नतीजा कुछ भी हो, कैलाश विजयवर्गीय तो वापस लौट जाएंगे! ऐसे में उन्हें ममता सरकार का कोप भाजन बनना पड़ सकता है! लेकिन, ऐसा नहीं हुआ और लोग विजयवर्गीय के साथ सड़क पर निकल आए! इसी भरोसे ने पश्चिम बंगाल में सेंधमारी का मौका दिया। लोकसभा चुनाव में 42 में से भाजपा को 18 सीटें जीतने का मौका मिला। ये आंकड़ा भले ही ज्यादा बड़ा नहीं लगे, पर वास्तव में अप्रजातांत्रिक सत्ता के सामने पार्टी की जड़ें ज़माने के लिए ये बहुत जरुरी था। अब इसके आगे का काम विधानसभा चुनाव के नतीजों में दिखाई देगा। पिछले साल 3 सीटें जीतने वाली भाजपा इस बार राज्य में 150 से ज्यादा सीटें जीतने की कोशिश में है।    
   इंदौर के मिल क्षेत्र के इस हरफनमौला भाजपा नेता को ऐसी चुनौतियाँ स्वीकारने की आदत रही है! इंदौर के जिस मिल क्षेत्र (विधानसभा क्षेत्र क्रमांक-2) का उन्होंने बरसों तक प्रतिनिधित्व किया है! एक समय था, जब वहाँ भाजपा का कोई नामलेवा नहीं था! मिल मजदूरों के कारण 'इंटक' के प्रभाव वाले इस इलाके से उन्होंने पहली बार भाजपा को जीत का स्वाद चखाया! वे इंदौर के क्षेत्र-4 से भी चुनाव जीत चुके हैं और इंदौर विधानसभा के महू से भी! यानी इंदौर के तीन विधानसभा से वे चुनाव जीते हैं और उनके बेटे आकाश ने इन तीनों के अलावा चौथे विधानसभा (क्षेत्र-3) से चुनाव जीतकर उनके सही उत्तराधिकारी होने का सबूत दिया। 
  कैलाश विजयवर्गीय ने भाजपा को पहली बार इंदौर के महापौर पर कुर्सी पर भी काबिज करवाया! इस नेता की खासियत ही यह है कि पार्टी इन्हें जो लक्ष्य देती है, वहाँ ये 'कमल' खिला देते हैं! इन्हें पार्टी ने पहली बार इंदौर से बाहर हरियाणा में आजमाया था! 2014 के हरियाणा विधानसभा चुनाव के लिए कैलाश विजयवर्गीय को चुनाव प्रभारी बनाया! इसमें भी नतीजा भाजपा के पक्ष में रहा और वहाँ पार्टी बहुमत से चुनाव जीती! इसके बाद उन्हें पार्टी ने राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त किया। हरियाणा में उनके प्रदर्शन से प्रभावित होकर ही पार्टी ने उन्हें पश्चिम बंगाल कमान सौंपी थी! वे यहाँ भी लोकसभा चुनाव में रणनीति बनाने और उसे क्रियान्वित करने में सफल रहे! अब उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती विधानसभा चुनाव है, जिसके लिए उन्होंने अपना सबकुछ झोंक दिया! पश्चिम बंगाल में भाजपा को जो सफलता मिलेगी, वो पार्टी की होगी, पर इसके पीछे रणनीतिकार तो इंदौरी 'भाई' ही होगा।  
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Friday, March 19, 2021

राज्यपाल पद की गरिमा और सत्यपाल मलिक उवाच!

