Sunday, March 21, 2021

आजादी के बाद नए दौर का नया सिनेमा!

 - हेमंत पाल

    ब भी सिनेमा की बात होती है, उसके शुरूआती काल से आजतक की ही बात होती है। जबकि, हिंदी सिनेमा की दुनिया दो भागों में बंटी है। पहली है आजादी से पहले की फ़िल्में, दूसरी है आजादी के बाद की! सामान्यतः दोनों समय काल में सिनेमा का मूल तत्व मनोरंजन ही था, पर दोनों में बहुत अंतर देखा गया। कई फिल्मकार विभाजित भारत के उस हिस्से से इधर आए और कुछ अपने यहाँ से उधर चले गए। इस अदला-बदली का भी फिल्म निर्माण में अंतर आया। क्योंकि, देश की सामाजिक व्यवस्था के साथ सिनेमा की दुनिया भी बदली। ये भी सच है कि सिनेमा ने हमेशा भी खुद को समाज के साथ बदला है। आजादी के बाद सोच, कथानक, विषय, गीत-संगीत के साथ निर्माण प्रक्रिया में भी नए प्रयोग किए गए। 1948 में राज कपूर की फिल्म 'आग' आई थी। मुकेश ने इसमें 'जिंदा हूं इस तरह के गमे जिंदगी नहीं' गीत गाया। शमशाद बेगम ने 'काहे कोयल शोर मचाए रे' गाया। इन गीतों में शायरी हावी थी। क्योंकि, फिल्मों में हिंदी के साथ उर्दू का प्रयोग होने लगा था।   
    आजादी के बाद सिनेमा के उस दौर में अंतर आया जो धार्मिक और पौराणिक किस्से-कहानियों के अलावा ऐतिहासिक प्रसंगों तक सीमित था। तलवारबाजी और अखाड़ों में कुश्तियों वाली फ़िल्में धीरे-धीरे नेपथ्य में चली गईं, उसकी जगह ली सामाजिक कहानियों, किसानों की पीड़ा, गाँव में साहूकारों के जुल्म और हल्की-फुल्की प्रेम कथाओं ने। शुरुआत की कई फिल्मों में सूदखोर के कर्ज से परेशान किसानों की बेबसी को संजीदगी के साथ फिल्माया गया। 50 के दशक के बाद ऐसी कई फ़िल्में आई जिनमें जमींदार के आतंक और सूदखोर के आतंक को ही खलनायक बनाकर दिखाया गया। ये किसानों की दुर्दशा दर्शाने वाला दौर था। परदे पर जिस भी किसान की कहानी गढ़ी गई, उसे गरीबी के चक्रव्यहू से जूझता हुआ ही दिखाया गया। इसके अलावा महिला किरदारों को भी जुल्मी जमींदार की नजरों से बचता हुआ दिखाया गया। आजादी के बाद करीब एक दशक तक फिल्मों में किसानों की इसी मजबूरी को फिल्माया गया। 
   बंटवारे के बाद का दौर ऐसा रहा, जिसने सिनेमा पर सीधा असर डाला। लोग सिनेमा के मनोरंजन से दूर हो गए! क्योंकि, जीवन की समस्याएं मनोरंजन से कहीं ज्यादा बड़ी थीं। इस दौर के गुजरने के बाद फिल्मों के कथानक बदलने लगे। देश के नवनिर्माण की बातें होने लगी। 50 के दशक के सिनेमा पर आजाद भारत की झलक दिखाई देने लगी। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के आर्थिक सुधारों और आधुनिकीकरण के सोच के साथ आजादी के बाद के आशावाद की झलक देखी जा सकती है। ये पं नेहरू के ही विचार थे, जब उन्होंने नए देश के निर्माण के समाजवादी मॉडल के साथ प्रयोग किए। पं नेहरू के विचारों का नजरिया आजादी के संघर्ष की वैचारिक विरासत का विस्तार करने के पक्ष में था। लेकिन, यह इतना अतिआदर्शवादी हो गया था, कि इसके सहारे कसी हुई फ़िल्मी कहानी कहना आसान नहीं था। 
