भाजपा आज जिस स्थिति में है, उसका राजनीतिक विकल्प खोज पाना आसान नहीं है। तीन साल पहले भाजपा जिस धूमकेतु की तरह केंद्र की सत्ता में वापस लौटी थी, पूरा देश चौंक गया था। क्योंकि, अपने पहले कार्यकाल में नरेंद्र मोदी ने ऐसे कोई चमत्कारिक काम नहीं किया था कि मतदाता उन्हें दूसरी बार भी चुनें! लेकिन, मतदाताओं के सामने सबसे बड़ी परेशानी थी, कि सामने कोई सशक्त विकल्प मौजूद नहीं था! दूसरे कार्यकाल में भी भाजपा सरकार के फैसले लोकहित के नहीं कहे जा सकते! पर, अभी भी विकल्प का अभाव है। इसके बावजूद देश के मतदाताओं के सामने अभी भी सशक्त विपक्ष नहीं है, जो भाजपा के सामने मतदाताओं को आकर्षित कर सके। अभी तक कांग्रेस को विपक्ष समझा और माना जाता रहा है, पर वो अब पुरानी बात हो गई। अब एक ऐसा विपक्ष गढ़े जाने की कोशिश शुरू हो गई, जिसमें कांग्रेस को शामिल भी नहीं किया गया। विपक्ष को खड़ा करने की कोशिश कर रही ममता बैनर्जी की कोशिश है कि उनके साथ देश के वे नेता और कार्यकर्ता तृणमूल कांग्रेस में जुड़ें, जो भाजपा के सिद्धांतों, विचारधारा और कार्यशैली से न सिर्फ असहमत हैं, बल्कि उसे सत्ता से भी हटाना चाहते हैं। लेकिन, विकल्पहीनता को लेकर परेशान हैं। ममता तृणमूल कांग्रेस को उनके लिए ऐसा मंच बना रही हैं जो कालांतर में चलकर कांग्रेस का विकल्प बन जाए।
- हेमंत पाल
पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव के बाद ममता बैनर्जी की ताकत जिस तरह बढ़ी, उसने देश में एक सशक्त विपक्ष की आधारशिला भी रख दी। क्योंकि, ममता बैनर्जी ने एक राज्य के चुनाव में सिर्फ भाजपा को पटखनी ही नहीं दी, देश को ये संदेश भी दिया कि भाजपा को हराना मुश्किल नहीं है! पूरे भाजपा के मुकाबले में ममता बैनर्जी जिस तरह ख़म ठोंककर खड़ी रही और उसे खदेड़ दिया, वो आसान नहीं था! 'अबकी बार 200 पार' का नारा लगाने वाली भाजपा 70 सीटों पर अटक गई! इस जीत ने ममता बैनर्जी को इतना आत्मविश्वास दिया कि वे देशभर में बिखरे विपक्ष को एक करने में जुट गई! उनकी ये मुहिम आसान नहीं है, पर मुश्किल भी नहीं! लेकिन, ममता बैनर्जी की नजरें पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों पर हैं। इन चुनावों में कांग्रेस की स्थिति का आकलन करने के बाद ही वे अपनी कोशिशों को आगे बढ़ाएंगी। इस मुहिम के पहले चरण में उन्होंने कई चिर असंतुष्ट कांग्रेसियों को अपनी पार्टी तृणमूल से जोड़ा है। वे यह सब तृणमूल के विस्तार के लिए नहीं कर रही, उनकी कोशिश एक अलग विपक्ष खड़ा करने की है। इसमें ममता बैनर्जी की भूमिका क्या होगी, ये स्पष्ट नहीं है! पर, इस सारी राजनीतिक कवायद का कारण एक नई पार्टी खड़ी करना है जिसकी पहचान अलग होगी।
विधानसभा चुनाव जीतने के बाद ममता बैनर्जी के तेवरकुछ अलग ही हैं। वे जिस तरह कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं को तृणमूल में शामिल कर रही हैं, उससे लगता है कि वे खुद को ही अगले लोकसभा चुनाव के लिए नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में तैयार खड़ा करने की कोशिश में हैं। जबकि, वास्तव में ममता बैनर्जी तृणमूल को कांग्रेस का विकल्प बनाने की कोशिश ज्यादा करती दिखाई दे रही है। वे कांग्रेस से टूटे क्षेत्रीय दलों को एकजुट करके कांग्रेसी विचारधारा की ऐसी पार्टी बनाना चाहती हैं जो भाजपा के सामने चुनाव में खड़ी हो सके। उनकी ये सारी कवायद 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए हो रही है। शरद पवार, जगन मोहन रेड्डी और चंद्रशेखर राव जैसे पुराने कांग्रेसी नेताओं और अब महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में सरकारें चला रहे इन नेताओं से उनकी बातचीत होने की भी ख़बरें हैं। लेकिन, उनकी कोशिश यह देखने के बाद शुरू होगी, जब पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन सामने आएगा। यदि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पंजाब में अपनी सरकार बचा लेती है। उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकार बना पाती है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश, गोवा और मणिपुर में कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा रहता है, तो ममता बैनर्जी की रणनीति बदल जाएगी। इन नतीजों पर ही बहुत कुछ निर्भर है। अगर नतीजे कांग्रेस के पक्ष में आए तो ममता की मुहिम ठंडी भी पड़ सकती है।