 

 मेघालय के राज्यपाल ने अपने पद की मर्यादा सीमा रेखा की कई बार लांघा है। अब उन्होंने 'किसान आंदोलन' का समर्थन करते हुए कहा कि उन्होंने प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के सामने किसानों की बात रखी है। ये भी कहा कि इन्हें खाली हाथ मत भेजना, न इन पर बल प्रयोग करना। ये खाली हाथ गए, तो 300 साल तक नहीं भूलेंगे। सिखों को मैं जानता हूँ,  इंदिरा गांधी ने भी 'ऑपरेशन ब्लू स्टार' के बाद अपने यहां एक माह तक महामृत्युंजय मंत्र का जाप कराया था। उन्हें अहसास था कि मैंने इनके अकाल तख्त को नुकसान पहुँचाया है, ये मुझे छोड़ेंगे नहीं! सत्यपाल मलिक ने तो यहाँ तक कहा कि उन्होंने किसान नेता राकेश टिकैत की गिरफ्तारी भी रुकवाई।  

- हेमंत पाल 
   देश में राज्यपाल का पद निरपेक्ष माना जाता है! वह न तो खुलकर किसी का पक्ष लेता है और न विरोध करता है। राज्य में उसकी भूमिका केंद्र सरकार के प्रतिनिधि की होती है और मर्यादा की खातिर उसे राजनीति से दूर रहना पड़ता है। लेकिन, कुछ सालों से राज्यपालों की राजनीतिक प्रतिबद्धता सामने आने लगी है। यदि राज्यपाल के पद पर कोई नेता बैठा है, तो उसका अपनी पार्टी के प्रति झुकाव साफ़ नजर आता है! राज्यपाल अब न सिर्फ राजनीतिक बयानबाजी करने लगे, बल्कि विवादों में भी फंसने से भी नहीं चूकते! क्योंकि, अब वो रास्ता भी खुला है, जो राज्यपाल की कुर्सी पर बैठे किसी व्यक्ति को राजनीति के गलियारे में ले जाता है। ताजा प्रसंग मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक से जोड़कर देखा जा रहा है, जिन्होंने खुलकर 'किसान आंदोलन' का समर्थन करके केंद्र सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया। सत्यपाल मलिक ने भाजपा में लम्बा समय बिताया, पर उनको जानने वाले उन्हें आज भी 'सोशलिस्ट' विचारधारा वाला व्यक्ति मानते हैं। समाजवादी आंदोलन का हिस्सा रहे मलिक राजनीति में हवा का रुख समझने में भी माहिर समझे जाते हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि उन्होंने जो भी बोला उसके पीछे कोई गूढ़ अर्थ छुपा है! 
    अपने घर लौटे सत्यपाल मलिक ने साफ़ कहा कि केंद्र सरकार एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) को कानूनी मान्यता दे, तो किसान मान जाएंगे और अपना आंदोलन ख़त्म कर देंगे। उन्होंने केंद्र सरकार की नीतियों पर टिप्पणी करते हुए कहा कि सरकार गलत रास्ता अपना रही है, वो किसानों को हरा नहीं पाएगी। सत्ता के अहंकार में किसानों के साथ ज्यादती न करें, उनकी जायज मांगे मान लेनी चाहिए। उनका यह भी कहना था, कि राज्यपाल का काम चुप रहना है, लेकिन मेरी आदत है कि जो सामने हो रहा है, उस पर बोलूं! लेकिन, मलिक ने जो बोला, वो उनके लिए मुसीबत का कारण बन सकता है! अमूमन कोई राज्यपाल केंद्र सरकार की नीतियों पर सार्वजनिक टिप्पणी नहीं करते! लेकिन, सत्यपाल मलिक की आदत रही है कि वे अकसर राज्यपाल पद की मर्यादा की सीमा लांघते रहते हैं। जब वे जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल थे, तब भी उन्होंने ऐसी कई टिप्पणियां की, जिस पर उंगलियां उठी! शायद यही कारण था कि उन्हें कश्मीर में धारा 370 हटने के बाद अपेक्षाकृत छोटे राज्य मेघालय भेज दिया गया।    
