Monday, January 3, 2022

फ़िल्मी कथानकों में मानव अधिकारों की झलक

- हेमंत पाल

    सिनेमा वो माध्यम है, जो सिर्फ दर्शकों का मनोरंजन ही नहीं करता, उन्हें कई मसलों को लेकर जागरूक भी करता है। ऐसे मामलों में एक मानव अधिकार भी हैं। कई बार फिल्मों के कथानकों में भी इन अधिकारों का जिक्र इस तरह होता है कि दर्शक उसे आत्मसात कर लेते हैं। अभी तक ऐसी फ़िल्में ज्यादा तो नहीं बनी, पर ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने से अभी तक जितनी भी फिल्मों में ऐसे विषयों को उठाया गया, उन्होंने दर्शकों के दिल में अपनी जगह जरूर बनाई। सिनेमा के शुरुआती काल में इस विषय पर बहुत कम फ़िल्में बनी। कुछ फिल्मकारों ने जरूर मानव अधिकार के मुद्दे को परदे पर उतारकर फिल्मों को यथार्थ से जोड़ने की कोशिश की। पर, 80 के दशक में ऐसी फिल्मों को कला फ़िल्म का दर्जा दिया जाने लगा। लेकिन, जो भी फ़िल्में बनी, उनमें मानव जीवन की त्रासदियों और उसके मूल अधिकारों के हनन की कहानी को बेबाकी से परदे पर उतारा गया।  
      हिंदी सिनेमा सामाजिक परंपराओं और सुधारों की आड़ में आम आदमी के अधिकारों का हनन होने का गवाह है और अपने अधिकारों के प्रति समाज को जागरूक करने का पर्याय भी बनता आया है। वी शांताराम, महबूब खान से लेकर श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, मणि कौल, ऋषिकेश मुखर्जी, बासु भट्टाचार्य, बुद्धदेव दास गुप्त, प्रकाश झा, सई परांजपे, सुधीर मिश्रा जैसे निर्देशक मानव जीवन की त्रासदियों व उसके मूल अधिकारों के हनन की कहानी को बड़े पर्दे पर लेकर आते रहे हैं। आजादी के सात दशक से ज्यादा समय बाद भी सिनेमा के जरिए मानव अधिकारों के प्रति जागरूक करती ये फिल्में इस बात की गवाह हैं, कि आज भी समाज में मूल अधिकारों को लेकर कैसी लड़ाई चल रही है। इस ज्वलंत सामाजिक मुद्दे को परदे पर दिखाने की पहली कोशिश 1933 में वी शांताराम ने फ़िल्म 'अमर ज्योति' बनाकर शुरू की। इसमें महिलाओं को अधिकारों के मामले में पुरुषों के समकक्ष बताने के मुद्दे को सशक्त ढंग से उठाया था। जबकि, उस समय संवैधानिक रूप से ऐसी कोई व्यवस्था लागू नहीं थी। समाज व्यवस्था भी ऐसी नहीं थी, कि कोई इस समानता के बारे में आवाज उठाए! इसलिए कहा जा सकता है, कि सिनेमा 40 के दशक से ही तत्कालीन परिस्थितियों में मानव अधिकारों की रक्षा को लेकर आवाज उठाता रहा है। 1950 में संविधान बनने के बाद भी एक बड़े हिस्से को अपने अधिकारों की जानकारी नहीं पता, पर वी शांताराम को इसका अहसास उससे पहले हो गया था। 
      संविधान में प्रावधान है कि हर व्यक्ति को अपनी 'जीविका के उपार्जन की आजादी का अधिकार' मिलना चाहिए। जीविका के इसी अधिकार पर विमल राय ने 1957 में 'दो बीघा जमीन' फिल्म बनाकर एक तरह से संदेश दिया था। फिल्म में अनपढ़ शम्भू अपनी दो बीघा जमीन, जो उसकी जीविका का एकमात्र साधन होता है, उसे साहूकार से बचाना चाहता है! उसका एकमात्र लक्ष्य अपनी जमीन को साहूकार से वापस पाना होता है। सामंतवाद पर चोट करती ये फिल्म जीविका उपार्जन के संविधान प्रदत्त अधिकार और यथार्थ में उसे हासिल करने के संघर्ष का प्रतीक थी। इसके बाद लम्बे अरसे तक इस विषय को अलग-अलग ढंग से उठाया तो गया, पर सारी फ़िल्में फार्मूला बनकर रह गई। फैक्ट्री मालिक और मजदूरों के बीच की खींचतान को कई बार दिखाया गया। 1973 में आई अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना की फिल्म 'नमक हराम' और 1975 में आई अमिताभ बच्चन की फिल्म 'दीवार' में भी यही जंग दिखाई गई, पर फिल्म में मानव अधिकार जैसा मुद्दा नहीं उठ सका।    
