- हेमंत पाल
फिल्मकारों की जिम्मेदारी है, कि वे समाज को बेहतर दिशा दे! जीवन में नैतिकता के स्तर को ऊपर उठाने में और बच्चों को बेहतर सामाजिक मूल्यों की समझ देने में अपनी भूमिका निभाएं, न कि थोथा ज्ञान दें! वास्तव में फिल्मों में कला और व्यवसाय के बीच तालमेल होना बहुत जरुरी है। इसलिए कि फिल्मों का मूल मकसद मनोरंजन होता है। दर्शक मनोरंजन के लिए ही पैसे खर्च करके सिनेमाघर तक आते है। वे फिल्मों से कोई ऐसे ज्ञान की उम्मीद नहीं करते, जो उन्हें कहीं और से भी मिल सकता है! यदि उन्हें ज्ञान की जरुरत भी होगी, तो वे फिल्मों से नहीं लेंगे! लेकिन, फिल्मों से मनोरंजन कैसा हो, ये भी एक बड़ा सवाल है! फूहड़ हास्य और अश्लील दृश्यों से भरी कोई फिल्म कभी मनोरंजन नहीं कर सकती! फिल्मों का मनोरंजन ऐसा हो, जो दर्शकों की संवेदनाओं को झकझोर दे, उन्हें भुला दे कि उनकी परेशानी क्या है और वे कहाँ बैठे हैं!
आज के दौर में कथित कला या आक्रोश से भरी फिल्में या सेक्स कॉमेडी बनाने वालों का तर्क होता है कि फ़िल्मकारों का काम संदेश देना नहीं, सिर्फ फिल्में बनाना है। अगर उनकी फिल्मों में अत्यधिक अश्लीलता, हिंसा या संबंधों की विसंगतियां दिखती है, तो इसके लिए वे नहीं, बल्कि समाज दोषी है। समाज में यह सब होता है और वे इसी समाज से अपनी कहानियां चुनते हैं! ये बात कुछ हद तक सच है, पर पूरी तरह नहीं! अभी सामाजिक विकृति का स्तर ऐसा नहीं है, जितना फिल्मों में दिखाया जाता रहा है!
फ़िल्मकारों को इस बात की आजादी होना चाहिए, कि वे किस तरह की फिल्म बनाना चाहते हैं! इसमें कुछ गलत भी नहीं, पर इस आजादी का दुरूपयोग नहीं होना चाहिए, जो किया जाता है! दुर्भाग्य से हमारी फिल्म इंडस्ट्री का अर्थ शास्त्र बड़ी और मसालेदार फिल्मों को ही समर्थन देता है। ये सही है कि छोटी और सार्थक फिल्में देखने के इच्छुक दर्शकों का एक बड़ा समुदाय है। सार्थक, सकारात्मक और समाज को प्रेरित करने वाली फिल्मों के दर्शकों की संख्या अनगिनत है। किंतु, इनकी अनदेखी करके मनोरंजन के बहाने फूहड़ता परोसना किसी भी नजरिए से ठीक नहीं। फ़िल्म बनाने की आजादी को कभी स्वछंदता नहीं बनने दिया जाना चाहिए। व्यावसायिकता की दौड़ में भी फ़िल्मकारों को अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को नहीं भूलना चाहिए!