    उत्तर प्रदेश के अपने घर अमीनगर सराय आए सत्यपाल मालिक ने अपने सम्मान में हुए अभिनंदन समारोह में केंद्र सरकार के लिए यह तल्ख़ टिप्पणियां की। उन्होंने कहा कि मैंने किसान आंदोलन के बारे में प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के सामने किसानों की बात रखी है। ये भी कहा कि इन्हें खाली हाथ मत भेजना, न इन पर बल प्रयोग करना। ये खाली हाथ गए, तो 300 साल तक नहीं भूलेंगे। सिखों को मैं जानता हूँ,  इंदिरा गांधी ने भी ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद अपने यहां एक माह तक महामृत्युंजय मंत्र का जाप कराया था। क्योंकि, उन्हें अहसास था कि मैंने इनके अकाल तख्त को नुकसान पहुँचाया है, ये मुझे छोड़ेंगे नहीं! सत्यपाल मलिक ने तो यहाँ तक कहा कि उन्होंने किसान नेता राकेश टिकैत की गिरफ्तारी भी रुकवाई। मालिक ने अपने आपको किसान परिवार का बताते हुए ये भी कहा कि मैं किसान परिवार से हूँ, इसलिए उनकी तकलीफ समझता हूं।
    सत्यपाल मलिक का पूरा भाषण राजनीति से प्रेरित होने के साथ केंद्र को सलाह देने वाला रहा। वे मंच पर ये भूल गए थे वे जिस पद पर हैं, उसकी मर्यादा है और वे उसका पालन करने के लिए बाध्य हैं। उन्होंने आगे की योजनाओं का खुलासा करते हुए, ये भी कहा कि किसानों की समस्या हल कराने के लिए मुझे जहां भी जाना पड़ेगा, मैं जाऊंगा। मलिक ने कहा कि एक कानून का प्रचार किया जा रहा है कि किसान अपनी फसल देश में कहीं भी बेच सकता है! लेकिन, उनका तर्क था कि ये कानून 15 साल से है। लेकिन, जब उत्तर प्रदेश का किसान हरियाणा में फसल बेचने जाता है, तो उस पर हमला होता है।
   एक बात तो स्पष्ट है कि सत्यपाल मालिक ने जो बोला वो गलती से या भावना के अतिरेक में नहीं बोला। ये भी नहीं कहा जा सकता कि उनकी पुरानी सोशलिस्ट विचारधारा उन पर हावी हो गई, इसलिए वे किसानों के समर्थन में उतर आए! संभव है कि राजभवन से फिर राजनीति में आने की कोशिश में हों और ऐसी टिप्पणी करने वे अपना मंतव्य स्पष्ट करने में लगे हों। वे बरसों तक उत्तर प्रदेश की राजनीति से जुड़े रहे हैं और शायद फिर वहीं की राजनीति में हाथ आजमाना चाहते हों! यही कारण है कि उन्होंने किसान आंदोलन का समर्थन करके अपने लिए जनाधार खड़ा करने की कोशिश तो की है। उनमें  इतनी समझ तो है, कि इस सार्वजनिक बयान के बाद वे भाजपा की आँख की किरकिरी बन सकते हैं और इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ सकता है। मनमर्जी चलाने के लिए बदनाम किरण बेदी को अभी ज्यादा दिन नहीं हुए, जब उन्हें राज्यपाल की कुर्सी से चलता कर दिया गया।
   राजनीति की किताब में सत्यपाल मलिक की वाचालता के किस्से कम नहीं हैं। वे जब तक जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल थे, उन्होंने कई बार बोलने में मर्यादा लांघी! एक बार उन्होंने कहा था कि आतंकवादी सुरक्षाकर्मियों और बेगुनाहों लोगों की हत्या करना बंद करें! इसके बजाए उन लोगों को निशाना बनाएं, जिन्होंने सालों तक कश्मीर की दौलत लूटी है। उनके इस बयान ने भी तूल पकड़ा था। तब इस टिप्पणी पर राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री एवं नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने तीखी प्रतिक्रिया दी थी। उन्होंने कहा था कि सत्यपाल मलिक को दिल्ली में अपनी प्रतिष्ठा की पड़ताल करनी चाहिए। यह शख्स जो एक जिम्मेदार संवैधानिक पद पर है, वह आतंकवादियों को भ्रष्ट समझे जाने वाले नेताओं की हत्या के लिए कह रहा है। बाद में सत्यपाल मलिक ने इस बयान पर बहुत लीपा-पोती भी की। ये भी कहा कि मैंने जो कुछ भी कहा, वह गुस्से में कहा। राज्यपाल होने के नाते मुझे इससे बचना चाहिए था। आश्चर्य नहीं कि सत्यपाल मलिक अपनी आदत को दोहराते हुए, फिर कह दें कि 'मैंने तो गुस्से में किसान आंदोलन का समर्थन कर दिया था।' लेकिन, उन्होंने हवा का रूख भांप लिया है! उन्हें पता है कि राजनीति की पतंग वहीं ज्यादा ऊँची उड़ती है, जिस दिशा में हवा होती है।  
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Saturday, March 13, 2021