     इस तरह की फ़िल्में बनाने की परम्परा को बाद में कला फिल्मकारों ने आगे जरूर बढ़ाया, पर वो समीक्षकों और उन सीमित दर्शकों तक सिमटकर रह गया जो ऐसी फ़िल्में पसंद करते थे। श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, ऋषिकेश मुखर्जी, प्रकाश झा ने ऐसी कई फ़िल्में बनाई। आक्रोश, निशांत, पार, तमस, गर्म हवा, मम्मो, मैं जिंदा हूँ, दो बीघा जमीन, दुनिया न माने, दो आँखे बारह हाथ, मदर इंडिया, मंडी, बाजार बैंडेट क्वीन, गंगाजल, वॉटर, ब्लैक, और 'मातृभूमि' जैसी फिल्मों में कहीं न कहीं मानव अधिकारों की ही पैरवी की गई थी। यही वे फ़िल्में थीं, जिनके कथानक समय के साथ समाज में आने वाले सुधारों और पुरातन परम्पराओं पर केंद्रित थीं। देखा जाए सबसे पहला अधिकार है ‘जीने का अधिकार!’ इसमें कन्या भ्रूण हत्या, गर्भपात और 'इच्छा मृत्यु' जैसे संवेदनशील मुद्दों से जुड़े अधिकार भी शामिल हैं। जागरूकता की सारी कोशिशों के बाद भी कई ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसी कुरीतियां हैं, जिनकी वहज से कन्या के जन्मते ही उसे खत्म कर दिया जाता था। इस संवेदनशील विषय पर मनीषा झा ने 'मातृभूमि: ए नेशन विदाउट वीमन' फिल्म बनाई जो समाज की इस कड़वी सच्चाई की वीभत्स तरीके से दर्शकों के सामने रखती है। सिर्फ अधिकारों की घोषणा करने से उनकी सार्थकता साबित नहीं होती। 
     श्याम बेनेगल की फिल्म 'हरी-भरी' भी इसी का एक हिस्सा थी, जो यौन जीवन संबधी अधिकारों पर खुलकर बहस छेड़ती है। मधुर भंडाकर जैसे निर्देशक भी 'ट्रैफिक सिग्नल' और 'कॉपोरेट' से ऐसे ज्वलंत मुद्दों को उठाते रहे हैं। 'ट्रैफिक सिग्नल' जहाँ रेड लाइट से जुड़े लोगों के जीवन की परतें खोलती है, वहीं 'कॉर्पोरेट' हाई सोसायटी के बिजनेस के तौर तरीकों में औरत की स्थिति और उसके उपयोग की कहानी बताती है। मदर इंडिया, अशनि संकेत और 'अकालेन संधाने' जैसी फिल्मों में भी यह सच सामने रखा जाता रहा है। ये अधिकारों की वकालात करने के साथ भूख से तड़पते लोगों पर जमींदारों, साहूकारों और राजनीतिक साजिशों की पड़ताल करती है। 
      फिल्म 'शाहिद' मानव अधिकारों की वकालत करने वाले वकील शाहिद आजमी की सच्ची कहानी पर बनी थी, जिसकी हत्या कर दी गई थी। इस फिल्म में राजकुमार राव ने भूमिका निभाई थी। धर्म, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को रोकती अनुभव सिन्हा द्वारा निर्देशित फिल्म ‘आर्टिकल 15’ भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 पर आधारित है। इस फिल्म के लिए अभिनेता आयुष्मान खुराना राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी जीत चुके हैं। महिलाओं के अधिकारों के हनन पर गहरी चोट करती फिल्म ‘पिंक’ भी समानता के अधिकार की पक्षधर है। अनिरुद्ध राय चौधरी की इस फिल्म में उन महिलाओं की बात की गई, जो शोषण का शिकार होती रहती हैं, पर अपने अधिकारों के लिए आवाज नहीं उठातीं। पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की स्थिति और अधिकारों की बात अलंकृता श्रीवास्तव की फिल्म ‘लिपिस्टक अंडर माय बुर्का’ में भी सच्चाई और ईमानदारी से की गई है। हिंदी सिनेमा ने हमेशा से ही समलैंगिक व्यक्तियों की अहमियत, समाज में उनकी स्वीकार्यता व संघर्षों को दिखाया है। आशय यह रहा कि समाज उन्हें स्वीकार न करे। दीपा मेहता की 'फायर' से लेकर 'मार्गरेटा विद ए स्ट्रा, मनोज वाजपेयी की 'अलीगढ़' जरूर जैसी फिल्मों में इस हक व हकीकत को बेबाकी से दर्शाया गया है।
      एक अपराधी को भी उन अधिकार से अलग नहीं किया जा सकता, जो एक आम आदमी को हासिल है। अपराधियों के जीवन पर 1957 में वी शांताराम ने 'दो आँखे बारह हाथ' के जरिए एक जेलर के 6 कैदियों को सुधारने की कोशिशें बताई थी। इसमें उनके अधिकारों की रक्षा के साथ 'पाप से घृणा करो पापी से नहीं' जैसे गांधीवादी विचार को भी शामिल किया गया था। बरसों बाद प्रकाश झा ने 'गंगाजल' बनाकर इसी बात को आगे बढ़ाया। अपराधियों को यदि सुरक्षा का अधिकार नहीं दिया जाए, तो हालात कितने खतरनाक हो सकते हैं, यही 'गंगाजल' में दिखाया गया था। यह फिल्म 1980 में बिहार की भागलपुर जेल में हुए 'आँखफोड़ कांड' पर आधारित है। एक और अहम अधिकार है 'धर्म की आजादी का अधिकार।' यह निहायत निजी मामला है। लेकिन, जब धर्मांधता चरम पर होती है, तो मानव अधिकारों की कोई परवाह नहीं करता। फिल्मों ने धर्म से जुड़े अधिकारों पर 1947 अर्थ, मम्मो, गर्म हवा, तमस और 'पिंजर' के जरिए उठाया गया है। अनुराग कश्यप की 'ब्लैक फ्राईडे' मुंबई बम धमाकों पर बनी, तो राहुल ढोलकिया की 'परजानिया' गोधरा कांड के दौरान एक पारसी परिवार की त्रासदी की सच्ची घटना पर है।  
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