फ़िल्मकार समाज के प्रति अपनी कोई जिम्मेदारी समझते होंगे, ऐसा कभी फ़िल्में देखकर नहीं लगा! बड़ी-बड़ी बातें करके और दर्शकों को ज्ञान देने वाले नामी फ़िल्मकार भी जब फिल्म बनाने के लिए कहानी तलाशते हैं, तो उसका व्यावसायिक पहलु पहले देखते हैं। माना कि फिल्मकारों की सबसे बड़ी ताकत उनकी सिनेमाई आजादी है। इसका मतलब है, अपनी मर्जी के अनुरूप फिल्में बनाने और उसे दर्शकों तक पहुंचाने की! फिर भले ही दर्शक उन्हें नकार दे! आशय यह कि स्वतंत्रता पर स्वच्छंदता हावी है! यही स्वच्छंदता आजकल फिल्मों में गालियों, सेक्स दर्शना दृश्यों, हिंसा, भौंडी कॉमेडी और गैर जरुरी आक्रोश के रूप में दिखाई दे रही है। फिल्मों में जो आक्रोश दिखता है, उसमें कोई स्पष्ट उद्देश्य या वैचारिक आस्था नहीं होती! वो सिर्फ आक्रोश होता हैं। इस आक्रोश का कोई सामाजिक आधार भी नहीं होता और न कोई जिम्मेदारी होती है।
फ़िल्मकार समाज के प्रति अपनी कोई जिम्मेदारी समझते होंगे, ऐसा कभी फ़िल्में देखकर नहीं लगा! बड़ी-बड़ी बातें करके और दर्शकों को ज्ञान देने वाले नामी फ़िल्मकार भी जब फिल्म बनाने के लिए कहानी तलाशते हैं, तो उसका व्यावसायिक पहलु पहले देखते हैं। माना कि फिल्मकारों की सबसे बड़ी ताकत उनकी सिनेमाई आजादी है। इसका मतलब है, अपनी मर्जी के अनुरूप फिल्में बनाने और उसे दर्शकों तक पहुंचाने की! फिर भले ही दर्शक उन्हें नकार दे! आशय यह कि स्वतंत्रता पर स्वच्छंदता हावी है! यही स्वच्छंदता आजकल फिल्मों में गालियों, सेक्स दर्शना दृश्यों, हिंसा, भौंडी कॉमेडी और गैर जरुरी आक्रोश के रूप में दिखाई दे रही है। फिल्मों में जो आक्रोश दिखता है, उसमें कोई स्पष्ट उद्देश्य या वैचारिक आस्था नहीं होती! वो सिर्फ आक्रोश होता हैं। इस आक्रोश का कोई सामाजिक आधार भी नहीं होता और न कोई जिम्मेदारी होती है।
श्याम बेनेगल, केतन मेहता, गोविंद निहलानी और प्रकाश झा जैसे फिल्मकारों की फिल्मों में, जिन्हें कला फिल्में या समानांतर फिल्में कहा जाता था, आक्रोश का एक सामाजिक और वैचारिक आधार होता था! लेकिन, कला या समानांतर फिल्मों ने अपना जनाधार को खो दिया! क्योंकि, माना गया कि अतिशय-यथार्थवाद के कारण ये फिल्में दर्शकों से दूर होती गईं। दर्शकों को जब ये फिल्में बोझिल लगने लगीं, तो इनमें पैसे लगाने वाले भी पीछे हटते गए और कला फिल्में इतिहास में दर्ज हो गई! देखा गया कि फिल्मों में आक्रोश व्यक्त करना बहुत आसान है! क्योंकि, उसमें यथार्थ को जस का तस रख देना होता है। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक या धार्मिक विसंगति या मुद्दों पर फिल्में बनाना मुश्किल काम होता है। 70 और 80 के दशक में फिल्मकारों ने समाज और देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को समझकर फिल्में बनाईं! पुराने दौर को देखें, तो महबूब खान, हृषिकेश मुखर्जी, वासु चटर्जी, शक्ति सामंत, वी. शांताराम जैसे फिल्मकारों की फिल्मों में कला और व्यवसाय में जो संतुलन और सार्थक मिलन दिखता था, जाहिर है आज के दौर में उसे पाना आसान नहीं है।
मौजूदा फिल्मों की एक और जमात हैं, जिनका सामाजिक सरोकार अलग ही है! लेकिन, उनकी फिल्में समाज की किसी न किसी सामाजिक, पारिवारिक विसंगति की और लोगों का ध्यान जरूर खींचती हैं। ये फिल्मकार स्वतंत्र हैं, स्वच्छंद नहीं! इनकी फिल्मों को दर्शक पसंद भी करते हैं। ओएमजी, मुन्नाभाई एमबीबीएस, लगे रहो मुन्ना भाई, थ्री इडियट्स, रंग दे बसंती, नो वन किल्ड जेसिका, तनु वेड्स मनु, बरेली की बर्फी और बधाई हो जैसी कई फिल्में हैं, जिन्होंने महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए और कमाई के रिकॉर्ड भी तोड़े! दर्शक भी ऐसी ही फ़िल्में देखना चाहते हैं! क्योंकि, ये फ़िल्में खालिस मनोरंजन है, कोई ज्ञान का अध्याय नहीं! आज का दर्शक भी किसी ज्ञान की उम्मीद नहीं करता।
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