पूर्ण विराम : कमल दीक्षित
- हेमंत पाल
कुछ लोगों की हिंदी पत्रकारिता में बहुआयामी होती है। वे अच्छे पत्रकार होने के साथ अच्छे संपादक भी होते हैं। उनमें से कुछ बिरले लोग होते हैं, जो पत्रकारिता के अच्छे शिक्षक भी होते हैं। ऐसी ही एक शख्सियत थे कमल दीक्षित, जो अब हमारे बीच नहीं हैं। उन्हें पत्रकारिता की पाठशाला कहा जाता था। उनकी पाठशाला से जो भी 'दीक्षित' होकर निकला, वो कभी असफल नहीं हुआ! उन्होंने अपने जीवनकाल में पत्रकारिता की कई प्रतिभाओं को पहचाना, तराशा और उन्हें आगे बढ़ने का मौका दिया। वे कोयले की खदान से हीरा पहचान लेते थे। मालवा इलाके समेत कई जगह उन्होंने पत्रकारिता की प्रतिभाओं को पहचाना। वे सिर्फ नाम से ही 'दीक्षित' नहीं थे, कर्म से भी दीक्षित रहे और पत्रकारिता में कई नए चेहरों को उन्होंने 'दीक्षित' किया। कहा जा सकता है कि बरसों पुरानी उस हिंदी पत्रकारिता की पाठशाला पर अब ताला लग गया!
कमल दीक्षितजी में जो क्षमता थी, वो सभी संपादकों में नहीं होती! अखबार में अच्छा लिखना खुद की काबिलियत होती है, जो पत्रकारिता में आने की पहली शर्त है! लेकिन, बतौर संपादक अखबार की पूरी टीम को साथ लेकर चलना, उनसे समयबद्ध काम करवाना और उनका उत्साह बढ़ाए रखना सिर्फ दीक्षितजी की ही खूबी थी। उन्हें कई मौकों पर ऐसे फैसले लेते देखा, जो सामान्य बात नहीं थी! वे अखबार मालिक नहीं थे, फिर भी उन्हें कभी मालिकों के साथ हमजोली करते नहीं देखा। वे हमेशा दफ्तर के साथियों के साथ खड़े रहते थे। वे अपने आसपास न तो संपादक होने का आभामंडल लेकर चलते थे और न कभी इसका अहसास ही कराते! उनके व्यवहार में पारदर्शिता इतनी थी, कि कोई भी उनके आरपार झाँककर देख ले। आज ऐसे कई पत्रकार मिल जाएंगे, जिन्होंने कभी न कभी दीक्षितजी से कुछ न कुछ सीखा है।
अपनी बात कहूं तो मैं कभी पत्रकार बनना नहीं चाहता था। हिंदी से प्रेम था, तो कुछ लिखता जरूर रहता। 1982 में मैंने धार में मेडिकल स्टोर शुरू किया। संपर्कों का दायरा बहुत ज्यादा विशाल था, तो पत्रकारों का मेरे पास आना-जाना लगा रहता था। मेरे मेडिकल स्टोर में नेताओं और पत्रकारों का जमावड़ा लगा रहता था। उन दिनों कमल दीक्षितजी इंदौर 'नवभारत' में संपादक थे। कुछ भी लिखता तो 'नवभारत' के संवाददाता के मार्फ़त अखबार दफ्तर भिजवा देता। हर बार मेरा लिखा छप जाता। अच्छा भी लगता कि बिना किसी काट-छांट के मेरा लिखा छपने लगा। इस बीच एक बार दीक्षितजी से मुलाकात हुई! उन्होंने मेरे लेखन की तारीफ की और उत्साहित करते हुए कहा कि ऐसे ही लिखते रहो! कुछ नए विषयों पर भी लिखो! उनके इन दो शब्दों ने मेरा सोच बदल दिया। मैंने गंभीर मुद्दों पर लिखा, जो छपा भी! 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद की स्थितियों पर 'नवभारत' में लगातार रिपोर्टिंग की। इस बीच एक मौका ऐसा आया, जब उन्होंने मुझसे कहा कि तुम जिस तरह लिखते हो, वो सारे पत्रकार वाले गुण हैं! तुम ज्यादा दिन मेडिकल स्टोर नहीं चलाओगे! फिर भी मैं नहीं चाहूंगा कि तुम रिस्क लो, पर अपनी प्रतिभा को समझना।