आजकल पांव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे!

- हेमंत पाल

   इस बात को मानना पड़ेगा कि ईश्वर ने मानव शरीर को जितने भी अंगों से गढ़ा, सभी उपयोगी और अनमोल हैं! ऐसा ही एक अंग है पैर या पांव। एक बार इंसान अपने पैरों पर खड़ा होकर चलने लगता है, तो यही पैर ताउम्र उसे सहारा देते है। इंसान की भी यही चाहत होती है, कि मरते दम तक उसके पैर चलते रहे! वैसे तो हर व्यक्ति कोई चाहता है कि वह फटे में पैर न डाले, लेकिन गाहे-बगाहे कभी कदम बहक जाते हैं। कभी गलत जगह पैर पड़ जाने से भी मुश्किल खड़ी हो जाती है। पैर-पुराण में कभी किसी को अपने पैर उखड़ते नजर आते हैं, तो कोई पैर के सहारे अपने डगमगाते कल को थामने की कोशिश करता है। रीयल लाइफ में पैर पसारने के बजाए रील लाइफ में भी पैरों की अपनी अलग ही महिमा है। फिल्मों में इसी पैर के सहारे कई गुल खिलाए गए! ऐसी कई फ़िल्में हैं, जिनमें नायक और नायिका दोनों के पैरों ने परदे पर कहर बरपाया।   
    हिंदी सिनेमा जब से अपने पैरों पर खड़ा हुआ, हर कदम पर कहीं न कहीं उसे कभी नायक तो कभी नायिका और कभी-कभी तो खलनायकों के पैर ने पैर जमाने में मदद की। सबसे पहले बात की जाए उन फिल्मों की जिनमें पैरों ने सफलता के पंख लगाकर आसमानी कामयाबी दिलाई! देखा जाए तो पैरों के मामले में अभिनेता राजकुमार बहुत किस्मत वाले साबित हुए। 'हमराज' और 'वक्त' में पर्दे पर उनके चेहरे से पहले उनके सफेद जूतों की धमाकेदार एंट्री होती थी। इन फिल्मों में जैसे ही परदे पर राजकुमार के सफेद जूते दिखाई देते हैं, दर्शक तालियों से स्वागत करते। राजकुमार खुद इस तथ्य से वाकिफ थे और अकसर बीआर चोपडा पर तंज कसा करते थे 'जाॅनी, सुना है आजकल आप हमारे जूतों की कमाई खा रहे हैं!' फिल्म 'पाकीजा' में भी राजकुमार ने पैरों की बदौलत खूब तालियां बटोरी। इस फिल्म में यह करिश्मा उनके नहीं, बल्कि फिल्म की नायिका मीना कुमारी के पैरों की खूबसूरती ने किया। बिना चेहरा देखे, रेल की सीट पर मीना कुमारी के पैर देखकर राजकुमार अपने अंदाज में एक चिट्ठी छोड़ जाते हैं, जिस पर लिखा होता है 'आपके पांव देखे, बहुत हसीन हैं, इन्हें जमीन पर मत उतारिएगा मैले हो जाएंगे।'
    राजश्री की फिल्म 'दोस्ती' को भी बैसाखी वाले पैरों ने सहारा दिया। एक लंगडे और अंधे की दोस्ती पर आधारित इस फिल्म ने बाॅक्स ऑफिस पर लम्बी दौड़ लगाते हुए उस समय की सारी फिल्मों को पीछे छोड़ दिया था। धर्मेन्द्र की फिल्म 'फूल और पत्थर' में नायक की एंट्री छोटे-छोटे पैरों से सड़क चढ़ते हुए और बड़े पैरों से सड़क से उतरते हुए हुई थी, जिसे बहुत पसंद किया गया। इसके बाद तो एक के बाद एक कई फिल्म में पैरों का शाॅट दिखाकर नायक को बच्चे से बड़ा दिखाने के प्रयोग किए गए। 'ज्वेलथीफ' में भी पांव को लेकर सस्पेंस दिखाया गया। नायिका कहती है कि नायक के पैरों में छह अंगुलियां है, वह पैर दिखाए। लेकिन, वह टालमटोल करता है, जिससे सस्पेंस बढता जाता है। बाद में वह जिस अंदाज से मौजे उतारता है, दर्शक सीट से उछल जाते हैं। 'शोले' के हथकटे ठाकुर की असहजता तब शौर्य में बदल जाती है, जब फिल्म के क्लाइमेक्स में वह अपने पैरों में पहने कील लगे जूतों से गब्बर को मारता है। ठाकुर के पैर की हर ठोकर पर सिनेमा हाल तालियों और सीटियों से गूंज गया था। 'शोले' में ही गब्बर सिंह को भी चट्टान पर बेल्ट लेकर घूमते दिखाया गया है, तब कैमरा उसके पैरों पर ही फोकस होता है। 'शोले' का ही एक डायलॉग याद कीजिए जो गब्बर सिंह फिल्म में बसंती हेमा मालिनी से बोलता है 'जब तक तेरे पैर चलेंगे, तब तक इसकी सांस चलेगी! जब तेरे पैर रुकेंगे तो ये बंदूक चलेगी!'  