भाजपा का विकल्प गढ़े जाने के अपने अभियान को आगे बढ़ाते हुए ममता बनर्जी गैर-भाजपा दलों के शीर्ष नेताओं से भी मिलने की कोशिश में है। उन्होंने घोषणा की है कि वे शरद पवार और उद्धव ठाकरे से बात करेंगी। पटना जाकर लालू यादव से और फिर एमके स्टालिन, चंद्रशेखर राव, जगनमोहन रेड्डी, नवीन पटनायक, हेमंत सोरेन और अरविंद केजरीवाल जैसे गैर-भाजपा शासित राज्यों के उन मुख्यमंत्रियों से भी संपर्क करेंगी। रणनीति के मुताबिक, ममता उन नेताओं को इस अभियान से जोड़ना चाहती हैं, जिनकी अपने राज्यों में अच्छी पहचान है। ममता सबसे मेल मुलाकातों के जरिए पूरे देश के गैर-भाजपा खेमें में अपनी स्वीकार्यता स्थापित करेंगी और कांग्रेस के नेताओं को तृणमूल में शामिल कराएंगी। उनकी योजना है कि 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले भाजपा का विकल्प बनाई जाने वाली पार्टी कम से कम 100 लोकसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने की स्थिति में हो। जहाँ इस पार्टी का जनाधार कमजोर दिखाई देगा, वहां ताकतवर क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन का रास्ता भी खोलकर रखा जाएगा। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव के साथ ममता बनर्जी के रिश्ते अच्छे हैं और ये जगजाहिर भी है।
ममता की इस मुहिम की शुरुआत कांग्रेस और अन्य दलों के उन नेताओं को जो हाशिए पर हैं, उन्हें तृणमूल कांग्रेस से जोड़कर पार्टी का विस्तार करके की है। ममता ने सबसे पहले पूर्व वित्त मंत्री और भाजपा के असंतुष्ट नेता रहे यशवंत सिन्हा को तृणमूल कांग्रेस में शामिल किया। इसके बाद जद (यू) के पूर्व राज्यसभा सांसद पवन कुमार वर्मा के साथ कांग्रेस नेता कीर्ति आजाद, कांग्रेस से बाहर जा चुके हरियाणा प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अशोक तंवर को तृणमूल कांग्रेस में शामिल किया। उत्तर प्रदेश के दिग्गज कांग्रेसी ब्राह्मण नेता और पूर्व मुख्यमंत्री व पूर्व केंद्रीय मंत्री कमलापति त्रिपाठी के पौत्र राजेशपति त्रिपाठी और उनके पुत्र पूर्व विधायक ललितेश पति त्रिपाठी भी तृणमूल में शामिल हो गए। जबकि, पूर्वोत्तर में ममता तृणमूल कांग्रेस को एक राजनीतिक ताकत बनाकर कांग्रेस को पीछे करके भाजपा को चुनौती देने के अभियान में बंगाल जीतने के बाद से ही जुटी हैं। इस कड़ी में त्रिपुरा के स्थानीय चुनावों में तृणमूल कांग्रेस पूरे दमखम से उतरी।
भाजपा के साथ उसका वैसा ही हिंसक टकराव हो रहा है, जैसा पश्चिम बंगाल में विधानसभा और लोकसभा चुनावों से पहले शुरू हुआ था। असम में दिग्गज नेता रहे संतोष मोहन देव की बेटी और महिला कांग्रेस की अध्यक्ष सुष्मिता देव ने पाला बदलकर लोकसभा से इस्तीफा देकर ममता का हाथ थाम लिया। बदले में तत्काल उन्हें पश्चिम बंगाल से राज्यसभा में भेज दिया गया। गोवा में पूर्व मुख्यमंत्री के कांग्रेस छोड़कर तृणमूल कांग्रेस में शामिल होने का झटका कांग्रेस झेल ही रही थी कि मेघालय में पार्टी के एक दर्जन विधायक पाला बदलकर ममता की पार्टी में शामिल हो गए। इस रणनीति के मुताबिक अगर सबकुछ ठीक रहा, तो 2024 से पहले तृणमूल कांग्रेस, शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस, जगन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस और चंद्रशेखर राव की तेलंगाना राष्ट्र समिति मिलकर एक नया राष्ट्रीय दल खड़ा कर सकती है। इसका नाम, झंडा और चुनाव चिन्ह सब कुछ नया होगा।
ममता बैनर्जी अपनी पार्टी 'तृणमूल' का विस्तार करने की कोशिश में है। वे चाहती हैं कि पश्चिम बंगाल की सीमा से बाहर निकालकर तृणमूल की उपस्थिति हर राज्य में बनाई जाए। यही कारण है कि उन्होंने पार्टी के दरवाजे हर राज्य के उन असंतुष्ट नेताओं के लिए खोल दिए, जिनकी अपने राज्यों में पहचान है। लेकिन, उनकी अपनी पार्टी में पूछ नहीं बची! उनके पीछे कोई बड़ा जनाधार न हो, पर वे विचारधारा के हिसाब से भाजपा विरोधी हों। पश्चिम बंगाल के आसपास के राज्यों में तो 'तृणमूल' समर्थक और ममता को समझने वाले आसानी से मिल रहे हैं। लेकिन, उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, गोवा, महाराष्ट्र, उड़ीसा, कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में ममता बनर्जी को 'तृणमूल' का झंडा लेकर चलने वालों की तलाश है। फ़िलहाल बिहार में यशवंत सिन्हा, कीर्ति आजाद और पवन वर्मा यह काम करेंगे। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में कमलापति त्रिपाठी परिवार की प्रतिष्ठा के वाहक राजेशपति और ललितेश पति त्रिपाठी तृणमूल कांग्रेस के रथ को आगे बढ़ाएंगे। हरियाणा में फिलहाल अशोक तंवर अब तृणमूल का काम संभालेंगे। संभव है, कांग्रेस और अन्य दलों के कुछ और नेता 'तृणमूल' से जुड़ जाएं।
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