मैं लगातार लिखता और छपता रहा! फर्क ये आया कि मेरे लेखन को 'नवभारत' के सभी संस्करणों में जगह मिलने लगी। 'रविवार' जैसी नामचीन समाचार पत्रिका में भी कुछ छपने लगा था। एक बार 'नवभारत' के नागपुर संस्करण में उप संपादक की जगह निकली। मैंने न जाने किस मूड में या अपने आपको परखने के लिए अपना आवेदन भी भेज दिया। साथ में अख़बारों की कुछ कतरनें लगा दी। आवेदन भेजकर इस बात को भूल भी गया। क्योंकि, नागपुर जाकर पत्रकारिता करने का तो सवाल ही नहीं था! लेकिन, एक दिन दीक्षितजी ने संवाददाता के जरिए एक चिट्ठी भेजी। उसमें लिखा था 'इंदौर आकर मिलो, कुछ बात करना है!' बात सामान्य थी, लेकिन मेरे जहन में वो बात नहीं थी, जो होना थी और जिसने मेरे भविष्य का रुख बदल दिया! एक दिन इंदौर गया तो दीक्षितजी से मिलने अखबार के पुराने मनोरमागंज वाले दफ्तर चला गया! वहाँ दीक्षितजी से मिला, तो वे छूटते ही बोले 'अखबार लाइन में आना है, तो इंदौर आ जाओ, नागपुर क्यों जाना चाहते हो!' अब मुझे बात समझ आ गई कि मेरे आवेदन वाली बात वहाँ से यहाँ आ तक गई! उन्होंने मेरा वो आवेदन सामने रख दिया जो मैंने नागपुर भेजा था। उस पर लिखा था कि मुझे इंदौर में ज्वाइन करवाया जाए। ये वो बात थी, जो मेरी सोच से बाहर थी।
मेरे लिए धर्मसंकट की घडी थी! मेडिकल स्टोर का काम-धाम बंद करके पत्रकारिता में आया जाए या फिर पत्रकारिता को शौकिया ही अपनाया जाए। इसी उहापोह में था कि परिवार का सहयोग मिला और मैंने मेडिकल स्टोर बंद करने जैसा साहसिक फैसला कर लिया। मुझे वो दिन याद है, जब मैंने 'नवभारत' में काम करना शुरू किया। 7 मार्च 1985 का दिन था। उस दिन रंगपंचमी थी। कमल दीक्षितजी ने यहाँ काम के दौरान मुझे हर फील्ड में परखा। रिपोर्टिंग, आंचलिक पत्रकारिता, डेस्क पर काम कराने से लगाकर ख़बरों का संपादन भी करवाया। मैं नहीं जान सका कि वे मुझमें क्या खोज रहे थे, पर उन्होंने मुझे काम करने के कई मौके दिए। सबसे बड़ा मौका था, मुझे बंबई में हुए 'कांग्रेस शताब्दी समारोह' की रिपोर्टिंग करने का। 'नवभारत' पुराना अखबार होने से उसमें राजनीतिक विश्लेषकों की कमी नहीं थी! लेकिन, दीक्षितजी ने मुझसे कहा कि तुम बंबई जाओ और अच्छा काम करो! मुझे विश्वास है कि तुम ये अच्छी तरह से कर लोगे। मुझे दीक्षितजी के विश्वास पर खरा उतरने के लिए इस चुनौती को पूरा करना था और मैंने वो कर भी दिखाया।
इसके बाद उन्होंने मुझसे झाबुआ की सूखा त्रासदी पर फील्ड रिपोर्टिंग करवाई, जो काफी चर्चित रही! आदिवासियों पर पुलिस के अत्याचार पर मैंने कई सनसनीखेज ख़बरें लिखी, जिस पर सरकार से कार्रवाई भी हुई! इससे अखबार की साख तो बढ़ी ही, मेरा आत्मविश्वास भी मजबूत हुआ! कहने का आशय यह कि कमल दीक्षितजी ने काम करने और कुछ भी करने के भरपूर मौके दिए। इसके बाद मैंने 'नईदुनिया' में कई साल काम किया और मुंबई 'जनसत्ता' में भी रहा! हर अखबार में मैंने कई चुनौतीपूर्ण काम किए, इसलिए कि मेरी बुनियाद मजबूत थी, जिसे दीक्षितजी ने गढ़ा था। ये सिर्फ मेरी अपनी कहानी नहीं है! कमल दीक्षितजी के बारे में ऐसे संस्मरण कई पत्रकारों के पास हैं। उस दौर में 'नवभारत' पत्रकारिता की पाठशाला था, जहाँ से 'दीक्षित' होकर कई पत्रकार निकले और शिखर पर पहुंचे। लेकिन, अब उस पाठशाला पर हमेशा के लिए ताला डल गया। अब वहाँ पत्रकारिता की प्रतिभाओं को तराशने और खुले आकाश में मौका देने वाला कोई शिक्षक नहीं बचा! संभवतः कमल दीक्षितजी उस पाठशाला के अंतिम शिक्षक थे!
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