    फिल्मों में नायिका के पैरों का भी अपना महत्व है। आमतौर पर नायिकाओं के पैरों की खूबसूरती को सेल्यूलाइड पर उतारकर बॉक्स ऑफिस पर सिक्के बरसाए जाते रहे हैं। जब नायिकाओं के पैरों की बात आती है, तो जाहिर है वह सुंदर तो होंगे ही। इन पैरों की सुंदरता को बढ़ाने के लिए गीतकार गीत रचते हैं और संगीतकार उनमें संगीत का रस भरकर उन्हें गाने का रूप देते हैं। मेहंदी लगी मेरे पांव में, आजकल पांव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे, पांव छू लेने दो फूलों को इनायत होगी, पांव में पायल से जैसे गीत रचे जाते हैं, तो नायक भी कहां पीछे रहता है। वह भी पग घुंघरू बांध मीरा नाची थी, मेरे पैरों में घुंघरू बंघा दे, तो फिर मेरी चाल देख ले जैसे गीत गाकर फिल्मों में पैरों की महिमा का बखान करता दिखाई देता है। 'मिस मेरी' में बचपन में बिछुड़ी नायिका के पैरों की छह अंगुलियां उसे परिवार से मिलाती है, तो 'नाचे मयूरी' में सुधा चंद्रन के नकली पैरों से नर्तकी बनने की कहानी कही गई। 
   फिल्मों में गरीबी और मज़बूरी दिखाने के लिए भी निर्माताओ ने कभी नायक को कभी नायिका को तो कभी सहनायिका या सहनायक को पैरों से अपाहिज बनाने का फार्मूला आजमाया है। ऐसी ही फिल्मों में 'उपकार' का मलंग, 'हीर रांझा' का लंगड़ा मामा, 'सच्चा झूठा' और 'मजबूर' की पैरों से अपाहिज बहन ने दर्शकों का ध्यान आकर्षित करने में सफलता पाई है। जीवन और मदनपुरी ने ढेरों फिल्मों में लंगडाते हुए ही फिल्मों की कहानी को आगे बढ़ाया है। पैरों के छोटे या बड़े होने से भी कहानी में कई बार मोड़ आ जाता है। 'शान' में मुखबिर मजहर खान को बिना पैरों का बताया गया, जो हाथ से रगड़ने वाली एक गाड़ी से घूमता रहता है। उस पर फिल्माया गया गाना 'आते जाते हुए मैं सबपे नजर रखता हूँ, नाम अब्दुल है मेरा सबपे नजर रखता हूँ' काफी लोकप्रिय हुआ था। शम्मी कपूर की फिल्म 'चायना टाउन' में नायक के हमशक्ल के पैरों का आकार छोटा होने से कहानी में मोड़ आता है, तो सलीम जावेद ने 'यादों की बारात' में एक नया प्रयोग किया था। इसमें खलनायक अजीत के दोनो पैरों के आकार में अंतर होता है। वह एक पैर में 9 नम्बर और दूसरे पैर में 10 नम्बर का जूता पहनता है। फिल्म के क्लाइमेक्स में जब टेबल पर अजीत के दोनों जूते दिखाए जाते हैं, तो धर्मेंद्र उसे पहचान लेता है। इसके साथ ही फिल्म का रोमांच चरम सीमा पर पहुँच जाता है। फिल्मों में ऐसे कई किस्से हैं, जिसमें पैरों ने भी किरदार निभाए हैं।  
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Thursday, March 11, 2021

पत्रकारिता की पाठशाला के अंतिम शिक्षक!

पूर्ण विराम : कमल दीक्षित

- हेमंत पाल 

    कुछ लोगों की हिंदी पत्रकारिता में बहुआयामी होती है। वे अच्छे पत्रकार होने के साथ अच्छे संपादक भी होते हैं। उनमें से कुछ बिरले लोग होते हैं, जो पत्रकारिता के अच्छे शिक्षक भी होते हैं। ऐसी ही एक शख्सियत थे कमल दीक्षित, जो अब हमारे बीच नहीं हैं। उन्हें पत्रकारिता की पाठशाला कहा जाता था। उनकी पाठशाला से जो भी 'दीक्षित' होकर निकला, वो कभी असफल नहीं हुआ! उन्होंने अपने जीवनकाल में पत्रकारिता की कई प्रतिभाओं को पहचाना, तराशा और उन्हें आगे बढ़ने का मौका दिया। वे कोयले की खदान से हीरा पहचान लेते थे। मालवा इलाके समेत कई जगह उन्होंने पत्रकारिता की प्रतिभाओं को पहचाना। वे सिर्फ नाम से ही 'दीक्षित' नहीं थे, कर्म से भी दीक्षित रहे और पत्रकारिता में कई नए चेहरों को उन्होंने 'दीक्षित' किया। कहा जा सकता है कि बरसों पुरानी उस हिंदी पत्रकारिता की पाठशाला पर अब ताला लग गया! 