  'जागृति' (1954) में मोहम्मद रफ़ी के गाए गीत 'हम लाए हैं तूफानों से कश्ती निकाल के इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के' में कैमरा पं नेहरू के फोटो पर फोकस होता है। इसी गीत की आगे पंक्तियां 'देखो कहीं बर्बाद न हो ये बगीचा' पं नेहरू की शांतिदूत वाली अंतरराष्ट्रीय छवि को स्थापित करने की कोशिश लगती थी। 'एटम बमों के जोर पर ऐंठी है ये दुनिया, बारूद के एक ढेर पर बैठी है ये दुनिया' जैसी पंक्तियां भी आने वाले कल का संकेत समझा जा सकता है। 60 और 70 के दशक में देश में औद्योगीकरण का माहौल बना। तब कारखाना मालिकों को फिल्मों में खलनायक के रूप में दिखाया जाने लगा। तब की फिल्मों में इन मालिकों के किरदार कभी अच्छे आदमी के नहीं दिखाई दिए। क्योंकि, फिल्मकारों के जहन में कहीं न कहीं वामपंथी सोच भी छुपा था जो मजदूरों के साथ खड़ा था।   
   आजादी के बाद सभी को अहसास था कि जो जहाँ है, उसे वहीं से देश को नवनिर्माण के रास्ते पर ले जाना है। सिनेमा की भी अपनी जिम्मेदारी थी और फिल्मकारों को नई सोच के साथ अपना योगदान देना था। आजादी के साल भर बाद महात्मा गांधी की हत्या हो गई। राजेंद्र कृष्ण ने गांधीजी की याद में 'सुनो सुनो ए दुनिया वालों बापू की ये अमर कहानी' गीत रचा! इसके बाद 1949 में राज कपूर की ‘बरसात’ और महबूब खान की ‘अंदाज’ जैसी फिल्में आईं। 'अंदाज' में नौशाद का संगीत था और 'बरसात' से आए शंकर-जयकिशन। जमींदारों की सामंती अकड़, सूदखोर और गरीब किसान जैसी स्थितियों के बीच 'मदर इंडिया' (1957) और 'गंगा जमुना' (1961) जैसी फिल्में बनी। इसके साथ 'बूट पॉलिश' (1954) और 'आवारा' (1951) ने नए भारत में उपजी आर्थिक असमानताओं पर प्रकाश डाला। 
    1957 का साल आजादी के बाद देशभक्ति का नया स्वरूप लेकर आया। गुरुदत्त की फिल्म 'प्यासा' के लिए लिखे साहिर लुधियानवी के गीत में उन्होंने कुलीन देशभक्ति पर कटाक्ष किया था। मोहम्मद रफ़ी के गाए इस गीत के बोल थे 'ये कूचे ये नीलामघर दिलकशी के, ये लुटते हुए कारवां जिंदगी के, कहां हैं मुहाफिज खुदी के, जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं!' 1958 में साहिर लुधियानवी ने राज कपूर की फिल्म 'फिर सुबह होगी' में इकबाल के गीत 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा' पर व्यंग्य किया। मुकेश का गाया यह गीत आजादी के दस साल बाद की स्थिति और खामियों पर टिप्पणी की तरह था। साहिर ने लिखा था 'चीन-ओ-अरब हमारा, हिन्दोस्तान हमारा, रहने को घर नहीं है, सारा जहां हमारा!' समाजवादी राजनीतिक व्यवस्था का मखौल उड़ाते हुए इसके आगे की पंक्तियां थीं 'जितनी भी बिल्डिंगें थीं, सेठों ने बांट ली हैं, फुटपाथ बम्बई के हैं आशियां हमारा!' कहा जा सकता है कि बंटवारे के बाद देश की दिशा और दशा क्या होगी, ये फिल्मकारों ने पहले ही भांप लिया था। 
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