   कमल दीक्षितजी में जो क्षमता थी, वो सभी संपादकों में नहीं होती! अखबार में अच्छा लिखना खुद की काबिलियत होती है, जो पत्रकारिता में आने की पहली शर्त है! लेकिन, बतौर संपादक अखबार की पूरी टीम को साथ लेकर चलना, उनसे समयबद्ध काम करवाना और उनका उत्साह बढ़ाए रखना सिर्फ दीक्षितजी की ही खूबी थी। उन्हें कई मौकों पर ऐसे फैसले लेते देखा, जो सामान्य बात नहीं थी! वे अखबार मालिक नहीं थे, फिर भी उन्हें कभी मालिकों के साथ हमजोली करते नहीं देखा। वे हमेशा दफ्तर के साथियों के साथ खड़े रहते थे। वे अपने आसपास न तो संपादक होने का आभामंडल लेकर चलते थे और न कभी इसका अहसास ही कराते! उनके व्यवहार में पारदर्शिता इतनी थी, कि कोई भी उनके आरपार झाँककर देख ले। आज ऐसे कई पत्रकार मिल जाएंगे, जिन्होंने कभी न कभी दीक्षितजी से कुछ न कुछ सीखा है।   
    अपनी बात कहूं तो मैं कभी पत्रकार बनना नहीं चाहता था। हिंदी से प्रेम था, तो कुछ लिखता जरूर रहता। 1982 में मैंने धार में मेडिकल स्टोर शुरू किया। संपर्कों का दायरा बहुत ज्यादा विशाल था, तो पत्रकारों का मेरे पास आना-जाना लगा रहता था। मेरे मेडिकल स्टोर में नेताओं और पत्रकारों का जमावड़ा लगा रहता था। उन दिनों कमल दीक्षितजी इंदौर 'नवभारत' में संपादक थे। कुछ भी लिखता तो 'नवभारत' के संवाददाता के मार्फ़त अखबार दफ्तर भिजवा देता। हर बार मेरा लिखा छप जाता। अच्छा भी लगता कि बिना किसी काट-छांट के मेरा लिखा छपने लगा। इस बीच एक बार दीक्षितजी से मुलाकात हुई! उन्होंने मेरे लेखन की तारीफ की और उत्साहित करते हुए कहा कि ऐसे ही लिखते रहो! कुछ नए विषयों पर भी लिखो! उनके इन दो शब्दों ने मेरा सोच बदल दिया। मैंने गंभीर मुद्दों पर लिखा, जो छपा भी! 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद की स्थितियों पर 'नवभारत' में लगातार रिपोर्टिंग की। इस बीच एक मौका ऐसा आया, जब उन्होंने मुझसे कहा कि तुम जिस तरह लिखते हो, वो सारे पत्रकार वाले गुण हैं! तुम ज्यादा दिन मेडिकल स्टोर नहीं चलाओगे! फिर भी मैं नहीं चाहूंगा कि तुम रिस्क लो, पर अपनी प्रतिभा को समझना। 
    मैं लगातार लिखता और छपता रहा! फर्क ये आया कि मेरे लेखन को 'नवभारत' के सभी संस्करणों में जगह मिलने लगी। 'रविवार' जैसी नामचीन समाचार पत्रिका में भी कुछ छपने लगा था। एक बार 'नवभारत' के नागपुर संस्करण में उप संपादक की जगह निकली। मैंने न जाने किस मूड में या अपने आपको परखने के लिए अपना आवेदन भी भेज दिया। साथ में अख़बारों की कुछ कतरनें लगा दी। आवेदन भेजकर इस बात को भूल भी गया। क्योंकि, नागपुर जाकर पत्रकारिता करने का तो सवाल ही नहीं था! लेकिन, एक दिन दीक्षितजी ने संवाददाता के जरिए एक चिट्ठी भेजी। उसमें लिखा था 'इंदौर आकर मिलो, कुछ बात करना है!' बात सामान्य थी, लेकिन मेरे जहन में वो बात नहीं थी, जो होना थी और जिसने मेरे भविष्य का रुख बदल दिया! एक दिन इंदौर गया तो दीक्षितजी से मिलने अखबार के पुराने मनोरमागंज वाले दफ्तर चला गया! वहाँ दीक्षितजी से मिला, तो वे छूटते ही बोले 'अखबार लाइन में आना है, तो इंदौर आ जाओ, नागपुर क्यों जाना चाहते हो!' अब मुझे बात समझ आ गई कि मेरे आवेदन वाली बात वहाँ से यहाँ आ तक गई! उन्होंने मेरा वो आवेदन सामने रख दिया जो मैंने नागपुर भेजा था। उस पर लिखा था कि मुझे इंदौर में ज्वाइन करवाया जाए। ये वो बात थी, जो मेरी सोच से बाहर थी।  
    मेरे लिए धर्मसंकट की घडी थी! मेडिकल स्टोर का काम-धाम बंद करके पत्रकारिता में आया जाए या फिर पत्रकारिता को शौकिया ही अपनाया जाए। इसी उहापोह में था कि परिवार का सहयोग मिला और मैंने मेडिकल स्टोर बंद करने जैसा साहसिक फैसला कर लिया। मुझे वो दिन याद है, जब मैंने 'नवभारत' में काम करना शुरू किया। 7 मार्च 1985 का दिन था। उस दिन रंगपंचमी थी। कमल दीक्षितजी ने यहाँ काम के दौरान मुझे हर फील्ड में परखा। रिपोर्टिंग, आंचलिक पत्रकारिता, डेस्क पर काम कराने से लगाकर ख़बरों का संपादन भी करवाया। मैं नहीं जान सका कि वे मुझमें क्या खोज रहे थे, पर उन्होंने मुझे काम करने के कई मौके दिए। सबसे बड़ा मौका था, मुझे बंबई में हुए 'कांग्रेस शताब्दी समारोह' की रिपोर्टिंग करने का। 'नवभारत' पुराना अखबार होने से उसमें राजनीतिक विश्लेषकों की कमी नहीं थी! लेकिन, दीक्षितजी ने मुझसे कहा कि तुम बंबई जाओ और अच्छा काम करो! मुझे विश्वास है कि तुम ये अच्छी तरह से कर लोगे। मुझे दीक्षितजी के विश्वास पर खरा उतरने के लिए इस चुनौती को पूरा करना था और मैंने वो कर भी दिखाया।   
    इसके बाद उन्होंने मुझसे झाबुआ की सूखा त्रासदी पर फील्ड रिपोर्टिंग करवाई, जो काफी चर्चित रही! आदिवासियों पर पुलिस के अत्याचार पर मैंने कई सनसनीखेज ख़बरें लिखी, जिस पर सरकार से कार्रवाई भी हुई! इससे अखबार की साख तो बढ़ी ही, मेरा आत्मविश्वास भी मजबूत हुआ! कहने का आशय यह कि कमल दीक्षितजी ने काम करने और कुछ भी करने के भरपूर मौके दिए। इसके बाद मैंने 'नईदुनिया' में कई साल काम किया और मुंबई 'जनसत्ता' में भी रहा! हर अखबार में मैंने कई चुनौतीपूर्ण काम किए, इसलिए कि मेरी बुनियाद मजबूत थी, जिसे दीक्षितजी ने गढ़ा था। ये सिर्फ मेरी अपनी कहानी नहीं है! कमल दीक्षितजी के बारे में ऐसे संस्मरण कई पत्रकारों के पास हैं। उस दौर में 'नवभारत' पत्रकारिता की पाठशाला था, जहाँ से 'दीक्षित' होकर कई पत्रकार निकले और शिखर पर पहुंचे। लेकिन, अब उस पाठशाला पर हमेशा के लिए ताला डल गया। अब वहाँ पत्रकारिता की प्रतिभाओं को तराशने और खुले आकाश में मौका देने वाला कोई शिक्षक नहीं बचा! संभवतः कमल दीक्षितजी उस पाठशाला के अंतिम शिक्षक थे!
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Saturday, March 6, 2021

दर्शकों को मनोरंजन चाहिए, ज्ञान नहीं!

- हेमंत पाल

     फिल्मकारों की जिम्मेदारी है, कि वे समाज को बेहतर दिशा दे! जीवन में नैतिकता के स्तर को ऊपर उठाने में और बच्चों को बेहतर सामाजिक मूल्यों की समझ देने में अपनी भूमिका निभाएं, न कि थोथा ज्ञान दें! वास्तव में फिल्मों में कला और व्यवसाय के बीच तालमेल होना बहुत जरुरी है। इसलिए कि फिल्मों का मूल मकसद मनोरंजन होता है। दर्शक मनोरंजन के लिए ही पैसे खर्च करके सिनेमाघर तक आते है। वे फिल्मों से कोई ऐसे ज्ञान की उम्मीद नहीं करते, जो उन्हें कहीं और से भी मिल सकता है! यदि उन्हें ज्ञान की जरुरत भी होगी, तो वे फिल्मों से नहीं लेंगे! लेकिन, फिल्मों से मनोरंजन कैसा हो, ये भी एक बड़ा सवाल है! फूहड़ हास्य और अश्लील दृश्यों से भरी कोई फिल्म कभी मनोरंजन नहीं कर सकती! फिल्मों का मनोरंजन ऐसा हो, जो दर्शकों की संवेदनाओं को झकझोर दे, उन्हें भुला दे कि उनकी परेशानी क्या है और वे कहाँ बैठे हैं!
   आज के दौर में कथित कला या आक्रोश से भरी फिल्में या सेक्स कॉमेडी बनाने वालों का तर्क होता है कि फ़िल्मकारों का काम संदेश देना नहीं, सिर्फ फिल्में बनाना है। अगर उनकी फिल्मों में अत्यधिक अश्लीलता, हिंसा या संबंधों की विसंगतियां दिखती है, तो इसके लिए वे नहीं, बल्कि समाज दोषी है। समाज में यह सब होता है और वे इसी समाज से अपनी कहानियां चुनते हैं! ये बात कुछ हद तक सच है, पर पूरी तरह नहीं! अभी सामाजिक विकृति का स्तर ऐसा नहीं है, जितना फिल्मों में दिखाया जाता रहा है!   
   फ़िल्मकारों को इस बात की आजादी होना चाहिए, कि वे किस तरह की फिल्म बनाना चाहते हैं! इसमें कुछ गलत भी नहीं, पर इस आजादी का दुरूपयोग नहीं होना चाहिए, जो किया जाता है! दुर्भाग्य से हमारी फिल्म इंडस्ट्री का अर्थ शास्त्र बड़ी और मसालेदार फिल्मों को ही समर्थन देता है। ये सही है कि छोटी और सार्थक फिल्में देखने के इच्छुक दर्शकों का एक बड़ा समुदाय है। सार्थक, सकारात्मक और समाज को प्रेरित करने वाली फिल्मों के दर्शकों की संख्या अनगिनत है। किंतु, इनकी अनदेखी करके मनोरंजन के बहाने फूहड़ता परोसना किसी भी नजरिए से ठीक नहीं। फ़िल्म बनाने की आजादी को कभी स्वछंदता नहीं बनने दिया जाना चाहिए। व्यावसायिकता की दौड़ में भी फ़िल्मकारों को अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को नहीं भूलना चाहिए!
    फ़िल्मकार समाज के प्रति अपनी कोई जिम्मेदारी समझते होंगे, ऐसा कभी फ़िल्में देखकर नहीं लगा! बड़ी-बड़ी बातें करके और दर्शकों को ज्ञान देने वाले नामी फ़िल्मकार भी जब फिल्म बनाने के लिए कहानी तलाशते हैं, तो उसका व्यावसायिक पहलु पहले देखते हैं। माना कि फिल्मकारों की सबसे बड़ी ताकत उनकी सिनेमाई आजादी है। इसका मतलब है, अपनी मर्जी के अनुरूप फिल्में बनाने और उसे दर्शकों तक पहुंचाने की! फिर भले ही दर्शक उन्हें नकार दे! आशय यह कि स्वतंत्रता पर स्वच्छंदता हावी है! यही स्वच्छंदता आजकल फिल्मों में गालियों, सेक्स दर्शना दृश्यों, हिंसा, भौंडी कॉमेडी और गैर जरुरी आक्रोश के रूप में दिखाई दे रही है। फिल्मों में जो आक्रोश दिखता है, उसमें कोई स्पष्ट उद्देश्य या वैचारिक आस्था नहीं होती! वो सिर्फ आक्रोश होता हैं। इस आक्रोश का कोई सामाजिक आधार भी नहीं होता और न कोई जिम्मेदारी होती है। 
     श्याम बेनेगल, केतन मेहता, गोविंद निहलानी और प्रकाश झा जैसे फिल्मकारों की फिल्मों में, जिन्हें कला फिल्में या समानांतर फिल्में कहा जाता था, आक्रोश का एक सामाजिक और वैचारिक आधार होता था! लेकिन, कला या समानांतर फिल्मों ने अपना जनाधार को खो दिया! क्योंकि, माना गया कि अतिशय-यथार्थवाद के कारण ये फिल्में दर्शकों से दूर होती गईं। दर्शकों को जब ये फिल्में बोझिल लगने लगीं, तो इनमें पैसे लगाने वाले भी पीछे हटते गए और कला फिल्में इतिहास में दर्ज हो गई! देखा गया कि फिल्मों में आक्रोश व्यक्त करना बहुत आसान है! क्योंकि, उसमें यथार्थ को जस का तस रख देना होता है। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक या धार्मिक विसंगति या मुद्दों पर फिल्में बनाना मुश्किल काम होता है। 70 और 80 के दशक में फिल्मकारों ने समाज और देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को समझकर फिल्में बनाईं! पुराने दौर को देखें, तो महबूब खान, हृषिकेश मुखर्जी, वासु चटर्जी, शक्ति सामंत, वी. शांताराम जैसे फिल्मकारों की फिल्मों में कला और व्यवसाय में जो संतुलन और सार्थक मिलन दिखता था, जाहिर है आज के दौर में उसे पाना आसान नहीं है।
  मौजूदा फिल्मों की एक और जमात हैं, जिनका सामाजिक सरोकार अलग ही है! लेकिन, उनकी फिल्में समाज की किसी न किसी सामाजिक, पारिवारिक विसंगति की और लोगों का ध्यान जरूर खींचती हैं। ये फिल्मकार स्वतंत्र हैं, स्वच्छंद नहीं! इनकी फिल्मों को दर्शक पसंद भी करते हैं। ओएमजी, मुन्नाभाई एमबीबीएस, लगे रहो मुन्ना भाई, थ्री इडियट्स, रंग दे बसंती, नो वन किल्ड जेसिका, तनु वेड्स मनु, बरेली की बर्फी और बधाई हो जैसी कई फिल्में हैं, जिन्होंने महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए और कमाई के रिकॉर्ड भी तोड़े! दर्शक भी ऐसी ही फ़िल्में देखना चाहते हैं! क्योंकि, ये फ़िल्में खालिस मनोरंजन है, कोई ज्ञान का अध्याय नहीं! आज का दर्शक भी किसी ज्ञान की उम्मीद नहीं करता।  
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